डॉ. अर्जुन दूबे की 6 समसमायिक व्यंग रचनाएँ
1.बकझक परिधान की
क्या पहने, क्या नहीं; कैसे पहने, क्यों पहने! हम लोग स्कूल, कालेज और विश्वविद्यालय में पढ़े, पहनने को लेकर कभी ध्यान ही नहीं गया दूसरे का नहीं, अपने का क्योंकि परिधान ही कम थे। हां दूसरे जिनके पास परिधान बहुतायत थे उनके क्या पूछना! नये-नये, तरह-तरह के परिधान पहन कर आते थे, कोई ईर्ष्या नहीं, न ही शिकवा कि मेरे पास क्यों नहीं। कभी ध्यान ही नहीं गया, पढ़ाई करो, नौकरी मिली तो परिधान की व्यवस्था तो हो ही जाएगी।
तकनीकी संस्थान में अध्यापक की नौकरी मिली; छात्र/छात्राएं विभिन्न परिधानों के साथ कक्षाओं में नजर आने लगे; शुरू-शुरू में तकनीकी संस्थान के नाते उनके ड्रेस कोड रहते थे किंतु कम अवधि के लिए, बाद में रैगिंग न होने पाए इस लिए ड्रेस कोड हटा दिया गया । तबसे छात्र/छात्राएं विभिन्न परिधानों में प्रवेश लेने के दिन से ही इच्छानुसार कक्षाओं में मिलते हैं; ठंड न पड़े तो बहुत परिधान भी नहीं चाहिए, हां स्मार्ट अवश्य दिखने चाहिए जो कि स्वाभाविक है। सौंदर्य प्रेम अथवा स्वयं को सुंदर दिखाना कौन नहीं चाहता है! हां, निजी क्षेत्र के कुछ तकनीकी/व्यवसायिक संस्थानों में अलग-अलग पहचान के आलोक में अलग अलग ड्रेस कोड निर्धारित हो जाते हैं।
फिल्म जगत ने परिधान के क्षेत्र में रिजर्वेशन नहीं रखा है किंतु आज कल फिल्म जगत भी कोपभाजन का शिकार बना हुआ है। रैंप शो, सौंदर्य प्रतियोगिता इत्यादि क्षेत्रों में परिधान तो रहता है किंतु कितना और कैसा, कोई निर्धारित मापदंड नहीं है और न ही दर्शकों की संख्या में कोई गिरावट दिखाई देती है; शिक्षा जगत में भी परिधान का एक ऐच्छिक पार्ट दुपट्टा कुछ लड़कियां लगाती हैं कुछ बिल्कुल ही नहीं। लड़के भी अधिकतर टी शर्ट, जीन्स वह भी घुटने से फटा रहे तो क्या पूछना! कोई प्रतिबंध नहीं; आलोचना करने वाले ही आलोचना के शिकार बन जाते हैं।
इधर मुझे लगता है कि क्रिया-प्रतिक्रिया, पहचान बनाने एवं इसे बरकरार रखने का दौर चल पड़ा है और ऐसी स्थिति का होना कोई नई बात नहीं है। हिंदू समाज में विवाह के बाद लड़कियां पर्दे में रहने के तहत, विशेष रूप में ग्रामीण अंचलों में, घूंघट में रहती हैं, किंतु किसके सम्मुख? ससुर, जेठ अथवा बड़े बुजुर्गो के सम्मुख; वही जब मायके में जाती हैं, तो दुनिया भर की खुशी स्वतंत्रता के साथ मिल जाती है जिसमें पर्दे की भूमिका कम से कम मायके वालों के सम्मुख तो नहीं के बराबर होती है।
अभी भारतीय उपमहाद्वीप में स्त्रियों के मामलों में नव चेतना अपेक्षित है। यूरोप कम से कम परिधान के मामले में काफी आगे है, भले पश्चिमी सभ्यता का आरोप लगा कर पूरब की सभ्यता उसकी हंसी उड़़ाती हुई उसे कटघरे में रखती है।
2.बोली कहूं कि भाषा?
कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर बानी। भाषा तो वही रही, बानी बदल गयी। मैं अपने बड़े पुत्र का इंजीनियरिंग में प्रवेश कराकर हरियाणा के खाटी क्षेत्र से गोरखपुर वापस आ रहा था, जहां की बानी मैं समझ नहीं पा रहा था किंतु भाषा (हिंदी) में प्रश्न कर कुछ जानने की कोशिश कर रहा था, एक खाटी पगड़ी धारी हरियाणवी ने बानी बोली जिसमें शब्द परदेशी हमारे लिए प्रयोग किया था। मेरे भाषा की बानी ने मुझे उसकी नज़रों में परदेशी बना दिया था। भाषा एक, लिपि एक फिर भी बानी एक नहीं, बानी तो बदल गई। एक प्रसंग और स्मरण हो गया। मेरठ में एक निजी इंजीनियरिंग कॉलेज में हमारे विषय प्रोफेशनल कम्यूनिकेशन (अंग्रेजी भाषा/साहित्य जिसकी पढ़ाई करने से मुझे रोजी रोटी मिली थी और जिसके प्रति मैं कृतज्ञ हूं) का मूल्यांकन चल रहा था। मैं प्रधान परीक्षक था और मेरे साथ एक सहयोगी उपप्रधान परीक्षक जो गाजियाबाद की रहने वाली थी, दोनों अन्य परीक्षकों के साथ मूल्यांकन में सहयोग कर रहे थे कि मेरे फ़ोन पर गांव घर से फोन आ गया और मैं संवाद भोजपुरी में करने लगा, थोड़ी देर बाद मैंने उनसे पूछा कि क्या आप मेरी बात समझ पातीं थी? वह बोली बिल्कुल नहीं, क्योंकि भाषा समस्या नहीं थी, थी तो बोली जो चार कोस पर बदल जाती है, यहां तो मामला तीन सौ कोस का था। उनकी बानी भी तो हमारे लिए वैसे ही हों जाती है जैसे हमारी।
बानी नदी नालों से बहते-बहते भाषा के सागर में चली जाती है जहां बानी की तलाश आसान नहीं है; बानी तो उसी नदी नालों के किनारे मिलेगी। भाषा का दायरा बड़ा होता जाता है क्योंकि इसमें अर्थ पूर्ण लिपि के साथ-साथ अर्थ पूर्ण संरचना, स्थान युक्त और एक उचित क्रम में शब्दों का प्रयोग होने लगता है, जिसे शिक्षा क्षेत्र में विद्यार्थी से लेकर आचार्य भी संवाद माध्यम के वाहक के रूप में प्रयोग करते हैं। हिंदी मातृभाषा/राष्ट्रभाषा के रूप में भाषा के बृहत्तर स्वरूप के कारण ही हो पा रही है; अंग्रेजी विश्व की भाषा के रूप में अंगीकार क्यों की जा रही है? क्यों वैश्विक संवाद की भाषा बनी हुई है; यह असंभव नहीं है कि कोई अन्य भाषा इसका स्थान नहीं ले सकती है।
बोली/बानी का क्या पूछना! इसमें शिशु अपनी मां का दूध पीता है और मां भी प्यार से, दुलार से, डांट से और न जाने कितने तरीकों से दूध पिलाने से लेकर सुलाती रहती है, तभी तो वह बोली/बानी क्रमशः भाषा एवं मातृभाषा बन जाती है। बोली/बानी तो ऐसे मिलाती मानों बिछुड़ी हुई सखियां कितने दिनों बाद आपस में मिल रही हों; इतना लगाव कि पूछना मत। किंतु वही जब भाषा की औपचारिकता में उलझ जाती हैं; भाषा बोली से उठकर परिष्कृत स्वरूप धारण कर लेती है और तो और इसमें शब्द के अर्थ भी संपूर्ण नहीं होते हैं, हां मूल्यवान तो इतने होते हैं कि ये अनमोल बन जाते हैं, बावजूद इनके दूरियां बढ़ जाती हैं।
3.युद्ध, अनिश्चितता और पलायन
यूक्रेन और रूस में युद्ध करने की आपसे में तैयारी, लगता है कि, शुरू हो गई है; भारत ने भी अपने नागरिकों को यूक्रेन छोड़ देने को कहा है। आज के तकनीकी युग में समस्त गतिविधियों की जानकारी मिल जाती है; आज के समाचार पत्र में नेपाल में भी अमरीकी सहायता के खिलाफ हिंसक प्रदर्शन की जानकारी मिली, कारण चीन अथवा कोई अन्य हो; उत्तर कोरिया-दक्षिण कोरिया के बीच तनाव आम बात है; अपने देश में ही अनेक प्रदेश और क्षेत्रों में अन्य को स्वीकार नहीं करने की संस्कृति बन गई है।
