’’समकालीन कविताओं में आज का सामाजिक परिदृश्‍य’’ -डॉ. राजेश कुमार मानस

समकालीन कविताओं में आज का सामाजिक परिदृश्‍य

-डॉ. राजेश कुमार मानस

’’समकालीन कविताओं में आज का सामाजिक परिदृश्‍य’’ -डॉ. राजेश कुमार मानस
’’समकालीन कविताओं में आज का सामाजिक परिदृश्‍य’’ -डॉ. राजेश कुमार मानस

’’समकालीन कविताओं में आज का सामाजिक परिदृश्‍य’’

समकालीन परिस्थिति में समाज और उसकी दशा और दिशा दोनो ही हमारे सामने है। वास्तव में आज का समय समाज में वैश्वीकरण का है, जिसके कारण से सारा संसार एक छोटे से घर की तरह सिमट गया है। पूरी दुनिया आदमी के मुट्ठी में आज कैद है। आज मानव मशीन बन गया है और उसने मशीन की तरह ही अपनी जिन्दगी को ढाल लिया है। उसके उठने-बैठने,चलने-फिरने, खाने-पीने,सोने-उठने यहॉ तक कि उसके सोचने-समझने में भी मशीन का प्रभाव दखल करने लगा है। वर्तमान में चूंकि उसकी सोच और मनोभावों पर भी यह असर दिखाई देता है,जिसे हम समाज के प्रति उसका राग और अनुराग में आंकलन कर सकते हैं।

आज समाज में जिस प्रकार गला काट प्रतियोगिता चल रही है,उसके चलते कोई किसी से पीछे नहीं रहना चाहता। सभी इस दौड़ मे शामिल हैं और परिणाम में सभी अपनें को प्रथम पायदान पर देखना चाहते हैं। इसका ही प्रतिफल है कि समाज में आज संवेदना मरती जा रही है, सभी एक दूसरे को पीछे धकेलने में लगे हैं। कोई गिर रहा है,कोई मर रहा है तो हमें इससे क्या? हमें तो आगे बढ़ने का अवसर मिल रहा है और यही बात समकालीन कविताओं में प्राप्त होती है, जिसमें समाज के इस भयावह रूप को रचनाकार हमारे सामने प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं।

आज का समय अनेंक विसंगतियों से भरा हुआ है,ऐसे में समाज में आज मानवता के खिलाफ विरोधा भाषी परिस्थितियों का निर्माण हो रहा है, अनेंक समस्याएं अपना सिर उठाने लगी है और वह समाज में समाज विरोधी कार्य करने लगे हैं। अनेंक गहरी और जटिल समस्याऍ इतिहास में व्याप्त हो रही है,उनमें हैं-वैश्विक रूप में बढ़ता आतंकवाद का कहर, देश के अंदर फैल रहा नक्सलवाद का जहर, आरक्षण की समस्याऍ , प्राकृतिक समस्याओं में जल का संकट, प्रदूशण एवं पर्यावरण की समस्याऍ ,सही शिक्षा नीति की समस्याऍ , राजनैतिक प्रदूषण, पूंजीवाद से बढ़ती असमान आर्थिक नीति, असमान सामाजिक व्यवस्थाऍ आदि और इन सभी समस्याओं से हमें कहीं न कहीं दो चार होना ही पड़ता है, ऐसे में समाज के प्रति जवाबदेह व्यक्ति, विचारक चिंतक, कवि, समालोचक साहित्यकार एवं समाज सेवकों का इन पर अपना ध्यानाकर्षण करना अनिवार्य है और इन सभी को अपने स्तर पर आवाज उठाने की आवश्यकता है।

आज का रचनाकार यह जानता है कि समाज में किस प्रकार वर्तमान में आपा-धापी मची हुई है, किस तरह लूट मची है। लोग एक दूसरे को धोखा दे रहे हैं, कैसे एक दूसरे के साथ विश्वासघात कर रहे हैं औा चूंकि वह यह सब जानता है इसलिए अपनी रचनाओं में इन्हीं सब बातों का उल्लेख कर अपनी चिंता व्यक्त करता है-

’’उज्जयिनी में
भेश बदलकर
घूम रहा बेताल।
नये-नये विक्रम को ढूंढे
उनको रोज तलाषे
वाग्जाल में उलझाकर वह
हर विक्रम को फॉसे
उनके सिर के टुकड़े कर दे
और खींच ले खाल।’’
-डॉ़. अजय पाठक 1

