रंगों से सरोबर कविताएं
– रवीन्द्र रतन
रंगों से सरोबर कविताएं विविध संदर्भो से कुछ कविताएं हैं, जिनमें देशभक्ति का रंग, शासन से पीड़ीत जनता के दुख, संस्मरण और होली का रंग भी शामिल है ।
1.तिमिर तो अब मिटना ही चाहिए
नव निर्माण का नया सवेरा
तो अब होना ही चाहिए ।
दुखद-दु:स्वप्न का घोर तिमिर
तो अब मिटना ही चाहिए ।।
बहुत ढोया है युवाओं ने
बेरोजगारी के श्राप को।
मिलेगा नूतन सवेरा अब
सौंपकर आशा-किरण सबको।
हमें सांसारिक पीड़ाओं से मुक्ति मिलनी ही चाहिए ।
दुखद-दु:स्वप्न का घोर तिमिर
तो अब मिटना ही चाहिए ।।
सफलता की राह में कांटे
अनेक विषैले छा गया ।
पाप का घड़ा भर जाने से
अब स्वर्णिम सवेरा आ गया।
प्रगति का पथ सदैव से भ्रम
रहित तो होना ही चाहिए ।
दुखद-दु:स्वप्न का घोर तिमिर
तो अब मिटना ही चाहिए ।।
प्रकाश के विजय रथ पर तिमिर
है करता असफल आक्रमण ।
दुर्भावनाओं को सुधारने
त्यागेंगे अनैतिक आचरण ।
बढ़ती विषमता से जग को तो
अब उबरना ही चाहिए ।
दुखद- दु:स्वप्न का घोर तिमिर
तो अब मिटना ही चाहिए ।।
प्रगति -पथ को प्रशस्त कर सभी
चल पड़े क्रूर-तम से जूझने ।
अज्ञानतम मुक्त हो कर चले
अब हर समस्या को बुझने ।
भ्रष्टाचार मुक्ति अभियान तो
आज चलना ही चाहिए ।
दुखद-दु:स्वप्न का घोर तिमिर
तो अब मिटना ही चाहिए ।।
भगवान भुवन भास्कर अब
उग रहे ले नए युग की किरण।
अंधेरा भागने को विवश
जग को दे स्वस्थ वातावरण।
ज्ञान का मशाल लेकर अब
हमको समझना ही चाहिए ।
दुखद-दु:स्वप्न का घोर तिमिर
तो अब मिटना ही चाहिए ।।
2.अगणित दीप जलाएं हम
जाति-धर्म से ऊपर उठकर ,
जीवन भर मुस्काए हम ।
बन कर दीपशिखा मिट्टी का
अगणित दीप जलाएं हम ।
डिग्री लेकर रिक्शा खींचे ,
आज के युवा बाजारों में ।
अनपढ़ नेता दौड़ा रहा है ,
महंगी- महंगी कारों में ।
सहज रह करके स्वयं सभी
को बारंबार जगाएं हम ।
बनकर दीपशिखा मिट्टी का
अगणित दीप जलाएं हम ।
वर्षों पहले मिली आजादी,
आज गुलामी का बन्धन है।
खाने के सामानों से भी ,
आज तो महंगा ईंधन है।
ज्ञान और विज्ञान हो ऐसा कि
प्रगति पर पांव बढ़ाएँ हम ।
बन कर दीपशिखा मिट्टी का
अगणित दीप जलाएं हम।।
नित्य प्रति है कोख में अब भी
मारी जाती क्यों बेटियां ?
कोई न रोए इस भूमि पर
रहे सुरक्षित बहू – बेटियां।
सबका साथ, सबका विकास
करते कदम बढ़ाए हम ।
बन कर दीपशिखा मिट्टी का
अगणित दीप जलाएं हम ।।
ईर्ष्या द्वेष का दमन यहां हो
धरती ऊर्वर हो हँस -हँस कर।
तिमिर मिटाने जो भारत में
दीप जलाएं हम बढ़ चढ़ कर।
एक राष्ट्र,हो एक चेतना मानव
विकास में जुट जाएँ हम ।
बन कर दीपशिखा मिट्टी का
अगणित दीप जलाएं हम ।।
3.सुभाष चंद्र बोस
भारत की रक्षा में जिसने ,
सब कुछ ही अपना वार दिया।
आजादी के उस दीवाने ,
को सबने अपना प्यार दिया।
आज जन्मदिन है सुभाष का
जिसकी मृत्यु का पता नहीं ।
पढ़ लिख कर भी जो राष्ट्रहित
आई एस पद पर रहा नही ।
तुम मुझे खून दो,मैं अपने
भारत को आजाद करूंगा ।
देशवासियों स्वराज्य भीख
में नहीं उससे लड़क कर लूंगा ।
राष्ट्र हित मांगा सुभाष ने ,
रक्त की बूंदे, देनी होगी ।
बदले में अपने राष्ट्र की
आजादी भी लेनी होगी ।
अपने भारत के खातिर तो
युवा सभी यहाँ तैयार थे ।
स्वर्ग की गुलामी से नरक
के स्वामित्व को तैयार थे ।
बहुत जी चुके अपने खातिर
एक दिन तो मरना ही होगा ।
कैसा होगा भाग्य मेरा ?
