सांध्य दीप भाग-20
-डॉ. अशोक आकाश

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दुर्गम पथ आसान बनाते,
ये दुख की बरसात में |
दोस्त रहे तो यूं कट जाती,
रात बात ही बात में ||
ये जिसका हमसफर हुआ,
आसाँ मंजिल के रास्ते |
दुनिया के बोझ उठा देखो,
सब एक दूजे के वास्ते ||
बढ़ते जाती बातों से लगन |
प्रेम हो खण्डहर लगे भवन ||
सपने गढ़ ले मंजिल चढ़ ले,
पढ़ ले तस्वीरों के मन को |
अंधकार में भटके हैं जो,
कर उज्ज्वल उनके तम को ||
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मृगमरीचिका भी प्यासों की,
क्षुधा बुझा सकती है क्या ?
महासिंधु उत्ताल लहर,
मृदु मृदा लुटा सकती है क्या ?
नित मुखरित अनुगूँज हृदय में,
जग विचलित करता गुंजार |
रग-रग सुख की चाहत में जग,
पग पग दुःख दहके अंगार ||
क्षीण हो जाती आस किरण |
तब दीन दुखी आ इनके शरण ||
पीतवरन सुधि शब्द किरण,
स्पर्श करे उत्सुक मन को |
अंधकार में भटके हैं जो
कर उज्ज्वल उनके तम को ||
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आईना टूटे तब भी,
तस्वीर वही दिखलाता |
जो भी सच हो सामने लाता,
नही दरपन झुठलाता ||
अल्प सफलता के मिलते,
जो इठलाता इतराता |
अपनों को खाई में गिराये,
सूरज सच झुठलाता ||
हो जाता दिवसावसान |
करे प्रखर पुन्ज तम का निदान ||
सांध्यदीप जन मन मज्जन कर,
सज्जन करता दुर्जन को |
अंधकार में भटके हैं जो
कर उज्ज्वल उनके तम को ||
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बंदर को जीवन भर कूदना,
पड़ता डाली डाली |
आलस्यपूर्ण लोगों को लगता,
जीवन खाली खाली ||
जो खुद हाथ पॉव मारेगा,
सूक्ष्म विचार करेगा |
रणनीति से विजय पताका,
उसके सर फहरेगा ||
उपहास से मत डर करो सुधार |
सोच बदल बदलो संसार ||
बड़प्पन है सज्जनता में,
कूढ़ा समझो पर धन को |
अंधकार में भटके हैं जो
कर उज्जवल उनके तम को ||
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आलोक रहित जग जगमग करता,
भेदभाव का कर परित्याग |
अमानिशा पल पल क्षीण होती,
मन में बढ़ जाता अनुराग ||
लप-लप करती रक्तिम लौ से,
नशाचरी घबरा जाती |
समेट स्वयं साम्राज्य अहम्,
तेरे चरणों में समा जाती ||
रख लेता जो सबका मान |
होगा क्या उसका अपमान ?
देवदीप दल दलितों के पथ
चलता प्रबल प्रदीप को |
अंधकार में भटके हैं जो,
कर उज्ज्वल उनके तम को ||
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-डॉ. अशोक आकाश
शेष भाग अगले अंक में