रामचरित मानस दोहामाला (108 मनका)

रामचरित मानस दोहामाला (108 मनका)

संकलन-रमेश चौहान

रामचरित मानस दोहामाला (108 मनका)
रामचरित मानस दोहामाला (108 मनका)

रामचरितमानस विश्व की प्रसिद्ध कृति है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र जी की जीवनी होने के साथ-साथ एक मानवतावादी पुरुष का कर्म प्रधान चित्रण है। रामचरितमानस बाबा तुलसीदास की अमर कृति है जिसे केवल ना केवल भारत में अपितु पूरे विश्व में श्रद्धा के साथ पढ़ा जाता है। रामचरितमानस के पूर्व भगवान राम की कथा संस्कृत भाषा में वाल्मीकि कृत रामायण ग्रंथ में कही गई है। रामचरितमानस रामायण की तुलना में कहीं अधिक प्रचलित हुआ इसके पीछे विद्वानों का मत है कि यह सहज सुबोध सरल और लोक भाषा प्रधान है। मैं मानता हूं कि यदि यह केवल भाषा की सहायता से हैं ग्राह्य होता तो विश्व की अनेक भाषाओं में इनका अनुवाद नहीं किए जाते न हीं इस पर असंख्य शोध पत्र लिखे जाते । मैं मानता हूं की श्रीरामचरितमानस भाषा के साथ साथ कथ्य की प्रस्तुतीकरण के कारण जनमानस में प्रचलित हुआ है। इस ग्रंथ के नायक को परमपिता परमात्मा के रूप में स्वीकार करते हुए भी एक कर्म वादी यथार्थवादी और मानवतावादी के रूप में प्रस्तुत किया जाना ही इस ग्रंथ की विशेषता है। श्री रामचंद्र जी का चरित्र विश्व के किसी भी व्यक्ति के लिए अनुकरणीय है । एक पुत्र के रूप में, एक भाई के रूप में, एक मित्र के रूप में, एक पति के रूप में और यहां तक एक शत्रु के रूप में भी श्री राम एक आदर्श एवं मर्यादा के अनुकूल हैं। श्री रामचंद्र जी के चरित्र में कहीं भी अतिशयोक्ति रूप से चित्रण नहीं मिलता। श्री रामचंद्र जी के सारे चरित्र एक मानवीय देह के द्वारा किया जा सकता है । इसलिये श्रीराम का चरित्र अनुकरणीय है ।

गोस्वामी तुलसीदास-

श्री रामचरितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास आज ना केवल भारत के अपितु विश्व के जनमानस में रचे बसे हैं। तुलसीदास जी के संबंध में उनकी पत्नी रत्नावली के बारे में कहा जाता है कि एक बार जब तुलसीदास जी पत्नी वीरह से व्याकुल हुए तू रत्नावली उन्हें डांटते हुए ईश्वर के प्रति प्रेम करने को कहा इसके बाद तुलसीदास विरक्त होकर राम भक्ति में तल्लीन हो गए और हनुमान जी की आशीर्वाद से कई ग्रंथों की रचना की इन सभी ग्रंथों को जनमानस ने ना केवल स्वीकार किया अपितु इन ग्रंथों की पूजा भी की जो अनवरत आज भी जारी है चाहे वह हनुमान चालीसा हो चाहे हनुमान बाहुक हो चाहे वह रामाज्ञा हो चाहे वह रामचरितमानस हो सभी ग्रंथ अत्यंत पावन एवं मानव जीवन को सार्थक करने वाले हैं।

रामचरित मानस दोहामाला- राम चरित मानस के 108 मनका दोहे-

ऐसे तो संपूर्ण रामचरित मानस पठनीय एवं अनुकरणीय है । इस कर्म-ज्ञान सम्रद्र से कुछ बूँदे मोती के रूप में 108 मनका चुना गया है, इसके नियमित पाठ करने से संपूर्ण रामचरित मानस के पाठ करने का फल प्राप्‍त होगा-

बालकाण्‍ड –

संत सरल चित्र जगत हित, जानी सुभाउ सनेहु ।
बाल बाल विनय सुनि करी कृपा, राम चरण रति देहु ।।1।।

भलो भलाइहि पै लहइ, लहइ निचाइही नीचु ।
सुधा सराहिअ अमरता, गरल सराहिअ यही मीचु ।।2।।

जड़ चेतन जग जीव जत, सकल राममय जानि ।
बंधउॅ सबके पद कमल, सदा जोरि जुग पानि ।।4।।

भाग छोट अभिलाषु बड, करउॅ एक विश्वास ।
पैहहि सुख सुनी सुजन, सब खल करिहहिं उपहास ।।5।।

