व्‍यंग्‍य-‘साधुघाट की असभ्‍यता’- धर्मेन्‍द्र निर्मल

व्‍यंग्‍य-‘साधुघाट की असभ्‍यता’

व्‍यंग्‍य-'साधुघाट की असभ्‍यता'
व्‍यंग्‍य-‘साधुघाट की असभ्‍यता’

टन्नकपुर की खुदाई में यह बात उभर कर सामने आयी है कि आज से हजारों साल पहले 20वीं-21वीं सदी के आसपास भारत में साधुघाटीय सभ्यता अपने चरमोत्कर्ष पर थी। इस सभ्यता का नाम साुधघाट इसलिए पड़ा क्योंकि यत्र-तत्र सर्वत्र प्रत्येक धर्म के स्वयंसिद्ध भूईफोड़ साधु-संत, पीर-फकीर कुकुरमुत्ते की तरह उग आये थे। चहुओर धर्मभीरू, जगभगोड़ों और भड़ुओं का जमावड़ा था। साधुघाट की सभ्यता में धर्म का पक्ष अत्यंत समुन्नत और उच्च कोटि का था। एशिया के समकालीन अन्य पुरातन सभ्यताओं मिश्र, बेबीलोन, सिंधुघाटी, हड़प्पा आदि में धर्म का वह बहुविधीय स्वरूप हमें नहीं मिलता और न इतनी वैज्ञानिक पैठ ही मिलती है जितनी साधुघाट की सभ्यता में। वे धर्म जाति एवं पंत के अनेक मार्गो में बँटकर अपने जीवन का बंटाधार कर रहे थे। प्रायः प्रत्येक धर्म, जाति एवं पंत में गुरू प्रथा प्रचलित थी। सभी धर्मों में गुरूओं की लंबी फेहरिस्त थी। जो एक दूसरे को गुरूघंटाल कहकर संबोधित-सम्मानित और सम्मोहित करते थे। वे दूसरे मतावलंबियों के विरूद्व अपने चेलों-बैलों के कान फूँका करते थे। इस प्रकार ये गुरूघंटाल भक्त -विभक्त कर सभ्यता और समाज को सषक्त करने में अपना बहुमूल्य योगदान दे रहे थे। साधुघाट की सभ्यता का प्रमुख देवता यही गुरूघंटाल हुआ करते थे।


इस समय पशुुुुबलि या नरबलि प्रत्यक्ष नहीं थी लेकिन लोग अपने गुरू को प्रसन्न करने के लिए अपने यौवन की बलि अवश्‍य देते थे। महिलाएँ अपना यौवन गुरूघंटालो पर निछावर करती थी। पुरूषों को बूटियों एवं वटियों के द्वारा संयम-मार्ग सिखाया जाता था। नाचते-गाते, ठूमके लगाते ये गुरूघंटाल सहज ही योगक्रिया का ज्ञान कराते थे। योग के बहाने उपयोग, उपभोग व संजोग कर धर्म और आस्था को रोगग्रस्त कर चुके थे। इसे उन्होने प्रेम-उत्सव मार्ग का नाम दे रखा था। लोगों के जीवन यापन का सबसे सरल, सहज और सुलभ साधन साधुवाद ही था। बड़े-बड़े अपराधी, दुराचारी और ढोंगी लोग धर्मध्वजा धारणकर धर्म की लंगोट में छुप जाया करते थे। यही कारण है कि संपूर्ण प्रान्त में यत्र तत्र सर्वत्र धार्मिक भड़ुओं का आश्रम, मठ एवं पीठ आदि विद्यमान है। खुदाई के दौरान मिले धार्मिक स्थलों के आस पास लंगोटों से लिपटे आपत्तिजनक एवं उत्तेजक पदार्थों का भण्डार मिला है। जो इस बात को प्रमाणित करता है कि ये तथाकथित साधु षिकारी प्रवृत्ति के हुआ करते थे जो हिरण और हिरणियों दोनों का षिकार करते थे। इनके आगे जंगल के राजा भी नतमस्तक हो जाते थे। इस सभ्यता के लोग अति अंधविश्‍वासी थे जो आँख मूँदकर इन गुरूघंटालों के पीछे भागा करते थे।


