खण्ड़ काव्य रासपंचाध्यायी रासलीला (हिन्दी में)
अध्याय-1 रासलीला का आरम्भ
-रमेश चौहान
खण्ड़ काव्य रास पंचाध्यायी अध्याय-1
अध्याय-1
//स्तुति//
प्रथम पूज्य गणराज प्रभु, करुॅं वंदन कर जोर ।
सकल विघ्न का नाश कर, कीजे बुद्धि सजोर ।।
हे माॅं अम्बे शारदे, वंदन है करबद्ध ।
रास लिखन की कामना, दीजे मोहे शब्द ।।
पंचाध्यायी रास की, करना चाहुॅं बखान ।
माता मूढ “रमेश” मैं, तुम बिन मिले न ज्ञान ।।
प्रेम पयोधी कृष्णवर, हे प्रभु सहज उदार ।
शक्ति दीजिए प्रभु मुझे, यश गा सकूॅं तुहार ।।
रास किए व्रज नार सह, महारास के नाम ।
व्रजनंदन उस रास का, किस विधि होय बखान ।।
शब्द भाव उर दीजिए, हे प्रभु कृपा निधान ।
भाव विहिन मैं मूढ़ मति, तोहे भार सुजान ।।
व्रज की सारी गोपियां, सबको लाख प्रणाम ।
जिनकी लीला रास यह, व्रज नंदन के नाम ।।
रासलीला का आरम्भ
//दोहा//
हे माता कात्यायनी, जगत स्वामिनी एक ।
श्याम सावरे कृष्ण ही, मेरो पति हो नेक ।।
स्तुति करती गोपियां, माँग रहीं वरदान ।
कृष्ण हमारे नाथ हो, माता रखियो मान ।।
//चौपाई//
मार्गशीर्ष वह पुनित सुहावन । यमुना तट पर अति मनभावन
गोकुल व्रज के कुमारियाँ सब । उपासना व्रत करती थीं तब
बाल रूप देवी प्रतिमा गढ़ । पूजा करती मन इच्छा पढ़
भाँति भाँति नैवेद्य चढ़ावे । धूप-दीप आरती सजावे
इसी भाँति नित पूजा करती । श्याम रूप निज मानस भरती
एक दिवस पूजा अर्चन कर । अंगवस्त्र सब यमुना तट धर
वस्त्र विहिन जल क्रीड़ा करती । निरख परस्पर आहें भरती
तभी पधारे श्याम बिहारी । जिन पर सब जातीं बलिहारी
तट के सारे चीर समेटे । कदम डाल पर जाये बैठे
किये हास-परिहास अनेका । उनके पावन प्रेम समेखा
पुनित प्रेम को देख कर, बोले नटखट श्याम ।
पूरन होगी कामना, पूर्ण शरद की शाम ।।1।।
विविध सुमन जब धरती गमके । नाना खग जब बगिया चहके
फूले काशी शीत सफेदा । निर्मल मन देह नहीं स्वेदा
श्याम मनोहर अवसर जाना । सफल वचन करने को ठाना
पुंजमयी हो शरद निशा सब । हुये एक ही निशा रूप तब
चंद्रदेव तुरत चली आये । शीत पुंज तब तहँ बरसाये
चंद्रदेव प्रियवर प्रियतम जहँ । प्रियसी प्राची दिशा बनी तहँ
ज्यों पति बहु दिन में घर आये । साथ पत्नि को बहु हरशाये
श्वेत पुंज से चंद्र सजाये । उदित चंद्र प्राची मन भाये
प्राची के मुखमंडल चहके । जैसे रोली-केसर गमके
अनुपम प्राची प्राची-भूपा । सकल चराचर हर्षित अनुपा
प्रखर सूर्य से जो दिवस, था अति विकल उदास ।
देख दिशा अरू चंद्र को, भरे हृदय उल्लास ।।2।।
हिमकर मण्डल खण्डित नाहीं । पूरनमासी दिवस समाहीं
चंद्र लालिमा दिखते कैसे । नूतन केसर दिखते जैसे
शशि मुख शोभा रमा समाना । पुंज पीयूष सम कानन जाना
रस उद्दीपन के कारक सब । प्रकट किये रस रसादि पति तब
अधर वेणु को धारण करके । कामबीज क्लीं सुर में भरके
मधुर तान जब श्याम सुनाये । सुनत गोपियां सुध बिसराये
//गीतिका छंद//
