स्वाभीमान एवं आत्मनिर्भरता ही सच्ची स्वतंत्रता है
-रमेशकुमार सिंह चौहान
स्वाभिमान एवं आत्मनिर्भरता
स्वाभीमान एवं आत्मनिर्भरता
स्वाभिमान एवं आत्मनिर्भरता तो भिन्न शब्द होते हुए भी एक आधार पर ठीके हुए है जिस प्रकार एक शक्तिशाली व्यक्ति ही सच्चे अर्थो में क्षमाशील हो सकता है ठीक उसी प्रकार एक आत्मनिर्भर व्यक्ति ही सच्चे अर्थो में स्वाभीमानी हो सकता है ।
स्वाभीमान-
अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का अभिमान करना, आत्म-गौरव करना, आत्म विश्वास अर्थात अपने ऊपर विश्वास करना ही स्वाभीमान, Self-respect या Self steam कहलाता हैं ।
मनुष्य जब अपने श्रेष्ठ कर्मों एवं चारित्रिक व्यवहारों से समाज में अपनी विशिष्ठ पहचान स्थापित कर लेता है तब उसे समाज द्वारा सम्मान प्राप्त होता है । अपने इस सम्मान की रक्षा करना ही स्वाभिमान होता है। वास्तव में स्वाभिमान का व्यापक अर्थ होता है । स्वाभिमान आत्मविश्वास से प्रारंभ होकर आत्मगौरव की रक्षा करने की प्रक्रिया है । यह जीवनपरियंत चलने वाली प्रक्रिया है ।
हमारे पौराणिक ग्रन्थों में आत्माभिमान की रक्षा करना प्राणों की रक्षा करने से भी श्रेष्ठ कहा गया है । कई ग्रन्थों में यहाँ तक भी कहाँ गया है कि ”यदि प्राणोत्सर्ग करने से स्वाभिमान की रक्षा हो सके तो सहजता से प्राणोत्सर्ग कर देना चाहिये ।’‘ स्वाभिमान के पुष्पित पल्लवित वृक्ष पर ही आत्मनिर्भरता का फल लगता है ।
आत्मनिर्भर किसे कहते हैं ?
वह व्यक्ति जो अपने व्यक्तिगत आवश्यकता के पूर्ति के लिये किसी दूसरों पर निर्भर न होकर अपने आप पर निर्भर होता है, उसे ही आत्मनिर्भर कहते हैं । जो व्यक्ति अपने हर छोटे-बड़े काम स्वयं करने का प्रयास करते हों, यदि किसी दूसरों की सहायता लेने की आवश्यकता पड़े भी तो उसे वह अर्थ अथवा श्रम विनिमय से ही लेता है । वह कभी भी किसी से मुफ्त में सहायता लेने का प्रयास नहीं करता न ही अपने धन बल, बाहु बल से दूसरों का शोषण करता है ।
आत्मनिर्भर होने का यह अर्थ कदापि नहीं हो सकता वह किसी दूसरे का सहयोग ही न ले । सहयोग ले किन्तु स्वयं भी सहयोग करे । परस्पर सहयोग करने से स्वाभीमान पर चोट नहीं पहुँचेगा और कार्य भी आसानी से हो जायेगा । आत्मनिर्भर व्यक्ति कभी स्वार्थी, स्वकेन्द्रित नहीं हो सकता ।
आत्मनिर्भरता का महत्व–
‘स्वाभिमान’ व्यक्ति का वह नैतिक गुण है जो उसे नैसर्गिक रूप से स्वालंबी बनाता है, आत्मनिर्भर बनाता है । आत्मनिर्भर व्यक्ति ही सफल होकर उसी प्रकार प्रदीप्मान होता है जैसे करोड़ो तारों के मध्य चन्द्रमा शोभायमान होता है ।
महाकवि भीमराव के अनुसार-‘लघयन खलु तेजसा जगन्न महा निच्छती भूतिमन्यतः’’ अर्थात अपने तेज और प्रताप से दुनिया को अपने नीचे रखने वाले लोग कभी भी दूसरों का सहारा नहीं लेते अपितु स्वयं के बल पर सब कुछ प्राप्त करते हैं ।
प्रसिद्ध निबंधकार बालकृष्ण भट्ट आत्मनिर्भरता के संदर्भ में लिखते हैं-‘‘अपने भरोसे का बल है ये जहाँ होंगे जल में तुंबी के समान सबके ऊपर रहेंगे ।’’ अर्थात आत्माभिमानी स्वालंबी संसार में उसी प्रकार ऊपर होते हैं जैसे तुंबी जल में तैरता हुआ ऊपर होता है ।
आत्मनिर्भर बने कैसें?
