यात्रा संस्मरण :- गंगासांगर यात्रा भाग-4
सारे तीरथ बार-बार गंगासागर एक बार
-तुलसी देवी तिवारी
सारे तीरथ बार-बार गंगासागर एक बार
गतांक से आगे- कालीघाट कोलकाता की माँ काली का दर्शन
गंगासागर जाने की तैयारी-
अगले दिन तीन बजे से उठ कर ही हम लोग आज के खुशनुमा दिन के स्वागत के लिए तैयार होने लगे । मन से बार- बार आवाज उठती ’’ सारे तीरथ बार- बार , गंगासागर एक बार ।’’ अर्थात जो पुण्य सारे तीर्थो को बार-बार करने से मिलता है वह एक बार गंगासागर जाने से मिल जाता है, मेरा मन अपने भाग्य पर इतराने का हो रहा था। प्रभा दीदी प्रसाधन की ओर गईं थीं, देवकी दीदी जाग कर यूं ही लेटी हुईं थी। मुझे जागी जान कर पूछ बैंठी–’’ कइसे ओ खजाना के अम्मा रात भर सोये नहीं का ओ? मोर जतका बेर नींद खुलिस तोला जागते देखेवं, घर के सुरता आत रहिस का ?’’
’’ नहीं दीदी ! तूँहर मन के संग म घर ला तो निमगा भूला गय हौं, थक गय रहेंव तेखरे नाव ले के, अउ फेर उठे म देरी झन हो जावै तेखर डर म नींदे नई परिस।’’ मैंने दीदी को सच्ची बात बता दी।
त्रिपाठी जी ने कमरे में आकर अपने कपड़े आदि एक बैग में जमा लिए थे। नहाना तो हमें आज गंगासागर में था। नित्यक्रिया आदि से निवृत होकर छः बजे तक जब हम लोग नीचे उतरे तो हमारे सभी साथी धर्मशाले के दरवाजे पर हमारा इंतजार करते मिले । कुछ ही देर में एक बड़ी वाली सीटीबस आकर रुकी जिसमें हम सभी जल्दी- जल्दी चढ़ गये। बड़ा बाजार पूरी तरह जाग चुका था। सफाई कर्मचारी चौड़ी सड़को को साफ कर रहे थे। सड़क के किनारे छोटी दुकाने खुल गईं थीं, चाय नाश्ते वाले ग्राहकों की सेवा में लगे हुए थे।
स्म़ति का झरोखा-
मैं देवकी दीदी के पास ही बैठी थी खिड़की से बाहर का दृश्य देखते हुए अपने शहर से यहाँ की व्यवस्था की तुलना करते हुए, मैं अपने वर्तमान को अतीत से जोड़ने का प्रयास कर रही थी । पिताजी जब यहाँ रहे होंगे तब तो शहर में आवागमन की इतनी अच्छी सुविधा न रही होगी, वे तो साइकिल से ही आते जाते होंगे।’
सियालदह स्टेशन की प्रतिक्षा-
सीटी बस हमें सियालदह स्टेशन के बाहर बने स्टेण्ड पर उतार कर आगे बढ़ गई। हम लोग जल्दी-जल्दी सामान लेकर स्टेशन के अन्दर आये । हम लोगों को एक जगह बैठा कर त्रिपाठी जी और साथियों के साथ टिकिट लेने गये तब पता चला कि –गंगासागर एक्सप्रेस तो नौ बजे छुटेगी । हमारे पास दो घंटे के इंतजार के सिवा कोई चारा न था अतः बेंच पर आराम से बैठ कर आपस में गपशप करने लगे। चाय पीने वालों के लिए बाहर से चाय लाई गई, मेरे लिये कॉफी का प्रबंध हुआ । मन तो पूरी तरह आनंद मग्नं था, हम गंगासागर के दर्शन करने वाले थे। हम लोग कुछ वर्ष पूर्व ही माँ गंगा का जन्म स्थान गंगोत्री की वेगवती धारा में स्नान दर्शन कर आये थे। अब उनकी मंजिल के भी दर्शन होने वाले हैं, हम लोग आपस में हल्के विनोद कर प्रतीक्षा की ऊब मिटा रहे थे, गंगा सागर मेले का समय बारह जनवरी से लेकर सोलह-सत्रह जनवरी तक होता है, उस समय तो इस पूरे क्षेत्र में कहीं भी तिल रखने को स्थान नहीं मिलता है परंतु इस समय सियालदह स्टेशन सूना लग रहा था क्योंकि अभी गाड़ी आने में विलंब था। गाड़ी का समय होने पर वहाँ भीड़ बढ़ गई । हम लोग भी उठ कर पटरी के निकट आ गये। वह अपने समय से आई और लोग लाइन से गाड़ी में चढ़ने लगे।
