काव्य श्रृंखला :
सांध्य दीप भाग-16
-डॉ. अशोक आकाश
/68/
श्रम से ही बसती बस्ती,
श्रम ही है जीवन कश्ती |
श्रम से आती तंदरुस्ती,
तन भर जाता चुस्ती स्फूर्ति ||
दुख की बदली हट जाते,
सुख सावन घिर घिर गाते |
तन बहे श्रम-बिंदु पावन,
फौलादी बदन निखर जाते ||
श्रम से ही तो उपजता अन्न |
दुनिया को मिले रुचिकर भोजन ||
सांध्यदीप संदेह दूर करे,
प्रेरित तन मन मंथन को |
अंधकार में भटके हैं जो,
कर उज्ज्वल उनके तम को ||
***
/69/
नित्य सॉध्य सजती सजनी,
दीपों को दे दिल का पैगाम |
संध्या के वंदनीय पड़ाव में,
सब प्राणी पाते विश्राम ||
कड़क धूप में दुःख की झंझा,
संध्या शॉत सरस शुचि धाम |
दाना चुगते उड़ते पंछी,
मेहनतकश करता विश्राम ||
सांध्यदीप करता नर्तन |
कृष्ण कालिया नाग के फन ||
क्रूर निशाचर चूर करे,
सुधि लौ में रखता धड़कन को |
अंधकार में भटके हैं जो,
कर उज्ज्वल उनके तम को ||
***
/70/
लप लप लप कर गहन निशा में,
लक लक दे रक्तिम आभा |
दूर देश तक किरण ज्ञान की,
पहुंचा देता निर्बाधा ||
अमृतमय कर ही दम भरता,
पालन करता मर्यादा |
आत्मज्ञान से उन्मुख होता,
ज्ञानी जन की पद बाधा ||
नहीं मृत्यु का इसको डर |
होता यह सद्कर्मों से अमर ||
सांध्यदीप है कर्मदीप,
जो तोड़ देता हर बंधन को |
अंधकार में भटके हैं जो,
कर उज्ज्वल उनके तम को ||
***
-डॉ. अशोक आकाश