गोपियाँ थी पूर्व से ही, श्याम के मन पाश में ।
तान सुन कर अति विवश हैं, आज अति उल्लास में ।।
लोक मर्यादा छुटे अब, श्याम पति की चाह में ।
दौड़ बेसुध हो चलीं जब, श्याम दिखते राह में ।।
केश गोता खा रहे हैं, दौड़ने के वेग से ।
चीर अँग के उड़ रहे है, देह के उद्वेग से ।।
पैर से पाजेब टूटे, फूल टूटे कान से ।
अति विकल है गोपियाँ सब, श्याम की इस तान से ।।
दूध दुहना कोय छोड़े, कोय चौका छोड़ के ।
खौलता पय कोय छोड़े, कोय भोजन छोड़ के ।।
शिशु पिलाना कोय छोड़े, कोय पति को छोड़ के ।
स्नान करना कोय छोड़े, कोय उबटन छोड़ के ।
आँख अंजन कोय छोड़े, कोय दर्पण छोड़ के ।
वस्त्र धारण कोय छोड़े, कोय सजना छोड़ के ।।
ना रूके रोके किसी के, चल पड़ीं बाधा तोड़ के ।
वेणु धुन सुन गोपियाँ सब, जगत से मुँह मोड़ के ।।
विश्व मोहना कृष्ण से, लिये मिलन की चाह ।
सकल गोपियाँ हो विहल, निकल पड़ी उस राह ।।3।।
बंधु पिता अरु गोपन स्वामी । पथ रोकन चाहे जगकामी
तोड़-ताड़ के बंधन बाधा । चली गोपियाँ प्रेम अगाधा
जा न सकी कुछ ब्रज के नारी । बंध गई जो चार दिवारी
नयन मूँद अरु तन्मय होकर । देखन लागी लीला चोखर
रूप माधुरी श्याम बिहारी । ध्यान करन लागी बेचारी
त्रीव वेदना श्याम विरह की । टूटे बंधन हृदय गिरह की
विरह व्यथा की अगणित ज्वाला । भस्म किये मन की हाला
दोष बचे ना अंतःकरण जब । ध्यानहि प्रगटे प्रियतम प्रिय तब
मन ही मन आलिंगन किन्हा । परम शांति मनमोहन दीन्हा
परम शांति हिय आच्छादित जब । सकल पुण्य स्पंदन करती तब
ज्यों ही आलिंगन किये, परमात्मा श्री श्याम ।
पाप-पुण्य मय देह को, छोड़ दिये इह धाम ।।4।।
सकल गोपियाँ श्याम कृष्ण को । ब्रजनंदन उस ग्वाल कृष्ण को
ब्रह्म रूप में कभू न जाने । केवल प्रियवर प्रियतम माने
मुक्त हुये जग बंधन से सब । नाता जोड़े वे उनसे जब
किसी भाव से जोड़े नाता । सकल वृत्ति पावन हो जाता
रति भर भी कुछ शंका नाहीं । प्रिय मोहन जब सम्मुख आहीं
कोई भी नाता उनसे रख । अंतःकरण केवल प्रभु को चख
चाहे नाता काम-क्रोध का । चाहे होवे प्रीत-बोध का
डर से चाहे बैरी मानो । मित्र-सखा या प्रियवर जानो
किसी भाव से नित वृत्ती को । जोड़ रखे प्रभु पद चित्ती को
कृष्ण भाव अनुरूप ही होकर । मोह-मोक्ष को देते चोखर
गुणी भाव से हैं रहित, परम कृष्ण का रूप ।
साक्ष्य बोध से हैं रहित, सकल सृष्टि का भूप ।।5।।
निकट देख कर ब्रजबालाओं को । पुनित प्रेम की मणिमालाओं को
वक्तापति व्रजनंदन बोले । प्रेम-सुधा की गठरी खोले
अभिनंदन है सकल गोपियों का । अभिनंदन है पुनित हियों का
करूँ क्या जो तुम सबको भाये । कहो कहो किस कारण आये
मंगल है ना नगर तुम्हारे । छोड़े किस कारण निज द्वारे
हेतु कहो जिस कारण आये । निशा भयावह तुम्हें न सताये
यहाँ घूमते रहते विषधर । जंतु भयानक कानन पथ पर
जाओ-जाओ वापस जाओ । अपने घर में सुख को पाओ
उचित नहीं यूँ नार अकेली । वापस जाओ हे अलबेली