’’पूंजीवादी दानव ने हमारी आस्थाओं, परम्परा और हमारे नैतिक आदर्शों को एक-एक कर लीलना शुरू कर दिया है, अर्थवादी इस युग में लोग पैसे के पीछे भाग रहे हैं, अकूत धन कमाने की जुगत में लोग उनके हितों पर भी कुठाराघात करने लगे हैं,जिनका पूरा जीवन उन पर ही आश्रित है, एक मेहनतकश दिहाड़ी मजदूर,रिक्शा खींचकर आजीविका कमाने वाला एक गरीब व्यक्ति, किसी दफ्तर में छोटी सी तनख्वाह से परिवार पालने वाला चपरासी अथवा एक राजमिस्त्री किस हालत में है और किस तरह जी रहे हैं यह देखने की किसी को फुर्सत नहीं है,बात यहीं खत्म हो जाती तो गनीमत थी मौका मिलते ही लोग उनका भी हक मार लेते हैं।’’ कवि इसी बात को अपनी रचना में उजागर करने की कोशिश करता है –

दिन भर मेहनत खूब करता है
बहुत पसीने बहाता है
शाम ढले घर को आता है
पत्नी भोजन की थाली लाती है
थाली में बेबसी और
रूखा-सुखा ही रह जाता है।

  • डॉॅ. राजेश कुमार मानस 2

ज्माने में हवा की तासिर को देखकर प्रसिद्ध आलोचक डॉ. नामवर सिंह जी का बयान है-

’’क्षमा मत करो वत्स
आ गया दिन ही ऐसा
ऑंख खोलती कलियॉं भी
कहती हैं पैसा ’’

-नामवर सिंह 3

आज समाज में मानवता और सामाजिकता का कोई मूल्य नहीं रहा, रहा है तो केवल पैसे का ही महत्व रहा है। प्रत्येक स्थान पर पैसा पूजित है इसके सामने सब कुछ बौनी है और इसके बगैर इन्सान कुछ भी नहीं, समाज में वह किसी योग्य नहीं है। पैसे की आज बड़ी अहमियत है इसीलिए आज के संदर्भ में हवाओं में भी पैसे का सरगम सुनाई देता है।

समकालीन समय में परिस्थितियॉ इस तरह बदल गयी है कि आज आदमी को आदमी से खतरा का अहसास होने लगा है। आज के संदर्भ में आदमी के पास से मानवता खत्म होते नजर आ रही है और वह अपने लाभ के लिए किसी को भी हानि पहुंचाने में तनिक भी हिचक महसूस नहीं करता है। आज कवि इन्हीं बातों का उल्लेख करते हुए कहता है कि एक समय वह था जब इन्सान पशुओं के बीच भी सुरक्षित रह लेता था और एक आज का समय है जब इन्सान -इन्सान के बीच असुरक्षित है-

’’पशुओं के बीच
जितना सुरक्षित रहा
एक समय
आदमी
उससे कई गुना ज्यादा
असुरक्षित है आज
आदमी के बीच
आदमी।
-प्रयास जोशी 4

खून-खराबा, अस्ला-बारूद, बम-धमाके, विध्वंस, नरसंहार, आये दिन मासूमों और बेकसूर लोगों की हत्याएॅ, आतंकवाद एक खूंखार चेहरा है जो मानवता के लिए नासूर है। सारे विश्व में आज इसका डर बैठ गया है और हर कहीं पर जहॉं आतंकवाद है वहॉं इसकी धमक से कंपन, जलजला उत्पन्न होने लगा है, न जाने कितने मासूमों की बलि इसने ले ली है। इसे अपने सामने अपने और पराये कुछ भी नजर नहीं आते, यह तो केवल खून का प्यासा है,जो खून का लाल रंग देखकर ही खुष होता है। जब इस तरह के नरसंहार को आज का कवि देखता है तब वह पीड़ित शब्दांकन करता है-

फिर उड़े खून के छींटे
फिर मचा हाहाकार
फिर थोड़ी चीख पुकार
फिर अधनंगी देह को छलनी करती
गोलियॉं
फिर तिरंगे में लिपटे कुछ शव
फिर चौराहे पर जली मोमबत्तियॉं
फिर कुछ मौन और शोर मचाती रैलियॉं।

  • सच्चिदानंद जोशी 5

नक्सलवादी आतंक के इस स्वरूप से केवल मानवता ही नहीं कांप रही बल्कि प्रकृति भी थर्रा रही है और वह भी इनके डर से अपने आसपास के लोगो के बीच में इस भयानक विषय पर चिंता प्रकट करती है और उसकी इस चिंता और चिंतन को कवि अपने शब्दों में कुछ इस तरह कहता हैः-

