
04 सितम्बर 2023 को शासकीय पातालेश्वर महाविद्यालय,मस्तुरी (बिलासपुर) में 'किन्नर विमर्श: नाटक एवं सिनेमा के विशेष संदर्भ में' एक दिवसीय राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी का आयोजन किया गया। इसमें देश भर से आये विद्वान वक्ताओं ने व्याख्यान दिया एवं शोध पत्र प्रस्तुत किये गये। इस संगोष्ठी के संयोजक डाॅ आनंद कश्यप थे। संगोष्ठी में जिन विद्वान वक्ताओं की उपस्थिति उल्लेखनीय रही उनमें श्री महेन्द्र भीष्म, डाॅ विनय कुमार पाठक, प्रो पुनीत बिसारिया, न्यायमूर्ति चन्द्रभूषण बाजपेयी, डाॅ रामशंकर भारती, सुश्री गीतिका वेदिका, डाॅ अंजु शुक्ला, डाॅ विनोद कुमार वर्मा, प्रो भोज राज खूंटे, डाॅ चंद्रशेखर सिंह, श्री अरुण कुमार यदु, डाॅ राघवेन्द्र दुबे प्रमुख हैं। डाॅ विनय कुमार पाठक सहित अन्य सभी विद्वानों ने संगोष्ठी में भरत वेद कृत नाटक 'शिखंडी' को किन्नर केन्द्रित हिन्दी साहित्य का प्रथम नाटक माना। बीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक में हुआ था- इस नाटक का पाँच बार मंचन।
प्रस्तुत है- "वरिष्ठ साहित्यकार व व्याकरणविद् डाॅ विनोद कुमार वर्मा द्वारा राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी में प्रस्तुत शोध संक्षेप"
जो व्यक्ति हाशिये पर है- जो समाज में सबसे पीछे खड़ा है, उसकी विवशता को, उसकी समस्यायों को, उसकी संवेदनाओं को समाज के समक्ष रखना, उसे उजागर करना, उस पर चर्चा करना एक कठिन काम है; खासकर परिवार से परित्यक्त और समाज से संतप्त, हाशिये पर खड़ा वह व्यक्ति यदि किन्नर हो, जिन्हें हिजड़ा संबोधन के साथ अपमानभरी हेय दृष्टि से देखा जाता हो- तो तीन दशक पहले उन पर चर्चा करना एक चुनौती से कम नहीं था। इसीलिए बीसवीं शताब्दी के आखिरी दशक में किन्नर केन्द्रित ' शिखंडी ' नाटक का भरत वेद द्वारा लेखन और मंचन भारतीय नाट्य इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जायेगा। इस कालखंड में शिखंडी नाटक के पाँच मंचन के प्रमाण मिलते हैं, जिसमें पहला मंचन 1996 में बिलासपुर में हुआ। शिखंडी नाटक के सारे मंचन अविभाजित मध्यप्रदेश में हुए।
भरत वेद कृत नाटक 'शिखंडी' भारतीय हिन्दी साहित्य में विशेष क्यों है? नाटक एवं सिनेमा पर केन्द्रित राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी के मंच पर उसकी चर्चा इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में क्यों आवश्यक हो गई है? आज मैं इसी पर केन्द्रित शोध को प्रस्तुत कर रहा हूँ। वस्तुतः कई ऐतिहासिक घटनाएँ समय बीतने के साथ विस्मृति के कुहासे में खो जाती हैं या उसे हम भूल जाते हैं। नाटक शिखंडी की तथा-कथा भी कुछ ऐसी ही है।
बीसवीं शताब्दी के आखिरी दशक में नाटक शिखंडी मंचित, चर्चित व पुरस्कृत हुआ। इसे हास्य नाटक माना गया परन्तु इसकी अन्तर्धारा समाज से उपेक्षित, हाशिये पर खड़ा किन्नर समाज की समस्यायों, विवशताओं और संवेदनाओं को समाज के समक्ष उजागर करने में सफल हुआ। यह वह समय था जब भारतीय हिन्दी साहित्य में किन्नरों पर बहुत ही कम लिखा गया था- न कहानियाँ लिखी गई थी, न उपन्यास लिखे गये थे, न ही नाटक। किन्नरों पर नाटक तो लिखे ही नहीं गये थे फिर उसके मंचन का सवाल ही कहाँ उठता है? यह वह समयकाल था जब लोग नाटक में किन्नर की भूमिका अदा करने के लिए भी तैयार नहीं थे।
