धर्मेन्द्र ‘निर्मल’ का व्यंग्य- शाेक समाचार
धर्मेन्द्र ‘निर्मल’ का व्यंग्य- शाेक समाचार
( समाचार पत्र के संपादक को एक व्यक्ति के निधन का समाचार प्रकाशित करने की सूचना मिली। शोक समाचार घरवालों ने तैयार कर लिया था। उनकी मंशा थी कि शोक समाचार के बहाने हमारे अपने नाम का भी प्रचार प्रसार हो जाए। इसी बहाने लोग हमें भी तो जाने। साथ ही साथ प्रत्येक दृष्टिकोण से लोगों को उनका शोक समाचार मिल जाए और कम से कम हमें कार्ड बाँटने से मुक्ति मिले।)
रामपुकार सिंग उर्फ झुमरू बीते दिन बीत गए। कल का मंगगवार झुमरू के लिए अमंगलकारी ठहरा। वे अपने जीवन के 86 सावन व्यर्थ व्यतीत कर अर्थ का अनर्थ कर चुके थे। वैसे वे 87 वर्ष के जीर्ण शीर्ण युवा थे। समझदार शिक्षाविदों की नासमझ कलम के चलते प्रमाणपत्रों में उनकी प्रमाणित आयु 86 वर्ष थी। सौ बक्का एक लिक्खा। देश के प्रति किंचित व्यथित चिंतित कथित उत्साही हृदय सम्राट, कर्णधार, माटीपुत्रों ने युवा शब्द की परिभाषा ही बदल डाली है। वे एक टाँगपर कब्र के अन्दर खड़े कुर्सी की टाँग पकड़े चिल्लाते रहते हैं कि हम युवा है। उनको बूरा न लगे इसलिए झुमरू को यहाँ जीणर्-शीर्ण युवा से संबोधित किया गया है।
सावन बरस में एक ही महीना होता हैं परन्तु झुमरू के लिए बारहों महीना सावन बरसता था। सावन में ही वे प्रेम में अंधे हुए थे। सावन के अंधे को हरा ही हरा सूझता है। वे प्रायः प्रातः सूर्य प्रार्थना और शाम को सन्ध्या वंदन के बहाने छत की मुँडेर पर चढ़ जाया करते थे। दोपहर में कबूतर उड़ाने के बहाने अपना कुंदरू मुँह और सुग्गा नाक लेकर पहुँच जाते। गुनगुनी धूप में बैठकर अपने बेसूरे राग में गुनगुनाया करते। लगे हाथ वहीं पड़ोसन स्वर्णलता से अपनी आँखे आठ कर लिया करते थे। चश्मा झुमरू को लगा ही था स्वर्णलता भी अपनी आँखों पर चश्में चढ़ा कर आया करती थी। दरअसल उसे दूर की वस्तु ठीक ठाक दिखाई नहीं देती थी।
झुमरू की सांस्कृतिक, पारंपरिक धार्मिक और नैतिक जीवन संगिनी कुसुमलता थी। लेकिन झुमरू मिश्रित सभ्यता के कायल थे। इसीलिए वे स्वर्णलता के स्नेह में घायल थे। वे जीवन भर इन्ही दोनों लताओं के कुंज में झूमते, झूलते, भटकते रहे। लताओं के खींचतान में झुमरू और उनकी धर्मपत्नी में आए दिन हुज्जत, तकरार, इनकार, मनुहार लगातार चलता रहता। इसी बीच गुस्से में यदा कदा कुसुमलता रामपुकार को झुमरू झुमरू चिल्लाकर उसकी इज्जत का फालूदा बना बैठती। पड़ोस के मुँहफट लंपट बच्चों ने बिना कान की दीवार पर बिना कान टिकाए यह सब सुन लिया। उन्ही फिट्टे मुँहों ने यह नाम रटते रटते मुहल्ले भर को रटा दिया।
वे रामनगर के निवासी थे। हुड़को में उनका एक और मकान है। उसे उन्होने किराए पर दे मारा है। वे वहाँ के अनिवासी थे। देखने में वे बड़े सरल सहज और उदारमना थे लेकिन ताकने परखने में उच्च किसम के काइयाँ और कापुरूष थे। झुमरू अपने इस सांसारिक नाम को पूरी तरह सार्थक करते थे। राम नाम जपना पराया माल अपना उनके अंतर्मन की मुख्य पुकार और ध्येय वाक्य रहा। वे बैलों की तरह कहीं भी कभी भी सींग मारते दुम हिलाते इत उत डुला फिरा करते थे। लोग उन्हें सिरफिरा कहते थे, वास्तव में वे सिरफिरा नहीं थे बल्कि जिनसे मिलते थे उनके दिमाग का दही जरूर कर देते।