बिबुध बिप्र बुध ग्रह चरण, बंदी कहउॅ कर जोरि ।
होइ प्रसन्न पुरवहु सकल, मंजू मनोरथ मोरी ।।6।।

राम नाम मनिदीप धरूँ, जीह देहरी द्वार ।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ, जौ चाहसि उजियार ।।7।।

स्‍याम सुरभि पय बिसद अति, गुनद करहिं सब पान ।
गिरा ग्राम्‍य सिय-राम जस, गावहिं सुनहिं सुजान ।।8।।

ब्रह्म जो व्‍यापक बिरज अज, अकल अनीह अभेद ।
सो कि देह धरि होइ नर, जाहि न जानत बेद ।।9।।

प्रभु समरथ सर्बग्‍य सिव, सकल कला गुन धाम ।
जोग ग्‍यान बैराग्‍य निधि, प्रनत कलपतरू नाम ।।10।।

असुर मारि थापहिं सुरन्‍ह, राखहिं निज श्रुति सेतु ।
जग बिस्‍तारहिं बिसद जस, राम जन्‍म कर हेतु ।।11।।

जोग लगन ग्रह बार तिथि, सकल भए अनुकूल ।
चरू अरू अचर हर्षजुत, राम जनम सुखमूल ।।12।।

बिप्र धेनु सुर संत हित, लीन्‍ह मनुज अवतार ।
निज इच्‍छा निर्मित तनु, माया गुन गो पार ।।13।।

ब्‍यापक अकल अनीह अज, निर्गुन नाम न रूप ।
भगत हेतु नाना बिध, करत चरित्र अनूप ।।14।।

गौतम नारि श्राप बस, उपल देह धरि धीर ।
चरन कमल रज चाहती, कृपा करहुँ रघुबीर ।।15।।

राम लखनु दोउ बंधुबर, रूप सील बल धाम ।
मख राखेउ सबु साखि जनु, जिते असुर संग्राम ।।16।।

लताभवन तें प्रगट भे, तेहि अवसर दोउ भाइ ।
निकसे जनु जुग बिमल बिधु, जलद पटल बिलगाइ ।।17।।

मंत्र परम लघु जासु बस, बिधि हरि हर सुर सर्ब ।
महामत्‍त गजराज कहुँ, बस कर अंकुस खर्ब ।।18।।

राम बिलोके लोग सब, चित्र लिखे से देखि ।
चितई सीय कृपायतन, जानी बिकल बिसेषि ।।19।।

तहॉं राम रघुबंस मनि , सुनिअ महा महिपाल ।
भंजेउ चाप प्रयास बिनु, जिमि गज पंकज नाल ।।20।।

रामु सीय सोभा अवधि, सुकृत अवधि दोउ राज ।
जहँ तहँ पुरजन कहहिं अस, मिलि नर नारि समाज ।।21।।

मुदित अवधपति सकल सुत, बधुन्‍ह समेत निहारि ।
जनु पाए महिपाल मनि, कियन्‍ह सहित फल चारि ।।22।।

सुर प्रसून बरषहिं हरषि, करहिं अपछरा गान ।
चले अवधपति अवधपुर, मुदित बजाइ निसान ।।23।।

एहि सुख ते संत कोटि गुन, पावहिं मातु अनंदु ।
भइन्‍ह सहित बिआहिं घर, आए रघुकुलचंदु ।।24।।

मंगल मोद उछाह नित, जाहिं दिवस एहि भॉंति ।
उमगी अवध अनंद भरि, अधिक अधिक अधिकाति ।।25।।

अयोध्‍याकाण्‍ड-

श्री गुरू चरन सरोज रज, निज मनु मुकुर सुधारि ।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु, दो दायकु फल चारि ।।26।।

सब के उस अभिलाषु अस, कहहिं मनाइ महेसु ।
आप अछत जुबराज पद, रामहिं देउ नरेसु ।।27।।

राम राज अभिषेकु सुनि, हियँ हरषे नर पारि ।
लगे सुमंगल सजन सब, बिधि अनुकूल बिचारि ।।28।।

नामु मंथरा मंदमति, चेरि कैकइ केरि ।
अजस पेटारी ताहि करि, गई गिरा मति फेरि ।।29।।

काने खोरे कूबरे, कुटिल कुचाली जानि ।
तिय बिसेषि पुनि चेरि कहि, भरतमातु मुसुकानि ।।30।।

