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पुस्तक समीक्षा:”साँची सुरभि” एक शसक्त दोहा संग्रह…

पुस्तक समीक्षा:”साँची सुरभि” एक शसक्त दोहा संग्रह…

पुस्तक समीक्षा:”साँची सुरभि” एक शसक्त दोहा संग्रह…

-अजय अमृतांशु

कृति का नामसाँची सुरभि
कृतिकारइन्द्राणी साहू साँची
प्रकाशकबुक रिवर्स प्रकाशन
मूल्य275/-
विधाकाव्‍य
शिल्‍पदोहा छंद
भाषाहिन्‍दी
समीक्षकअजय अमृतांशु
पुस्तक समीक्षा:”साँची सुरभि” एक शसक्त दोहा संग्रह…

इन्द्राणी साहू “साँची” जी का दोहा संग्रह “साँची सुरभि” मुझे पढ़ने को मिली। 214 पेज के इस दोहा संग्रह में 200 विषयों पर आधारित 2000 दोहे संग्रहित हैं। साँची जी उन रचनाकारों का प्रतिनिधित्व करती हैं जो छंद मुक्त कविताओं के दौर में छंद को पुनर्स्थापित करने में लगे हुए हैं । छत्तीसगढ़ में युवा छंदकारों की नई पीढ़ी तैयार हो चुकी है इन्द्राणी जी उनमें से एक हैं। इन्द्राणी जी का लेखन उत्कृष्ट है और वे हिंदी तथा छत्तीसगढ़ी दोनों भाषाओं में सशक्त लेखन कर रहीं हैं। विभिन्न रसों और अलंकारों से सज्जित यह संग्रह दोहा के सभी मापदण्डो पर खरा उतरती है। सभी दोहे विधान सम्मत और व्याकरणिक हैं ।मात्रायें,यति, गति,लय व तुकांत का बारीकी से प्रयोग साँची जी की परिपक्वता को दर्शाता है।

साँची जी ने यथासंभव हर विषय को छूने का प्रयास किया है । 1 पेज में 1 विषय पर 10 दोहे लिखे गये हैं। मेरी जानकारी में छत्तीसगढ़ में पहली बार किसी साहित्यकार का कोई संग्रह प्रकाशित हुआ है जिसमें 2000 दोहे हैं। गृहस्थ जीवन की जिम्मेदारियों से समय निकाल लेखन करना मातृशक्तियों के लिए किसी चुनौती से कम नहीं होती और वह भी तब जब कि छन्द लेखन हो। “साँची” जी का एक उत्कृष्ट दोहा देखिए –

मेरी अभिलाषा यही, बिछ जाऊँ बन फूल।
वीर शहीदों की जहाँ, पड़े चरण की धूल।।

अनुप्रास अलंकार का लाजवाब प्रयोग –

कनक कामिनी देह में, कर सोलह श्रृंगार।
बलखाती सी नार इक, मारे नयन कटार।।

विभिन्न अलंकारों का अच्छा प्रयोग साँची जी ने अपने दोहों में किया है। पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार का चमत्कारिक प्रयोग –

कली – कली पर घूम कर,अलि करता गुंजार ।
फूल – फूल को चूम कर , लेता मधुरस सार ।।

वियोग श्रृंगार के साथ उत्प्रेक्षा अलंकार –

बिना नीर के मीन ज्यों , तड़पत है दिन रैन ।
पिया दरश बिन मेघ सुन , मैं भी हूँ बेचैन ।।

उनके दोहे में बसंत आगमन का चित्रण देखिए-

आम्र डाल पर बैठकर, कोयल छेड़े तान।
स्वागत करे बसंत का, है ऋतुराज महान।।

शीत ऋतु के वर्णन में उपमा अलंकार का प्रयोग –

कंपित करती शीत यह, लगी ठिठुरने भोर।
दिनकर शशि सम लग रहा, ताप हुआ कमजोर।।

देश की रक्षा की बात करते करते साँची जी लोकोक्तियों का भी बेहतरीन प्रयोग कर लेती हैं-

सौ सुनार की मार पर, भारी एक लुहार।
भारी हर आतंक पर, भारत पहरेदार।।

प्रकृति का सुन्दर मानवीकरण देखिए-

उमड़-घुमड़ मेघा घिरे, नभ में करे किलोल।
चुपके भानु निहारते, अंबर के पट खोल।।

मानव मन को मंदिर का उपमा देते हुए उपमा अलंकार का प्रयोग –

सत्य हृदय शुचि साधना , पावन प्रीति उजास ।
मानव मन मंदिर सरिस , जहाँ ईश का वास ।।

अपने व्यंग्यात्मक अंदाज में इंद्राणी जी आज के परिवेश पर बहुत कुछ कह जाती हैं –

गूँगा कहे पुकार कर, हास्य बड़ा अनमोल।
बधिर ठहाके मारता , सुनकर उसके बोल।।

नारी को सबला निरूपित करता हुआ यह दोहा-

कोमल काया देखकर, मत समझो कमजोर।
जब लेती वह ठान कुछ, रख देती झकझोर।।

धर्म के नाम पर लोगो को गुमराह करने वालों का पर्दाफाश करते साँची जी लिखती हैं –

लिए धर्म को आड़ में, करे अनैतिक काम।
इन पाखण्डी लोग से, हुआ धर्म बदनाम।।

पर्यावरण के प्रति चिंतित होकर वे लिखतीं हैं –

धरा प्रदूषण मुक्त हो, निर्मल हो नद नीर।
यही करूँ नित कामना, पावन बहे समीर।।

मन मे समर्पण न हो तो कर्मकाण्ड बेकार है-

बिना समर्पण भाव के,कर्मकाण्ड बेकार।
प्रेम पुष्प से वंदना, ईश भक्ति आधार।।

हिन्दी के शब्दों पर साँची जी की अच्छी पकड़ है। विषय की विविधता के साथ उनकी भाषा-शैली एवं शिल्प अनुपम है। अपने अन्तर्मन की अभिव्यक्ति में इन्द्राणी जी पूरी तरह सफल हुई हैं। विभिन्न रस और अलंकार से सज्जित यह कृति निश्चय ही पाठकों को पसंद आयेगी। दोहा संग्रह “साँची सुरभि” के प्रकाशन के लिए इन्द्राणी जी को हार्दिक बधाई।

-अजय अमृतांशु

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