काक द्वीप की यात्रा-
हमारे दल के भाइयों ने दल की सभी महिलाओं को महिला डिब्बे में चढ़ाया और वे सभी पुरूष डिब्बे में चढ़े। डिब्बे में मुझे देवकी दीदी के सामने ही सीट मिली थी मेरी बगल में एक नाटे कद की सांवली सी लड़की सलवार कुर्ता पहने हुए कंधे पर बैग लटकाये बैठी थी। प्रथम दृष्ठया वह कोई विद्यार्थिनी प्रतीत होती थी। मैंने कुछ पल उसे नजरों से जाँचा फिर नमस्ते करने के लिए जैसे ही हाथ जोड़े कि उसके मोती जैसे दाँत चमक उठे। उसने मुझे प्रति नमस्कार किया। बातें प्रारंभ हुईं तो आगे बढ़ती ही गईं। उसका नाम मिनाल था वह इंजीनियंरिंग की छात्रा थी और किसी फिल्डवर्क के सिलसिले में कॉक द्वीप जा रही थी, उससे मुझे वर्तमान् बंगाल की सामाजिक, आर्थिक धार्मिक स्थिति की जानकारी प्राप्त हुई । यह जानकर कि मैं हिन्दी की लेखिका हूँ वह मुझसे बेहद प्रभावित हुई, उसकी आँखों में अपने लिए प्यार देख कर मुझे लगा जैसे मुझे बंगाल का प्यार मिल गया, वह बंगाल जो बचपन से ही मेरे रग रग में समाया हुआ है। शरदचंद के पात्रों के रूप में गुरूदेव रविन्द्रनाथ टैगोर के संगीत के रूप में, बंकिमचंद्र की देश भक्ति के रूप में और विवेकानंद के तेज के रूप में। उसने बताया-जब से ममता बनर्जी ने बंगाल की सत्ता संभाला है महिलाओं के लिए बहुत कुछ किया है। देखिये हमारे लिए रेल में डिब्बा लगवा दिया। थाना कचहरी कहीं भी चले जाइये हम हिलाओं की सुनवाई ज्यादा होती है। इसीलिए तो वह दूसरी बार भी जीत गई । उसकी नजर में सब बराबर है। तेज इतनी है कि किसी को भी कुछ नहीं समझती। ।
मुझे अच्छा लगा युगों से दबी कुचली दासी कही जाने वाली स्त्री जाति का तेज देख कर । मैंने उसे बताया कि हम लोग गंगा सागर जा रहे हैं नामखाना में उतरेंगें, तब उसने बताया कि -’’नामखाना उतर कर आप लोगों को बस से काक दीप ही आना पड़ेगा, अच्छा हो आप लोग काकदीप पर ही उतर जायँ।’’ मैं यह सूचना त्रिपाठी जी को देना चाहती थी , लेकिन वे तो दूसरे डिब्बे में बैठे हुए थे। । सियालदह से आगे पार्क सर्कल बेलीगंज,रभाकुरिया, गारिमा, सुभाष ग्राम,सोनारपुर, बहारन, जयानगर, उदयपुर, काशी नगर आदि छोटे- छोटे स्टेशनों को पार हम काक द्वीप पहुँच गये।
मैंने मिनाल से वादा किया था कि संस्मरण में उसका उल्लेख करूंगी। वह और प्रसन्न होकर मुझसे बाय करते हुए बिदा हुई थी कॉकद्वीप पर । जैसे ही गाड़ी रुकी त्रिपाठी जी डिब्बे में आये ओर हम सब को उतरने के लिए कहा। उन्हें भी सही जानकारी मिल गई थी। यहाँ उतरने वालों में अधिकतर गंगा सागर के यात्री ही थे।
हुगली नामधारी माँ बारी गंगा-
