गतांक (अध्याय 3 गोपीका गीत) से आगे
खण्ड़ काव्य रासपंचाध्यायी रासलीला (हिन्दी में)
अध्याय-4
विहल गोपियों के मध्य श्रीकृष्ण का प्रकट होना
-रमेश चौहान
/स्तुति/
अनुष्टुप छंद
रास रसिक हे कृष्णा, मुझे भी आज देखिये ।
आ मिले गोपियों से ज्यों, नाथ मुझे सरेखिये ।।
प्यासा दरस का मैं भी, मुझको भी विलोकिये ।
व्रज कानन ज्यों घूमे, रज मान मुझे रौंदिये ।।
विहल गोपियों के मध्य श्रीकृष्ण का प्रकट होना
श्री शुकदेवजी बोले, परीक्षित सुनो कथा ।
व्रज गोपियों की ये, विरह पीर की व्यथा ।।1।।
गोपियां पीर में खोई, गा रही गीत मोहना ।
दरस लालसा डूबे, रोक सकी न रोदना ।।2।।
उसी रुदन बेला में, कृष्ण प्रकट आ मिले ।
मंद मुस्कान की आभा, मुखमण्डल थी खिले ।।3।।
गले में वनमाला थी, पीताम्बर सजे-धजे ।
उनका रूप है ऐसा, जो रतिनाथ को मथे ।।4।।
प्राणवल्लभ को देखे, जब दुखित गोपियां ।
कुहक उठ बैठी वे, ज्यों कूहके तिलोरियां ।।5।।
(तिलोरी-मैना)
खिलती कलियाँ जैसे, उदित रवि देख के ।
उनकी अँखियां जागी, कृष्ण मुख विलोक के।।6।।
ज्यों प्राणहीन काया में, हुआ संचार प्राण का ।
चेतना लौट आई हैं, अंग-अंग चिरान का ।।7।।
(चिरान-पुरानी स्मृति)
गोपी एक कृष्ण के, चरण चापने लगी ।
उनके कर कांधे ले, दूसरी नाचने लगी ।।8।।
श्रीकृष्ण मुख से कोई, जूठा ताम्बुल लूटती ।
हिय दाह बुझाने को, कोई चरण लोटती ।।9।।
प्रणय कोप से कोई, दांतों से ओठ काटती ।
कोई भ्रूभंग को ताने, उनकी ओर ताकती ।।10।।
(भ्रूभंग-भृकुटि)
कोई पलक को रोके, श्रीमुख को निहारती ।
श्री मकरंद को पीते, विहल हिय झारती ।।11।।
छवि निहार के कोई, निज पलक को मिचे ।
मन-ही-मन कृष्ण को, छतिया भरने खिंचे ।।12।।
आनंद मेघ के छाये, सबके उर है खिले ।
शोक ताप नशाये ज्यों, ज्ञानी को संत हो मिले ।।13।।
विरह पीर की ज्वाला, बुझ गई तभी यहां ।
शांति समुद्र में गोता, खाने लगी सभी वहां ।।14।।
कृष्ण सौंदर्य होते हैा, अच्युत सदा एक सा ।
गोपियां मध्य की शोभा, है अधि अतिरेक सा ।।15।।
जैसे ईश्वर की शोभा, होती अधिक मोहना ।
साथ में जब होवे है, सकल शक्ति सोहना ।।16।।
सकल गोपियों के ले, यमुना तट जा रहे ।
इन्हें निरख कालिंदी, शोभा अधिक पा रहे ।।17।।
कुन्द मन्दार पुष्पों की, मदमाती गंध ले ।
शीतल पुरवाही ये, बहती मद मंद ले ।।18।।
मधुप मतवाले हो, निकट मँडरा रहे ।
गुंजन करते भौरे, गीत मधुर गा रहे ।।19।।
शरद पूर्णिमा चंदा, चांदनी चटका रही ।
इस छटा निराली में, निशा दृष्टि न आ रही ।।20।।
मुदित वह कालिंदी, हाथ लहर को किए ।
मृदु पुलिन को साजे, सुंदर मंच हैं दिए ।21।।
/इंद्रवंशा छन्द/
श्री कृष्ण सौंदर्य विलोक गोपियां
आनंद उल्लास सरूप पा रही ।
छाती लगे आग बुझे सभी जहॉं
कल्लोल-सी शांति उमंग छा रही ।।22।।
वे सुंदरीयां निज वक्ष चीर को
डारी बिछौना तट देत आसनी ।
आओ सखे हे प्रभु प्राण नाथ हे
हे कृष्ण प्यारे यह प्रीत डासनी ।।23।।
(वक्ष चीर-ओढ़नी, डासनी-शैय्या)
योगी जिसे तो निज चित्त धारने
चाहे किए योग कठोर साधना ।
वैराग्य चाहे उर नित्य पालते
होते न ए पूर्ण कठोर कामना ।।24।।
ऐसे मुरारी घनश्याम कृष्ण जू
गोपी पिछौरी पर हैं पधारते ।
ज्यों पंखुड़ी नार पराग श्याम जू
गोपीन के मध्य अतीव शोभते ।।25।।
(पिछौरी-ओढ़नी)
हैं सृष्टि में दृश्य अदृश्य जो प्रभा
त्रैलोक्य त्रैकाल सरूप सृष्टि है ।
है मात्र ये बिन्दु समान भान ही
श्री कृष्ण की आश्रय दान दृष्टि है ।।26।।
श्री कृष्ण की दिव्य सरूप देख के
गोपीन की प्रेम उछाह है बढ़े ।
