सांध्य दीप भाग-21
-डॉ. अशोक आकाश
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गगनांचल तम सांध्यदीप,
कर आलोकित मुस्काये |
यह फूल नहीं जो देवचरण,
शाखों में भी मुरझाये ||
इसके जलने से देवमूर्ति की,
आभा नित लकलक है |
बढ़ता रहता विनय भाव चित्त,
देव भक्ति रग रग है ||
सागर में पले निखरे मोती |
निशि दमक उठे जगमग ज्योति |
कंकड़ पत्थर हीरा हो जाए,
अपना ले जो सद्गुण को |
अंधकार में भटके है जो,
कर उज्ज्वल उनके तम को ||
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नख शिख दृढ़ लकलक आभा से,
देव मूर्ति जगमग रहती |
लौ उठती झुकती तकती जग,
नित पग-पग दगदग रहती |
अति जुल्म बढ़े जुल्मी ढहता,
अति क्रोध बढ़े क्रोधी जलता |
अति सहनशील मन धीर फटे,
प्रतिनिधि पारद नस-नस बहता ||
जग दुखी करें जन की जड़ता |
मन धीर धरे सुख ही बढ़ता ||
शांतिपुंज नवयुग में कर लो,
सुरभित धर्म सनातन को
अंधकार में भटके हैं जो,
कर उज्ज्वल उनके तम को ||
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जो सबके सुख में खुश होते,
पर दुख देखा हुआ दुखी |
दुख में जीवन अंगारों सा,
सुखमय देखा हुआ सुखी ||
संयम सागर पार उतर कर,
भी मृदुभाषी संस्कारी |
धीरज सिंधु फूट के उफने,
पल में जग प्रलयंकारी ||
सोच न कभी पलायन पर |
शौर्य दिखा मृदुगायन कर ||
महाप्रलय तूफान मोड़ दो,
तोड़ लाओ तारागण को |
अंधकार में भटते हैं जो,
कर उज्ज्वल उनके तम को ||
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नीचे तल घनघोर अंधेरा,
ऊपर मुख ज्योति लाली |
निज सम्मुख अध्ययन मगन नित,
शुचि तरुणी भोली भाली ||
छाये गहन तम की बदली,
तब सांध्यदीप मन की आली |
जले बाती मन पुलकाती,
धधके छाती रति नभ लाली ||
मन अगन दहक दिल रैन ढले |
पथ भटक बहक मत मनचले ||
सुधि सौम्य कली उठी भोर भली,
झकझोर चली दीपॉगन को |
अंधकार में भटके हैं जो,
कर उज्ज्वल उनके तमको ||
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तिमिरॉचल दीपों की लड़ियां,
झिलमिल पुलक झलक जाते |
देवतरू शाखा नत नित,
जिस पर खगवृंद चहक गाते ||
श्रुति सौम्य सहज मुख सुमन कली,
मन की चल रहा भटक जाते |
निज मातृलली उठ भोर चहक,
अस्ताचल अगन दहक आते ||
चीरे गहन तिमिर आभा लकलक |
तीरे तपन शिशिर राका तकतक ||
दिन रैन ढलत नवदीप जलत,
सजे सैन चलत रवि से रण को |
अंधकार में भटके हैं जो,
कर उज्ज्वल उनके तम को ||
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-डॉ. अशोक आकाश