जब राष्ट्र हित मरना होगा ।
मातृभूमि के लिए अब तो
निज सर्वस्व चढ़ाना होगा ।
अंग्रेज़ शेर के पंजों से
देश छीन कर लाना होगा।
4. स्वर साम्राज्ञी लता जी
मृत्यु ने वरण किया लता का
संगीत-सुरभि का हुआ क्षरण।
खो गई है स्वर की कोकिला
चली वीणापाणि की शरण।
सुनी कर संगीत-संसार को
चली है करने स्वर्ग का वरण।
संगीत के उत्तुंग शिखर का ,
यमराज ने कर लिया हरण ।
संगीत – साधिका से विहीन
हुवा और मनाया शोक दिवस।
सुरकी मालिका का अंत हुआ
अरुणोदय से घिर गया तमस।
मानो गंगा- धार रूक गई
लता जी अब हो गई अमर।
संगीत -साम्राज्य की अटल
मालिका का हो गया शांत सफर
5. रंग गुलाल संग होली
कादो -किचर से रंग पुराना,
होली का है संदेश नहीं।
पीकर शराब, शबाव चढ़ना,
होली का है उद्देश्य नहीं ।
जीवन प्रेम -प्यार की मंजिल,
होली का त्यौहार सिखाता।
आपस का मतभेद भुला कर,
होली सबको गले लगाता ।
उत्साह – उमंग से भरा यह
फागुनी त्यौहार है आता।
आ होलिका नफरत जलाकर,
शान्ति – सौहार्द फैलाता ।
भाभी निज कोमल हाथों से
देवर को रंग लगाती है ।
मन के पावन भावों का ही
तो दिग -दर्शन करवाती है।
जीजा की पिचकारी का रंग
साली की चोली संग जाता।
सारे रिश्ते – नाते मिलके ,
बस प्रेम रंग में रंग जाता ।
ईर्ष्या- द्वेष को मिटा कर के,
होली का त्यौहार मना लो।
कलुष भेद तम हर प्रकाश से
जग मग सारा समाज बना लो।
फागुन माह में ही सुनाई,
देता कोयल की भी बोली ।
आती है नव-वर्ष मनाने ,
ले रंग गुलाल संग होली ।
6.शासन की कब बारी होगी
कब तक सब चुपचाप सहोगे,
कब पीड़ा चिनगारी होगी ?
सदियों से शोषित समाज है
शासन की कब बारी होगी ?
तन की चमड़ी काला होने से
मन काला कभी न होता ।
जब तक चिंतन शुद्ध न होगा,
तब तक जीवन सफल होता।
कब तक बन कर मूक रहोगे,
कब तक यह लाचारी होगी ?
सदियों से शोषित समाज है,
शासन की कब बारी होगी ?
निज में निहित बुरे कर्मों पर
विजय प्राप्त जो कर पायेगा ।
फौलादी ताकत हो जिसमें,
विजय- पताका वही फहराएगा ।
कब तक रहोगे शिथिल तुम ,
कब खुशियों की फुलवारी होगी
सदियों से शोषित समाज है ,
शासन की कब बारी होगी ?
करो वक्त को बर्बाद न यूं,
सोचो अम्बर भू पर लाएं कैसे ?
कोलाहल के इस हलचल में,
शान्ति सुरभि फैलाएं कैसे ?
कब तक सच से दूर रहोगे ,
कब तक नूतन सृष्टि होगी ?
सदियों से शोषित समाज है,
शासन की कब बारी होगी ?
सारे जग का तिमिर मिटा कर ,
नयी ज्योत्सना लाएंगे हम?
त्याग- तपस्या अब बेमानी ,
श्रम से उन्नति लाएंगे हम?
कब तक हक से दूर रहोगे,
कब तक दुख में जनता होगी?
सदियों से शोषित समाज है ,
शासन की कब बारी होगी ?
-रवींद्रकुमार रतन,
सेनानीसदन
म.न.30 सुभाषनगर,
हाजीपुर 844101
बिहार