डाॅ विनय कुमार पाठक ने अपने ग्रंथ 'किन्नर विमर्श : दशा और दिशा (2019)' और 'लैंगिक विकलांग विमर्श : दशा और दिशा (2021)' में किन्नर केन्द्रित प्रथम उपन्यास नीरजा माधव कृत 'यमदीप' को माना है जो 2002 में प्रकाशित हुआ जबकि हरीश बी शर्मा कृत लघु नाटक 'हरारत (2003)' व महेश दत्तानी कृत नाटक 'आग के सात फेरे (2008)' का ही उल्लेख मिलता है जो किन्नर केन्द्रित है।
इस तरह यह स्पस्ट है कि कि किन्नर केन्द्रित लेखन (उपन्यास व नाटक) के प्रमाण हिन्दी साहित्य में इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में ही मिलता है उससे पूर्व नहीं; जबकि नाटक शिखंडी का लेखन इससे एक दशक पूर्व सन् 1992 में ही हो गया था। हालाकि इसके प्रथम मंचन होने में चार बरस का समय लग गया और सन् 1996 में नाटक शिखंडी का पहला मंचन बिलासपुर के देवकीनंदन दीक्षित सभागृह में हुआ। इस तरह यह स्वयंसिद्ध है कि 'शिखंडी' किन्नर केन्द्रित हिन्दी नाट्य साहित्य की प्रथम ऐतिहासिक कृति है।
'शिखंडी' महाभारतकालीन योद्धा शिखंडी पर आधारित नाटक नहीं है बल्कि भरत वेद ने किन्नरों को शिखंडी नाम से अभिहित किया है। नाट्य साहित्य के सृजन में विषयवस्तु के चयन का जितना महत्व है उतना ही महत्व पात्रों के चयन और संवाद योजना का होता है। नाटक शिखंडी की विषयवस्तु तो किन्नर है इसीलिए पात्र तो किन्नर होंगे ही; परन्तु नाटक में नेता, रिपोर्टर, फिल्म निर्देशक व नृत्य गुरु की उपस्थिति किन्नरों की समग्र समस्यायों व संवेदनाओं को उजागर करने के लिए आवश्यक था। 'किन्नर' माँ-बाप की ज्ञात संतान हैं फिर भी अज्ञातवास में जीने के लिए अभिशप्त हैं। वह जायज बच्चा होकर नाजायज, वैध होकर अवैध और हक के हद से परे नकारा निरूपित कर दिया जाता है। यदि इस नाटक के पात्र नेता, रिपोर्टर, फिल्म निर्देशक व नृत्य गुरु नहीं होते तो नाटक में किन्नरों की समस्याओं व व्यथाओं को उजागर ही नहीं किया जा सकता था। नाट्य संवाद में हास्य का पुट दर्शकों को बांधे रखने के लिए आवश्यक है- वह भी इस नाटक में केन्द्रीभूत है। किन्नर पहले भी थे-आज भी हैं। उनकी संघर्ष यात्रा सदियों से चली आ रही है। वे जितने उपेक्षित समाज में थे, उतने ही उपेक्षित साहित्य में भी थे। परन्तु वैश्विक प्रभाव के कारण भारत में जनमान्यताएँ बीसवीं शताब्दी के आखिरी दशक में बदलने लगी थी- एक सकारात्मक परिवर्तन समाज में आ रहा था फिर भी किन्नर मुख्य धारा से कटे हुए थे। उन्हें साहित्य के संबल की नितांत जरूरत थी। वस्तुतः इसी कालखंड में भरत वेद कृत नाटक शिखंडी का लेखन और मंचन हुआ।
सन् 1998 में दो समानांतर घटनाएँ ऐसी हुई जिसने भारतीय समाज में किन्नर-विमर्श के लिए सुगम पथ तैयार कर दिया- एक का संबंध साहित्य से है तो दूसरे का संबंध राजनीति से। सितम्बर 1998 में कटक (ओडिशा) में आयोजित अखिल भारतीय नाट्य स्पर्धा में देश भर से आये 105 नाटकों का मंचन किया गया। इसी समारोह में भरत वेद कृत 'शिखंडी' को सर्वश्रेष्ठ हास्य नाटक का पुरस्कार मिला जबकि सर्वश्रेष्ठ नाट्य लेखन का पुरस्कार नाटककार भरत वेद को मिला। कभी इस पर जरूर विचार करें कि नाटक 'शिखंडी' और उसके लेखक को ही प्रथम पुरस्कार क्यों मिला?