हम लोग स्टेशन से बाहर आ गये, यहाँ घाट तक ले जाने के लिए हमें ऑटो मिल गये। हमारे आगे पीछे बहुत सारे लोग उसी राह जा रहे थे। तकरीबन दो किलोमीटर जाने के बाद हुगली नामधारी माँ बारी गंगा का स्वच्छ जल से भरा हुआ विस्तृत पाट दृष्टिगोचर होने लगा। अब तक करीब बारह बज चुके थे, धूप सिर पर पड़ रही थी, वहीं विपुल जलराशि का आलिंगन करके आती पवन का शीतल स्पर्श बड़ा आरामदायक लग रहा था। कुछ दूर पैदल चल कर हम घाट पर पहुँचे । त्रिपाठी जी ने हमसब के लिए 40रू. प्रति व्यक्ति के हिसाब से टिकिट ले लिया।
यहाँ गंगा माँ की चैड़ाई और गहराई दोनो ही बहुत ज्यादा है। जल पर बड़ी- बड़ी नावें तैर रहीं थीं, कुछ यात्रियों को ला रहीं थीं कुछ ले जा रहीं थीं। किनारे से लेकर कुछ दूर जल के अंदर तक प्लेट फार्म बना हुआ है जहाँ नावें रुकती हैं, अभी त्यौहारी मौसम नहीं था इालिए लाइन लगानी नहीं पड़ी वर्ना नाव पर चढ़ने के लए कई घंटे लाइन लगानी पड़ती है, इन्हीं तकलिफों से बचने के लिए तो हम लोग मेले का समय बीत जाने पर यात्रा पर आये हैं। एक खाली नाव आई देखकर अन्य यात्रियों के साथ ही हमारा दल भी धीरे-धीरे आगे बढ़ा। लाइन से हम नाव पर चढ़े, एक बार पैर रखने पर नाव डगमगाई, मैं तो बड़े मौके से संभली, देवकी दीदी को ब्रजेश ने संभाल कर चढ़ाया। नाव में बैठने के लिए लकड़ी की पटरियाँ लगी हुई थीं जिस पर यात्री बैठते जा रहे थे। दोहरे बदन वालों के लिए जरा असुविधाजनक था लेकिन काम चलाउ तो था ही। ऊपर छत डालकर छाया की गई है। नाव भर जाने पर मोटर स्र्टाट हुई और नाव हमें उस किनारे ले जाने के लिए छूट गई । नाव पर देश के विभिन्न भागों के लोग अलग- अलग भाषा में बातें कर रहे थे बच्चे आश्चर्य से ऊँची उठती लहरों को देख रहे थे।
गंगा अवतरण की कथा –
यह वह क्षेत्र है जहाँ महाराज सगर के पुत्र गंगा माँ को धरती पर लाने के लिए तप करते हुए अपना जीवन बलिदान करते आये थे, उन्हें अपने साठ हजार पूर्वजों को स्वर्ग जो पहुँचाना था।
राजा सगर की कथा-
ईक्ष्वाकु वंशी महाराज सगर को बड़े तप के बाद संतान प्राप्त हुई थी। दोनों पत्नियों की गोद सुनी देख उन्होंने त्रिनेत्र भगवान् शंकर की घोर तपस्या की, उनके प्रसन्न होने पर संतान का वरदान मांगा। शिव ने उनकी एक रानी को साठ हजार पुत्रों की माता और एक को एक ही पुत्र की माता बनने का वरदान दिया। उनकी एक रानी केशिनी के असमंजस नाम का पुत्र और सुमति के गर्भ से एक तुंबी ने जन्म लिया, वे तुंबी को फेंकवाने वाले थे कि नभ वाणी हुई — ’’राजन इस तुंबी को फेंकने की भूल मत करना इसके बीजों को घृत भरे पात्रों में संचित करवा दो! समय आने पर इनसे तुम्हारे साठ हजार पुत्र होंगे।’’राजा ने वैसा ही किया।
राजा सगर के बिगडेल पुत्र-
तरसने के बाद संतान होने के कारण दुलार-प्यार में सभी बच्चे बिगड़ गये, असमंजस प्रजा को पीड़ा देने लगा और सुमति के साठ हजार पुत्र बड़े अहंकारी और अपनी संख्या के बल के धमंड में मतवाले रहने लगे। उनके चरित्र से राजा सगर बड़े दुःखी रहने लगे । असमंजस को तो राज्य से निष्कासित कर उसके सारे अधिकार उसके पुत्र अंशुमान को दे दिया। साठ हजार सुमति पुत्रों पर उनका वश भी नहीं चलता था।