ढूंढ रहे होंगे मात-पिता । दुसह विकल होंगे पति दुखिता
फिर जाओ अब नार सब, कहे मनोहर श्याम ।
घर की शोभा नार है, कानन में क्या काम ।।6।।
चन्द्र-रश्मि की सुंदर आभा । रंग-बिरंगे सुमन सुसाभा
कलकल यमुना नीर तरंगे । चुमत पवन ज्यों शलभ-पतंगे
(सुसाभा- सुंदर आभा)
मंद सुवासित है पुरवाही । झूम-झूम नाचत बिरवाही
देख चुके यह दृश्य सुहावन । फिर जाओ अब रहो न कानन
(बिरवाही-जहाँ बिरवा या पेड़ हो)
जाओ-जाओ वापस जाओ । व्यर्थ समय ना यहाँ बिताओ
नार सभी हो सती कुलीना । पति सेवा में सकल प्रवीणा
नौनिहाल सुत-सुता तुम्हारे । अति व्याकुल होंगे बेचारे
जाओ गोरसपान कराओ । उनको अब ज्यादा न रूलाओ
रँभा रहे होंगे गौ-बछड़े । यहाँ पड़े हो तुम क्यों पचड़े
जाओ-जाओं गौंएँ दुहना । उन्हें पड़े ना अब दुख सहना
खग-मृग जड़ चेतन सकल, करते मुझसे प्रेम ।
तुम सब का अनुराग यह, तनिक न अनुचित नेम ।।7।।
किन्तु धर्म है परम तुम्हारी । सदा रहो तुम पति अनुहारी
सुयश-कीर्ति वह नारी पाते । जो केवल निज पति को ध्याते
बुरा-भला चाहे जैसे हो । ऐसे-वैसे या कैसे हो
निज पति सुर तुल्य कहावत है । नारी को वह पति भावत है
जो नारी सेवत है निज पति । वही कहावत है नारी सति
पर नर सेवा पाप कहावय । नरक ढौर ना फिर वह पावय
पालन-पोषण संतानों का । अवसर जानों वरदानों का
महिला घर की आधारशिला । रहो न प्यारी अब तुम दुदिला
(दुदिला-असमंजस की स्थिति)
जाओ-जाओ वापस जाओ । यहाँ ठहर अपजस ना पाओ
बारबार कहते बनवारी । वापस जाओ नारी प्यारी
समक्ष दर्शन से अधिक, फलदायी है ध्यान ।
भजन मनन गुणगान को, सफल दरस तू मान ।।8।।
कहे उत्तरानंदन प्रति शुक । कहे न जाये गोपियन दुख
सुनत कृष्ण के वचन कठोरा । खिन्न हुये अति दुख ना थोरा
गोता खाती चिंता सागर । दुखी सभी है दुख से आगर
मुँह से कुछु भी बोल न फूँटे । प्रीत घनेरी तनिक न टूटे
चले श्वास अब लंबी गहरी । ज्यों सागर के लहरा-लहरी
अधर टमाटर पिचक गये सब । मुखमण्डल भी लटक गये अब
पद नख से धरती नोच रही । नयन नीर को ना पोछ रही
काजल घुलते बहते द्वारे । भिंग रही है छतियन सारे
छोड़ चुकी थी दुनियादारी । कृष्ण प्रीत में सब मतवारी
शूल वचन बोले बनवारी । समझ न पाये गोपन सारी
धीरज धारण मन धरे, ग्वालन लखे चकोर ।
प्रणय कोप से कुपित सब, करते विनय कठोर ।।9।।
घट-घट व्यापी श्याम साँवरे । निष्ठुर बोल न बोल बाँवरे
छोड चुके हम जग से नाता । कृष्ण प्रीत बस हमको भाता
तनिक नहीं कुछु इसमें शंका । आप हठीले अरु हो बंका
आप स्वतंत्र सभी जग जाना । जानत ही होते अनजाना
पर हे आदि पुरुष नारायण । भगतन वत्सल नाम सुहावन
भगतन को अपनाने वाले । अति कठोर पर भोलेभाले
त्याग करो ना नाथ हमारे । तुमही हो प्रभु प्राण अधारे
नहीं हमारा जग से नाता । आपहिं हो प्रभु भाग्य विधाता
हे प्यारे हे श्याम मनोहर । बाँह पकड़ो अब अपने कर
सब धर्मो के ज्ञाता स्वामी । घट-घट वासी अंतरयामी
