संस्‍कृति, राष्‍ट्र और जीवन मूल्‍य -प्रो. रवीन्‍द्र प्रताप सिंह

संस्‍कृति राष्‍ट्र और जीवन मूल्‍य

-प्रो. रवीन्‍द्र प्रताप सिंह

संस्‍कृति, राष्‍ट्र और जीवन मूल्‍य-

संस्‍कृति, राष्‍ट्र और जीवन मूल्‍य, यह प्रो. रवीन्‍द्र प्रताप सिंह की कविता का शीर्षक है । इस कविता में कवि ने भारतीय संस्‍कृति, भारतीय परम्‍परा को एक राष्‍ट्र के जीवन मूल्‍य के रूप पिरोहित किया है । छ: पुष्‍पों से सुवासित यह एक पुष्‍प गुच्‍छ है –

राष्ट्र के अक्षुण्य सूत्रों की धरोहर

सूक्ष्मता भी रूप धर बेताल की
लाख पूछे प्रश्न
राष्ट्र के अक्षुण्य सूत्रों की धरोहर
उत्तरों के दर्शनों में है निरत।
विश्व के हर कोण तक फैला हुआ है राष्ट्र ,
विश्व की हर दृष्टि पर
नज़रें रखे है राष्ट्र ,
स्वच्छंदता है सोच में ,
मूल्य की हैं परम्परायें ,
ज्ञान की प्रांजल नदी है
कर्तव्य की हैं मशालें दीप्त।
राष्ट्र का निर्माण , संस्कृति के प्रबल आयाम ,
इस राष्ट्र का सन्देश , भावों के हृदय उद्घोष।

राष्ट्र हमारा-

खेतों में फैली हरियाली जो
राष्ट्र हमारा ,
गरज रहीं जो बड़ी मशीनें
राष्ट्र हमारा,
लोकनीति में मूल्य सृजन में , चर्चित है जो ,
राष्ट्र हमारा,
नभ में , जल में , मन में, दर्शन में , गुंजित है जो ,
राष्ट्र हमारा ,
सम्पूर्ण सृष्टि में जीवन को , विश्वमना है जैसी शैली
धरी के हर भाग , व्यक्ति को जो कुटुंब सदृश्य कहे
धरती जिसकी मनन करे , ऋतुएँ , जा वायु गान करें
वह नव रूप प्रवाहित ले भावों को , संस्कृति जीवंत करे
राष्ट्र हमारा !

मूल्य की है तो विरासत

उलझनों में शब्द
क्या करेंगी उलझने
मूल्य की है तो विरासत ,
उलझनों को दूर कर
जीव को गति , रूप देगी ,
सत्य के संस्कार के ,
शील ,प्रज्ञा , बीज
जो संस्कारों में गुंथे ,
अनुगूंज में हैं गीत
वह पथ निरत करते रहेंगे
चलते रहेंगे
चलते रहेंगे।

संसार में ज्ञान के अवतरण से ही

संसार में , ज्ञान के अवतरण से ही
ज्ञानवल्लरियाँ सजी फैलीं यहाँ पर ,
विश्व की उर्जित मनीषा को रखे संचित
मूल्य जीवन के यहाँ फैलाव पाते।
मूल्य पुष्पित हैं यहाँ पर मूल धारा से
ब्रह्माण्ड से जो जगत को रहते मिलाते।
मूल्य जीवन को प्रकाशित कर रहे हैं ,
आत्मदर्शन , राष्ट्र दर्शन को संजो ये बढ़ रहे हैं।

यह व्यक्त संस्कृति की झलक, विश्वास पर संस्कार के

कुछ व्यक्त संस्कृति की झलक
विश्वास हैं संस्कार के,
विस्तार पथ का कर रहे
हर मोड़ पर सम्बल बने।
इस राष्ट्र की है जो धरोहर
ज्ञान है , सौहार्द है ,
इस राष्ट्र के निर्माण में
संस्कृति महा विस्तार है।
राष्ट्र के हर हर बोल मिलते
प्रबल संस्कृति से सुवासित
हर कदम पर हर मोड़ पर
एक उन्नत रूप विकसित
भावनाओं को, विलसती वर्जनाओं को ,
कर्तव्य पर योजित करें
हर पल पथिक को यह निरन्तर
यह व्यक्त संस्कृति की झलक
विश्वास पर संस्कार के।

राष्ट्र प्रेरणा के स्वर गुंजित

वो क्या बोलें
क्या कहें , छुपायें
कहाँ गये, आना तो है ही
खुद आयेंगे खिंचे खिंचाये।
राष्ट्र प्रेरणा के स्वर गुंजित
इतनी व्यापक घुली संस्कृति
कितना विशाल हो अंधड़ व्यापक
संस्कारों की लहर दिखाये
मूल भाव व्यक्तित्व संस्कृति,
कितना हो फैलाव अनमना
कौन हृदय का भाव अनसुना
कर सकता है ,
गहरे फैले भावों को क्यों करे अनसुना !

-प्रो. रवीन्‍द्र प्रताप सिंह

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