चम्पू काव्य:रोक दो रक्त ताण्डव
-डॉ. अशोक आकाश
‘रोक दो रक्त ताण्डव’ डॉ. अशोक आकाश की एक चम्पू काव्य है ।चम्पू काव्य एक प्राचिन साहित्यिक विधा है इस विधा में मैथलीशरण गुप्त ने यशोधर लिखी है । डॉ; आकाश के इस कृति में प्रदेश, देश और विश्व में बढ़ रहे आतंकवादी, हिंसा के घटनाओं के विरुद्ध आवाज बुलंद किया गया है । इस कृति को कडि़यों के रूप में प्रकाशित किया जा रहा है । प्रस्तुत आज इसकी दूसरी कड़ी आशा ही नहीं विश्वास हैै सुरता के पाठकों को यह निश्चित ही पसंद आयेगा ।
भाग-2
गतांक से आगे
(1)
मैं सफर में हूं,
मेरा नाम नाथूराम है।
मेरा संबंध
किसी महात्मा गांधी की
हत्या से
कतई नहीं है।
हां
व्यवस्था के खिलाफ
आग उगलती
विचारधारा से
जरूर है।
मेरे मन में
जल रही आग
खुद मैंने ही
नहीं सुलगाई।
फिर
आखिर किसने लगाई
यह आग?
प्रश्न अनुत्तरित है!
कौन देगा
इसका जवाब ?
घृणित विचारधारा की
यह आग
मुझमें
जाने कहां से
समा गई ?
जो मुझे
मेरे परिवार
और
मेरे अस्तित्व को भी
झुलसा रहा है ।
आखिर
क्यों बुलंद हो गया,
मुझ में विरोध के स्वर ?
और
इस विरोध के
स्वर को हवा
किसने दी ?
पीढ़ियों से संग्रहित
कचड़े पर
आखिर
किसने फेंक दी
चिंगारी ?
जलकर धधक रहे,
कुछ ही पल में
राख हो जाने वाली
लपट को,
किसने यहां वहां फैला दी।
यह सारे संसाधन
आखिर
किसने उपलब्ध कराए ?
इस विचारधारा की
आग से
जो जख्मी हुए,
उनके जख्मों पर
किसने नमक मिर्च लगाई?
यह सारी व्यवस्था
आखिर किसकी देन है ?
प्रश्न अनुत्तरित है!
मेरा संबंध
किसी महात्मा की
हत्या से
कतई नहीं है।
(2)
मैं सफर में हूं,
कोई मुझे रोको मत।
मैं चलता जा रहा हूं,
अनवरत।
बेमकसद,
बिना मंजिल तय किए ।
मुझे जानते हैं लोग,
मेरे नाम से विपरीत।
उस नाम से,
जिससे मेरी बिरादरी के
लोगों की
पहचान हो चुकी है।
मेरा जिंदा रहना,
मेरे ऊपर निर्भर नहीं।
उन लोगों पर है,
जिन्हें
मेरी आवश्यकता नहीं।
मेरे
जीवित रहने का
प्रमाण है,
अनवरत चलते रहना…
अपनी गतिविधियों को
अंजाम देते रहना …
जिस दिन
मैंने
चलना बंद कर दिया
उस दिन से
इस धरती का चांद
अपना मुंह
जाने कहां छुपाएगा?
