रासपंचाध्यायी रासलीला अध्‍याय-3. गोपिका गीत

खण्‍ड़ काव्‍य रासपंचाध्यायी रासलीला (हिन्‍दी में)

अध्‍याय-3 गोपिका गीत
(हिन्‍दी कनकमंजरी छंद में)

-रमेश चौहान

रास पंचाध्यायी अध्‍याय-3 गोपिका गीत  (हिन्‍दी कनकमंजरी छंद में)
रास पंचाध्यायी अध्‍याय-3 गोपिका गीत (हिन्‍दी कनकमंजरी छंद में)

भूमिका

गोपिका गीत श्रीमद्भागवत के दशम स्‍कन्‍ध का प्राण है और दशम स्‍कन्‍ध श्रीमद्भागवत का प्राण । इस प्रकार गोपिकागीत (गोपीगीत) श्रीमद्भागवत का प्राण है । मूल गोपिकागीत के शिल्‍प विधान के अनुसार ही इस गोपिकागीत की रचना की गई हैं । गोपिका गीत में कुल 19 श्‍लोक हैं जिसमें प्रथम 18 श्‍लोक त्रिष्टिुप वर्णवृत्‍त के इंदिरा छंद में है, इसे कनकमंजरी छंद भी कहते हैं । अंतिम श्‍लोक शर्करी वर्णवृत्‍त के मुकुंद छंद (हरिलीला छंद) में हैं । कनकमंजरी छंद में रचित इस गोपिकागीत का शिल्‍प की दृष्टि से दो विशेषता है एक प्रत्‍येक चरण के प्रथम और सातवां वर्ण एक समान है दूसरा प्रत्‍येक पद के दूसरा वर्ण एक समान है । शिल्‍पगत इन विशेषताओं को समेटते हुए इसी शिल्‍प के साथ इस गोपिकागीत की रचना हिन्‍दी में की गई है ।

गतांक अध्‍याय-2 श्रीकृष्‍ण विरह में गोपियों की दशा से आगे

गोपिकागीत (गोपी गीत)

(कनकमंजरी छंद में)

(1)

त्रिष्टिुप वर्ण वृत्‍त इंदिरा छंद (कनमंजरी छंद)

गोप्य ऊचुः ।
जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः
श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि ।
दयित दृश्यतां दिक्षु तावका-
स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥ १॥

सुयश धाम का, सौर से बढ़ा
जयतु! आप ने, जन्‍म जो लिया ।
श्रयण क्षीर का, श्री तजे तभी
सुयत इंदिरा, स्वयं आ गई ।।

निरख लीजिए, नाथ हे हमें
चरण सेविका, चाकरी करी ।
फिरत खोजते, प्राण दे रहीं
सुरत देखने, श्याम आपके ।।1।।

(कठिन शब्‍द- सयण-प्रियतम, क्षीर-क्षीरसागर,श्रयण-आश्रय, सुयत-संयत)

(2)

शरदुदाशये साधुजातस-
त्सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा ।
सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका
वरद निघ्नतो नेह किं वधः ॥ २॥

शरद काल के, सत्व पद्म से,
अरचि शोभते, अक्षि आपके ।
भरित दृष्टि ये, भेदते हमें,
उर दिए यही, उग्र चोट है ।।
(अरचि-चमक, अक्षि-नयन)

सुरत नाथ हे, साथ लीजिए,
अरि अशुल्‍क ही, आपकी हमी ।
वरण जो किए, वाज दृष्टि से
मरदना नहीं, मारना नहीं ।।2।।

(कठिन शब्‍द- सुरत-उत्‍कृष्‍ठ अनुराग, सौव-अपना, वाज-पलक, मरदना- कुचलना)

(3)

विषजलाप्ययाद्व्यालराक्षसा-
द्वर्षमारुताद्वैद्युतानलात् ।
वृषमयात्मजाद्विश्वतोभया-
दृषभ ते वयं रक्षिता मुहुः ॥ ३॥

विष भरी नदी, व्याल दैत्य से,
वृषभ दैत्य से, व्‍योम दैत्‍य से ।
उषित इन्‍द्र के, उग्र वृष्टि से,
उषप-अख्‍य के, उग्र ताप से ।।

ऋषभ क्यों हमें, रक्षते रखे
पुष सु-चक्षु से, पांथ जो किए
ऋषिक कौन है, रोर ही कहो,
रुष उजाड़ते, रोप के भला ।।3।।