राजा सगर द्वारा सौं अश्वमेघयज्ञ करना-
वैसे राजा सगर बड़े बु़द्धिमान और प्रतापी राजा थे उन्होंने अपने पिता बाहुक के अपमान और हार का बदला हैहय वंशियों एवं शको से अपना राज्य वापस लेकर ले लिया था वे अपने राज्य का विस्तार करना चाहते थे अतः अपने साठ हजार पुत्रों की सहायता से सौ अश्वमेधयज्ञ करने का निश्चय किया। (सौ अश्वमेध यज्ञ करने वाले को इन्द्रपद का अधिकारी माना जाता था।) निन्यानबे तो निर्विघ्न पूर्ण हो गये परंतु सौवें अश्वमेध यज्ञ के समय इन्द्र को अपना सिहासन छिन जाने का भय सताने लगा। सौवें अश्वमेध का अश्वचरते हुए दक्षिण पूर्वी सागर की ओर निकल गया। अवसर देखकर देवराज इन्द्र ने यज्ञ के अश्व को चुरा लिया और पाताल लोक में महर्षि कपिल के आश्रम में ले जाकर बांध दिया।
अगस्त मुनि की कथा-
यज्ञपशु की खोज में सगर पुत्रों ने सब ओर हड़कंप मचा दिया। महाराज सगर को सूचना मिली तो उन्होंने पुत्रों की भर्तसना की और यज्ञ का अश्व खोज कर लाने की आज्ञा दे दी। सुमति पुत्रों ने खोजते-खोजते दक्षिणपूर्व में जहाँ पूर्व काल में समुद्र था, जिसे देवताओं की प्रार्थना पर अगस्त मुनि ने पानकर लिया था और अब जहाँ एक विशाल गढ्ढा था । एक समय देवताओं से हार कर सारे दैत्य समुद्र में जाकर छिप गये , वे रात्रि में निकलकर देवताओं और मनुष्यों को परेशान करने लगे थे। देवों का नाश कर स्वर्ग का सिहासन इन्द्र से छीनना उनका लक्ष था। वे जानते थे कि तप यज्ञ पूजा पाठ से ही देवों को जीवन मिलता है यदि यह सब बंद हो जाय तो देवता अपने आप ही नष्ट हो जायेंगे, इसीलिए ब्राह्मणों तपस्वियों को मारने लगे। देवों ने ब्रह्मा जी की सलाह पर अगस्त मुनि से सहायता मांगी। मुनि ने समुद्र का सारा जल पी लिया । सारे दैत्य देवों द्वारा मारे गये।
कपिल मुनी का श्राप की कथा-
सगर पुत्रों ने एक जगह घोड़े के खुरों के चिन्ह देखे , वहाँ एक जगह पृथ्वी पर एक छेद सा दृष्टिगोचर हुआ। घोड़े की खोज में सगर पुत्रों ने वहाँ की सारी धरती खोद डाली। कई -कई योजन खोद लेने के बाद उन्हें कपिल मुनि का आश्रम नजर आया, वे ध्यान मग्न थे यज्ञ का घोड़ा वहीं बंधा हुआ था। उन्होंने मुनि को चोर समझा और बहुविध उनका तिरस्कार किया । मुनि ने क्रोधावेश में उन सभी को भस्म कर दिया। नारद जी द्वारा समाचार पाकर महाराज सगर ने अपने पोते अंशुमान् को वहाँ भेजा । उन्होंने अपने व्यवहार से कपिल मुनि को प्रसन्न किया और अपने चाचाओं के उद्धार का उपाय पूछा तब उन्होंने कहा कि – स्वर्ग से गंगा माता के आने पर ही इनका उद्धार हो सकता है।
गंगा को धरती में लाने अनवरत तप और गंगा का धरती में आना-
