काव्य श्रृंखला :
सांध्य दीप भाग-4
-डॉ. अशोक आकाश
काव्य श्रृंखला : सांध्य दीप भाग-4

सांध्य दीप भाग-4
/16/
दीप एक ही अंधकार को,
चीर प्रकाशित कर देता |
गहन विभावरी प्रखर किरण,
पथ जग अनुशासित कर देता ||
साथी हो तो कष्ट सुमेरू,
पल में खंडित हो जाता |
मन में संचित गर्वित ऊर्जा,
महिमा मंडित हो जाता ||
क्षण में सुलझा दे उलझन |
पल में महका दे गुलशन ||
सांध्यदीप नित जोश भरे,
थककर हारे बुझते मन को |
अंधकार में भटके हैं जो,
कर उज्जवल उनके तम को ||
/17/
बियाबान पतझर के मौसम,
याद आते बिछुड़े परिजन |
टीसें बन उभरा करती हैं,
उनके संग गुजरे हर क्षण ||
जर्जर काया रुग्ण झलकता,
दिखलाता अनुभव दर्पण |
कंटकमय दुर्गम पथ चल,
करे सिंहनाद झटके गर्दन ||
याद करे यौवन के दिन |
तड़प ज्यों पानी बिन मीन ||
शॉत करे आक्रांत करे
हर जख्मी दिल तड़पन को |
अंधकार में भटके हैं जो,
कर उज्जवल उनके तम को ||
/18/
सुबह सुनहरी तपन दुपहरी,
नख-शिख ऊर्जा लुटा दिया |
सूरज ढलते चपल चितेरा,
सबका घर जगमगा दिया ||
मन का दीप जला देखा तो,
श्रद्धा से सर झुका दिया |
शर्मीली नखरीली दुल्हन,
झटपट घूंघट उठा दिया ||
पावस ऋतु मधुमास परम |
शावक ज्यों विचरे मधुवन ||
प्रीत वरे संगीत भरे,
नवनीत करे छू कर मन को |
अंधकार में भटके हैं जो,
कर उज्जवल उनके तम को ||
/19/
प्रबल चन्द्र जब दिव्य धरा की,
सप्त समंद में खो जाते |
सरस सुरों की सरगम में ,
सुधि बीज प्रेम का बो जाते ||
धरती की यौवन आभा से,
पुलकित मोहित हो गाते |
तरुवर सरोवर भव्य रतन दृग,
दिव्य सुशोभित हो जाते ||
मनभावन ऋतुराजागमन |
कण कण मोहित रत सिरजन ||
किस्मत छॉड़े मार कुठारें ,
काट उजाड़े मधुवन को |
अंधकार में भटके हैं जो,
कर उज्जवल उनके तम को ||
-डाॅॅ. अशोक आकाश
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क्या बात है,,, डॉक्टर साहब बहुत ही सुंदर चित्रण किया है आपने,,,,जय जय🌸🌸🌸🌸🙏