(कठिन शब्‍द-वृषभ दैत्‍य- वृषभासुर, व्‍याल दैत्‍य-अघासुर, व्‍योम दैत्य-व्‍योमासुर, उषित-क्रोधित उषप-अख्‍य-दावानल,पुष- पोषण करने वाला, पांथ-विरही वियोगी, ऋषिक-निम्‍न कोटि का, रोर-चिल्‍लाकर तेज आवाज में, रुष-वृक्ष)

(4)

न खलु गोपिकानन्दनो भवा-
     नखिलदेहिनामन्तरात्मदृक् ।
 विखनसार्थितो विश्वगुप्तये
     सख उदेयिवान्सात्वतां कुले ॥ ४॥

कुपक! हो नहीं, कांत एक का
सपन सृष्टि का, साक्ष्य आप हो ।
निपट वत्‍स ना, नंदनार का
विपुल सृष्टि में, वास आपका ।।

जनम हेतु है, जगत चौकसी
सनत प्रार्थना, साधु मान के
तन धरे अभी, तृप्त हो किए
कनक नंद का, कृष्‍ण नाम से ।।4।।

(कठिन शब्‍द- कुपक-सुरीला, नंदनार-यशोदा, सनत-ब्रहमा का एक नाम, साधु-उचित, )

(5)

 विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते
     चरणमीयुषां संसृतेर्भयात् ।
 करसरोरुहं कान्त कामदं
     शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम् ॥ ५॥

जगत चक्र है, जन्‍म मृत्‍यु का
अगम मान के, अद्रि-सार सा ।
भगत देत जो, भार आपकाे
अभय आपके, आँगुरी करे ।।

कर सरोज ये, कामना सभी
परख ना करे, पूर्ण ही वरे ।
परश हो किये, पद्मजा सदा
कर वही रखें, कांत शीश में ।।5।।

(कठिन शब्‍द-अद्रि-सार-पहाड़ की तरह अटल, आँगुरी-हाथ)

(6)

व्रजजनार्तिहन्वीर योषितां
निजजनस्मयध्वंसनस्मित ।
भज सखे भवत्किंकरीः स्म नो
जलरुहाननं चारु दर्शय ॥ ६॥

व्रजहि खण्‍ड़ के, वीज क्लेश को
अजित वीर हे, आप मेटते ।
मजन ओ हँसी, मंद मंद ही
स्‍वजन दर्प को, शांत है करे ।।

परज हैं नहीं, प्रीत है हमी
निरुढ़ दासियाँ, नाथ आपके ।
दरस दीजिए, दीनबंधु हे
न रहिये अभी, नाथ रुष्ट यूँ ।।6।।

(कठिन शब्‍द-वीज-मूल कारण, अजित-जिसे जीता न जा सके, मजन-मज्‍जन, परज-पराया, हमी- हम ही, निरुढ़-स्‍थायी रूप से)

(7)

प्रणतदेहिनां पापकर्शनं
तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम् ।
फणिफणार्पितं ते पदांबुजं
कृणु कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम् ॥ ७॥

चरण आपके, चारु पद्म से
वरद दायका, वीर भक्‍त के
सरस रूप का, सॉंच माधुरी
परस चापती, पद्मजा जिसे ।।

धरत पाद ये, धेनु हाँकते
उरग शीश में, उग्र नाचते ।
विरह दाह से, वक्ष दग्ध है
धर वही सखे, धीर दीजिये ।।7।।

(कठिन शब्‍द-उरग-नाग)

(8)

 मधुरया गिरा वल्गुवाक्यया
     बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण ।
 विधिकरीरिमा वीर मुह्यती-
     रधरसीधुनाऽऽप्याययस्व नः ॥ ८॥

मधुर बोल है, मोदिका बड़ी
सुधि हरे सखे, शब्‍द माधुरी ।
मधुरता सुनी, मीचु है जिये
निधि लुटे यहां, नामिका सभी ।।

मधुर बोल में, मुग्‍ध हैं सभी
सुधर मोह में, सेविका फँसी ।
निधि अमूल्य है, नाथ बोल ये
अधर पान वे, आप दीजिए ।।8।।

(कठिन शब्‍द-मीचु-मृत्‍यु,नामिका-विशिष्‍ट लोग)

(9)

तव कथामृतं तप्तजीवनं
     कविभिरीडितं कल्मषापहम् ।
 श्रवणमङ्गलं श्रीमदाततं
     भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः ॥ ९॥

निरस जीविका, नित्‍य मोह से
अरथ सोम है, आपकी कथा ।
बिरद आपका, बाहु टांग के
करुण गा रहे, काव्यकार भी ।।

श्रवण मात्र से, श्री कथा यही
पवित है किए, पाप ताप को ।
विवुध गीत गा, वंदना करे
द्विज सभी कहे, दान ये बड़ी ।।9।।

