एक व्यंग्य आलेख:शिक्षा व्यापार की प्रतिस्पर्धा

शिक्षा व्यापार की प्रतिस्पर्धा

-डॉ. अर्जुन दूबे

shiksh aur vyapar me pratispardha
shiksh aur vyapar me pratispardha

व्यापार सदियों से चला आ रहा है, लेना और देना दो कसौटियां है व्यापार को सुचारू रूप से चलते रहने की; यदि संतुलन नहीं तो व्यापार प्रभावित हो जाता है; लेने वाला सक्षम हो और देने वाला तो और भी अधिक सक्षम हो, क्या कहना! एकाधिकार की स्थिति में व्यापार न होकर शोषण शुरू हो जाता है ।

इस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में व्यापार के लिए ही कदम रखा था। ऐसा नही है कि इसके पहले व्यापार नहीं होता था, लेने देने का क्रम तो मानव सभ्यता काल से ही है । असभ्यता के माहौल में संतुलन नहीं होता है केवल लेने का रहता है, भले ही लूटना और डाका डालना पड़े !

समुद्री लूटेरे डाका ही डालते थे,सुरक्षा एक चुनौती बनी रहती है ।

हम अपने भूत पर गर्व करते हुए नोस्टाल्जिया से ओत प्रोत हो जाते हैं। हम शिक्षा के क्षेत्र में तक्षशिला और नालंदा को प्राय: Quote करते हैं जहां देश ही क्यों विदेश से विद्यार्थी पढने आते थे.पता नहीं कि पढने में उनका उनके देश का धन व्यय होता था कि नहीं! यदि नहीं तो यह शिक्षा क्षेत्र में स्वर्णिम युग रहा होगा! शिक्षा व्यापार नही होकर ज्ञान का आधार होता होगा जिसे जितना बाटो उतना ही बढेगा;इसे देने से और बढता जाता है और देने वाले की Brand Value बढ कर निर्धारक की कोटि में चली जाती है।

शिक्षा मे ब्रांड वैल्यू :हमारे देश में तो वर्तमान में स्कूली शिक्षा में तो पब्लिक स्कूलों, सरकारी मत समझें, इंगलिश मीडियम ब्रांड बने हुए हैं. व्यापार करिये पर शिक्षा में तो ब्रा़ड यही हैं; धन मिला तो ब्रांड में जाने में कौन संकोच!

थोड़ा धन का दायरा और बढा तो देश के ब्रांड में क्या रखा है! विदेश की ओर इंग्लैंड और अमेरिका आदि देशों में जहां धनवान पहले भी जाते थे.महान लोगों की विकीपीडिया पढें, इन देशों में पढें हैं, मूर्ख तो थे नहीं !ब्रांड के कारण ही तो गये होंगें.अब भी जा रहे हैँ, महान उनके पद चिन्हों पर धड़ल्ले के साथ चल रहे हैं और तो और MOU भी इनके साथ करा ले रहे हैं.यह भी एक तरह का व्यापार है?

उच्च शिक्षा, तकनीकी एवं चिकित्सा शिक्षा में तो Brand का क्या पूछना! शोध के क्षेत्र में तो आंतरिक प्रकाशन को कौन पूछ रहा है, प्रकाशन हो तो इंटरनेशनल वह भी ब्रांड के साथ नही तो कूड़ा करकट!

अब देखें ,ब्रांड के फेर में व्यापार खूब पुष्पित, पल्लवित और फलित भी हो रहा है. यहां से इन विधाओं में वहां पर शिक्षा लेने के लिए ज्ञानार्थियों की फौज जाने को व्याकुल रहती है, पर मुफ्त में ज्ञान! यह कैसे संभव? धन बाधक नहीं है अब,बैंक भी खूब कर्ज देते हैं, अपने से नहीं सरकार की भी मंशा है,शिक्षा व्यापार वहां पर ही चलेगा,सुकूनभरा रहेगा.यहां से लक्ष्मी जी को वहीं स्थापित कर देते हैं.कंपनी जब व्यापार करने आयी थी तब आयी थी,अब वहीं चलते हैँ, चलते कल या, जा ही रहे हैँ, बस देश छूटना चाहिए चाहे एशियाई देश नेपाल, बांग्लादेश आदि ही क्यों नहीं हो जहां से पहले यहां पर शिक्षा लेने आते थे,अब ?कम हो गया है तभी तो हम जाते हैं !आना जाना अच्छी बात है, इसी से तो व्यापार बढता है!

-प्रोसेसर अर्जुन दूबे

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