सांध्य दीप भाग-24
-डॉ. अशोक आकाश
सांध्य दीप भाग-24
सांध्य दीप भाग-24
/106/
नख-शिख पुलकित नवयौवना,
वासंती छटा दिखा देती |
धक-धक धड़के अंगरा बरसे,
नस नस शोर मचा देती ||
जो अपने जिद में आ जाये,
दृढ़ आकाश झुका देती |
जिसने जी भर इन्हे संवारा,
अनहद नेह लुटा देती ||
प्रकृति से जो हुआ विमुख |
अपरम्पार हो उसका दुख ||
साथ चलो सुख ऑचल भर लो,
हारोगे सृष्टि से जंग को |
अंधकार में भटके हैं जो,
कर उज्ज्वल उनके तम को ||
***
/107/
कर देता जग दीप्तिमान,
उस लौह पुरुष का क्या कहना|
मन तमस हरे जग चमक भरे,
है दीपक संध्या का गहना ||
उसका जीवन मधुरिम रहता,
फलकर जो झुकजाते |
विनयशील नित पूजित होता,
गिरकर भी उठ जाते ||
जलता मन में प्रेम अगन |
झंकृत बरसे शौर्य सुमन ||
सांध्यदीप खतरे को भॉप,
झुकाता झट से गरदन को |
अंधकार में भटके हैं जो,
कर उज्ज्वल उनके तम को ||
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/108/
संकल्पित भाव लिये चलता,
ले रौद्र रूप समर भूपर |
दुश्मन दल में रार मची,
गर्वित होता छाती छूकर ||
प्रात निशि उल्लासित रहते,
किंचित शोकाभास नहीं |
इतिहास छिपा जिसके अंतस,
उसका होता उपहास कहीं ||
करते हिंसक का तिरस्कार |
देते सेवक को पुरस्कार ||
अंगद से श्रुति संगति करता,
रत रहता नव सिरजन को |
अंधकार में भटके हैं जो,कर
उज्ज्वल उनके तम को ||
***
/109/
जो निरीह बेबस प्राणी पर,
बनकर शेर झपटता |
मॉस भक्ष तन पोषित करता,
बनकर श्वान भटकता ||
व्याभिचारी मॉसाहारी से,
जिनकी सदा निकटता |
वो क्या जाने दया अहिंसा,
मानवता जीवटता ||
जगे हृदय में दृढ़ विश्वास |
सबसे प्रेम का बंधन खास ||
खुद जीयो सबको जीने दो,
निर्विकार रख लो मन को |
अंधकार में भटके हैं जो,
कर उज्ज्वल उनके तम को ||
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/110/
है कोई ऐसा जो थाम दे,
अग्नि पवन का चंचल वेग |
ज्ञानवान ही झट विराम दे,
सागर का शंकर उद्वेग ||
लॉघे जो दुर्गम पहाड़,
वो देता क्या अंतिम संदेश |
राम के साथी वानर सेना,
हार गया जिनसे लंकेश ||
दृढ़ निश्चय हो जिसके पास |
कर सकता कोई उसे हताश ||
ऐसे दृढ़ निश्चयी व्यक्ति,
कभी हार गया जीवन रण जो ?
अंधकार में भटके हैं जो,
कर उज्ज्वल उनके तम को ||
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-डॉ. अशोक आकाश