थोड़ा पीछे चलते हैं यूरोप की तरफ। हिंसा और अशांति ग्रीस में हुई तो सबसे पहले बुद्धिजीवी वर्ग पलायन किया जिसे करने के लिए किसी ने कहा नहीं था, वे स्वयं यूरोप के अन्य भागों में ज्ञान धरोहरों के साथ भाग गये; हमारे यहां शास्त्र में भी उल्लिखित है कि बुद्धिमान पुरुष को उपद्रवग्रस्त क्षेत्र का अविलंब परित्याग कर देना चाहिए, ऐसा बुद्धिमान लोग करते ही रहते हैं।
स्वार्थ में पलायन के दुष्परिणाम को ताकतवर स्वार्थी जान बूझ कर अनजान परिणाम कृत्य करने लगता है। लोग तो विकल्प की तलाश में इधर-उधर जायेंगे ही; अपने बृहत्तर भू-भाग को लेकर शासन करो परंतु किसके ऊपर? उस विरान क्षेत्र पर जहां पर पड़वे भी चरते नहीं मिलेंगे। तकनीकी ने हमें इतना दिया है, पर कैसे? हमारे प्रयासों से और भविष्य में भी देती रहेगी किंतु कब तक?ज ब तक उपद्रवग्रस्त, असुक्षा और मानसिक परतंत्रता का माहौल नहीं बना रहेगा।
4.चक्रवर्ती बनने के लिए राजसूय यज्ञ
मैं चक्रवर्ती सम्राट हूं। सम्राट काल तो कभी का समाप्त हो चुका है। किस दुनियां में रहते हो? सम्राट कभी नहीं खत्म हो सकते हैं। सिकंदर क्यों विश्व विजय पर निकला था? इस लिए कि सभी सम्राट उसे विश्व सम्राट समझें। युद्ध करता रहा, पराजित करता रहा, अपनी अधीनता स्वीकार कराता रहा। अंत में थक कर अपने सेनापति सेल्यूकस को शासन का दायित्व देकर वापस चला गया और फिर अंत में सदा के लिए वहां चला गया जहां सभी जाते ही है; आज भी मानव वहीं जाता है किंतु…। अशोक बहुत प्रतापी सम्राट हुआ था; अपने प्रताप और प्रभुत्व को कायम करने के लिए कितनों से युद्ध करके उन्हें पराजित किया था किंतु एक छोटे से देश ने पराजय स्वीकार नहीं की, युद्ध हुआ और उस समय के हिसाब से महाविनाशक युद्ध था; कलिंग अंततः रक्तपात की कीमत पर पराजित हुआ। अशोक के चक्षु खुल गये, युद्ध और शासन करने की प्रवृत्ति से वैराग्य हो गया।
आज वैराग्य क्यों नहीं हो रहा है? प्रथम विश्व युद्ध हुआ, द्वितीय विश्व युद्ध हुआ, मानव विनाश ही परिणाम रहा।यह कैसा मानव था जिसने मानव को गैस चैंबर में जिंदा जलाने में भी हृदय द्रवित नहीं हुआ; यह कैसा मानव रहा जिसे लाखों लोगों को परमाणु बम से हत्या करने में झिझक भी नहीं हुआ; यह कैसा मानव है जो आज भी अपनी प्रभुता सिद्ध करने के लिए तेरे टुकड़े हजार होंगे, मेरी बात सुन और जैसा मैं कहता हूं वैसा ही करो। मैं युद्ध रूपी राजसूय यज्ञ कर रहा हूं, यज्ञ का घोड़ा छोड़ दिया हूं। संभलने का अवसर नहीं मिलेगा। लोग बदहवास भाग रहे हैं फिर भी मुझे किसी की परवाह नहीं है क्योंकि अहिंसा परमो धर्म का औचित्य नहीं है, मैं ताकतवर हूं जिसे सिद्ध करने के लिए हिंसा ही धर्म है। मेरी बात समझो, समरथ को नहिं दोष गोसाईं।
5.मंदी विषय पर भोलू-गोलू संवाद
मंदी क्या है? भोलू ने गोलू से पूछा।
मंदी तो कोई भी दुकानदार, चाहे छोटा ही क्यों न हो, बता देगा।
वह कैसे?