कवनें अवसर का भयउ, गयउॅा नारि बिस्‍वास ।
जोग सिद्धि फल समय जिमि, जतिहि अविद्या नास ।।31।।

होत प्रातु मुनिबेष धरि, जौं न रामु बन जाहिं ।
मोर मरनु राउर अजस, नृप समुझिअ मन माहिं ।।32।।

बरष चारिदस बिपिन बसि, करि पितु बचन प्रमान ।
आइ पाय पुनि देखिहउँ, मनु जनि करसि मलान ।।33।।

मातु पिता गुरू स्‍वामि सिख, सिर धरि करहिं सुभायँ ।
लहेउ लाभु तिन्‍ह जनम कर, नतरू जनमु जग जायँ ।।35।।

सपने होइ भिखारी नृप, रंकु नाकपति होइ ।
जागे लाभु न हानि कछु, तिमि प्रपंच जियँ जोइ ।।36।।

तब गनपति सिव सुमिरि, प्रभु नाइ सुरसरिहि माथ ।
सखा अनुज सिय सहित बन, गवनु कीन्‍ह रघुनाथ ।।37।।

स्‍यामल गौर किसोर बर, सुंदर सुषुमा ऐन ।
सरद सर्बरीनाथ मुखु, सरद सरोरूह नैन ।।38।।

एहि बिधि रघुकुल कमल रबि, मग लोगन्‍ह सुख देत ।
जाहिं चले देखत बिपिन, सिय सौमित्रि समेत ।।39।।

राम राम कहि राम कहि, राम राम कहि राम ।
तनु परिहरि रघुबर बिरहँ, राउ गयउ सुरधाम ।।40।।

भरतहि बिसरेउ पितु मरन, सुनत राम बन गौनु ।
हेतु अपनपउ जानि जियँ, थकित रहे धरि मौनु ।।41।।

सुनहु भरत भावी प्रबल, बिलखि कहेउ मुनिनाथ ।
हानि लाभु जीवनु मरनु, जसु अपजसु बिधि हाथ ।।42।।

अवसि चलिअ बन रामु जहँ, भरत मंत्रु भल कीन्‍ह ।

सोक सिंधु बूड़त सबहिं, तुम्‍ह अवलंबनु दीन्‍ह ।।43।।
अरथ न धरम न काम रूचि, गति न चहउँ निरबान ।

जनम जनम रति राम पद, यह बरदानु न आन ।।44।।
बरबस लिए उठाद उर, लाए कृपानिधान ।

भरत राम की मिलनि लखि, बिसरे सबहि अपान ।।45।।

सब के उर अंतर बसहु, जानहु भाउ कुभाउ ।
पुरजन जननी भरत हित, होइ सो कहिअ उपाउ ।।46।।

मुखिया मुखु सो चाहिए, खान पान कहुँ एक ।
पालइ पोषइ सकल अँग, तुलसी सहित बिबेक ।।47।।

नित पूजत प्रभु पॉंवरी, प्रीति न हृदयँ समाति ।
मागि मागि आयसु करत, राज काज बहु भॉंति ।।48।।

अरण्‍यकाण्‍ड-

कलिमल समन दमन मन, राम सुजस सुखमूल ।
सादर सुनहिं जे तिन्‍ह पर, राम रहहिं अनुकूल ।।49।।

सीता अनुज समेत प्रभु, नील जलद तनु स्‍याम ।
मम हियँ बसहु निरंतर, सगुनरूप श्रीराम ।।50।।

ईश्‍वर जीव भेद प्रभु, सकल कहौ समुझाइ ।
जातें होइ चरन रति, सोक मोह भ्रम जाइ ।।51।।

लछिमन अति लाघवँ सो, नाक कान बिनु किन्हि ।
ताके कर रावन कहँ, मनौं चुनौती दीन्हि ।।52।।

क्रोधवंत तब रावन, लीन्हिसि रथ बैठाइ ।
चला गगनपथ आतुर, भयँ रथ हॉंकि न जाइ ।।53।।

जेहि बिधि कपट कुरंग सँग, धाइ चले श्रीराम ।
सो छबि सीता राखि उर, रटति रहति हरिनाम ।।54।।

सीता हरन तात जनि, कहहु पिता सन जाह ।
लौं मैं राम त कुल सहित, कहिहि दसानन आइ ।।55।।

अबिरल भगति मागि बर, गीध गयउ हरिधाम ।
तेहि की क्रिया जथोचित, निज कर कीन्‍ही राम ।।56।।

लोभ के इच्‍छा दंभ बल, काम कें केवल नारि ।
क्रोध कें परूष बचन बल, मुनिबर कहहिं बिचारि ।।57।।