अश्वमेध यज्ञ की समाप्ति के बाद अंशुमान् ने अपना दायित्व अपने पुत्र दिलीप को देकर वन की राह ली और गंगाजी के लिए पूरा जीवन तप करते ही बिता दिया । उन्हे सफलता न मिली , उनके पुत्र दिलीप ने भी अपना सारा जीवन पूर्वजों के उद्धार के लिए लगा दिया। महाराज दिलिप के पुत्र भगीरथ से ब्रह्माजी प्रसन्न हुए और गंगा जी को अपने कंमडल से पृथ्वी पर भेजने को तैयार हो गये, परंतु गंगाजी के वेग को संभालने वाले की आवश्यकता आन पड़ी, शंकर भगवान् उन्हें अपनी जटाओं में संभालने के लिए तैयार हो गये। स्वर्ग से उतरती गंगाजी शिव जी की जटाओं में गुम हो गईं ।
गंगा का जाह्न्वी नाम-
भगीरथ की प्रार्थना पर शिव जी ने एक पतली सी लट अपनी जटा से निकाल दिया, गंगाजी एक पतली धारा के रूप में बह चली, भगीरथ के पीछे-पीछे। गोमुख से निकल कर गंगोत्री होते हुए हरिद्वार के रास्ते वे मैदानों में उतर आईं। रास्ते में उनका कई नाम पड़ा, जह्नु ऋषि के आश्रम को डूबा देने की चंचलता के कारण ऋपि ने जब उनका पानकर लिया तब भगीरथ आकुल हेाकर ऋषि के चरणों में गिर पड़े। दयाकर उन्होंने गंगाजी को अपने कानों से बाहर निकाल दिया तब उनका नाम जाह्न्वी पड़ा ।
मकर संक्रांति पर मेले की परम्परा की कथा-
यहाँ वे हुगली नदी के नाम से जानी जाती है। उन्होने भगीरथ के पीछे- पीछे कपिल मुनि के आश्रम पर आकर सगर पुत्रों का उद्धार किया, भगीरथ ने अपने पूर्वजों को जलांजलि दी। आगे गंगा का अथाह जल समुद्र के सूख जाने पर बनने वाले गढ्ढे में भर गया । सगरपुत्रों ने इस क्षेत्र की सारी धरती खोदकर मिट्टी किनारे पर जमाकर दिया था । जलहीन सागर से मिल कर गंगा मइया ने उसे मालामाल कर दिया। वह दिन मकर संक्रांति का था, तभी से यहाँ मकर संक्रांति पर मेले का शुभारंभ हुआ माना जाता है। अपने दोनो तटों को अन्न- धन से , बाग बगीचों से, उत्सवों मेलों से सजाती गंगा माँ भारत की पहचान बन गईं। मेरा जन्म भी गंगा के पावन तट पर हुआ था इनका दर्शन कर मुझे ऐसा लगता है जैसे अपनी माँ को देख रही हूँ, गले मिलने के लिए दिल मचल उठता है।
सारे तीरथ बार-बार गंगासागर एक बार –
गंगा जी की लहरों में अपना मार्ग बनाती नौका आगे बढ़ रही थी। बहुत सारे सफेद , सलेटी रंग के विदेशी पक्षी नाव के चारों ओर शोर मचा रहे थे यात्रियों द्वारा फंेके गये दानों को वे सागर की तली में पहुँचने से बहुत पहले ही अपनी चोंच में लपक ले रहे थे। मुझे यह खेल बहुत अच्छा लगा मैंने भी दाना बेचने वालों से दाना खरीद कर उन्हें खिलाया। थोड़ी ही देर में उस पार जा लगी। इधर भी उस किनारे की तरह ही पुल बना हुआ है जिसके किनारे जाकर नाव की मोटी रस्सी पुल में गड़े मजबूत पाइप में बांध दी गई नाव रुक गई प्लेटफार्म से सटकर । यात्री संभलकर उतरने लगे। हम लोग भी उतर कर जेटी पर खड़े हो गये। प्लेटफार्म पर भीड़ थी इस समय , हम लोग आराम से चलते रहे । जमीन पर आने के साथ ही अजीब प्रकार के ठेले वालों ने हमें घेर लिया। हम कुछुबेड़िया आ गये थे। यह गंगासागर द्वीप का पहला गाँव है। यहाँ के ठेले में ट्रक के चक्के लगे हुए हैं, चार चक्कों के ऊपर नटबोल्ट से लोहे की चद्दर लगाई गई है,आगे