कोई धरे हैं निज गोद पॉंव को,
कोई सखी हाथ उरेज है मढ़े ।।27।।
कोई सखी स्पर्श करे कभी उसे
कोई कभी रूप विलोक ही भरीं ।
कोई हँसी मंद बिखेर फेकती
कोई चढ़ा भौह विनोद है करीं ।।30।।
/अनुष्टुप छंद/
प्रेम उल्लास में डूबीं, मग्न थी गोपियां सभी ।
मध्य में छिपना बांके का, स्मरण आ गई तभी ।।31।।
मन ही मन रूढ़े वे, ठसक दिखला रहीं ।
गलती मनवाने को, बांका सन बात कहीं ।।32।।
विविध भांति के प्रेमी, इस जगत हैं भरे ।
होता एक ऐसा जो, प्रेमी से प्रेम हैं करे ।।33।।
होते हैं कुछ ऐसे भी, प्रेमी जगत एक हैं ।
न चाहे उससे भी वे, करते प्रेम नेक हैं ।।34।।
एक विशेष प्रेमी है, जो दोनों को न चाहते ।
करे न प्रीत दोनों से, दोनों को न मानते ।।35।।
नटनागर हे बोलो, तीनों में आप कौन हो ।
मन की बात को खोलो, क्यों भला आप मौन हो ।।36।।
सुन अटपटी बातें, बोले माधव प्रेम से ।
सुनों हे सखियां प्यारी, बात ये प्रीत नेम से ।।37।।
अदला-बदली का ये, कोई तो खेल है नहीं ।
करते प्रेम प्रेमी से, यह व्यापार है सहीं ।।38।।
नहीं सौहार्द प्रेमी में, न ही है धर्म प्रीत में ।
केवल स्वार्थ ही बोले, प्रेमी से प्रेम रीत में ।।39।।
प्रेम न करने वालों, से भी जो प्रेम है करे ।
उनके हिय ही में तो, सौहार्द प्रीत है भरे ।।40।।
ज्यों मातु-पितु बच्चों से, करे पुनीत प्रेम हैं ।
सखियां सच पूछो तो, यह ही प्रीत नेम हैं ।।41।।
हिय हितैषिता होते, करुणा व्यवहार में ।
निश्चल नित्य बोले है, सत्य धर्म विचार में ।।42।।
करे न प्रेम प्रेमी से, ऐसे भी कुछ लोग हैं ।
चार प्रकार के होते, ऐसे कुछ सुयोग हैं ।।43 ।।
एक प्रकार ऐसा है, जो सम भाव साजता ।
निज स्वरूप में डूबे, द्वैत जिसे न भासता ।।44।।
दूूूूसरे ह्याप्तकामा है, जिसको द्वैत भासता ।
मतलब न औरों से, न राखे कुछ दासता ।।45।।
तीसरा लोग हैं ऐसे, जो यह नहीं जानते ।
उसका कौन प्रेमी है, उसको कौन मानते ।।46।।
दुष्ट स्वभाव का चौथे, जो लोग जान बूझ के ।
अपने हितैषी से भी, करते द्रोह सूूूूझ के ।।47।।
/इंद्रवंशा छन्द/
हे गोपियों मैं करता नहीं कभी,
यों प्रेमियों सा व्यवहार प्रेम का ।
हो चित्त मेरे पर प्रेम से सदा,
है एक ही कारण प्रेम नेम का ।।48।।
ज्यों दीन को कोष अमूल्य है मिले,
खो कोष जाये यदि हाथ से वही ।
चिंता पड़े निर्धन कोष है रटे,
मैं भी रहूँ खो कर चित्त में सही ।।49।।
आई सभी हो तज लोक लाज को
आई सभी हो परिवार छोड़ के ।
आई सभी हो पति पुत्र छोड़ के,
आई सभी हो सब जाल तोड़ के ।।50।।
ये छोड़ना निष्फल होय ना कहीं,
बाधा न होवे निज मोह चाव का ।
ये चित्त योगा मुझ में लगी रहे
प्यारी! सुनो हेतु यही दुराव का ।।51।।
जो मोह योगी यति तोड़ ना सके,
यूँ ही उसे तोड़ दिए सखी सभी ।
प्यारी! तुम्हारा मुझ से सुमेल ये
है शुद्ध निर्दोष सुयोग आत्मभी ।।52।।
ये त्याग सेवा ऋण भार है सखी,
मुक्ती न पाऊ इस भार से कभी ।
चाहूँ सखी मैं यदि ये उतारना
हो ना सके मोल अभी न ही कभी ।।53।।
।। श्री कृष्णार्पणमस्तु ।।
।।इति रासपंचाध्यायी का चतुर्थ अध्याय संपूर्ण।।
रासपंचाध्यायी रासलीला अनुक्रमणिका-
1.रासपंचाध्यायी अध्याय-1 रासलीला का आरंभ
2.रासपंचाध्यायी अध्याय-2 कृष्ण विरह में गोपियों की दशा
3.रासपंचाध्यायी अध्याय-3 गोपिका गीत
4.रासपंचाध्यायी अध्याय-4 विहल गोपियों के मध्य कृष्ण का प्रकट होना
5.रासपंचाध्यायी अध्याय-5 महारास
उत्कृष्ट कार्य बधाई💐💐💐💐💐💐
सादर धन्यवाद तिवारी जी
बहुत सुन्दर कृष्ण कथा सर जी
सादर धन्यवाद भाई