
हमारे प्राचीन धर्म ग्रंथों में 51 शक्तिपीठों और द्वादश ज्योतिर्लिंगों का उल्लेख मिलता है। हिन्दू श्रद्धालु पीढ़ियों से इन स्थलों के दर्शनार्थ जाते रहे हैं, और आज भी बड़ी संख्या में जाते हैं। अगर कोई द्वादश ज्योतिर्लिंगों की यात्रा करे, तो यह मान लें कि उसने संपूर्ण भारतवर्ष का भ्रमण कर लिया। वहीं यदि कोई 51 शक्तिपीठों की यात्रा करे, तो वह भारत ही नहीं, बल्कि प्राचीन बृहत्तर भारत—जिसमें आज के नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका आदि देश आते हैं—का साक्षात दर्शन कर लेता है।
यह बात अपने आप में दर्शाती है कि भारत केवल एक भौगोलिक सीमा नहीं था, बल्कि एक सांस्कृतिक और आध्यात्मिक सभ्यता थी, जिसकी जड़ें पूरे दक्षिण एशिया में फैली थीं। भले ही आज राजनीतिक सीमाएं अलग हों, लेकिन आस्था, संस्कृति और धार्मिक पहचान हमें अब भी जोड़ती है। यही सनातन भारत की आत्मा है।
आज भले ही हम स्वतंत्र हैं, लेकिन धार्मिक यात्राएं अब भी कई बार राजनीतिक और कूटनीतिक सीमाओं में उलझ जाती हैं। भारत के अंदर दुर्गम से दुर्गम स्थल तक श्रद्धालु पहुँच जाते हैं, लेकिन जैसे ही बात मानसरोवर जाने की आती है, रास्ता ‘परमिशन’ और ‘प्रक्रियाओं’ से अटक जाता है। वहीं अमरनाथ यात्रा के दौरान देश के भीतर भी सुरक्षा की चिंता मन को विचलित कर देती है।
वर्तमान भारत में ज्यादातर शक्ति पीठ सुलभ हैं, लेकिन जो पीठ अब अन्य देशों में हैं, वहाँ जाना उतना सहज नहीं रहा। उदाहरण के लिए, जब भारत में महाकुंभ लगता है, तो नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश आदि देशों के सनातनी श्रद्धालु केवल टीवी पर दर्शन करके रह जाते हैं। ट्रेनें सीमाओं तक जाती हैं, लेकिन उसके बाद ‘रिवर्सल’। उस पार रेल लाइन मौजूद है, पर मानसिकता की रेल पटरी से उतर गई है। कुछ तत्व नहीं चाहते कि सीमाओं के आर-पार शांति बनी रहे।
अगर हम पीछे देखें, तो आदिगुरु शंकराचार्य पैदल ही भारत भ्रमण करते हुए चार प्रमुख पीठों की स्थापना कर सके। कहीं कोई भय नहीं था। इसी तरह बौद्ध धर्म भी श्रीलंका, म्यांमार, थाईलैंड, अफगानिस्तान आदि देशों तक फैल गया था। तब वीजा, पासपोर्ट जैसी कोई व्यवस्था नहीं थी, और राजा स्वयं धर्मप्रचार का माध्यम बने।
यह सोचने का विषय है कि क्या आज भी हम धार्मिक यात्राओं के लिए वास्तविक स्वतंत्रता का अनुभव करते हैं? क्या तीर्थ यात्रा जैसी बात पर सीमाओं की दीवारें टूटनी नहीं चाहिए? क्या आध्यात्मिक एकता के नाम पर एक सांस्कृतिक जंबू द्वीप की पुनः कल्पना नहीं की जा सकती?
दुर्भाग्यवश, यह केवल एक सांस्कृतिक स्मृति बनकर रह गई है – एक नॉस्टैल्जिया ( Nostalgia )।
पर क्या यह नॉस्टैल्जिया ही हमारी चेतना को जगाने के लिए पर्याप्त नहीं?
डॉ. अर्जुन दुबे
अंग्रेजी के सेवानिवृत्त प्रोफेसर,
मदन मोहन मालवीय प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय,
गोरखपुर (यू.पी.) 273010
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