समसमायिक कुण्डलियॉं
रमेश चौहान
रमेश चौहान की कुण्डलियॉं-13 समसमायिक कुण्डलियॉं
मंजिल-
मंजिल छूना दूर कब, चल चलिए उस राह ।
काम कठिन कैसे भला, जब करने की चाह ।
जब करने की चाह, गहन कंटक पथ जावे ।
करे कौन परवाह, कर्मगति मनवा भावे।।
जीवन में कर कर्म, बनो सब बिधि तुम काबिल ।
कह ‘रमेश‘ समझाय, कर्म पहुंचाए मंजिल ।
खुदा क्यों अब तक पत्थर-
पत्थर सा इंसान क्यों, पत्थर सा भगवान।
खूब तमाशा क्यों करे, धरती पर षैतान ।।
धरती पर षैतान, खुदा खुद को क्यों माने ।
करते कत्लेआम, यहां पर छाती ताने ।।
रोये खूब ‘रमेश‘, देख कर ऐसा मंजर ।
पूछे एक सवाल, खुदा क्यों अब तक पत्थर ।।
पिता ना कमतर माँ से-
माँ से कमतर है कहां, देख पिता का प्यार ।
लालन पालन साथ में, हमसे करे दुलार ।
हमसे करे दुलार, पीर अपने शिश मढ़ते ।
मातु गढ़े है देह, पिता भी मन को गढ़ते ।।
बनकर मेरे ढाल, रखे हैं मुझको जाँ से ।
पूर्ण करे हर चाह, पिता ना कमतर माँ से ।।
आंखों की भाषा-
आँखों की भाषा समझ, आंखें खोईं होष ।
चंचल आखें मौन हो, झूम रही मदहोष ।
झूम रही मदहोष, मूंद कर अपनी पलकें ।
स्वर्ग परी वह एक, समेटे अपनी अलकें ।।
बने कली जब फूल, खिली मन में अभिलाषा ।
मन में भरे उमंग, समझ आंखों की भाषा ।।
पीर का तौल नहीं है-
तौल नही है पीर का, नहीं किलो अरू ग्राम ।
प्रेमी माने पीर को, जीवन का स्वर-ग्राम ।।
जीवन का स्वर-ग्राम, प्रीत की यह तो भगनी ।
अतिसय प्रिय है प्रीत, कृष्ण की जो है सजनी ।।
प्रीत त्याग का नाम, गोपियां कौल कहीं है ।।
प्राण प्रिया है पीऱ, पीर का तौल नहीं है ।
उपेक्षित रहे न बेटा-
बेटा बेटी एक है, इसमें नहीं सवाल ।
पढ़ी लिखीं हर बेटियां, करती नित्य कमाल ।।
करती नित्य कमाल, खुषी देतीं हैं सबको ।
बेटा क्यों कमजोर, लगे अब दिखने हमको ।।
चिंता करे ‘रमेश’, रहे ना क्यों दुहलेटा ।
जरा दीजिये ध्यान, उपेक्षित रहे न बेटा ।।
वैचारिक परतंत्र-
वर्षो से परतंत्र है, भारतीय परिवेश ।
मुगलों ने कुचला कभी, देकर भारी क्लेश ।।
देकर भारी क्लेश, कभी आंग्लों ने लूटा ।
देश हुआ आजाद, दमन फिर भी ना छूटा ।।
संस्कृति अरु संस्कार, सुप्त है अपकर्षो से ।
वैचारिक परतंत्र, पड़े हैं हम वर्षो से ।।
कठिनाई सर्वत्र है-
कठिनाई सर्वत्र है, चलें किसी भी राह ।
बंधन सारे तोड़िये, मन में भरकर चाह ।।
मन में भरकर चाह, बढ़े मंजिल को पाने ।
नही कठिन वह लक्ष्य, इसे निष्चित ही जाने ।।
सुनलो कहे रमेष, हौसला है चिकनाई ।
फौलादी संकल्प, तोड़ लेते कठिनाई ।।
रक्तों का प्यासा हुआ-
रक्तों का प्यासा हुआ, भेड़ों का वह भीड़ ।
अफवाहों में जल रहे, निर्दोशों का नीड़ ।।
निर्दोशों का नीड़, बचे चिंता है किसको ।
जनता बकरी-भेड़, आज लगते हैं जिसको ।
खरी-खरी इक बात, कहें उन अनुशक्तों का ।
फँसे लोभ के फाँस, हुये प्यासे रक्तों का।
भौतिक युग-
भौतिक युग विस्तार में, नातों का दुष्काल ।
माँ सुत के पथ जोहती, हुई आज कंकाल ।।
हुई आज कंकाल, हमारी संस्कृति प्यारी ।
अर्थ तंत्र का अर्थ, हुये जब सब पर भारी ।।
सुन लो कहे ‘रमेश‘, सोच यह केवल पौतिक ।
तोड़ रहे परिवार, फाँस बनकर युग भौतिक ।।
(पौतिक-सड़ांध युक्त घाव)
देश है सबसे पहले-
पहले मेरा धर्म है, पाछे मेरा देश ।
कहते ऐसे लोग जो, रोप रहे विद्वेश ।
रोप रहे विद्वेश, देश को करने खण्डित ।
राजनीति के नाम, किये अपने को मण्डित ।।
सुनलो कहे ‘रमेश‘, चलो तुम अहले गहले ।
राजनीति को छोड़, देश है सबसे पहले ।।
बनें हर कोई दर्पण-
दर्पण सुनता देखता, जग का केवल सत्य ।
आँख-कान से वह रहित, परखे है अमरत्व ।।
परखे है अमरत्व, सत्य को जो है माने ।
सत्य रूप भगवान, सत्य को ही जो जाने ।।
सुनलो कहे ‘रमेश‘, करें सच को सच अर्पण ।
आँख-कान मन खोल, बनें हर कोई दर्पण ।।
पहनावा ही बोलता-
पहनावा ही बोलता, लोगों का व्यक्तित्व ।
वस्त्रों के हर तंतु में, है वैचारिक स्वरितत्व ।।
है वैचारिक स्वरितत्व, भेद मन का जो खोले ।
नग्न रहे जब सोच, देह का लज्जा बोले ।
फैशन का यह फेर, नग्नता का है लावा ।
आजादी के नाम, युवा पहने जो पहनावा ।।
-रमेश चौहान