वे राजस्व विभाग के सेवा निवृत्त कर्मचारी थे। वास्तव में सेवानिवृत नहीं थे। वे कुबेर के खजाने में पटवारी के पद पर कार्यरत थे। पदासीन होते ही वे मद में मोद पद से खूब कबड्डी खेले। आमोद प्रमोद में खजाना संभालने में नाकामयाब रहे। आखिर में सरकार को उसे पद से खो खो करना पड़ा। पद से धुत्कारने धकियाने के बाद ताउम्र वे पस्त नमकहलाली के साथ दलाली में मस्त व्यस्त रहे।
वे मात्र तीन बच्चों के जायज, प्रमाणित, एकमात्र और पात्र पिता थे। वैसे तो वे कुछ जायज बच्चों के भी नाजायज और अपात्र पिता थे। उनकी गणना वही कर सकते थे। उन्हें यहाँ गिनना गुनना इसलिए व्यर्थ, असंभव और नाजायज सिर धुनना होगा क्योकि वे सब अब उन्हे मामू कहकर पुकारने लगे थे।
उनकी दो पुत्रियाँ सरोज और गिरिजा है। सरोज बड़ी है, गिरिजा सरोज से छोटी। गिरिजा झुमरू के सुपुत्र और अपने एकमात्र भाई केषव से भी छोटी है। इस तरह झुमरू की तीन संतानों में सबसे बड़ी सरोज है। विश्वास है कि आपका भेजा फ्राई के बजाय सूद सहित शुध्द, सात्विक और साबूत होगा। आषा है आपकी बुध्दि में इतनी सी बात आ हीे गई होगी कि गिरिजा झुमरू की तीसरी और आखिरी संतान है। यह भी समझ गए होंगे कि केशव झुमरू की मंझली संतान है।
गिरिजा ने एक असामाजिक व्यक्ति के फेरे में आकर बिना फेरा लगाए प्रेम विवाह रचा लिया था। घर परिवार और समाज वालो ने उसे शादी के पहले बहुत समझाया, बेटी ! पढ़े लिखे और इज्जतदार घर की होने के बावजूद क्यों अपने साथ साथ परिवार और समाज की नाक कटवाने पर तूली हो ? लड़का अमका है, बाप ढमका है। पंच है, प्रपंच है वगैरह वगैरह। वह बचपन से जिद्दी थी। इन सब बातों का उनके कान पर तनिक भी जूँ नहीं रेंगी। विद्यार्थी जीवन में जैसे रट्टा मारकर पढ़ा करती थी, वही आदत ताउम्र बनी रही। विवाह के संबंध में भी रटाया रूटाया एक ही जवाब था -मैं सूर्पनखा नहीं हूँ जो अपनी नाक कटवा लूँ और नकटी बनकर घूमती फिरती रहूँ। परिवार और समाज की नाक कटे तो कटने दे। चाहे किसी का वजूद रहे न रहे, मैं प्रेम फालूदा ही खाउँगी। उसकी जिद ने परिवार समाज के समझाइस की मिट्टी पलीद कर दी। सबने हथियार डाल दिए। आखिर हश्र वही हुआ – होइ है वही जो राम रचि राखा। पढ़ाई जीवन में रट्टे का पट्टा पकड़ जैसे तैसे पीछे से पेल धकेल पास भी होती रही। यह तोता रटंत वास्तविक वैवाहिक जीवन में काम नहीं आया। अंततः वह सपनों के आसमान से गिरी और बाबुल के खजूर में अटक गई। वही सूर्पनखा मोहल्ले के राम लखनों पर पतित दृष्टिपात के बज्राघात से डोरे डाल डालकर बेचारी सीताओं के साथ तू डाल डाल, मैं पात पात का खेल खेल रही है। झुमरू उसी गिरिजा के इकलौते पिता थे।