काम क्रोध लाभादि मद, प्रबल मोह कै धारि ।
तिन्‍हँ महँ अति दारून दुखद, मायारूपी नारि ।।58।।

किष्किन्‍धाकाण्‍ड-

तब हनुमंत उभय दिसि, की सब कथ सुनाइ ।
पावक साखी देइ करि, जोरी प्रीति दृढ़ाइ ।।59।।

राम चरन दृढ़ प्रीति करि, बालि कीन्‍ह तनु त्‍याग ।
सुमन माल जिमि कंठ ते, गिरत न जानइ नाग ।।60।।

भूमि जीव संकुल रहे, गए सरद रितु पाइ ।
सदगुर मिलें जाहिं जिमि, संसय भ्रम समुदाइ ।।61।।

निज इच्‍छॉं प्रभु अवतरइ, सुर महि गो द्विज लागि ।
सगुन उपासक संग तहँ, रहहिं मोच्‍छ सब त्‍यागि ।।62।।

भव भेषज रघुनाथ जसु, सुनहिं जे नर अरु नारि ।
तिन्‍ह कर सकल मनोरथ, सिद्ध करहिं त्रिसिरारि ।।63।।

सुंदरकाण्‍ड-

हनुमान तेहि परसा, कर पुनि कीन्‍ह प्रनाम ।
राम काजु कीन्‍हें बिना, मोहि कहॉं विश्राम ।।64।।

तात स्‍वर्ग अपबर्ग सुख, धरिअ तुला एक अंग ।
तुल न ताहि सकल मिलि, जो सुख लव सतसंग ।।65।।

रामायुध अंकित गृह, सोभा बरनि न जाह ।
नव तुलसिका बृंद तहँ, देखि हरष कपिराइ।।66।।

तब हनुमंत कही सब, राम कथा निज नाम ।
सुनत जुगल तन पुलक मन, मगन सुमिरि गुन ग्राम ।।67।।

कपि के बचन सप्रेम सुनि, उपजा मन बिस्‍वास ।
जाना मन क्रम बचन यह, कृपासिंधु कर दास ।।68।।

निसिचर निकर पतंग सम, रघुपति बान कृसानु ।
जननी हृदयँ धीर धरू, जरे निसाचर जानु ।।69।।

कपिहि बिलोकि दसानन, बिहसा कहि दुर्बाद ।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि, उपजा हृदयँ बिषाद ।।70।।

नाम पाहरू दिवस निसि, ध्‍यान तुम्‍हार कपाट ।
लोचन निज पद जंत्रित, जाहिं प्रान केहिं बाट ।।71।।

सचिव बैद गुर तीनि जौं, प्रिय बोलहिं भय आस ।
राज धर्म तन तीनि कर, होइ बेगिहीं नास ।।72।।

काम क्रोध मद लोभ सब, नाथ नरक के पंथ ।
सब परिहरि रघुबीरहि, भजहु भजहिं जेहि संत ।।73।।

श्रवन सुजसु सुनि आयउँ, प्रभु भंजन भव भीर ।
त्राहि त्राहि आरति हरन, सरन सुखद रघुबीर ।।74।।

काटेहिं पइ कदरी फरइ, कोटि जतन कोउ सींच ।
बिनय न मान खगेस सुनु, डाटेहिं पइ नव नीच ।।75।।

सकल सुमंगल दायकहिं, रघुनायक गुन गान ।
सादर सुनहिं ते तरहिं भव, सिंधु बिना जलजान ।।76।।

लंकाकाण्‍ड-

लव निमेष परमानु जुग, बरष कलप सर चंड ।
भजसि न मन तेहि राम को, कालु जासु कोदंड ।।77।।

श्री रघुबीर प्रताप ते, सिंधु तरे पाषान ।
ते मतिमंद जे राम तजि, भहिं जाइ प्रभु आन ।।78।।

बिस्‍वरूप रघुबंस मनि, करहु बचन बिस्‍वासु ।
लोक कल्‍पना बेद कर, अंग अंग प्रति जासु ।।79।।

भूमि न छॉंडत कपि चरन, देखत रिपु मद भाग ।
कोटि बिघ्‍न ते संत कर, मन जिमि नीति न त्‍याग ।।80।।

नानायुध सर चाप धर, जातुधान बल बीर ।
को‍ट कँगूरन्हि चढि़ गए, कोटि कोटि रनधीर ।।81।।

गिरिजा जासु नाम जपि, मुनि काटहिं भव पास ।
सो कि बंध तर आवइ, ब्‍यापक बिस्‍व निवास ।।82।।

