गतांक (अध्याय 4 विहल गोपियों के मध्य कृष्ण का प्रकट होना) से आगे
खण्ड़ काव्य रासपंचाध्यायी रासलीला (हिन्दी में)
अध्याय-5
महारास
-रमेश चौहान
स्तुति
/साेरठा/
व्रज रज चंदन भाल, यमुन कीच उबटन मलूँ ।
जहॉं यशोदा लाल, महारास जो हैं किए ।।
कृष्ण बावली नार, चरण गहूँ मैं मातृ सम ।
कृष्ण भक्ति सार, दीजै मोहे मातु हे ।।
महारास
/दोहा/
कृष्ण वचन सुन गोपियॉं, हुई विरह से मुक्त ।
अंग-संग हो कृष्ण के, भई प्रेम से युक्त ।।
पावन यमुना पुलिन पर, सकल गोपियॉं संग ।
छटा बिखेरे कृष्ण अब, महारास के रंग ।।
/चौपाई/
कृष्ण प्रेयसी सकल गोपियां । प्रीत रीत की सरस चोपियां
बाँहों में अब बाँहें डाले । निरख रहीं हैं कृष्ण उजाले
योगा अधिपति कृष्ण बिहारी । नार रत्न को अलख निहारी
दो-दो गोपी मध्य रूप धर । उनके कांधे पर डाले कर
गोपी माधव माधव गोपी। एक-एक अंतर पर रोपी
गोपी माधव क्रम अनूपा । जितनी गोपी उतने रूपा
गोपी गोपी सब यह जाना । उनके प्रियतम संग बिताना
कोटि गोपियाँ कोटि कृष्ण हरि । महारास की अब लीला करि
महारास की अनुपम शोभा । देव मनुज सबकी मन लोभा
महारास देखन को आये । संग संगिनी देवन लाये
/दोहा/
महारास यमुना पुलिन, नभ पर कोटि विमान ।
हाथ जोड़ गंधर्व सुर, करे कृष्ण यशगान ।।1।।
/चौपाई/
देव दुन्दुभी ढोल बजाये । हर्षित हृदय सुमन बरसाये
सुयश गान गंधर्व सुनाये । रास शोभा सबके मन भाये
प्रियतम कृष्ण संग सब नारी । लगी नाचने हो बलिहारी
कर के कंगन डोलन लागे । पायजेब पद बोलन लागे
करधन घुँघरू ताल धरे है । मधुर ध्वनि सब राग भरे है
गोपी मध्य कृष्ण की शोभा । दीप्त नीलमणि की ज्यों गोभा
(गोभा-गाभा-तरंग)
ठुमक-ठुमक सब ठुमकन लागी । हिला रही निज पॉंव तड़ागी
आगे-पीछे पॉंव बढ़ाये । विविध भांति से नाच दिखाये
(तड़ागी-कमर)
//मन्दाक्रान्ता छंद//
टूटी जावे, कमर पतली, देह ऐसे झुकावे ।
ऐसे नाचे, वसन तन के, छोड़ काया उड़ावे ।।
झूला झूले, उरज तन के, देह के यूँ हिलाये ।
कानों के कुण्-डल जब हिले, गाल ताली मिलाये ।
(उरज-स्तन)
नीवी गॉंठे, खुलन लगती, झूम के झूम झूमे ।
चोटी गॉंठे, खुलन लगती, केश भी गाल चूमे ।।
ऐसे नाचे, मुख पर खिले, स्वेद पाथोज स्वाती ।
गोपी सारी, नटवर प्रिये, संग में गीत गाती ।।
(नीवी-कमर बंध, पाथोज-कमल)
/दोहा/
विविध देह श्री कृष्ण के, श्याम घनेरी मेघ ।
बिजली बनकर कौंधती, गोपी प्रीत समेत ।।2।।
/चौपाई/
महारास की शोभा न्यारी । जो देखे जावे बलिहारी
नैनन देखे बोल न पावे । फिर यह शोभा कौन बतावे