की संरचना अपने यहाँ के रिक्शे जैसी है सामने चालक की सीट है जिस पर बैठ कर चालक पैडिल मारता है और ठेला आगे बढ़ता है। कहीं कुछ पकड़ने का जुगाड़ नहीं , 10-10 रूपये पर हेड के हिसाब से हम लोग कुछ ठेलों में बैठकर बस स्टेण्ड के लिए चल पड़े क्योंकि हमारी आगे की यात्रा जो लगभग तीस किलो मीटर की है बस से ही होने वाली थी। हम लोग एक दूसरे के सहारे बैठे अपने आस-पास का अवलोकन करते रहे। हम बहुत जल्दी वहाँ पहुँच गये जहाँ बस रुकती है। हमारा ठेले से उतरना हुआ और बस का दूसरी ओर से आना हुआ। हम बस में चढ़ गये और बस चल पड़ी। पक्की चिकनी सड़क पर बस तेजी से भागने लगी।
बस में मेरी बगल में बैठी महिला बनारस से आ रही थी, गंगा सागर दर्शन हेतु , उसके जेठ-जेठानी और पति आस-पास बैठे थे । बलिया बनारस वालों के पास से मुझे अपनेपन की सुगंध आती है। मैंने अपनी ओर से उससे बाचीत करने की कोशिश की। लेकिन हमारी बात अंतरंगता तक नहीं पहुँच सकी। मैं खिड़की से बाहर देखने लगी। देश के अन्य गाँवों के समान ही गाँव, जहाँ एक प्रायमरी स्कूल एक पानी टंकी, एक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र पेड़ों के नीचे लगे बाजार जानवरों के रेवड़ आदि दिखाई दे रहे थे। 300 वर्ग किलो मीटर में फैले इस द्वीप पर तिरालिस गाँव बसे हैं। इसकी जनसंख्या लगभग पौने दो लाख है।
बंगाल सागर के दर्शन –
यह द्वीप पश्चिम बंगाल के अधिकार क्षेत्र में आता है। गंगा नदी के मुहाने पर नदी ,द्वारा लाई गई मिट्टी से मेनग्रोव का दलदल बन गया है जिसमें विविध प्रकार के जीव पलते हैं जो पक्षियों के भोजन के काम आते हैं। रायल बंगाल टाइगर का यहाँ प्राकृतिक आवास है। गंगा सागर सुंदर वन डेल्टा का ही एक भाग है। वह तो प्रकृति प्रेमियों का मनभावन पर्यटन स्थल है जो हमारे कार्यक्रम में इस बार शामिल नहीं है। गाँव- गाँव में रुकती बस गंगासागर बस स्टेण्ड जाकर रुक गई सारे यात्री उतर पड़े। यहाँ भी कुछु बेड़िया जैसे ठेले खड़े थे, सागर तट यहाँ से लगभग दो किलो मीटर है, मेले के समय तो भीड़ के मारे जमीन दिखती ही नहीं , लोग पैदल ही चले जाते हैं परंतु इस समय भीड़ तो उतनी थी नहीं, ठेले वाले निहोरा कर रहे थे , हम लोग ठेले में बैठ गये, और आस- पास के वातावरण का जायजा लेते हुए उस पवित्र हवा में साँस ले रहे थे जिसमें गंगा माता के कल- कल निनाद की ध्वनि घुलमिल गई है। आगे हमें गंगासागर मेला स्थल के अंदर प्रवेश कराने वाला विशाल द्वार दिखाई दिया। ठेले वाले ने परहेड 30-30 रूपये लेकर हमे उतार दिया। अब हमारे सामने रेत का एक विशाल मैदान था। घाट तक जाने के लिए पक्की सड़क बनी हुई है, अपना-अपना बैग संभाले हम लोग कदम बढ़ा रहे थे। दोपहर होने के कारण गरमी से जी बेहाल हो रहा था, और सामने ही था सागर का अथाह जल जिसे देखकर प्यास और बढ़ रही थी। हमने दूर से वहाँ बने मंदिरों को देखा परंतु पहले तो स्नान करना था, सो हम लोग सागर तट पर पहुँच गये । मैंने नेत्र भर कर बंगाल सागर के दर्शन किये जिसमें हवा के साथ ऊँची लहरे उठ रहीं थीं। सागर का जल हल्का नीला दिखाई दे रहा था, देश के विभिन्न भागों से आये लोग रत्नाकर से गले मिल रहे थे। घाट पर पूरे भारत की विभिन्नता समग्रता बनी दृष्टिगोचर हो रही थी। कुछ लोग उछल- उछल कर नहा रहे थे कुछ पानी उछाल रहे थे। कुछ लोग अपने बुजुर्गों को संभाल कर नहला रहे थे।