विश्व में सबसे पहले धर्म को पेशे की तरह पेशकर उससे पैसा कमाने वाले कमीने लोग इसी सभ्यता के थे।

यह इस देश का गौरव रहा है कि इस सभ्यता के लोग अत्यंत विकासमान आधुनिक सभ्यता के आँचल में ढँक-छिपकर जंगली सभ्यता का प्रदर्शन-निर्वहन करते थे। इस बात का ज्ञान हमें पुस्तकों से नहीं, उनकी लिखित सामग्रियों से नहीं और न उनके पठनीय लेखों से अपितु यहाँ से उत्खनित सामग्रियों से प्राप्त होता है। अर्थात इस सभ्यता के लोग कथरी ओढ़कर घी खाने की कला में माहिर थे। यही महारत इस महामानवीय सभ्यता को महान बनाती है।


साधुघाट की सभ्यता के लोगों की मुख्य फसल बिल्डिंग, सड़कें, टाॅवर और कंपनियाँ थी। इसके अलावा वे कृषि एवं पशुपालन भी करते थे। मुख्यतः पालतू पशुओं में भैंस, सूअर, तोते, मुर्गियाँ, कुत्ता आदि थे लेकिन सर्वाधिक प्रिय, पालतू और ईमानदार पशु मनखे (मानव) हुआ करता था। इस समय गधे खीर खाते थे, कुत्ते दूध पीते थे और कौंआ मोती खाता था। फालतु मनखे अपने आप को पालतू पाकर कुकुरत्व के स्वर्गिक-नैसर्गिक आनन्द- अनुभव से गदगद हो जाता था।


यह सभ्यता मुख्य रूप से सत्तात्मक थी। लोग चंद रूपये के लिए किसी भी हद तक गुजरने को सदैव तत्पर रहते थे।
इस सभ्यता की सर्वाधिक व सर्वोच्च खोज सफेद झूठ, चकाचक सूट-बूट एवं झकाझक कोट थी। इसे मोबाइल युगीन संस्कृति भी कहते है। लोगों का माइण्ड वाट्सएप के कारण सेटअप होने लगा था। वे फेसबुक में बुक होकर फेसबुकिया, परबुधिया और परलोकिया होने लगे थे।
इस सभ्यता की लिपि ”आप लिखा खुदा बाचे“ थी (जिसे आज तक पढ़ा नहीं जा सका है और संभवतः कभी पढ़ा भी न जा सके)


सीधे-सादे, भोले-भाले, मेहनतकश और ईमानदार लोग बेवकूफ, कायर और डरपोक समझे जाते थे। वे गरीब और मजबूर होते थे। झूठे, बेइमान और लफंगों की छाती छप्पन इंच की होती थी। वे विशधर को अपने पूर्वज मानते थे परिणामतः वे बलिश्ट और धनवान हुआ करते थे। देष के आस्तीन में लिपटे ये लम्पट आलीषान जीवन जीया करते थे।


मंदिर, मठ, पीठ जगह-जगह थे पर मेला मदिरालयों में लगता था। लोग महज कर्मकाण्ड-धर्मकाण्ड जैसे सुन्दराकाण्डों के खेल में भी लंकाकाण्ड का मायावी दृष्य सहज ही दिखाया करते थे।


साधुघाट की सभ्यता का इतना बड़ा विकास होने के पीछे दो मुख्य कारण रहे होंगे जिनके कारण इन लोगों ने इतनी तरक्की कर ली। पहला:- बड़े-बड़े बैंक चोर, लुटेरों व ठगों को आसानी से ऋण उपलब्ध करा देती थी।


दूसरा:- लोग बड़े बेमिसाल किसिम के बेवकूफ थे जो अपने घर परिवार की जरूरतों पर आर्थिक सहायता न कर ठगों की कंपनी में आसानी से अपनी जीवनभर की कमाई झोंक देते थे। षायद इसलिए कि उनकी संस्कृति एवं संस्कार में एक दूसरे पर विष्वास करना पाप समझा जाता था।


अर्थात हम आसानी से यह नहीं कह सकते कि साधारण मनखे और चोर-उचक्को के सांस्कृतिक इतिहासों में किसका इतिहास उज्ज्वल-निर्मल होने से कितना कोस दूर था।


