रोक दो रक्त ताण्डव भाग-4

चम्‍पू काव्‍य:रोक दो रक्त ताण्डव

-डॉ. अशोक आकाश

रोक दो रक्‍त ताण्‍डव’ डॉ. अशोक आकाश की एक चम्‍पू काव्‍य है ।चम्‍पू काव्‍य एक प्राचिन साहित्यिक विधा है इस विधा में मैथलीशरण गुप्‍त ने यशोधरा लिखी है । डॉ; आकाश के इस कृति में प्रदेश, देश और विश्‍व में बढ़ रहे आतंकवादी, हिंसा के घटनाओं के विरुद्ध आवाज बुलंद किया गया है । इस कृति को कडि़यों के रूप में प्रकाशित किया जा रहा है । प्रस्‍तुत है आज इसकी चौथी कड़ी आशा ही नहीं विश्‍वास हैै सुरता के पाठकों को यह निश्चित ही पसंद आयेगा ।

गतांक से आगे

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(5)

मैं सफर में हूं,
कोई मुझे रोको मत!
जबरदस्ती
किसी
सत्य निष्ठा व्यक्ति की,
दहकती चिता पर,
झोको मत ।

अब
वक्त के थपेड़ों से
समझ गया हूं,
मैं
जिस राह पर
चल रहा हूं,
वह
हकीकत
मेरी राह नहीं।
जिस राह पर
चल रहा हूं,
वह
निश्चय,
मेरी मंजिल तक
नहीं जाती,
वरन
लील जाती है ,
अपने साथ
बेकसूर नौजवानों की
हँसती खिलखिलाती
जिंदगी।
कर जाती
नवविवाहिता
कमसिन
सुहागिनों को
विधवा।
अबोध बच्चे,
कर दिये जाते
अनाथ !

नि:शक्त,
बूढ़े मां-बाप
हो जाते
बेसहारा ?
संगत में
हो जाते,
नौजवान
पथभ्रष्ट…..।

मैं
ऐसी राह पर
चल रहा हूं,
चाहता हूं,
मेरे पथ पर
कोई ऐसा पहाड़
आ जाए ।
जो
मेरी गति थाम दे,

लेकिन…
लेकिन
चलता ही रहता हूं
अनायास ….
बेमतलब,
बेमक़सद !

इंतजार कर रहा हूं ।
अब तो
आ जाए,
कोई ऐसी आंधी ,
जो
मेरी जिंदगी की,
दिशा बदल दे
सुख की बयार
मेरी भी
जिंदगी में
ला दे ।

इस
अभिशप्त
विचारधारा की
ईर्श्यालू लपटें
सीधे सादे
लोगों के बीच,
बहारों की बस्ती में,
किसी
महामारी की तरह,
तीव्र वेग से,
पनप रहा है।
फैला रहा है
डर
दहशत
आतंकी
अंधेरे का साम्राज्य….!
आर्थिक,
सामाजिक,
राजनीतिक ,
गुलामी से,
मुक्ति का
लालच देकर ।
उजाले का
दिवास्वप्न
दिखाकर ।
भर गया,
सीधे-सादे
लोगों की
रग-रग में ,
दहकते
विचारों का
पलपलाता पारा,
जो
अपने
सम्पर्क में
आने वाले
बहारों को भी
पलक झपकते
राख में
बदल सकता है ।
जी नहीं सकता
फिर
वैसी ही जिंदगी
इस
मकड़जाल में
फंसे
व्यक्ति का
अभिलाषित मन
तरस कर
रह जाता है,
क्षणिक सुख को ।

बीहड़ में
सांप
बिच्छू
जंगली
जानवरों का खौफ,
भूख-प्यास से निढाल
मानसिक व्यग्रता
एवं उग्रता से ग्रसित,
मित्रता में भी
संशय ढूंढने वाला,
बेवजह
दूसरों के
प्राण हरने वाला,
अपने प्राणों के
भय से
होता इतना भीरू
कि
संकट के समय
सहारा देने वालों
का भी,
हर लेता
बेरहमी से प्राण
और अट्टहास कर
दबाता
मन की पीड़ा ।
फिर एकांत में
पछताता
रोता ।
अपने
पाप कर्म को
समय की
आवश्यकता कह
थोथा दंभ ढोता ।
डर डर कर
जीता,
बार-बार
चौंक जाता ।
हर किसी पर रखते
शक की नजर ।
सुख के
एक क्षण के लिए
तरस जाता
तन-मन-प्राण।
….©….
अशोक आकाश
बालोद छत्तीसगढ़
९७५५८८९१९९

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