गंगासागर स्नान-
हमने तट की रेत पर अपने कपड़े उतार कर स्नान योग्य कपड़े पहने और सिंधु पिता को प्रणाम कर जल में उतर गये। देवकी दीदी, आशा दीदी आदि सब पास- पास ही नहा रहीं थीं । यहाँ तो नजरों का ही पर्दा था सभी उम्र के, सभी रिश्ते नातों के लोग एक खुली जगह में नहा रहे थे, सबकी पलके झुकी हुईं थीं बस अपने आप को देखती हुई । ब्रजेश ने देवकी दीदी की नहाने में मदद की । बेदमती भाभी को हेमलता संभाल कर नहला रही थी। बाकी सारे साथी भी पास ही थे। धरती पर जीवन का आरंभ करने वाले चैदह रत्नों के स्वामी जलधि का पावन स्पर्श पाकर तन-मन की सारी थकान मिट गई, सारी कामनाएं पूर्ण हो गईं । इस समय प्राकृतिक परिवर्तन के कारण गंगा नदी का मुहाना पीछे छूट गया है, उनकी एक पतली सी धारा सागर से मिलती है जिसे हम स्पष्ट नहीं पहचान पाये । मकर संक्रांति के समय कपिल मुनि का मंदिर तीन दिन के लिए सागर से बाहर आता है या समुद्र का जल पीछे चला जाता है, उसके बाद पुनः जल में छिप जाता है। पर्व पर आने वाले श्रद्धालू उसके दर्शन कर अपना जीवन धन्य करते हैं, हम लोग तो भीड़ के डर से उस समय नहीं आ सके थे। स्थान का महत्त्व समझ कर इस समय आये थे।
कपिल मुनि मंदिर दर्शन-
स्नान के बाद हमने पूजन सामग्री खरीदकर एक साथ सागर संगम स्थल की पूजा की। एक महिला ने प्लास्टिक की बोरियों को सिल कर बाँस की फट्टियों के सहारे कपड़े बदलने लायक आड़ बना दिया था वह प्रति व्यक्ति दस रूपये ले रही थी। हमने इस सुविधा का लाभ उठाया। तेज हवा के कारण बदलते समय साड़ी उड़ जा रही थी। मैं तो उस महिला की बुद्धिमत्ता की कायल हो गई ।
हम लोग सामने दिख रहे कपिल मुनि के मंदिर की ओर बढ़े, जहाँ सभी लोग नहाने के बाद जा रहे थे।
रेत कला दिग्दर्शन-
रास्ते में एक स्थान पर निगाहें थम कर रह गईं –एक मलीन वेशधारी साधु एक बड़ी सुंदर मूर्ति के पास आँखें बंद किये लेटा था, मुर्ति महीन रेत से बनाई गई शिव पार्वती की थी। एक-एक रेखा इस सफाई से उकेरी गई थी कि मैं सोचती ही रह गई इतना बड़ा मूर्तिकार यहाँ कैसे छिपा हुआ है ? मूर्ति के पास कुछ सिक्के पडे देख कर हमने भी कुछ चढा़ दिया। वह मूर्ति आज तक जस की तस स्मृति पटल पर अंकित है। कहा जाता है कि यहाँ का मंदिर कपिल मुनि के आश्रम के स्थान पर ही बना है।
देवाधिदेव भोलेनाथ का दर्शन-
मंदिर के बाहर शंकर भगवान् की एक विशाल और भव्य प्रतिमा है, वे अपनी जटा खोले खड़े हैं और गंगा जी उनकी जटाओं से निकल कर धरती पर आ रहीं हैं, उनके पास शंख बजाते भगीरथ और हाथ जोड़े माता गंगा की मूर्ति है। मूर्ति मिट्टी के रंग की है एकदम जीवंत। मैंने विश्व पिता को प्रणाम किया।