इस काल में ठगों का स्थानीय, राज्यीय, राश्ट्रीय एवं अंतर्राश्ट्रीय स्तर तक का गिरोह किसी सक्रिय ज्वालामुखी की तरह सक्रिय था। इन्हे ठग कला का प्रचुर ज्ञान था। वे विभिन्न लुभावनी वादों एवं योजनाओं के जाल में किसी को भी फँसा सकते थे। यहाँ के लोग कुषासन, भ्रश्टाचार, जाति एवं धर्मगत वैमनस्यता को पसंद करते थे। ये हर कार्य उलट करते थे। जैसे हरेक बात सत्‍यनिष्‍ठ एवं ईमानदारी की करते थे लेकिन वास्तव में इनसे बढ़कर बेईमान, झूठे और मक्कार किसी भी युग में नहीं हुआ और संभवतः भविष्‍य में होगा भी नहीं ।


इस समय ज्ञान का स्तर इतना उच्च था कि अँगूठाछाप लोग डिग्रियाँ बेचा-बाँटा करते थे। भयानक छूत एवं अतिसंवेदनशील संक्रामक रोगी डाॅक्टरी पढ़ाते थे। सत्ता की चैपायी कुर्सी को अपंग कर चैपाया मानसिकता के ये विकलांग लोग देश को चौपाए की तरह हाँका करते थे। अपने मन के अमन-चमन के लिए बेमन मनभर मन की बातें करते थे। सुनाने के लिए रामायन की चैपाई गाया करते और अपने संजयो के द्वारा महाभारत कथा देख-सुन कर मजे लिया करते थे। इस तरह इस युग में सुनने-सुनाने, कहने -बताने, देखने -दिखाने और समझने -समझाने के षब्द, अर्थ और प्राय-अभिप्राय में अर्ष-फर्ष का अन्तर विद्यमान था।
कागज के प्रमाण पत्रों में उल्लेखित बातों को ही वास्तविक, अकाट्य सत्य, प्रमाणित साक्ष्य और सिध्द माना जाता था। न्याय अंधा था जो अपने अंधत्व को छिपाने के लिए आँखों में पट्टी बांधे, टटोल, तौलकर फैसले लिया करता था। इस काल की सबसे बड़ी अविष्वसनीय, अकल्पनीय और विस्मयकारी विडम्बना यह थी कि जीवित लोगों से जीवन प्रमाण पत्र माँगा जाता था और मृतकों के नाम पेंषन, पदोन्नति आदि आसानी से उपलब्ध हो जाता था।


क्षुद्र महात्वाकांक्षी और गंदे इतिहास के लोग स्वयं के शुद्ध सात्विक भौतिक रसायनों के रसास्वादन और स्वच्छ-स्वस्थ भूगोल -पर्यावरण के लिए गंदी भाषा का बड़ी सहजता से इस्तेमाल करने मे सिद्धहस्त थे। ये असत्य, अपरिकल्पनीय और असिध्द गणीतीय सूत्रों का प्रयोग -दुरूपयोग कर प्रसिध्दि के शिखर चूमने सदैव तत्पर और लालायित रहते थे।


इसे मशीनीयुग भी कहते है। लोग मशीनों की तरह मर मरकर दिन रात काम करते थे। मशीनों से युक्त ये मनखे मानवीय गुणों से पूरी तरह मुक्त होकर पशुत्वयुक्त हो चले थे।


इन दिनों बेटियों की पैदाइश और पढ़ाई की सिर्फ लच्छेदार बातें दैहिक शोषण, दहेज पोषण और फकत मान-बड़ाई रोपण के उद्देश्‍य से होती थी।
लोग उच्च किस्म के सूदखोर, घूसखोर, नियतखोर, लतखोर और परिपक्व हरामखोर होते थे।


