श्रद्धा के दो शब्द : सिर्फ अक्षर ही नहीं शायद बनाते छाँव
(डॉ राजेन्द्र बहादुर सिंह (1951-2019) के लिए, जो अब विचारों में हैं)
-प्रो रवीन्द्र प्रताप सिंह
आज मेरे पूज्य पिताजी की द्वितीय पुण्य तिथि है । मेरे पिताजी आज सशरीर हमारे बीच नहीं हैं किन्तु मेरे विचारों में आज भी उनकी आभा प्रज्वलित है । उनके संस्मरणों और विचारों से ही दो शब्द निकाल कर उन्हीं के श्रीचरणों में सादर समर्पित है-
प्रो रवीन्द्र प्रताप सिंह, पुत्र
यूँ ही ढुलक बीते वर्ष अब तक समय के दो चक्र संवेग का सुनसान और फिर कितने अबूझे प्रश्न ; नियति के, गति जीव के , जन्म के , फिर पुनर्जन्मों की अनवरत व्याख्या, भाव के उत्सर्ग मीमांसा निसर्ग लिए प्रश्न। एक पिता का जाना कर देता है सूना आकाश , कहते हैं , पिता आकाश होता है , और हाँ ,है भी बिलकुल सही। शिकायत कर रहीं कुछ मौन पांडुलिपियां नीति पर , संस्कार पर और मानव धर्म पर। साहित्य के कितने वलय हर पृष्ठ पर हैं प्रश्न , अक्षरों में दिख रहे व्यक्तित्व के अबूझे भाव और फिर याद आती वो उलझती साँस और फिर बर्फ होती देह मध्य अप्रैल के क्षणों में ; जब सूख कर काँटों सी चुभन दे रही होती घास , वो खड़े गेंहूं के खेत और फिर उनसे सरसराती, गुजरती ध्वनि -वही हवा जैसे पके सूखे उलझते से कलेवर में फंस निकली तुम्हारी साँस। याद आते हैं वही फिर बांस , हरे ताज़े जिन्हे हम काट लाया किया करते तुम्हारे साथ घर गृहस्थी के प्रयोजन हेतु कुछेक तीस वर्षों पूर्व पठन - पाठन बीच क्योंकि सिर्फ अक्षर ही नहीं शायद बनाते छाँव । याद आते हैं कई निष्कर्ष चर्चायें और घटनायें वो बीतता अस्सी और प्रारम्भ का नब्बे , देश में हत्या युवा राज्याध्यक्ष की , और फिर चर्चा बिखरते सोवियत संघ की , खाड़ी युद्ध , न जाने कितने प्रश्न व्याख्या और संतुष्टि इतिहास से, रणनीति से युद्ध कौशल , और स्वाभिमानी वंश से , भारत , विश्व से पूर्व वैदिक से लिए उत्तरोत्तर क्रमबद्ध शासन - नीति ! जागती रही रात , घिर कितने दिन यूँ ही रहे ऊँघते न कहीं थाप , न कहीं टीस न कहीं सोच , न कहीं गीत , बस एक खुशबू की इबारत लिख रही हवा , आज जब मैं सोचता हूँ वो दिन तुम्हारे साथ , तुम्हारे दर्शनों की श्रृंखला वाल्मीकि , भीष्म से विदुर से कांट , हेगेल मार्क्स तक , फ़्रांस से लेकर सोवियत क्रांति शिक्षायें , लक्ष्य और फिर कर्म संपूर्ण अंग्रेजी साहित्य और हिंदी नब्ज़। एक बनता है मोंताज और फिर धुंधलका सा धुंधला , उलझा सा कुछ और फिर उड़ा देते हैं उसे दुनिया के सवाल ! होते हैं पुनर्जन्म होती रहेगी मुलाकात समय चलता है अनवरत बदलती हैं भूमिकाएं सृजन , अवसान शोध , चमक कभी फसल - कभी गर्द की एक परत।
(प्रो रवीन्द्र प्रताप सिंह लखनऊ विश्वविद्यालय लखनऊ में अंग्रेजी के प्रोफेसर हैं)
पुण्य स्मरण पर सुंदर भाव सुमन आदरणीय….
अपने तो अपने हैं कभी नही भूला पाते,चाहे जितनी लंबी अंतराल हो…