सकल गोपियों का जीवन धन । नटवर नागर का रति मधु कण
कृष्ण संग ये और सुहाये । कृष्ण संग जब नाचे गाये
बाँह पकड़ नटवर के नाचे । नाचत-नाचत मधुर गीत गाते
कृष्ण स्पर्श जब गोपी पाती । बहु विधि आनंदित हो जाती
राग रागिनी गीत मनोहर । नभ पर गुँजित अमिट धरोहर
कोई गोपी ऐसे गाये । कृष्ण राग से राग मिलाये
कोई उससे ऊँचे गाते । सुन-सुन कर नटवर हर्षाते
वाह-वाह श्रीकृष्ण करें हैं । उनके मन उत्साह भरे हैं
/दोहा/
दूजा सखि गाती ध्रुपद, बदले नहिं वह राग ।
वाह-वाह नटवर करे, भरे प्रीत अनुराग ।।3।।
/मंदारमाला सवैया/
गोपी थकी एक ओ झूम के नाच, बॉंहें कलाई खसे कंगना ।
चोटी खुले केश बेला खसे जात, छोड़ी न वो कृष्ण के संग ना ।।
कांधे धरे श्याम के भार संभाल, बाचे गिरे से धरा पे जभी ।
छू कृष्ण के देह गोपी भरी हर्ष, उल्लास रोमावली में तभी ।।
गोपी तभी एक नाचे वहॉं झूम, झूमे तभी कान के कुण्डली ।
ओ झूमके झूमका चुम्मते गाल, लाली गई गाल लागे भली ।।
श्री कृष्ण के गाल से गाल को साट, गोपी रिझावे मनावे जिसे ।
उच्चिष्ठ ताम्बूल श्रीकृष्ण ले हाथ, कौर बनाये खिलाये उसे ।।
मध्यांग के किंकिणी पॉंव पाजेब, गोपी बजाती रिझाती वहॉं ।
गाती लुभाती सुहानी सखी गीत, बॉंके बिहारी नचाये जहॉं ।।
गोपी जभी नाच गाये थके थोर, श्रीकृष्ण के हाथ छाती धरे ।
सौभाग्यशाली बड़ी गोपियां नार, श्रीकांत जो आज स्वामी हरे ।।
(हरे-है)
शोभा न जाये कहे रास की आज, ऐसे मिले कृष्ण गोपी सखे ।
है ऊधमी रूप श्रीकृष्ण का खेल, गोपी गला हाथ डारे रखे ।।
शोभा बड़ी नार की रास में दिव्य, है कुण्डली कान में झूमते ।
है घुंघराली भली केश तो झूल, ओ नार के गाल को चूमते ।।
माथे निराली बड़ी स्वेद की बूँद, गोपी भली को भली है करे ।
श्रीकृष्ण के संग ओ नाचते नाच, गा गीत में रागनी है भरे ।।
ओ हाथ की कंगना पॉंव पाजेब, जो रास के राग में बाजते ।
भौरा मिलाये तभी राग मेें राग, चोटी गुँथे फूल भी नाचते ।।
/दोहा/
खेले यथा अबोध शिशु, निज परछाई संग ।
निर्विकार श्रीकृष्ण भी, खेले गोपी रंग ।।4।।
/वसंततिलका छंद/
लीला करे विविध मोहन निर्विकारी ।
गोपीन संग करते वह रास न्यारी ।।
छाती कभी भर कभी धर हाथ रोके ।
वो प्रीत नैन धर वक्र कभी विलोके ।।
नाचे कभी मधुर गीत कभी सुनाये ।
बोले कभी मधुर बोल कभी रिझाये ।।
उन्मुक्त हास-परिहास करे कभी वो ।
गोपीन के तन कभी छुये हवा हो ।।
गोपी हुये विहल हर्षित स्पर्श पाये ।
भूलीं सभी सुध असीम उमंग छाये ।।
संभाल पावत न केश सधे न चोटी ।
टूटे खुले सिर गुँथे सब फूल गोटी ।।
संभाल पावत न चीर सधे न काया ।
चोली न संभलत और सधे न साया ।।
हो अस्त-व्यस्त बिखरे गहना सभी है ।
गोपी दशा अति विचित्र बनी अभी है ।।
देवांगना यह विचित्र दशा निहारी ।
आसक्त होकर भरे मन प्रेम न्यारी ।।
तारे शशांक ग्रह मूक रहे निहारे ।
शोभा धरा गगन रास यथा निखारे ।।
/दोहा/
यद्यपि आत्माराम है, एकमेव भगवान ।
फिर भी गोपी प्रीत हित, रास किए अभिराम ।।5।।
/चौपाई/
जितनी गोपी उतने कान्हा । कृष्ण रास लीला ना नान्हा
रूप बहुत धर कृष्ण कन्हाई । सकल गोपियां संग सुहाई
खेल-खेल में विविध प्रकारा । किये रास वह अँगवनिहारा
नाच-नाच गोपियां थकीं जब । उनके मुख को पोंछे वे तब
करुणामय श्री रासबिहारी । निज कर उनके भाल सँवारी
कृष्ण हस्त पंकज के पाये । गोपी उर आनंद समाये
घुँघराली अलकें कपोल पर । स्वर्ण कर्ण कुण्डल झिलमिल कर
रूपवती के रूप निखारी । मुख मुस्कान सुधा से भारी
प्रेम भरी चितवन से गोपी । कृष्ण मान हित अँखिया रोपी
फिर अंतस आनंद मनाये । कृष्ण प्रीत यशगान सुनाये
जलक्रीड़ा करने किसन, लिये गोपियां संग ।
यमुना जल में जा मिले, ओढ़ प्रीत के रंग ।।6।।
/वसंततिलका छंद/
जैसे थका गज मतंग कगार तोड़े ।
श्री कृष्ण भी श्रुति ऋचा जन लाज छोड़े ।।
लीला किये जलविहार लिये सुरूपा ।
छाती लगावत निहारत केश-रूपा ।।
भौंरें चले करत गुंजन गीत गाते ।
गंधर्वराज यशगान यथा सुनाते ।।
गोपी विलोक मुख कृष्ण खुशी सवारे ।
ले नीर अंजलि उलीच-उलीच डारे ।।
ऐसे करे जलविहार विभोर प्यारे ।
गोपी उमंग मन प्रीत शरीर वारे
शोभा बड़ी निरख देवन पुष्प डारे ।
श्रीकृष्ण की स्तुति करे कर जोर न्यारे ।।
कृष्णा कगार कुसुमाकर एक भाये ।
गोपी समूह सह कृष्ण विलोक धाये ।।
नाना सुवासित प्रसून तहॉं सुहाये ।
शनै: शनै: अनिल मादकता जगाये ।।
(अनिल-वायु)
घूमे लिये हथनियां गजराज जैसे ।
गोपी लिये विचरते प्रिय कृष्ण वैसे ।।
चंदा छटा शरद रात्रि मिले सुहाये ।
ऐसी प्रभा मन उमंग भरे लुभाये ।।
/दोहा/
कृष्ण सत्य संकल्प है, चिन्मय उनका खेल ।
काम भाव को दास कर, किए रास मेें मेल ।।7 क।।
पूर्णकाम भगवान है, दीव्य आत्म है नार ।
खेल भक्त भगवान का, यही रास का सार ।।7 ख।।
//चौपाई//
महारास की लीला सारी । निर्विकार निर्लिप्त अधारी
काम कला को दास बनाये । भक्त प्रीत हित खेल दिखाये
सकल जगत के एक अधारा । धर्म हेतु लीन्हे अवतारा
यह लीला केहि हेतु कीन्हा । कहिए प्रभु मोहे सेवक चीन्हा
पूछ रहे कर जोर परीक्षित । कहिए गुरुवर तथ्य निरक्षित
श्री शुक बोले सुनिए राजन । तुम हो श्री कृष्ण कृपा भाजन