’’हर हाल में हर विपत्ति में चाहे वह समुद्र मंथन से निकला विष हो या गंगा के वेग से धरती को बचाने की बात हो या फिर शुंभ निशुंभ , महिषासुर से संसार की रक्षा का अवसर , पिता ने अपने परिवार सहित लोहा लिया और स्वयं बिना घरघाट के रह कर भी अपने भक्तों को सोने का महल दे दिया। देव, दानव, नर, किन्नर, यक्ष गंधर्व असुर दैत्य आर्य अनार्य पतित पुण्यातमा सब के पूजित परमेश्वर शिव देवाधिदेव जो अवांछित का नाशकर कल्याणकारी मंगलकारी सौंदर्य की रचना करते हैं सबके साथ मुझ पर भी कृपा करें! ’’ मैंने श्रद्धापूर्वक देव की प्रार्थना की।
कपिल मुनि देवालय का दर्शन-
एक और मूर्ति दिखाई दी, यह मगर पर सवार गंगा जी की है, भगीरथ शंख बजाते हुए आगे बढ़ रहे हैं, मैया मगर पर बैठी उनके पीछे चल रहीं हैं, मगर अत्यंत जीवंत है, लग रहा है कि गंगाजी को वहन करने में वह अत्यंत श्रमित हो गया है। हम लोग मदिर में प्रविष्ट हुए । यहाँ बीच में कपिल मुनि की प्रतिमा है जो विष्णु के छठवें अवतार माने जाते हैं इनके पिता परम तपस्वी कर्दम ऋषि और माता देवहुति थीं, इन्होंने अपनी माता को सांख्य योग का उपदेश दिया ये तत्ववेत्ता थे और कर्म कांड को व्यर्थ बताते थे। उनका काल ईसा से 700 वर्ष पूर्व का माना जाता है। गीता में इन्हे श्रेष्ठ मुनि बताया गया है। इन्होंने जो सगर के साठ हजार पुत्रों को अपनी क्रोधाग्नि में भस्म किया उसमें भी लोक कल्याण की भावना थी सगर पुत्र बड़े उद्दंड और बलवान थे 99 अश्वमेध यज्ञ सफलता पूर्वक सम्पन्न कराने के बाद वे बड़े अहंकारी और लापरवाह हो गये थे। इन्ही दुर्गुणों के वशीभूत हो उन्होंने कपिल मुनि को चोर कहा, उन्हें अपशब्द कहे। मुनि ने उन्हे भस्म करने के बाद महाराज सगर के नाती अंशुमान् की क्षमा याचना से द्रवित होकर उन्हे यज्ञ अश्व दे दिया और उनके पूर्वजों के उद्धार हेतु धरती पर गंगा लाने का मंत्र भी दिया । महाराज सगर की चौथी पीढ़ी में भगीरथ को यह यश प्राप्त हुआ। जिससे भारत का भाग्योदय हुआ। मैंने दोनो हाथ जोड़कर कपिल मनि को प्रणाम किया। आगे भगवान् नृसिंह की प्रतिमा है । भक्त प्रह्लाद की रक्षा के लिए जिन्होंने आधा नर आधा हरि का शरीर धारण किया। अपने भक्त भयहारी होने के वचन का पालन किया। हमें वहाँ और भी बहुत सारी पुरानी मूर्तियों के दर्शन हुए ।
कपिल मुनी की प्राचीन मूर्ती-
कपिल मुनि का पुराना मंदिर सन् 1973 में बह गया था । प्राचीन मूर्ति कोलकाता में एक मदिर में रखी जाती है, मेले से कुछ दिन पहले साधु संतों को दी जाती है। इस मंदिर का निर्माण अखिल भारतीय निर्वाणी अखाडा मंच ने सन् 2013 से प्रारंभ करवाया। यहाँ का मेला कुंभ के मेले के बाद सबसे बड़ा होता है। तीन लाख से ऊपर लोग उस समय स्नान करने आते हैं। हुगली नदी के तट पर मेले का स्थान निश्चित है।
-तुलसी देवी तिवारी
शेेेेष अगले भाग में- दक्षिणेश्वरी काली माता का दर्शन