समसामयिक बाल साहित्य सृजन, मानकीकृत पाठ एवं बालसाहित्य इतिहास लेखन
–डॉ अलका सिंह
समसामयिक बाल साहित्य सृजन
मानव के सर्वांगीण विकास में साहित्य का बहुत बड़ा योगदान है। सांस्कृतिक आख्यानों में स्पष्ट उल्लेख मिलते हैं कि साहित्य संगीत कला से विहीन मनुष्य , भले पशु कि आकृति या स्वरुप में न लगे लेकिन उसके हाव भाव व्यव्हार पाशविकता के अधिक निकट रहते हैं। व्यक्ति के जीवन में अच्छे साहित्य से लगाव जितना जल्दी हो जाये व्यक्तित्व के सम्यक विकास हेतु उतनी ही जल्दी संभावनाएं बननी आरम्भ हो जाती हैं। बाल मन बड़ा कोमल होता है , एक कोरा सादा पृष्ठ , जैसा चाहें लिखें – सकारात्मक विचार , नकारात्मक पक्ष , अच्छी सोच या संकीर्णता के भाव। अच्छा साहित्य अविधा , लक्षणा एवं व्यंजना सभी शक्तियों के द्वारा बाल मन के ऐसे रास्तों का दर्शन कराता है , जिसपर चलकर भविष्य में वह व्यक्तित्व की समग्रता का दर्शन एवं अनुशीलन कर सकता है। यदि हम महापुरुषों की जीवनियां पढ़ें , या उनके संवादों या भेंटवार्ताओं को देखें तो कहीं न कहीं बचपन से ही उनपर अच्छे साहित्य की छाप दिखाई देती है।
सामाजिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्थाओं में निहित बाल साहित्य जब बाल पात्रों के माध्यम से बालक बालिकाओं के साथ संवाद स्थापित करता है तो न केवल उनके ज्ञान विज्ञान और अन्य विकसित हो रहे दृष्टिकोणों का , कौशल ऊर्जा और उत्साह का श्रोत बनता है। बच्चे उन्हें आत्मसात करते हैं, उनके गुणों , विशेषताओं एवं बाल पत्रों के स्वरूपों में स्वयं का आकलन करते देखे जाते हैं। विकसित हो रहे बच्चों की मानसिकता में कभी तो उड़ान भरने की क्षमता होती है तो कभी वैज्ञानिकता प्रेरणा स्रोत होती है तो कभी वे तितली और फूल बनकर पारिस्थितिकी और वातावरण से नये संवाद की रचना करते हैं , भूमिका बांधते हैं और जन्म देते हैं एक नए रचना संसार का।
विज्ञान और तकनीकी के व्यापक फैलाव और संचार तकनीकी की सर्वसुलभ पहुँच ने साहित्य के प्रचार प्रसार में जहाँ अभूतपूर्व श्रीवृद्धि की है , वहीँ साहित्य की श्रेणियों एवं रूपों में भी बड़ी घालमेल हुयी है।
इस परिप्रेक्ष्य में हमें बचपन से ही अच्छे साहित्य की पहचान और वो भी अच्छे माध्यम द्वारा सुलभ कराने हेतु गंभीर प्रयास करने की आवश्यकता प्रतीत होती है। यदि हम हिंदी में बाल साहित्य की चर्चा करें तो जो भी स्तरीय पत्रिकाएं हैं उनका प्रचार प्रसार नगरीय या अर्ध नगरीय क्षेत्रों तक ही सीमित है , और जो है भी वह है लोकप्रियता से कहीं अधिक दूर। एक चिंताजनक विषय और है कि बालकों की अपेक्षा हिंदी बाल साहित्य में बालिका चरित्र उतने ज्यादा विद्यमान नहीं हैं। महिला सशक्तिकरण की दिशा में बालकथानकों में सशक्त बालिकाओं का होना शुभ संकेत ही होगा।
मैं अपने एक सर्वेक्षण के आधार पर कह सकती हूँ कि स्कूल जाने वाले लगभग एक हज़ार बच्चों में सिर्फ एक ही जाकर कहीं नियमित रूप से बाल साहित्य की स्तरीय पत्रिका देख पाता है। यह उसके व्यावहारिक और पाठ्यसहगामी विकास में कहीं न कहीं चिंता का विषय है।
बाल साहित्य की यह अनदेखी गंभीर चिंताओं को जन्म देती है। यदि हम अकादमिक संस्थाओं तथा संस्थागत शोधों की बात करें तो कहीं न कहीं बाल साहित्य की अनदेखी ही नज़र आती है। हिंदी में समसामयिक बाल साहित्य के इतिहास के भी प्रामाणिक पाठ भी सामान्यतयः उपलब्ध नहीं होते हैं।
यह चिंता का विषय है। हमें बाल साहित्य सृजन , उसके मानकीकृत पाठों एवं इतिहास लेखन पर अपने संकायों एवं संस्थाओं में देखने की आवश्यकता है।
लेखिका से एक परिचय-
डॉ अलका सिंह डॉ राम मनोहर लोहिया नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी लखनऊ में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं ।शिक्षण एवं शोध के अतिरिक्त डॉ सिंह महिला सशक्तीकरण , विधि एवं साहित्य तथा सांस्कृतिक मुद्दों पर सक्रिय हैं। इसके अतिरिक्त वे रजोधर्म सम्बन्धी संवेदनशील मुद्दों पर पिछले लगभग बारह वर्षों से शोध ,प्रसार एवं जागरूकता का कार्य कर रही है। वे अंग्रेजी और हिंदी में समान रूप से लेखन कार्य करती है और उनकी रचनाएँ देश विदेश के पत्र पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित होती हैं। उनकी सात पुस्तकें प्रकाशित हैं तथा शिक्षण एवं लेखन हेतु उन्हें चौदह पुरस्कार/ सम्मान प्राप्त हैं।
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