वस्तुतः नाटक 'शिखंडी' और उसके लेखक को प्रथम पुरस्कार मिलना किन्नरों के सामाजिक स्वीकार्यता का प्रतीक है। इसके ठीक तीन माह बाद नवम्बर 1998 के विधानसभा चुनाव में अविभाजित मध्यप्रदेश के शहडोल-अनुपपुर जिला के सोहागपुर विधानसभा से किन्नर शबनम मौसी ने चुनाव जीतकर इतिहास रच दिया व वे भारत की प्रथम किन्नर विधायक बनीं। सन् 1998 से 2003 तक वे विधायक रहीं। योगेश भारद्वाज ने शबनम मौसी पर एक फिल्म भी बनाया जो सन् 2005 में प्रदर्शित हुई। इसमें सुप्रसिद्ध कलाकार आशुतोष राणा ने शबनम मौसी का रोल निभाया। इस तरह वर्ष 1998 में साहित्य व राजनीति दोनों में किन्नरों ने परचम लहराया। यह किन्नरों के प्रति भारतीय समाज में क्रान्तिकारी परिवर्तन का संकेत था। हालाकि साहित्य की धारा अंतःसलिला होती है इसलिए लोगों को दृष्टिगोचर नहीं होता; परन्तु यह सत्य है कि समाज में परिवर्तन की धारा जब बहती है तो साहित्य आगे चलता है- साहित्यकार की अन्तर्दृष्टि आगे चलती है फिर उसके पीछे राजनीति चलती है।
अपने भावों, विचारों और चिंतनों का प्रजापति तो साहित्यकार ही है। वह सृष्टा है इसीलिए उसकी सर्जना शक्ति त्रिमुखी होती है। साहित्य को समाज से जोड़ने वाला सबसे महत्वपूर्ण तत्व वही दृष्टि ही तो है जो जीवन और जगत को आर-पार सही अर्थों में देख पाने की शक्ति से सम्पन्न है। यही अतीत के कुहासे को साफ करता है और वर्तमान के शोभन-अशोभन, सुन्दर-असुन्दर को परखकर भविष्य के बनते-बिगड़ते अस्पस्ट चित्रों को रूपायित करता है। अर्थात ' जो दिख रहा है '- उसे ' जो होने वाला है '- उससे साहित्यकार ही जोड़ता है। इसीलिए साहित्य आगे-आगे चलता है, राजनीति उसके पीछे चलती है।
संप्रति, किन्नरों के प्रति जनमान्यताएँ बदल रही हैं और समाज का सकारात्मक दृष्टिकोण सामने आ रहा है। किन्नरों के हित में अब कई नये-नये कानून भी आ गये हैं। निष्कर्ष यह कि हिन्दी साहित्य में किन्नर केन्द्रित प्रथम नाट्य लेखन व मंचन के लिए नाटककार भरत वेद को हमेशा रेखाँकित किया जायेगा।
- डाॅ विनोद कुमार वर्मा
व्याकरणविद्,कहानीकार, समीक्षक
बिलासपुर ( छ ग )
मो- 98263 40331
ईमेल- vinodverma8070@gmail.com