लघुकथा-‘बासी-चरित्र’
-दिनेश चौहान
सोनू रोटी के लिए बहुत जिद कर रहा था लेकिन माँ उसे टरका रही थी कि रोटी नहीं है। तो सोनू खुद ही किचन में जाकर ढूँढने लगा। उसने देखा एक डिब्बे में ढेर सारी रोटियाँ है। वह निकाल कर खाने वाला ही था कि माँ पहुँच गई। उसने रोटी झटककर सोनू को जोर से झिड़क दिया- “बासी रोटी नहीं खाते, बीमार होना है क्या?” सोनू रोने लगा तो काम करने वाली बाई कजरी को दया आ गई, “मालकिन बच्चा भूखा होगा, दे दीजिए न रोटी।”
“तू चुपचाप अपना काम कर, बड़ी आई तरफदारी करनेवाली।”
मालकिन ने कजरी को भी झिड़क दिया।
कजरी काम निपटाकर घर जाने लगी तो मालकिन ने धीरे से कहा,
“कजरी, ये रात की बची रोटियाँ तू ले जा।”
कजरी ने मन ही मन कहा, “मालकिन बासी रोटी नहीं अपना बासी चरित्र (Basi-charitra) दे रही है।”
-दिनेश चौहान, छत्तीसगढ़ी ठीहा, शीतलापारा, नवापारा-राजिम, रायपुर, छ.ग.