झुमरू की ज्येष्ठ सुपुत्री सरोज के भी मकरंद गुलकद से चंद प्रेम प्रसंग थे। जो चंद लंदफंद मंडलियों के मंद मंद मुस्कान लिए मुखारवृंद से छंद अछंद गाहे बगाहे सुना सुनाया गया। लेकिन वह स्वछंद न होकर बंद खिड़कियों का प्यार बनकर रह गया। सरोज ने गिरिजा के विवाह के समय परिवार समाज का विरोध और पिता की उखड़ी उधड़ी सूरत देखकर अपने सपनों की बखिया उधेड़ दी। प्रेम का फन कुचलकर सीने में दफन कर दिया। जिस प्रकार नदियों में यदा कदा रेत हटाने मात्र से पानी हाथ लग जाता है जो प्यासे कंठ को तृप्त कर जाता हैं। ठीक उसी तरह हालांकि वर्तमान में उसकी प्रेम की नदियाँ सूख चुकी है लेकिन भीतर अविरल अथाह जलधार है। मतलब सरोज झुमरू की कायर और डरपोक संतान है। बाद में उसका विवाह घूसखोर और भ्रष्ट इजीनियर के साथ हुआ जो आजकल जंगल विभाग में मंगल मना रहे हैं। झुमरू उसी भ्रष्ट, जंगली, बाहुबली और दंगली इंजीनियर के ससुर थे।
पुत्र केशव माया मोह के इस मचलन विचलन फिसलन से दूर रहे। अभी तक वे अपनी पत्नी सिंधु के केन्द्रबिन्दु पर ही टिके हुए हैं सिंधु झुमरू की बहू है। इन सब बातों के बाद भी आपकी बुध्दि काम न कर रही हो तो बताए देते है कि झुमरू केशव के पिता और सिंधु के ससुर थे।
अंत तक उनकी अंतिम इच्छा थी कि उसे अंतिम यात्रा न करनी पड़े। इसी बात पर अडिग भी रहे। जीते जी अपनी अंतिम यात्रा में सम्मिलित नहीं हुए। झुमरू की चलती तो वे हम तो डूबेंगे तुमको भी ले डूबेंगे की तर्ज पर घर क्या पूरे मोहल्ले को साथ ले जाते अपनी यात्रा में। मोहल्ले के लोग भी कम चालू चालाक नहीं थे। उन्होने कह दिया कि आप बड़े हैं, पहुँचे हुए है सो पहले पहुँचिए। हम बस पीछे हैं। समय नहीं बता सकते। इस तरह झुमरू जी अपनी अंतिम यात्रा छोड़ सीधे स्वर्ग को कूच कर गए।
वे अपने पीछे सुखी घर, हँसते खेलते नाती पोते और भरापूरा मोहल्ला छोड़ गए है। जीते जी एक कमरे पर अतिक्रमण कर हथियाए बेठे रहे और खों खों कर पूरे घर को अषांत बनाए रखा। उससे अब घर परिवार को शान्ति मिलेगी। जहाँ तक लोग उसे जानते है सबका यही बकना है कि – वो साला तो नरक के लायक भी नही था लेकिन स्वर्ग नरक दोनों के बीच जो रास्ता या नजूल की खाली जमीन पड़ी होगी उसमें बेजा कब्जा कर पक्का मकान बना लिया होगा। इतना ही नहीं मकान से संबंधित सारे फर्जी प्रमाणपत्र भी जुटा लिया होगा।
उनकी अंतिम यात्रा कल सुबह गुरूवार उनके घर से दस बजे निकलेगी। घर से निकलकर गली के पहले, दूसरे और तीसरे मोड़ को पार करते हुए मुख्य मार्ग में पहुँचेगी। घर से मुख्यमार्ग पहुँचने के पश्चात मुक्तिधाम वाली सड़क पकड़ेगी। सड़क होकर मुक्तिधाम पहँचेगी जहाँ उनका अंतिम संस्कार होगा। उनका अपने जीवन में एक तकिया कलाम था – फस्र्ट इंप्रेशन इस लास्ट इंप्रेशन। वे इस पर जीवन भर कायम भी रहे। इसलिए वे जीवन भर संस्कार विहीन रहे। कल का अंतिम संस्कार ही उनका प्रथम और अंतिम संस्कार होगा।
-धर्मेन्द्र निर्मल
9406096346