दुहु दिसि जय जयकार करि, निज निज जोरि जानि ।
भिरे बीर इत रामहिं, उत रावनहि बखानि ।।83।।

तानेउ चाप श्रवन लगि, छॉंड़े बिसिख कराल ।
राम मारगन गन चले, लहलहात जनु ब्‍याल ।।84।।

खैंचि सरासन श्रवन लगि, छाड़े सर एकतीस ।
रघुनायक सायक चले, मानहुँ काल फनीस ।।85।।

अनुज जानकी सहित प्रभु, कुसल कोसलाधीस ।
सोभा देखि हरषि मन, अस्‍तुति कर सुर ईस ।।86 ।।

समर बिजस रघुबीर के, चरित जे सुनहिं सुजान ।
बिजय बिबेक बिभूति नित, तिन्‍हहि देहिं भगवान ।।87।।

उत्‍तरकाण्‍ड-

हा एक दिन अवधि कर, अति आतुर पुर लोग ।
जहँ तहँ सोचहिं नारि नर, कृस तन राम बियोग ।।88।।

आवत देखि लोग सब, कृपासिंधु भगवान ।
नगर निकट प्रभु प्रेरेउ, उतरेउ भूमि बिमान ।।89।।

वह सोभा समाज सुख, कहत न बनइ खगेस ।
बरनहिं सारद सेष श्रुति, सो रस जान महेस ।।90।।

बार बार बर मागउँ, हरषि देहु श्रीरंग ।
पद सरोज अनपायनी, भगति सदा सतसंग ।।91।।

निज उर माल बसन मनि, बालितनय पहिराइ ।
बिदा कीन्हि भगवान तब, बहु प्रकार समुझाइ ।।92।।

राम राज नभगेस सुनु, सचाराचर जग माहिं ।
काल कर्म सुभाव गुन, कृत दुख काहुहि नाहिं ।।93।।

बिधु महि पूर मयूखन्हि, रबि तप जेतनेहि काज ।
मागे बारिद देहि जल, रामचंद्र के राज ।।94।।

ग्‍यान गिरा गोतीत अज, माया मन गुन पार ।
सोइ सच्चिदानंद घन, कर नर चरित उदार ।।95।।

पर द्रोही पर दार रत, पर धन पर अपबाद ।
ते नर पॉंवर पापमय, देह धरें मनुजाद ।।96।।

औरउ एक गुपुत मत, सबहि कहउँ कर जोरि ।
संकर भजन बिना नर, भगति न पावइ मोरि ।।97।।

नाथ एक बर मागऊँ, राम कृपा करि देहु ।
जन्‍म जन्‍म प्रभु पद कमल, कबहुँ घटै जनि नेहु ।।98।।

बिरति ग्‍यान बिग्‍यान दृढ़, राम चरन अति नेह ।
बायस तन रघुपति भगति, मोहि परम संदेह ।।99।।

बिनु सतसंग न हरि कथा, तेहि बिनु मोह न भाग ।
मोह गऍं बिनु राम पद, होइ न दृढ़ अनुराग ।।100।।

श्रोता सुमति सुसील सुचि, कथा रसिक हरि दास ।
पाइ उमा अति गोप्‍यमति, सज्‍जन करहिं प्रकास ।।101।।

ब्‍यापि रहेउ संसार महुँ, माया कटक प्रचंड ।
सेनापति कामादि भट, दंभ कपट पाषंड ।।102।।

रामचंद्र के भजन बिनु, जो चहपद निर्बान ।
ग्‍यानवंत अपि सो नर, पसु बिनु पूँछ बिषान ।।103।।

बिनु बिस्‍वास भगति नहिं, तेहि बिनुद्रवहिं न रामु ।
राम कृपा बिनु सपनेहुँ, जीव न लह बिश्रामु ।।104।।

कलिजुग सम जुग आन नहिं, जौं नर कर बिस्‍वास ।
गाइ राम गुन गन बिमल, भव तर बिनहिं प्रयास ।।105।।

कहत कठिन समुझत कठिन, साधत कठिन बिबेक ।
होइ घुनाच्‍छर न्‍याय जौं, पुनि प्रत्‍यूह अनेक ।।106।।

बारि मथे घृत होइ बरू, सिकता ते बरू तेल ।
बिनु हरि भजन न भव तरिअ, यह सिद्धांत अपेल ।।107।।

मो सम दीन न दीन हित, तुम्‍ह समान रघुबीर ।
अस बिचारी रघुबंस मनि, हरहु बिषम भव भीर ।।108।।

-संकलन-रमेश चौहान

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