काव्‍य श्रृंखला : सांध्‍य दीप भाग-11-डॉ. अशोक आकाश

गतांक से आगे

काव्‍य श्रृंखला :

सांध्‍य दीप भाग-11

-डॉ. अशोक आकाश

काव्‍य श्रृंखला : सांध्‍य दीप भाग-11-डॉ. अशोक आकाश
काव्‍य श्रृंखला : सांध्‍य दीप भाग-11-डॉ. अशोक आकाश

//45//

देह तो एक पावन मंदिर है,
इस मंदिर को पावन रख |
चाह के हाथों है मन बंदी,
छवि सुखद मनभावन रख ||

होंठों से मधु छलका देखो,
दृगचल में सुख सावन रख |
पग चंचल मन में संकल,
सद्कर्मों की अवधारण रख ||

करुणा छलके पा एक झलक |
निर्मम मन में जीवन की ललक ||

दुर्जन हो जाता सज्जन,
जीवन में पा अनुशासन को |
अंधकार में भटके हैं जो,
कर उज्जवल उनके तम को ||
***

//46//

क्यों डूबते इतराते रहते,
अहंजनित निज सागर में |
तन मन धन यौवन मद भूले,
भटक रहे सुख आगर में ||

जीते जो दादुर-सुख जीवन,
सागर लगता गागर में |
अखिल विश्व सम्मान झलकता,
वृद्ध जनों के आदर में ||

हृदिस्थल नित शूल चुभन |
मचा दो तूफॉ थाम रुदन ||

मूर्धन्य करे चैतन्य करे,
आतंकी अन्या़यी जन को |
अंधकार में भटके हैं जो,कर
उज्जवल उनके तम को ||
***


//47//

दुर्गम पथ थके भटके राही,
कष्ट तो अनगिन पाते हैं |
चलते अविचल गिरते उठते,
वह मंजिल सुख पाते हैं ||

जो डर लौटके घर आ जाते,
कूप मंडूक बन जाते हैं |
जेठ में निर्मल जल तल सूखे,
रंध्रों में सन जाते हैं ||

सब चाहे कीमती होना |
पर आग में तपता है सोना ||

सांध्यदीप दृढ़ राह बताता,
समझ युवा दिल धड़कन को |
अंधकार में भटके हैं जो,
कर उज्जवल उनके तम को ||
***

//48//

नादानी में उनके भी पग,
अंगारों में पड़ जाते |
जानबूझकर मस्ती में,
अपराध राह जो बढ़ जाते ||

गिर ही पड़ते खाई में वो,
ऑख मूंद जो चल जाते |
गिरकर भी जो नहीं सम्हलते ,
उनके सूरज ढल जाते ||

उठने पर जब खुलती ऑख |
लगे तभी सपने को पॉख ||

मदहोशी तिमिरॉचल में ही,
ढँकलेता तारागण को |
अंधकार में भटके हैं जो,
कर उज्जवल उनके तम को ||
***

//49//

कोई स्वर्णिम यादगार क्षण,
मन में भर देता संताप |
कभी तो परिजन की बिछुड़न से ,
मन को देता आप ही आप ||

कुछ जाता क्या साथ तेरे,
सब आते अकेले ही जाते |
उत्कर्ष राह संघर्ष करे,
वह मंजिल निश्चय ही पाते ||

अनुभव मत कर कभी घुटन |
और न हो जीवन से उबन ||

पहुँचाता स्मरण शिखर तक ,
जीवन के पल पल क्षण को |
अंधकार में भटके हैं जो,
कर उज्ज्वल उनके तम को ||
***

//50//

जिसने भी जीर्णतम बुजूर्गों,
पर फेंका जलता अंगार |
उसको जीवन में सब सुख,
मिलकर भी झुलसता संसार ||

मात पिता गुरू सेवा करके ,
मन मिलता सुख का भंडार |
आशीषों से भरती झोली,
खुशियों का लगता अंबार ||

सेवा करो निभालो फर्ज |
होवोे उऋण चुका लो कर्ज ||

रग रग त्याग समर्पण अपनाओ
तज दो मनोरंजन को |
अंधकार में भटके हैं जो,
कर उज्जवल उनके तम को ||
***

//51//

ऊँच नीच और जाति धर्म का ,
मन में मत रखना बंधन |
असफल हो भटके लोगों को,
राह बताते चल सगं संग ||

झटपट नित नत चलो सुपथ,
अस्तित्व आकांक्षा रख मन मे |
सफल सहभागी जन समूह,
सामर्थ्य शक्ति भरे जन जन में ||

बिखरो नहीं चलो एक जूट |
बढ़े कदम मंजि्ल मजबूत ||

सभी संगठित चलो प्रगति रथ,
तज निज स्वारथ अनबन को
अंधकार में भटके हैं जो
कर उज्जवल उनके तम को || |
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-डॉ. अशोक आकाश

शेष भाग अगले अंक में

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