बड़ी देर तक महुआ रोया
सुबक उठी कचनार
उस दिन
जिस दिन विस्फोटो से
दहला चिंतलनार।
सरई बोला, इमली मौसी
इतना तो बतलाओ
इसके पीछे क्या है
इसका मतलब तो समझाओ
किस कारण से हुआ यहॉ पर
भीशण नरसंहार।’’

  • डॉ. अजय पाठक 6

समाज में आज किस तरह से लोग स्वार्थी होते जा रहे हैं। स्वार्थलिप्सा में फंसे आज के परिवेष में किस तरह आदमी का आदमी के प्रति व्यवहार बदल रहा है, इसे कवि अपने अनुभवों के द्वारा महसूस किये व्यवहारों पर अपनी बात करता है :-

प्रश्न भरे ये दिन है मेरे
प्रश्न भरी ये रातें
किसको कहें
भला हम अपना
किससे दिल की बातें।’’

– डॉ. विनय कुमार पाठक 7

समकालीन समाज में बढ़ते पूंजीवाद की समस्या एक ओर अमीर का और अमीर होते जाना और दूसरी ओर सर्वहारा वर्ग का और दमित होना समाज में विरोधाभाष की स्थिति निर्मित कर रही है। इसके चलते वर्ग संघर्ष बढ़ने लगा है और अपने अधिकारों की रक्षा के लिए दोनो आमने-सामने होने लगे हैं। समाज में सर्वहारा की बढ़ती समस्याओं के लिए कवि का शब्द है :-

मीलो लम्बा सफर /योजनों लम्बा जीवन है
लेकिन उसके साथ / भ्रमित पंथी जैसा मन है
गलत पते के खत से / भटक रहे हैं इधर-उधर ’’

  • जहीर कुरशी 8

कुछ इसी तरह –

चिथड़ों में लिपटी जिन्दगी अपनी
मेहनत को ही पूजा हमनें माना है
न सर पर छत,
न ही कोई निष्चित ठीकाना है
फिर भी जीये जा रहे हैं
हम मेंहनतकश।

  • राजेश कुमार मानस 9

नारी -विमर्श पर आज बहुत चर्चाएं हो रही है। बहुत से संदर्भों में स्त्री-विमर्श की बातें की जा रही है। अनेंक मंचो और सभाओं में इस मुद्दे पर विचार हो रहे हैं। कवियों ने इस संदर्भ पर अपनी बात इन पंक्ति से कहा है –

इच्छाऍ दबाकर, बदलकर स्वभाव को
जैसे ससुराल में पसंद था
रोगों को झेलकर, दिखलाकर
सगुन चार बच्चे पैदा किए। ’’

  • रघुवीर सहाय 10

डोल उठा आसन सा / जीवन का रंगमंच
नारी ने पुरूश से / सीख लिया हर प्रपंच
सत्ता की किरणों से / रंग हुए परिवर्तित
सबने यह समझा कि / भद्राएॅं बदल गईं।

  • मुकुंद कौशल 11

बदलते परिवेश के साथ बदलते हालात् और बदलती व्यवस्थाओं को देखकर ही आज का कवि कहता है कि अब समाज के भले और बूरे पर अपनी पैनी नजर रखने वाले और उन पर कुठाराघात करने वाले चिंतकों की स्थिति भी बदल गई है। अब समाज के वे पहरेदार ,सचेतक बूढ़े हो गये हैं और साथ ही महत्वहीन भी –

संत और सेठ
दोनो का चेहरा गोल है
शंकर हो मार्क्स
दिदरो या चार्वाक
बचकाने लगते हैं
मेरे जमानें में।

  • कैलाश बाजपेयी 12

जब समाज के सचेतक जिनसे समाज में चेतना जागृत होती है ऐसी स्थिति में पहुॅंच जाते हैं तब निष्चित ही समाज में स्वेच्छाचारी स्वभाव का फैलाव हो जाता है और लोग अपने ही किये हुए कार्य को उचित मानने लगते हैं। वह अपने को सही सिद्ध करने में लगा रहता है और जब इस तरह के माहौल बनते हैं तब सबकुछ गड्मड् हो जाता है ऐसे में कवि पूरे दृष्य की सपाट बयानी करता है –

जहॉ तेरा वुजूद किस्तों में बिकता है
बावला है रे,जो कविता लिखता है
गरीबों के लिए बिक
बेकारी के लिए बिक
मंहगाई के लिए बिक
बच जाये जिन्दा तो कविता लिख।