जबसे मैंने
अपनी आत्मा बेची।
सलाद में
नमक मिर्च,
कम हो गया
और
बेस्वाद
भोजन की तरह,
मुझे
किनारे कर दिया गया ।
मेरी रूह,
तड़पती नागिन की तरह,
चाहे अनचाहे
बेमकसद
बेकसूर लोगों को
डसती रही,
और
अट्टहास करती रही
उस ठूंठ की तरह,
जो
सैकड़ों वर्ष की
मनोरम हरियाली के बाद,
तरस गया हो,
एक घोसले के लिए।
कुछ चूजों की
चहकन के लिए।
सुस्ता रहे
कुछ राहगीर के लिए ।
जिसके
बेकाम हो चुके
अस्थि पंजरयुक्त
जड़ों पर,
चाहे कितनों घड़ा
अमृत कलश
उड़ेला जाए,
ठूंठ पर
हरियाली की आशा
नहीं की जा सकती।
उन्मुक्त आकाश में
स्वच्छंद विचर रहे,
उन्मत्त पंछियों के
जोड़े
अब
आकृष्ट नहीं होते।
कुछ पल
किलोल करने,
घोसला बनाने,
परिवार बसाने,
बियाबान
मरुस्थल की तरह
हो चुकी
मेरी जिंदगी,
फूलों की
महक के लिए
तरस जाएगी
कभी सोचा ना था।
(3)
मैं सफर में हूं,
जी रहा हूं
पथरीली जिंदगी ।
छिन गया
अमन चैन,
आराम के दिन।
सपने जैसी हो गई,
स्वतंत्रता।
पथरीली चट्टानी जमीन
मेरा बिछौना,
ओढ़ता आसमान ।
भयभीत चिड़िया,
दहशतजदा सियार,
वृक्ष की ओट में,
दुबके सहमे बंदर,
मेरे सफर के
अहम गवाह।
बारूद बंदूक मेरे मित्र,
जिन्हें लगाए सीने से,
चलता रहता
अनवरत
समय के साथ।
हो गया पथरीला,
तन मन प्राण।
भूल गया दुख,
बिसर गया,
सुख की परिभाषा।
पत्थर पर
ओस बूंद की तरह,
पड़ने वाले
क्षणिक सुख,
अब सुख जैसे
प्रतीत नहीं होते,
वरन्
कील लगे
चाबुक की तरह,
मेरे तन मन
नस-नस को,
तोड़ डालने
चीर फाड़ डालने की,
निर्मम शक्तियों से
ओतप्रोत लगता है।
ऐसा लगता है,
जैसे
यह क्षणिक सुख
जो
मेरे
जीवन रूपी पत्थर
पर पड़े हैं ।
मुझे
बार-बार चिढ़ाते हैं,
मेरी यौवनता चिंघाड़ते,
मतवाले
हाथी की तरह
अपनी अभिलाषित
प्रेमिका के लिए
तरस जाती है,
उस प्रेमिका के लिए
जिनके रक्तिम होठों पर
मेरी तृष्णा बसती थी,
उस प्रेमिका के लिए
जिसका
निर्माल्य प्रेम
निश्चल निष्कपट
सरल अनुरागपूर्ण जीवन
सिर्फ मेरे लिए था।
उस प्रेमिका के लिए
जिनका
सुरभित
सुष्मित
पुष्पित
परागकण लिए मन
झंकृत पवन वेग
की तरह,
मेरे वक्ष से टकराकर
चूर चूर हो जाने
अति आतुर हो जाती।
और….
और मैं भी
उसी
शबनमी एहसास के
मधुर रस से
सराबोर हो जाने
मचल उठता।
आज जिंदगी की
ठोस धरातल पर,
अपनी कर्मवेदी से
नवांकुर
रक्तिम मानवीय भावनाएं
मन के
हर कोने पर
सिक्के के
दो पहलू की तरह
एक-दूसरे की ओर
पीठ किए
निशब्द
चित्कार रही है।
अब याद आते हैं
अपने वो रिश्ते
जो कभी
मुझे
अपने प्राण से भी
प्रिय
कहते थे।
बुढ़ापे की लाठी का
अटल विश्वास,
शबनमी प्रेम का,
अमर एहसास लिए ,
चुटकी भर
सिंदूर
और
कांच की
खनकती
चूड़ियों से
कुछ पल की
दूरियों से
भरती उच्छवास।
अब दूर होकर
जाने कहां
बिखर गया,
वह रिश्ते
जो कभी
अनगिनत धागों से
कसकर
परिपुष्ट था
और
जिन पर जलती
अमित विश्वास की लोै,
जो दिखाती थी,
जिंदगी की
अंधी गलियों को रास्ता,
एक
आवारा हवा के
झोंकों से
बुझकर
पूरे कुनबे को
धकेल गया
अंतहीन
अंधेरे गर्त में।
जहां से
जीते जी निकल पाना
अब मेरे बस में नहीं!
मेरी जिंदगी की
यह अंधेरी सुरंग,
अंतहीन बेबसी का
जलता पिटारा बनकर
रह गया है जो
भटके हुए लोगों के
उकसावे से
ज्ञान बोध के
अभाव में
समाज के लिए
अपने क्षेत्र की
जनता के लिए
कुछ अलग करने की
अंधी ललक से
गलत दिशा में
उठाया गया
कदम
अपने साथ
हजारों जिंदगानियों के
उजड जाने का
विवादित तथ्य,
साबित हुआ है।
-अशोक आकाश
कोहंगाटोला,बालोद
छत्तीसगढ़ ४९१२२६
मोबाइल नंबर ९७५५८८९१९९
आगे पढ़ने के लिए कृपया इस लिंक पर जाएं- रोक दो रक्त ताण्डव-3