सुशील यादव की चंद कविताएं

सुशील यादव की चंद कविताएं

सुशील यादव की चंद कविताएं
सुशील यादव की चंद कविताएं

जीवन आपाधापी में…

*
अब बंद करो ये मय खाने
मची हुई हाहाकार बहुत
भूखी जनता क्रोधित होती
तुम लेते जब चटकार बहुत

*
संकट समय करोना भारी,
तारणहार बने तुम आते
काया मनुज तज के कोई
देव रूप अवतार दिखाते
*
समय मांग पर,आंख मूंदना
हो ज्ञापित अपराध गहन
जो शरणागत संहार करे
करना सीखो वो दुष्ट हनन
*
जननी सेवा करने वाले
गिनो उन्हे मेवा अधिकारी
पीठ दिखाने वाले कायर तो
मानवता पर होते भारी
*
मुक्ति राह ,के दलदल में
कौन मजबूर है आनेवाला
दुर्दिन खातिर बचा लो साथी
कम से कम तो एक निवाला
*
आने वाले दिन की नीयत
ज्ञात नहीं है हमको – तुमको
क्या – क्या कीमत देनी होगी
पल भर सांसें जीने को
*
अभी तो अपना ठौर ठिकाना
जैसा भी समझो अच्छा है
आने वाले कल की सोचें
बीमारी जूझता बच्चा है
*
जीवन आपाधापी में गर
त्याग सको अपनी मनमानी
एकाकीपन में खुद को रख
पढ़ लो कालचक्र कहानी

अवसर

जो बरगद –पीपल, बूढ़े पिता के बारे में सोचता है
वो यकीनन मजहब, इमान, खुदा के बारे में सोचता है
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डिगा सकता है वही शख्श यहां, इंच- भर अंगद के पांव
जो मुसीबत में पिसते हुए, इन्सा के बारे में सोचता है
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बहाना कौन चाहता है ,गंगा में अपनो की लाश को
तंग हाल आदमी कब, कफन चिता के बारे में सोचता है
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वो मयकदे में आखिरी साँस तक, हो बेआबरू जी लेता
गिद्धों के बीच कौन, अस्मिता के बारे में सोचता है
#
लोगो ने बना दिया, आफत को,अवसरों का बाजार
लूट की नीयत वाला कब सजा के बारे में सोचता है

घनाक्षरी वार्णिक गजल (८,८,८,८ वर्ण)

भीड़ में कोई किसी को,अब रास्ता नहीं देता
डूबते को तिनका भी , यूं आसरा नहीं देता

कहाँ ले जाओगे तुम ,अपनी उखड़ी साँसे
बीमार को जी भर के ,कोई हवा नहीं देता

मै चाहता, उतार दूँ ,ये गुनाह के नकाब
मुनासिब मुझे कोई , वो चेहरा नहीं देता

मिले शायद इनसे, पल दो पल की खुशी
जीवन की मुसकान .मसखरा नहीं देता

कितने चारागरों से, मिल पूछा किये हम
रोग ये आघात खूब,क्या गहरा नहीं देता

कल की कुछ धुधली ,बनी रहती है तस्वीरें
इन दिनों अक्स साफ , लो आइना नहीं देता

उनसे मिल के जुदा, हुए बीते हैं बरसों
मेरा ‘सुकून’ ठिकाना, मेरा पता नहीं देता

मुक्ति होगी कब व्याधि से

हम कोलाहल में जीने वाले ,
शांति-पथ में भटक गए हैं।

नफ़रत के बीज कभी उगाते
रोपा करते खेतों ख़ंजर
इसी धरा से सब पाया
युगों_ युगों था घोषित बंजर

पर आसमान छलाँग लगा कर
हमी त्रिशंकु लटक गए हैं ।

हम जीना सीख रहे थे
कुत्सित मर्यादा को पाले
भेद भाव की राजनीति में
पिटते देखे भोले _भाले

बोलचाल के शब्दों भीतर
अपशब्दों को पटक गए हैं

हर चेहरा बेबस लाचार यहाँ
मातम पसरा बाज़ार यहाँ
ख़रीद सके हैं पैसे वाले
इतना महँगा उपचार यहाँ

मुक्ति होगी कब व्याधि से
संशय शीशे चटक गए हैं।

-सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर
जोन १ स्ट्रीट ३ दुर्ग
छत्तीसगढ़
9408807420

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