
श्रीमती शकुंतला तरार,
एक ऐसी कवयित्री जो बस्तर में जन्मीं और बस्तर को ही अपनी कलम का केन्द्र बनाया।
सोचिए — जिस धरती पर जन्म हुआ, उसी पर इतनी गहराई से लिखा कि
बस्तर की आत्मा, उसकी लोककथाएँ, क्रांतिकारी नायक, और लोकभाषा तक —
सब उनकी रचनाओं में साँस लेते हैं।
‘बस्तर का क्रांतिवीर गुंडाधुर’,
‘बस्तर की लोककथाएँ’,
‘मेरा अपना बस्तर’ कविता संग्रह,
और हल्बी भाषा में लिखे उनके बालसाहित्य —
जैसे ‘बस्तर चो फुलबाड़ी’ व राँडी माय लेका पोरटा –हल्बी गीति कथा –साहित्य अकादमी दिल्ली से प्रकाशित’ —
इन्हें बस्तर की लोकसंवेदना का सच्चा स्वर बना देते हैं।
अनकहा दर्द’’ बस्तर
घूमते अरण्य में
रहते बियावान
साल, सागौन, तेंदू ,चार,
महुओं के सुगंध में
रच-बस कर पुलकित होते
हिरणों की तरह कुलांचे भरते
आता है जब साल बीज का मौसम
फिर जल उठता है जंगल
सूखे पत्तों में
धू-धू कर करके
नहीं लगता डर
जलते हुए जंगल से
नहीं लगता डर
अरण्य के आदमखोर जानवरों से
क्योंकि ?
इनके जान बचाना
एक तीर है पर्याप्त
एक कुल्हाड़ी काफी है
पेट भरने के लिए
कपड़ों के चंद टुकड़े
तन ढकने को
मिट्टी, लकड़ी, खद्दर छानी की झोपड़ी
बारिश से बचने को
गर्मी में आकाश रूपी चादर
धरती का बिछौना
ठंड में आग के किनारे
एक चादर और धूसा बहुत है
परंतु,
अब निःस्तब्ध रात में
लगता है भय
मासूमों के भयभीत चेहरे
कि न जाने मौत
किस रूप में खड़ी हो जाये सामने
जो कहलाते तो मनुष्य हैं
इन्हें शरण दें तो ….
खाकी वर्दी का डर (पुलिस)
न दें
तो खाकी वर्दी का डर (नक्सलवादी)
निःस्वार्थ मन पर है
स्वार्थियों का कब्जा
बस्तरवासियों को लग गई है
बाहर वालों की नजर
भक्षक, साहूकार, लुटेरे बाहर के
रक्षक भी सब बाहर के
भरोसा किस पे करें
उन्हें तो लुटना ही है
भक्षक लूटे चाहे रक्षक
सुनो तो,
मां बहनों की अस्मिता
बच्चों का बचपन
किशोरवय का उल्लसित जीवन
खतरे में है
ढलान पर है
अरण्य के भीतर की
वही जानी पहचानी खुशबू
जो अब लगती पराई है
जिस पर रक्षकों का कब्जा है
भक्षकों का डेरा है
जंगली बेलें, फूल-फल पेड़-पौधे
पुकारते हैं अपनों को
करुण पुकार से
पर वहाँ भी अब डाला स्वार्थ ने डेरा है
साक्षरता, संस्कृति, सभ्यता के नाम पर
लुटेरों का बसेरा है
शिक्षा ने पैदा कर दी है
संवभावनायें
मगर यहाँ की संभावना
खोखली है
सर्टिफिकेट दिखावा है
क्योंकि,
मेधावी सिर्फ बाहर से आते हैं
इनकी संवेदना कौन समझे
बाहर से आये सेवक
जो बस्तरवासियों की सेवा में
‘‘बस तरित’’ हो जाते स्वयं हैं
“एक सुनहरा ख्वाब बस्तर”
बस्तर
एक सुनहरा ख्वाब
स्वर्ग से सुंदर ख्वाब
जिसने देखा नहीं
उसके लिए एक स्वप्न
शोषित यहाँ की मूल जनता
शोषित स्वयं बस्तर है
इमरती लकड़ी
साल, सागौन, शीशम, नीलगिरी, बाँस
क्या-क्या नहीं
फिर भी यहाँ के मूल निवासी
टूटी फूटी झोंपड़ी
खुरचा पुराना फर्नीचर
यहाँ की खनिज सम्पदा
सब बाहर
यहाँ की वन सम्पदा
व्यापारियों के लिए
तिखूर, चिरौंजी, इमली, आम
चखने मिले तो धन्य
बस्तरिया गरीब से और गरीब
व्यापारियों की छतें बढ़ रही हैं
ऊँची, ऊँची और ऊँची।
शकुंतला तरार
“थाना गुड़ी में”
चहल पहल है आज
थाना गुड़ी में
साहब जी आ रहे हैं
रात यहीं विश्राम करेंगे
नये-नये तबादले पर आये हैं
सुनते थे वे यहाँ आने से पहले
कि बस्तर के लोग
गांव जंगल आदिवासी
ऐसे वैसे
और अब आना हुआ है
तो ऐसा सुनहरा मौका
क्यों चूका जाय
साहब भीतर ही भीतर बहुत खुश हैं
मातहतों के चेहरे
घबराहट में जल्दी से जल्दी पीने का
और साथ में मुर्गे का भी
करना इंतजाम है
क्या करें ?
अचानक ही दौरा जो तय हो गया
अब तो रात में
घोटुल से चेलिक मोटियारिन आएंगे
रीलो गाकर साहब को खुश करेंगे
और साहब
अपने ग्रामीण क्षेत्रों के दौरे का समय
सानंद बिताकर
वापस लौट जाएंगे
शहर मुख्यालय की ओर
पुनः आने के लिए।
“लिपटे हुए साँप”
हवा आज चंचल है
उसका व्याकुल मन भी चंचल हो रहा है
वह चली घड़ा लेकर पनघट
नदी प्रेम की बह रही है पर,
यादों का सागर ठाठें मार रहा है
पीड़ा के भँवर में साँसें
गोते लगा रही हैं
पावों की पैरी
जैसे लिपटे हुए साँप
सुनो तो,
अब भी जाती है वह
पनघट पर पानी भरने
किन्तु
अब उसे हवा की चंचलता
जरा नहीं सुहाती
पनघट का वह किनारा
जहाँ बैठकर
किया करती थी सुख दुःख की बातें
प्यार भरी चुहल छेड़छाड़ मस्ती
सखियों संग
अब न तो वे सखियाँ सभी हैं
और न चुहल करने का
कोई माध्यम
किससे करे वह मन की बात
कहीं कोई —???-अप्रत्याशित — तो नहीं
उसके मन में बना ली है जगह
एक भय से सिहरन
किन्तु
कब तक जिएँ वे
भय के इस इंद्रजाल में उलझकर
वह और उस जैसी
गाँव की भोली-भाली, मासूम
चालाक चतुर
किन्तु शिकारियों से भयभीत
ये हिरनियों के दल |
शकुंतला तरार
प्लाट नं-32, सेक्टर-2, एकता नगर, गुढ़ियारी, रायपुर (छ.ग.)पिन-492009






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