मौसम की अनिष्चितता एवं उतार-चढ़ाव के कारण हर मनखे बीमार और पंगुरहा था। मधुमेह, डायबिटीज, दमा, कैंसर आम बात थी। प्रायः प्रत्येक दूसरा मनखे गुप्त रोगी होता था। यही कारण है कि इस युग के समाचार पत्रों में पहले खाओ, तेल लगाओ और गोल्लर हो जाओ की तर्ज पर दवाईयों के विज्ञापन की भरमार थी।
यह पूरी तरह बैलबुद्धियों का जमाना था जहां पालकी पर सवार गधे आदेष फरमाते थे और सीखे-पढ़े हुनरमंद बैल पसीना बहाते हुए कोल्हु से जनता का तेल निकालते थे।
लोगों के भेजे में भूसा भरा था। वे किसी संत के रट्टू तोते के समान थे। मनखे-मनखे एक समान का नारा चिल्लाते रहते थे और  दिनरात अपने फार्म हाउस में जात-पात की सब्जियां उगाते थे, जिन्हे मण्डियों में बेचकर भारी-भरकम मुनाफा कमाते थे। चटखारे लगा-लगाकर बिरायानी पुलाव खाते थे। बचे-खुचे बिरयानी पुलाव विदेषों में बेच आते थे।


मानव सेवा ही परमात्मा सेवा है। सभी जीवों पर दया करो आत्मा में ही परमात्मा का वास होता है आदि-आदि दुर्गणों-दुर्भावनाओं से भरे अति नीच महत्वाकांक्षी लोग मनखे का अपमान और पद का सम्मान करने लगे थे। उच्च पद लोलुप हो चले थे। यही कारण है कि प्रायः प्रत्येक दूसरे तीसरे वाहनों में पदयुक्त पट्टिका लगी होती थी। इससे यह आभासित होता है कि छँटे-कटे, लुटे-पीटे, रपटे-निपटे, अपटे-फटे, कपटी और मुर्दा लोग सारगर्भित जीवन के इच्छुक-भिक्षुक थे।
छप्पन इंची छाती वाले भी कायर और डरपोक होने के कारण भीड़ को ही सर्वोपरि समझते थे। भीड़ लेकर चलना ही बलिश्ट और हृश्टपुश्ट पुरूश होने का प्रमाण होता था। वे भीड़ और भेंड़ तंत्र के सर्वोत्तम संवाहक थे।


इस जमाने में छप्पन अंक अत्यंत प्रभावशाली और शुभ माना जाता था। छोरियां छप्पन छुरी और छोरे छप्पन इंची हुआ करते थे। दोनो छप्पनों के योग संयोग से 112 नंबर डाॅयल होने पर पुलिस और अस्पताल दोनों सेवाएं उपलब्ध हो जाती थी।

लोग बहुमुखी प्रतिभा के धनी होते थे। एक चेहरे पे कई चेहरे लगा लेते थे। शिव का तांडव, कृष्‍ण की रासलीला, द्रोपदी का चीरहरण, धृतराष्‍ट्र का पुत्रप्रेम और सीताहरण सभी एक साथ इसी युग में दिखाई देते थे। इसी कारण इस सभ्यता को मुखौटा सभ्यता भी कहते है।


मनुष्‍य की पहचान, हैसियत और औकात की नापजोख उसकी धन-सम्पत्ति और पहनावे से होती थी न कि उसके रूप , गुण और हुनर से।
यह युग पूरी तरह गठबंधन का युग था। कला एवं संस्कृति की असली पहचान उसका कम टिकाऊ ज्यादा बिकाऊ होना थी। सतयुग में डाहवष दूर-दूर रहने वाली सरस्वती और लक्ष्मी में स्वार्थवश एका हो गया था। यही कारण है कि कला और संस्कृति अर्थात सरस्वती, लक्ष्मी कमाती थी तो लक्ष्मी चौसठ कलाओं का बाजार लगाती थी। इस युग की एक और विशेषता यह थी कि चरणपादुका विहीन चाटुकार व्यक्ति चारण गाते-गाते एक दिन महाकवि हो जाता था।

न्यून और अति उम्र के बाबा आश्रम-आश्रम में मस्त थे। बीबियाँ और बाईयाँ फ्लैट-फ्लैट में व्यस्त रहती थी। बाबूलाल ऑफिसऑफिस में पस्त रहते थे। सभी अपने-अपने खेल में अभ्यस्त और सिध्दहस्त थे।
धर्मेन्द्र निर्मल
भिलाई छत्तीसगढ़ 94060 96346

धर्मेन्द्र निर्मल
भिलाई छत्तीसगढ़ 94060 96346

Loading

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *