समसमायिक कुछ लघु व्यंग आलेख
-डॉ.अर्जुन दूबे
1.भूत का भूत
भूत के प्रति आकर्षण तो होता है लेकिन भूत से भय भी लगता है। आज कल या यूं कहें कि भूत के लिए हमारी नोस्टाल्जिया बढ़ती जा रही है; हर बात में हम भूत में विचरण करने लगते हैं और संतुष्ट होकर गर्व से कहते हैं कि हमारा स्वर्णिम भूत था, दूसरों ने हमारे भूत की चोरी करके अपना वर्तमान सुनहरा बना लिया।
विडंबना है कि हम अपने वर्तमान को भूत का स्वरूप देना चाहते हैं जबकि हमें भी पता है कि कुछ स्वर्णिम पल भूत के अवश्य रहें होंगे किन्तु यह भी कटु तथ्य है कि कुछ पल भूत के डरावना भी रहे होंगे जिसमें शोषण,मारकाट, अत्याचार आदि नकारात्मक पहलू भी विद्यमान रहे होंगे जिनसे हमारा वर्तमान अछूता नहीं है। महान कवि कालिदास ने कहा है कि पुराना ही सब कुछ अच्छा नहीं होता है,नया सब कुछ खराब भी नहीं होता है। श्रेष्ठ लोग जिस मार्ग का चयन करें उसी का अनुसरण करना चाहिए। पुराने और नए का द्वंद निरंतर चलता रहेगा किंतु हमें वैज्ञानिक चेतना के साथ विकास के पथ पर स्वर्णिम भविष्य के लिए चलते रहना चाहिए।
3.हीरो बनाम प्रोटोगोनिस्ट (नायक)
Hero का अर्थ हिंदी में नायक होता है, Protagonist का भी नायक होता है। पहले वाले नायक का दौर अवसान की ओर है जबकि दूसरे वाले नायक चढ़ाव की ओर अग्रसर हैं, बल्कि यूं कहें कि इसी प्रकार के नायक अब स्वीकार्य हो रहे हैं।
Protagonist(नायक) अमूमन जन सामान्य का होता है भले ही महानायक बनने पर वह विशिष्ट हो जाता है। पहले से ही विशिष्ट रहे की स्वीकार्यता पहले किसी जमाने में थी क्योंकि उनमें रायल लुक के साथ विशाल हृदय भी परिलक्षित होता था। समय के साथ परिवर्तन हो रहा है। Protagonist द्वारा अहर्निश परिश्रम के फलस्वरूप परिश्रम वाला वर्ग सहजता से उसे स्वीकार कर लेता है, जैसे आधुनिक राजनीतिक परिदृश्य में प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी सामान्य जन से नायक – महानायक के रूप में स्थापित हो गये हैं; उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री आदित्य नाथ भी सामान्य पारिवारिक पृष्ठभूमि से निकल कर नायक के रूप में करिश्माई व्यक्तित्व के धनी बन गये हैं; बिहार राज्य के मुख्यमंत्री श्री नितीश कुमार भी उसी सामान्य पृष्ठभूमि से निकल कर नायक बने हैं; दिल्ली के मुख्यमंत्री श्री अरविंद केजरीवाल अपने अहर्निश परिश्रम से नायक बने हैं; इनके अतिरिक्त अन्य नायकों (Protagonists) की भी लंबी लिस्ट है। यहां जेंडर भेद से परे व्यक्ति का नायक के संदर्भ में मेरा दृष्टिकोण है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री सुश्री ममता बनर्जी Protagonist अर्थात नायक ही हैं यद्यपि वह महिला हैं।
नायक-महानायक बनने के उपरांत उस स्थापित टैग को संजोना रहता है जो चुनौती भरा कार्य होता है। जब नायक संतुष्ट हो जाता है कि अब वह नायक है, नायक रहेगा तब उसके अंदर Hero वाला नायक प्रस्फुटित हो जाता है और वही उसके अवसान का कारण बनता है। अनेक जनसामान्य में से, नाम नहीं लेना चाहूंगा, Protagonist श्रेणी वाले नायक बने थे किन्तु उसे संजोए नहीं पाये। सामान्य जन से नायक-महानायक की यात्रा एक सतत् प्रक्रिया है जिसे संजोए रखना सरल नहीं है।
3.तपस्या का फल
ब्रह्म देव प्रसन्न हों, आप हम मानवों को भी इच्छित वर देते हैं, आपकी महिमा अपरम्पार है। आंखें खोलो, देखो मुझे और बताओ अपनी इच्छा, क्योंकि मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूं। तुम्हें स्वर्ग लोक भी मिल जायेगा। नहीं, नहीं भगवन। मुझे यहीं पृथ्वी पर ही रहने दें क्योंकि स्वर्ग यहीं है।
वह कैसे? मुझे भी बताओ; तुम्हारे मन के भाव मैं नहीं पढ़ पा रहा हूं। हे अंतर्यामी, आप सब जानते हैं फिर भी आप की ही इच्छा के कारण मैं कह रहा हूं।
हम मानवों में अनेक श्रेणियां हैं और सभी आज कल राजनीति की तरफ मुड़ गये हैं। ऐसा क्यों? आप तो प्रसन्न होकर वरदान देकर अदृश्य हो जाते हैं, कोई जान नहीं पा रहा है आपकी महिमा को। मैं राजनीति के माध्यम से, आपकी ही कृपा से, अपने महत्व को चिरस्थाई बनाना चाहता हूं। ऐसा है?
हां ब्रह्म देव। मेरे पास आप की कृपा से धन की कमी नहीं है। धन की महिमा को बताने का सामर्थ्य नहीं है मुझमें। ज्ञान और विद्या नहीं चाहिए? ज्ञानी और बुद्धिमान मेरे आगे पीछे स्वत: आने लगेंगे। हां, यह तो मैं देख रहा हूं। सरस्वती भी दुखी रहती हैं किंतु कह नहीं पाती हैं।
कैसे आओगे राजनीति में? धन के अलावा बताओ उपाय। मेहनत करूंगा, लोगों के बीच खूब आऊंगा, जाउंगा और समय समय पर उन्हें लाली पाप भी दूंगा। ये लालीपाप क्या है? कलयुग में आपके ब्रह्मास्त्र से ताकतवर शस्त्र है जिसके लोभ में लोग प्रायःपड़ जाते हैं।
तुम्हें चुनौती देने के लिये अन्य मानव भी मेरी तपस्या करने लगे हैं। उसकी चिंता नहीं है?। वह क्यों करूं? अपने लिए श्वास रूकने तक की व्यवस्था मैंने कर दिया है और इस व्यवस्था से चुनौती देने वाले भी मेरे साथ हैं। वह व्यवस्था क्या है? भरपूर पेंशन रूपी धन राशि चाहे हार ही क्यों नहीं जाऊं! यही नहीं, मैं अपने कुल खानदान ,नाते रिश्तेदारों को भी राजनीति की ट्रेनिंग देते रहता हूं ताकि वे भी इस पृथ्वी पर सुख भोगते हुए पेंशन पाते रहें। अब हे सर्वग्य, आप ही बताएं कि मैं वर्तमान स्वर्ग से क्यों जाऊं। आप की जय हो।
5.संक्रमण से कैसे उबरें
बहुत ही जबरदस्त संक्रमण काल चल रहा है। बताइएगा किसका? क्या धर्म का, जाति का, क्षेत्र का , विचार का, प्रजातांत्रिक मूल्यों अथवा अन्य किसी पहलू का? जी, नहीं यह सब इतने विध्वंसक नहीं है; वास्तव में भाषा का संक्रमण काल चल रहा है। न तो भाषा की मर्यादा रह गई है और न ही भाषा के चीरहरण करने वालों को रोकने के लिए कोई कृष्ण आ रहा है। विचारों में असहमति हो अथवा अन्य किसी प्रकार का विरोध हो, उसकी क्षतिपूर्ति भाषा की मर्यादा को तार तार करके किया जा रहा है। क्या होगा? कबीरदास जी की भाषा का “ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोये।औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए।” आज लगता है कोई महत्व ही नहीं हैं। भाषा के प्रति नजरिया यह हो रहा है, “आप ने जिस भाषा का प्रयोग किया है उसी भाषा में कह रहा हूं”; आरोप प्रत्यारोप का दौर चल रहा है।
-डाॅ. अर्जुन दूबे