सत्य वचन अरु कथन तुम्हारे । पति सेवा ही लक्ष्य हमारे
आत्म देह के तुम पति प्यारे । नशवर तन के वे सब सारे
आत्म देह के प्राण पति, आपहिं धर्म हमार ।
तुहरी सेवा धर्म अब, तुहरे ही अनुसार ।।10।।
हर प्राणी के घट-घट वासी । हो आपहिं आत्मा अविनाशी
आपहिं परम प्रियतम हमारे । लौकिक पति नश्वर हैं सारे
तुहरे प्रतिपालित अभिलाषा । बहुत काल से मन की आशा
मन में बलखा रही लता सम । छेदन करो न इसमें प्रियतम
हे मनमोहन प्राण हमारे । करुणाकर जरा विचारे
व्रज में अब तक चित्त हमारे । कामकाज में रत थे सारे
लूट लिये तुम बिन यत्न किए । तुम बिन अब हम कैसे जीए
अब तो मति-गति भई निराली । तुहरे बिन तन मन से खाली
तज कर प्रियतम चरण तुम्हारे । तनिक न उठते पैर हमारे
तज कर हम व्रज कैसे जायें । तुमको हम कैसे बिसरायें
प्रेम मिलन की आग से, धधक रहा यह देह ।
प्रेम अधर रसधार से, तृप्त करें प्रभु नेह ।।11।।
पूर्ण हो न यदि इच्छा मन की । कारज क्या है फिर इस तन की
अधम देह को भस्म करेंगी । खुद को तुहरे चरण धरेंगी
काननचारी के तुम प्यारे । प्रिय भक्तों के तुम रखवारे
भक्तन हिय ही मंदिर सुंदर । तुम तो रहते उसके अंदर
जो हो तुम इनके मधिमाती । रमा न भी नित सेवा पाती
रमा पूज्य वह दुर्लभ पदरज । जब से हुआ हमारा अधरज
(मधिमाती-मध्य में रहने वाला, अधरज-होंठो की लाली)
तब से प्रियतम आप एक हो । हमरे तो सर्वस्व नेक हो
नहिं कोई अब प्रियजन प्यारे । केवल केवल आप हमारे
जिस पदरज की महिमा भारी । तन मन के जो है दुखहारी
वहि पद आश्रय एक हमारे । कृपा करो अब प्रियतम प्यारे
चारू चाप चल चंचल चितवन । मधु आच्छादित ज्यों हो मधुवन
प्रेम सुधा हो प्रियतम प्यारे । प्रेम दग्ध है हृदय हमारे
अपनी दासी रूप में, हमें करें स्वीकार ।
दीन दशा को देख कर, प्रियतम करें विचार ।।12।।
मुख पर है अलकें घुँघराली । कपोल कुण्डल न्यारी-न्यारी
अधर सुधा से सुधा लजाये । रम्य नयन चितवन मुस्काये
भुज उदार शरणागत वत्सल । जिससे बचे न भू पर खल
रमा रमे वक्ष पर तुम्हारे । रूप निहारे हम मन हारे
हे मनमोहन प्रियतम प्यारे । देख तुम्हें हम तन मन हारे
सकल सृष्टि में यूँ नार नहीं । वेणु तान से जो बचे कहीं
रूप मोहनी प्रभु सुंदरतम । उस पर वंशी तान मधुरतम
खग-मृग पुलकित रूप निहारी । चेतन क्या जड़ भी बलिहारी
सुध-बुध बिसरे तुम्हें विलोकत । प्रभु मानो यह बात सदाकत
नहिं ऐसा कोई जग माहीं । तुम्हें देख लाज न बिसराहीं
(सदाकत-सत्य)
छुपी नहीं है यह प्रभु हमसे । जन्म लिए हो व्रज में जब से
दीन-हीन की दुख भय हरते। ज्यों हरि सुर की रक्षा करते
आप मिलन की चाह में, दग्ध हमारे वक्ष ।
कर सरोज शिश धार कर, करें हमारी रक्ष ।।13।।
सुनों उत्तरा सुत धीरज धर । बोले श्री शुकदेव कृपा कर
योगेश्वर के योगेश्वर हैं । कृष्ण चराचर के ईश्वर हैं
आर्त गोपियों की सुन वाणी । दया दान किए महादानी