गोलू बोला: देख भाई, भाव बड़ा मंदा है, बिक नहीं पायेगा।
पर वह कैसे?
देखो भाई, कोई भी धंधा करो, कोई हर्ज नहीं है बशर्ते कि धंधे में आमदनी हो।
क्या आमदनी नहीं हो रही है? थोड़ा भाव कम कर दो, विक्री ही विक्री, भोलू ने कहा।
धंधा बंद करना पड़ेगा, बंद क्या, अब बंद करने पड़ रहे हैं।
वह कैसे?
देखो, मैंने एक बार एक ठेला खरीदा था और उसी ठेले पर चाय, पकौड़ी और खाना भी जैसे सब्जी-भात बनाकर एक चौराहे पर कुछ सुविधा शुल्क देकर बेचने लगा और भगवान की कृपा से अथवा यूं कहो कि दिहाड़ी मजदूरों के आशीर्वाद से मेरा काम चल निकला। मजदूर खा पीकर चले जाते थे और शाम को अथवा हफ्ते में पैसा दे देते थे। गोलू ने कहा।
तो फिर क्या हुआ?
कब तक उधार खिलाऊं? मेरी भी हालत खराब होने लग गई।
वह कैसे?
मजदूरों को काम कम मिलने लगा। कहां से रूपए दें!
मैं कोई और धंधा सोचने लगा कि करूं तो देखता हूं वहां भी धंधा करने वाले पहले से ही बैठे रहते हैं, खरीदने वाले बहुत ही कम संख्या में उनके धंधे के सामने रुकते हैं।
दाम कम करने पर भी? भोलू ने पूछा।
खरीदने के लिए पैसा चाहिए न, भले ही भाव टका सेर भांजी, टका सेर खाजा कर दो। यह जो मध्यम वर्ग है अथवा मजदूर वर्ग है उसी में धंधे की तेजी मंदी समाहित होती है, प्रयोगशाला में इसका निर्धारण नहीं हो सकता है।
यह क्या होता है? भोलू ने फिर पूछा?
देखो, पेट्रोलियम कंपनियों द्वारा अखबार में निकलता है, अब तो निकलने के पहले ही मोबाइल देव की कृपा से ज्ञात हो जाता है,कि पेट्रोल/डीजल दाम अर्ध रात्रि से ११पैसे बढ़ा दिए गए हैं। हां तो क्या हुआ?
पैसा तो बाजार में चलन में है नहीं, रूपया है। बस से जाते हो अथवा टैंपो से जाते हो तो किराया रूपया में ही देतो हो ना ?
हां ,सही कहा।
एक बार मेरे पास बहुत खुदरा पैसा तुम्हारे जमाने वाला घर में मिल गया और मैं किराया देने लगा तो कंडक्टर ने कहा नहीं चलेगा, आटो वाला उतार दिया और कहा कि इसका वजन कराकर बेच कर रूपए ले लेना तब यात्रा पर निकलना, गोलू ने कहा।
लेकिन अब तो पेटीएम और गूगल पे से भी हो सकता है, भोलू ने कहा।
लेकिन इसके लिए भी तुम्हारे खाते में रूपए होने चाहिए, गोलू ने समझाया।
देखो ,सामान भी है, गाडियां भी और लोग भी हैं किंतु लोग, बहुसंख्यक, उसे देखते रहें, देखते रहें और देखते-देखते थककर वापस चले जाएं; दाम भी बढे हों, सामान भी खूब हो और लोग भी खूब हों, लेकिन लोगों के पास देखने के अलावा लेने की ताकत ना हो तो इसे “मंदी कहते हैं” गोलू ने मंदी विषय को स्पष्ट करते हुए कहा।
6.पीड़ा-पीड़ा मोचक संवाद
क्यों भाई, कोई तकलीफ़ है? पीड़ा मोचक ने पीड़ा से पूछ दिया।
पीड़ा: एक हो तो बताऊं, यहां तो तकलीफ़ ही तकलीफ है।
पीड़ा मोचक: अपनी ही है कि दूसरे की है?