  • सुरेन्द्र दुबे 13

समकालीन कविता कवियों की अपनी देखी,परखी अनुभवों की,उनके द्वारा भोगे गये समय के साथ सुख-दुख, हंसी-खुशी, अच्छे-बुरे सभा के पल
-पल की बातों का एक जीवित दस्तावेज है,जो उनके साथ-साथ समाज के अन्य लोगो, व्यवस्थाओं, काल-घड़ी -चक्र में घटित होने वाली तथा हो रही घटनाक्रमों का रोजनामचा है। आज समाज में जन मानस के बीच आमजन की पीड़ा, तकलीफ, बेबसी, आंॅसू, लाचारी सारा कुछ जो भी घट रहा है कवि को दिखाई देता है और वह अपनी रचनाओं में उन आमजनों की पीड़ा को स्वर देता है। वह देशकाल परिस्थिति के अनुसार देश में हो रहे सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक,पारिस्थितिक और मनोवैज्ञानिक बदलावों पर भी अपनी बात कहता है और समय चक्र के साथ प्रकृति, बसंत, धरती,माटी और पर्यावरण पर अपनी चिंता प्रकट करता है। समकालीन कविता में कवि अपने परिवेश, मानव समुदाय और उसके क्रियाकलापों का उल्लेख करता है-

कुछ समीप की/कुछ सुदूर की
कुछ चंदनकी/कुछ कपूर की
कुछ में गेरू/कुछ में रेषम/कुछ में केवल जाल
ये अनजान नदी की नावें/जादू के से पाल।

  • डॉ. धर्मवीर भारतीय 14

और राष्ट्र कवि के स्वर में –
समय के समर्थ अश्वमान को
आज बंधु चार पांव ही चलो
छोड़ दो पहाड़ियॉ, उजाड़ियॉ
तुम उठो कि गांव-गांव ही चलो।
राष्ट्रकवि- माखन लाल चतुर्वेदी

समकालीन परिवेश में कविता समाज का जीवन दर्शन है और समकालीन कविता एक नये इतिहास का सृजन कर रही है।

संदर्भ ग्रंथ :-

  1. मन बंजारा-डॉ.अजय पाठक- पृष्ठ-19,वैभव प्रकाशन, अमीनपारा -रायपुर(छ.ग.)
  2. वह काला सा आदमी- राजेश कुमार मानस’’श्‍याम’’-पृष्ठ-39,श्री अक्षय पब्लिकेशन-इलाहाबाद(उ.प्र.)
  3. आजकल(हिन्दी मासिक)अक्टू.-2016-नामवर सिंह विशेषांक पृष्ठ-21,प्रकाशन विभाग- नई दिल्ली
  4. कालचित्र-प्रयास जोशी- पृष्ठ-’’पशु’’, म.प्र.साहित्य परिषद-भोपाल(म.प्र.)
  5. अक्षर पर्व-मासिक,फर.-2015-सच्चिदानंद जोशी,पृष्ठ-39,पत्रकार प्रकाशन प्रा.लि.-रायपुर(छ.ग.)
  6. गीत मेरे निर्गुणियॉं- डॉ.अजय पाठक-पृष्ठ-106,श्री प्रकाशन, आदर्श नगर -दुर्ग(छ.ग.)
  7. किसको कहें भला हम अपना-डॉ.विनय कुमार पाठक-पृष्ठ-50, पंकज बुक्स-प्रकाशन,दिल्ली
  8. आजकल(हिन्दी मासिक)सित.-1991,जहीर कुरैशी,पृष्ठ-8, प्रकाशन विभाग- नई दिल्ली
  9. वह काला सा आदमी -राजेश कुमार मानस ’’श्याम’’-पृष्‍ठ-30,श्री अक्षय पब्लिकेशन-इलाहाबाद(उ.प्र.)
  10. आजकल (हिन्दी मासिक)मार्च-1991,रघुवीर सहाय,पृष्ठ-12,प्रकाशन विभाग -नई दिल्ली
  11. नये पाठक-त्रैमासिक-अक्टू.-दिस.-2009,मुकुंद कौशल, पृष्‍ठ-24, प्रकाशक-श्रीमती रीता पाठक- विनोबा नगर,बिलासपुर (छ.ग.)
  12. महास्वप्न का मध्यांतर-कैलाश बाजपेयी-नेशनल पब्लिशिंग हाउस,दिल्ली
  13. किस पर लिखॅूं कविता- डॉ. सुरेन्द्र दुबे-पृष्ठ-13,अभिषेक प्रकाशन -विद्युत नगर -दुर्ग(छ.ग.)
  14. आजकल (हिन्दी मासिक) दिस-1991-डॉ. धर्मवीर भारती,पृष्‍ठ-5, प्रकाशन विभाग- नई दिल्ली
  15. आजकल (हिन्दी मासिक) दिस.-1991-माखन लाल चतुर्वेदी, पृष्ठ-4,प्रकाशन विभाग- नई दिल्ली

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