हृदय गोपियों के दया भरे । विरह पीर का सब क्लेश हरे
हैं जो आत्माराम श्याम हरि । विहस-विहस गोपी मन घर करि
कुन्दकली सम दंत निहारे । जब बिहसे कृष्ण प्राण प्यारे
प्रेम भरी चितवन अवलोकत । नार एकटक रहे विलोकत
श्याम मनोहर के चहुँ दिश अब । घेर खड़ी हैं व्रज नारी सब
भाव गोपियाँ अनुकूल करे । फिर भी निज रूप अच्युत धरे
श्याम मनोहर जब मुस्काये । कुन्दकली सम दंत सुहाये
प्रेम भरी चितवन दरश, मुदित हुईं सब नार ।
चहुँ दिशि घेरे श्याम को, लुटा रहीं सब प्यार ।।14।।
चंद्र संग ज्यों नभ पर तारें । कृष्ण-गोपियां लगते न्यारे
शत-शत यूथों के वह प्यारे । कण्ठ वैजयंती हैं डारे
वृन्दावन में विचरण लागे । संग गोपियां आगे आगे
कभी कृष्ण यशगान करी हैं । कभी गीत की तान भरी हैं
कभी गोपियॉं लीला गाती । कभी देख मूरत हर्षाती
कृष्ण मय हैं गोपियॉं सारी । व्रजराज की वे परमप्यारी
संग गोपियों के कान्हा अब । यमुना तट पर गमन किए तब
यमुना तट का बालू पावन । है कर्पर सम अति मन भावन
यमुना के कंपन से कंपित । कुमुद सुरभि से परिपूरित
रवितनया का पुलिन सुहावन । क्रीड़ा करने लगे मन भावन
कभी गोपियों के हाथ धरे । कभी गोपियों को बॉंह भरे
कभी चोटियों से है खेले । कभी गाल पर हाथ धकेले
हँसी ठिठोली वह कभी करे । कभी विहस उर आनंद भरे
नटखट नटखट लीला करते । प्रेम भाव उनके उर भरते
भांति-भांति की भाव भंगिमा । व्यापक श्याम की रूप अणिमा
महामना श्रीकृष्ण क्षीरनिधि । मुदित गोपियां करते इस विधि
(अणिम-सूक्ष्तम, क्षीरनिधि-उदार)
मान गोपियां जब यह पाये । उर आनंद विशेष समाये
कृष्ण प्रेम जब गोपी पाये । उनके अंतस गर्व समाये
सोचे मन ही मन सब नारी । नार नहीं जग में हम सम प्यारी
जगत श्रेष्ठ हम नार सभी हैं । अन्य नार नहिं जगत अभी हैं
गर्व गोपियों के निरख, गर्व मिटावनहार ।
अन्तर्धान भय रास से, अपनी माया डार ।।15।।
।। श्री कृष्णार्पणमस्तु ।।
।।इति रासपंचाध्यायी का प्रथम अध्याय संपूर्ण।।
रासपंचाध्यायी रासलीला अनुक्रमणिका-
1.रासपंचाध्यायी अध्याय-1 रासलीला का आरंभ
2.रासपंचाध्यायी अध्याय-2 कृष्ण विरह में गोपियों की दशा
3.रासपंचाध्यायी अध्याय-3 गोपिका गीत
4.रासपंचाध्यायी अध्याय-4 विहल गोपियों के मध्य कृष्ण का प्रकट होना
5.रासपंचाध्यायी अध्याय-5 महारास
आ. भाई रमेश जी चौहान. रास पंचाध्यायी का प्रथम खंड पढकर
मन अति आनंदित हुआ.आपकी सृजनशीलता, काल्पनिक आरोहन,
रस-बोध, गहरी अंतर्दृष्टि तथा आंतरिक एवं वाह्य श्रृंगार सौष्ठव
का जीवंत एवं सशक्त चित्रण अत्यंत प्रशंसनीय है. आपकी काव्याभिव्यक्ति
अतुलनीय है.आपकी सृजनशीलता एवं काव्यात्मक रूचि अबाध गति से गौरव उत्तुंग पर स्थापित हो, ऐसी मेरी शुभ कामना है.
आदरणीय सिन्हाजी आपके इस शुभकामना के लिए हार्दिक अभिनंदन और वंदन ।
बहुत सुन्दर सरल भाषा में रासलीला का वर्णन आपने किया है वह सराहनीय है बधाई भाई चौहान जी
सादर धन्यवाद आदरणीय यादवजी