पीड़ा: अपनी से तो फुर्सत नहीं है, दूसरे की कौन पूछता है!
पीड़ा मोचक: कुछ काम धाम करो, मन लगा रहेगा। अरे सुन, नहीं कुछ तो सड़क पर बैठ कर मूंगफली आदि ही बेचो। चार पैसे मिलेंगे। कुछ तकलीफ़ दूर होगी।
पीड़ा: ठीक कहते हो बड़े भाई, मैं एक बार किसी तरह कर्ज लेकर मूंगफली खरीद कर बेचने के लिए निकल पड़ा था।
फिर क्या हुआ? पीड़ा मोचक ने पूछा।
जैसे ही मूंगफली लेकर सड़क के किनारे बैठने के लिए गुज़र रहा था कि वहां पहले से बैठा हुआ एक मूंगफली बेचने वाले ने हसरत भरी निगाहों से देखा और कहा ले लो बाबू ,ताजी भूनी हुई मूंगफली है
तब?
मैं तो खुद ही मूंगफली बेचने के लिए स्थान देख रहा हूं।
यहां नहीं, दूर चला जा। अपनी तो बिक ही नहीं रही है,वह बड़बड़ाने लगा।
क्यों नहीं बिक रही है, लोगों की अच्छी खासी भीड़ है। मैंने पूछ दिया।
खरीदते विरले ही हैं, देखते हुए निकल जाते हैं, मूंगफली वाले ने ज़बाब दिया।
ऐसा क्यों है?
पता नहीं, शायद पैसे नहीं होंगे।
पीड़ा मोचक: धंधे के बारे में छोड़।आज कल नौकरियों की भरमार है। अखबार में बहुत इस्तहार निकल रहे हैं। एप्लाई कर दो। नोकरी मिली नहीं कि तकलीफ़ दूर हो जायेगी।
पीड़ा:कर्ज लेकर जो भी मुश्किल से मिलता है, यही काम कर रहा हूं इस उम्मीद में कि दिन बहुरेंगे।
पीड़ा मोचक: कहीं बात बनी?
पीड़ा: क्या बनेगी? एप्लाई करते करते आर्थिक और शारीरिक रूप से पस्त होता जा रहा हूं। इस्तहार ही निकालें हैं।उनकी तो चांदी ही चांदी।
वह कैसे? पीड़ा मोचक बोला।
एक बुलावे, दस धावें वाला मुहावरा सुना है न? पीड़ा ने याद करते हुए कहा
दस नहीं और ज्यादा, मैं देख रहा हूं क्योंकि कि मैं मोचक हूं। ऐसा क्यों नहीं करते कि सरकारी की आशा छोड़कर प्राईवेट की तरफ रूख करते! पीड़ा मोचक ने सुझाव दिया।
उमर निकल रही थी, इस लिए उधर भी रूख किया था, पीड़ा ने कहा।
फिर क्या हो गया?
मैं गया तो उन्होंने सहर्ष काम तो दे दिया।
तब क्या?
उन्होंने एक दिन में एक बोरा मूंगफली बेचने का टारगेट दे दिया है।
हां भाई,यह बात तो तुम पहले ही बता चुके हो। मैं पीड़ा मोचक नहीं हूं, तुम्हारा ही भाई समझो।
-डा.अर्जुन दूबे,
सेवा निवृत्त प्रोफेसर, अंग्रेजी,
म.मो.मा.प्रौद्यौगिकी विश्व विद्यालय गोरखपुर