समरथ देवा सूर्य अग्नि सम । कभी शुष्क होते कभी नम
ग्रसे द्रव्य गुण दोष युक्त जब । लगे कहां है गुण दोष उसे तब
समरथ चाहे कर सके करे । बाकी मन विचार भी न भरे
पान हलाहल शिव शम्भु करे । अन्य करे तो तन भस्म जरे
/दोहा/
करें शक्ति अनुकूल ही, चतुर पुरुष हर काज ।
समरथ को नहिं दोष है, चाहे होय अकाज ।।8 क।।
गर्व हीन समरथ पुरुष, तज शुभ अशुभ विचार ।
स्वार्थहीन कारज करे, अर्थ अनर्थ न सार ।।8 ख।।
//चौपाई//
समरथ जन को नहीं दोष जब । कृष्ण चराचर के स्वामी तब
कैसे मानव दोष लगाये । कृष्ण सर्वेश्वर खेल निभाये
खग-मृग नर-सुर सबके स्वामी । घट-घट के वे अंतर्यामी
जिनके पगरज सेवन करके । भक्त तृप्त होये मन भर के
कृष्ण-योग से योगी मुनि जन । कर्म गांठ को काटे हैं तन
कृष्ण-तत्व को ज्ञानी ध्याये । तत्स्वरूप खुद ही हो जाये
सकल कर्मबंधन को काटे । ज्ञानी स्वछन्द घूमे थाटे
सकल चराचर जिनको ध्याते । जिनके श्रीचरण शांति पाते
ऐसे चिन्मय रासबिहारी । भक्त टेर सुन ये तन धारी
उनमें कैसे कर्म कल्पना । ऐसी बातें होत जल्पना
(जल्पना- व्यर्थ में तर्क-वितर्क करना)
/दोहा/
जीवों पर करने दया, प्रकट हुए भगवान ।
नाना विधि लीला किए, सकल प्राण के प्राण ।।9।।
गोपी-गोपी के घटवासी । गोपी पति के हिय अधिशासी
सकल देह के हृदय विराजे । वही नाथ यह लीला साजे
उनकी माया अथाह सागर । सागर सागर से भी आगर
रास किए ब्रजनंदन जब तक । गोपी पति संग रहे तब तक
माया महिमा कोउ न जाने । पत्नी को संग गोप माने
जो गोपी गोप संग रहती । वही गोपी रास भी करती
एहि भांति प्रभु कीन्ह विहारा । देव गंधर्व रहे निहारा
ब्रह्म रात्रि सम वह रात्रि गई । नभ मण्डल में अब भोर भई ।
गोपी एक न चाहे जाना । फिर भी प्रियतम आज्ञा माना
अपने-अपने घर को जाये । कृष्ण प्रीत निज हृदय बसाये
/दोहा/
कृष्ण रास की यह कथा, सुनते जो मन लाय ।
परा भक्ति वह कृष्ण की, सहज सुलभ ही पाय ।।10 क।।
चिन्मय रास विलास की, कथा सुने जो लोग ।
छूटे काम विकार सब, भोगे न जगत भोग ।।10 ख ।।
महारास की यह कथा, गाये सकल जहान ।
छंद बद्ध इसको किए, जड़ ‘रमेश चौहान’ ।।
।। श्री कृष्णार्पणमस्तु ।।
।।इति रासपंचाध्यायी का पंचम अध्याय संपूर्ण।।
रासपंचाध्यायी रासलीला अनुक्रमणिका-
1.रासपंचाध्यायी अध्याय-1 रासलीला का आरंभ
2.रासपंचाध्यायी अध्याय-2 कृष्ण विरह में गोपियों की दशा
3.रासपंचाध्यायी अध्याय-3 गोपिका गीत
4.रासपंचाध्यायी अध्याय-4 विहल गोपियों के मध्य कृष्ण का प्रकट होना
5.रासपंचाध्यायी अध्याय-5 महारास