(कठिन शब्‍द-बिरद-कीर्ति, विवुध-विबुध-पंडित)

(10)

प्रहसितं प्रिय प्रेमवीक्षणं
विहरणं च ते ध्यानमङ्गलम् ।
रहसि संविदो या हृदिस्पृशः
कुहक नो मनः क्षोभयन्ति हि ॥ १०॥

दिवस एक था, दूधिया वही
छवि मनोहरी, छॉंव थी बनी ।
भविक ओ हँसी, भाव प्रीत का
विवुध प्रीत से, वायु था भरा ।

स्मृति पले वही, मोद दायका
अमम! यूँ पुन:, आप आ मिले ।
उमग ही भरी, ऊमकी छुपे
कमठ! याद ओ, क्षुब्‍ध हैं किए ।।10।।

(कठिन शब्‍द-भविक-मंगलकारी, विवुध-विशेष, अमम-ममता रहित निष्‍ठुर, उमग-उमंग सहित, ऊमकी-झोंका के समान, कमठ-कछुआ के समान कठोर)

(11)

 चलसि यद्व्रजाच्चारयन्पशून्
     नलिनसुन्दरं नाथ ते पदम् ।
 शिलतृणाङ्कुरैः सीदतीति नः
     कलिलतां मनः कान्त गच्छति ॥ ११॥

तुम चरात गौ, त्राण पाद ना
कमल से भली, कोमलांग ये
गमत कंकरी, गांतु आप हो
तिमिर सॉंझ भै, ताक आत हो

चरण आपके, चोट ना लगे
शरट! सोच के, शांति ना हमें
अरण में छुपे, आप हो कहां
शरण लीजिए, साथ आ यहां ।।11।

(कठिन शब्‍द-गमत-पथ, गांतु-पथिक,शरट-गिरगिट सा छलिया, अरण-अरण्‍य)

(12)

दिनपरिक्षये नीलकुन्तलै-
र्वनरुहाननं बिभ्रदावृतम् ।
घनरजस्वलं दर्शयन्मुहु-
र्मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि ॥ १२॥

भवन लौटते, भानु के ढले
अवन देखते, आपको तभी ।
कवर कासनी, का कपोल के
धवल धूल से, धुंधली भई ।।

अतुल कान्ति ये, आपका सखे
कतिक छेदते, काम बाण से ।
मति रही नहीं, मान भी नहीं
यतन कीजिए, याचना सुनें ।।12।।

(कठिन शब्‍द-अवन-प्रसन्‍न, कवर-बालों का गुच्‍छा, कासनी-हल्‍के नीले रंग का)

(13)

प्रणतकामदं पद्मजार्चितं
     धरणिमण्डनं ध्येयमापदि ।
 चरणपङ्कजं शंतमं च ते
     रमण नः स्तनेष्वर्पयाधिहन् ॥ १३॥

प्रणत नाथ हे, प्राण नाथ हो
सरिस आप सा, साध्‍य और ना ।
निरुढ़ क्‍लेश को, नाथ मेटते
अरघ पूजते, आत्‍मभू तभी ।।

शरण आपका, शोक मेटता
चरण चापती, चारु पद्मजा ।
सरज भूमि का, सार पाद है
उर रखें उसे, उष्ण मेटिये ।।13।।

(प्रणत- सेवक, आत्‍मभू-ब्रह्माजी, निरुढ़- प्राकृतिक रूप से स्थित अर्थात जन्‍म से, सरज-श्रृंगार)

(14)

 सुरतवर्धनं शोकनाशनं
     स्वरितवेणुना सुष्ठु चुम्बितम् ।
 इतररागविस्मारणं नृणां
     वितर वीर नस्तेऽधरामृतम् ॥ १४॥

अधर सोम ये, आपका सखे
क्षुधित कामना, क्षुब्‍ध ना रखे ।
बुधिल वेणु है, बद्ध सोम से
इधर छोड़ के, कौन जा सके ।।

सुरत नाथ हे, सौख्‍य कीजिए
सरस सोम का, साँस दीजिए !
विरह वेदना, वार्य है नहीं
प्रगुण! हे सखे, प्राप्‍य आप हो ।।14।।

(कठिन शब्‍द- बुधिल-बद्धिमान, सौख्‍य-सुखी, वार्य- स्‍वीकार करने योग्‍य, प्रगुण-चतुर)

(15)

अटति यद्भवानह्नि काननं
     त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम् ।
 कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते
     जड उदीक्षतां पक्ष्मकृद्दृशाम् ॥ १५॥

