आजादी मिली, मगर व्यवस्था क्यों नहीं बदली?
लेखक – रवींद्र कुमार रतन, स्वतंत्र लेखन, सेनानी सदन
क्या इसी आजादी के लिए भगत सिंह, खुदीराम बोस और मेरे पिता जी जैसे लाखों लोगों ने लड़ाई लड़ी थी?
काफी लंबी लड़ाई, त्याग, तपस्या और अनगिनत शहादतों के बाद मिली भारत की आजादी… लेकिन क्या व्यवस्था बदल पाई? नहीं!
गरीब और गरीब होते गए, अमीर और अमीर होते गए। आरक्षण कुछ परिवारों तक सिमटकर रह गया। नेता हो या अभिनेता — जो एक बार इसका लाभ लेकर आगे बढ़ गए, उन्हें संपन्न की श्रेणी में रखकर सामान्य वर्ग में लाना चाहिए। फिर जो वास्तव में हकदार है, उसे या उसके परिवार को इसका लाभ मिलना चाहिए। तभी तो डॉ. भीमराव अंबेडकर का सपना साकार होगा।
मगर यहां तो बड़ी मछली, छोटी मछलियों का हिस्सा भी खा रही है और कहती है — “हम तुम्हारे अधिकार के लिए लड़ रहे हैं”, जबकि असल में लड़ाई अपने और अपने परिवार के लिए होती है, और झांसा अपने ही जाति व समाज को दिया जाता है। ऐसे में गरीबों, वंचितों और समाज का कल्याण कैसे होगा?
शहीदों के सपने चूर हुए
क्या-क्या सपना सजाया था स्वतंत्रता सेनानियों, शहीदों और बलिदानियों ने! लेकिन आज वे सब टूट चुके हैं। न गांधी रहे, न सुभाष, न लोहिया, न कर्पूरी, और न ही सम्पूर्ण क्रांति के लोकनायक जयप्रकाश।
कौन सुनेगा दीन-हीन, बेसहारा लोगों की आवाज? कौन लड़ेगा इनके हक की लड़ाई? आज अधिकांश राजनीतिक दल और नेता अपने-अपने वंश को बढ़ाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। इस परिवारवाद, वंशवाद, जातिवाद और धर्मवाद की लड़ाई में भारत की गरीब जनता पीछे हो गई है।
कौन आगे आएगा? सबको अपने बेटों को इंजीनियर, डॉक्टर, आईएएस बनाने की धुन सवार है। तो फिर जेपी, सुभाष या विवेकानंद कहां से आएंगे? कौन अपनी जवानी देश के लिए कुर्बान करेगा?
15 अगस्त 1947 – स्वर्णिम प्रभात
भारत का सबसे गौरवशाली दिन — 15 अगस्त 1947। यह वह दिन था जब वर्षों की गुलामी के बाद, अनगिनत माताओं के सजे सिन्दूर, बहनों की राखियां और बूढ़ों के बुझते चिराग, सबने मिलकर आजादी के स्वागत की आरती सजाई थी।
विदेशी शासन का अंत हुआ, अत्याचार की जंजीर टूटी, और स्वतंत्रता की उजली किरणें हर ओर बिखर गईं। जनजीवन में नई ऊर्जा का संचार हुआ।
लेकिन आज, 77 साल बाद, जब हम स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं, तो उपलब्धियों के साथ अभावों की तस्वीर भी सामने आ खड़ी होती है। हमने प्रगति की सीढ़ियां चढ़ीं या फिर यथास्थिति में ही घूमते रहे — यह तय करना कठिन हो जाता है।
क्या यही आजादी थी?
भारत माँ, अब तुम ही कहो — क्या यह वही आजादी है, जिसके लिए भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, खुदीराम बोस और सुभाष चंद्र बोस ने अपनी जान की बाजी लगा दी थी?
नहीं! यह वह स्वतंत्रता नहीं है, जिसके लिए गोखले, तिलक और गांधी ने तपस्या की थी।
आज के भारत में न आर्थिक आजादी है, न सामाजिक, न भाषाई और न धार्मिक। हां, आजादी है तो भ्रष्टाचार, शोषण, लूट और अपराध करने की।
देश में गरीब-अमीर, अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक जैसी गहरी खाइयां हैं, जिन्हें पाटना कठिन है।
यदि सच्चा कल्याण चाहते हैं तो ऊंच-नीच का भेद मिटाइए, प्रेम और भाईचारा बढ़ाइए। देश में दो ही जातियां हों — गरीब और अमीर। हर गरीब को शिक्षा, सुरक्षा, रोटी, कपड़ा और मकान मिले; हर अमीर को मान-सम्मान और आत्मसम्मान की रक्षा हो।
भारत का भविष्य हमारे हाथ में है
आजादी खतरे में है। पड़ोसी देश हमारी ताकत और हमारी भूमि पर नजर गड़ाए बैठे हैं। लेकिन डरने से कुछ नहीं होगा।
जरूरत है जागरण की, निष्ठा की नई राह बनाने की, और कर्मठता की नई डगर खोजने की, ताकि भारत पुनः आर्थिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक दृष्टि से विश्व का शिरोमणि राष्ट्र बन सके।
रामकृष्ण का यह देश पुनः विश्वगुरु बने और भारत की आजादी निष्कंटक आगे बढ़े — यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति।
युवाओं से आह्वान
आज सबसे बड़ा सवाल है — आजादी तो मिल गई, मगर व्यवस्था क्यों नहीं बदली?
क्या अब भी युवा पीढ़ी हाथ पर हाथ रखकर तमाशा देखती रहेगी?
जागो, देश के नौजवानों!
जाति-धर्म और नफरत की दीवार ढहा कर एक नया भारत बनाओ, जो स्वर्ण विहंग-सा ऊंची उड़ान भरे।
ईर्ष्या-द्वेष, जाति-धर्म मिटाकर, नफरत की दीवार तोड़कर, हम भारत के युवा संकल्प लें कि देश को गौरव के शिखर पर पहुंचाएंगे।
जय हिन्द, जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान, जय भारत।







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