भवन छोड़ के, भोर होत ही
निविल अख्‍य को, नाथ धेनु ले ।
अवधि सैर को, आप जात हो
विवश हो हमी, बाट जोहते ।।

निमिष काल भी, नाथ कल्‍प है
कमन सांझ को, कांत आपको
गमक देखते, गोपिका तभी
निमिष आँख की, नाथ व्‍यर्थ है ।।15।।

(कठिन शब्‍द -निविल-घना, अख्‍य-जंगल, अवधि-नियत, कमन-कमनीय)

(16)

पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवा-
     नतिविलङ्घ्य तेऽन्त्यच्युतागताः ।
 गतिविदस्तवोद्गीतमोहिताः
     कितव योषितः कस्त्यजेन्निशि ॥ १६॥

पति कुटुंब के, पुत्र बन्‍धु के
बत-कही तजे, बावरी बने ।
अतस बोध से, आँख मीच के
पत तजे सखे, पास आ गईं ।।

अगम वेणु को, आप छेड़ के,
अगन ये हमें, आप ने दिया ।
जगत व्याप्य क्‍या, जानते नहीं
कुगति क्‍यों दिये, काम रात्रि में ।।16।।

(कठिन शब्‍द- बत-कही-मन बहलाने वालीं बातें, अतस-आत्‍मा, पत-लाज)

(17)

 रहसि संविदं हृच्छयोदयं
     प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम् ।
 बृहदुरः श्रियो वीक्ष्य धाम ते
     मुहुरतिस्पृहा मुह्यते मनः ॥ १७॥

विजन में किए, वीचि छेड़ते
अजड़ बात वो, आज नोचते ।
अजित दृष्टि से, आप देखते
निज लखी तुम्‍हें, नाथ हारते ।।
()

वृहत वक्ष को, वीर आपका
अहत देखतीं, आत्‍त हो हमी
चहक नित्‍य है, चंचला जहाँ
तिहि विलोकि के, तृषणा बढ़ी ।।17।।

(कठिन शब्‍द- विजन-एकान्‍त, वीचि-लहरआत्‍त-आकृष्‍ट, चंचला-लक्ष्मी जी)

(18)

व्रजवनौकसां व्यक्तिरङ्ग ते
वृजिनहन्त्र्यलं विश्वमङ्गलम् ।
त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां
स्वजनहृद्रुजां यन्निषूदनम् ॥ १८॥

व्रज अरण्‍य के, वासियॉं धनी
अजहुँ जन्‍म जो, आप ने लिया ।
तज सभी सखे, ताप त्रास को
भजन आपका, भाव से करे ।।

रमण कौतुकी, राग आपका
विमल है करे, विश्‍व सृष्टि को ।
कमन वक्ष है, किन्‍तु हे सखे
अमिय औषधी, आप दीजिए ।।18।।

(कठिन शब्‍द- कमन-कमनीय)

(19)

शर्करी वर्णवृत्‍त मुकुंद छंद (हरिलीला छंद)

यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेष
भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु ।
तेनाटवीमटसि तद्व्यथते न किंस्वित्
कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः ॥ १९॥

ना आपके पद सही, मृदु है सरोज ।
प्यारे जिसे हम धरे, डर के उरोज ।।
लागे नहीं कहिं उसे, कुछ भी खरोच ।
ये रैन में भटकना, अति है अरोच ।।

कांतार कंकड़ रहे, अरु तीक्ष्‍ण खार ।
लागे नहीं पद कहीं, करके विचार ।।
निश्चेष्ट हो हम रहीं, कहतीं ‘रमेश’ ।
ये देह जीवन सभी, तुहरे भवेश ।।

(कठिन शब्‍द-उरोज-स्तन, अरोच- अरुचिकरकांतार-जंगल, खार-काँटा, निष्‍चेष्‍ट- बेसुध, तुहरे-आपका)


।। श्री कृष्णार्पणमस्तु ।।
।।इति रासपंचाध्‍यायी का द्वितीय अध्‍याय संपूर्ण।।

सरल हिन्‍दी में गोपीगीत पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें- हिन्‍दी में गोपी गीत (हरिगीतिका छंद में)

रासपंचाध्‍यायी रासलीला अनुक्रमणिका-

1.रासपंचाध्यायी अध्याय-1 रासलीला का आरंभ

2.रासपंचाध्यायी अध्याय-2 कृष्ण विरह में गोपियों की दशा

3.रासपंचाध्यायी अध्याय-3 गोपिका गीत

4.रासपंचाध्यायी अध्याय-4 विहल गोपियों के मध्य कृष्ण का प्रकट होना

5.रासपंचाध्यायी अध्याय-5 महारास

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