आत्मनिर्भर बनने के लिये व्यक्ति को सबसे पहले शारीरिक एवं मानसिक रूप से सक्षम होना चाहिये । उसे अपने शारीरिक शक्ति एवं मानसिक शक्ति पर स्वयं विश्वास होना चाहिये । यहाँ शारीरिक सक्षमता का अर्थ सबसे बलिष्ठ हो ऐसा नहीं है अपितु अपने कार्य को करने के लिये अपने शरीर को अनुकूल बनाना मात्र है । उसी प्रकार मानसिक सक्षमता का अर्थ भी अपने कार्य करने के लिय अपनी बौद्धिक विकास करना है ।
आत्मनिर्भरता व्यक्ति का आंतरिक गुण है, जिसे अभ्यास द्वारा निखारा जा सकता है । छोटी-छोटी बातों पर दूसरों का सहयोग लेने की लालसा छोड़कर स्वयं उसे करने का अभ्यास करना चाहिये ।
अपने जीवकोपार्जन करने के लिये दूसरों की दया, भीख पर निर्भर न होकर परिश्रमी होना चाहिये । अपने परिश्रम के बल पर अपने अनुकूल कार्य करना चाहिये ।
कोई काम छोटा-बड़ा नहीं होता हर काम का अपना एक अलग महत्व होता है । जिस काम को हम कर सकते हैं उस काम से अर्थोपार्जन के सारे प्रयास करना चाहिये ।
आत्मनिर्भरता के बाधक तत्व-
आत्मनिर्भरता को कमजोर करने के कई कारक हो सकते हैं इसमें कुछ प्रमुख कारकों को इस प्रकार सूचीबद्ध किया जा सकता है-
- बाल्यकाल में बच्चों पर माता-पिता का आवश्यकता से अधिक दुलार हर बात पर बच्चों का माता-पिता पर निर्भर होना उसे आत्मनिर्भर होने से रोकता है ।
- कम परिश्रम से अधिक प्राप्त करने की चाहत । लोग कम परिश्रम करके अधिक प्राप्त करना चाहते हैं यह आत्मनिभर्रता का सबसे बड़ा बाधक है ।
- शारीरिक और मानसिक आलस्य ।
- मुफ्तखोरी की प्रवृत्ति ।
- आत्मनिर्भर बनने में एक बाधा हमारी शिक्षा का चयन भी है । हमे ऐसे शिक्षा का चयन करना चाहिये जिससे हमारे अंदर कोई न कोई स्कील उत्पन्न हो जिस स्कील की सहायता से हम आर्थोपार्जन कर आत्मनिर्भर हो सकें ।
- अपने आप को श्रेष्ठ मानकर बलपूर्वक या दुराग्रह पूर्वक दूसरों से अपना काम कराने की प्रवृत्ति दूसरों को आत्मनिर्भर होने से रोकता है ।
- वी.वी.आई.पी कल्चर के फेर में दूसरों को अपने अधीन समझने की मनोवृत्ति आत्मनिर्भर होने से उस व्यक्ति को रोकता है ।
आत्मनिर्भरता ही सच्ची स्वतंत्रता है-
स्वाभीमान ही जीवन है । जिस व्यक्ति में स्वाभिमान न हो उसे जीते जी मुर्दे के समान माना गया है । जिस प्रकार शरीर के जीवित रहने का शर्त प्राणदायनी वायु का स्पंदन है उसी प्रकार आत्मा के जीवित होने के लिये आत्माभिमान का स्पंदन होना आवश्यक है । एक गैरस्वाभिमानी व्यक्ति आत्मनिर्भर कदापि नहीं हो सकता क्योंकि स्वाभिमान के पुष्पित पल्लवित वृक्ष पर ही आत्मनिर्भरता का फल लगता है । प्राकृतिक रूप से प्राणी आत्मनिर्भर होता है । आत्मनिर्भरता ही सच्ची स्वतंत्रता है । यदि आप स्वतंत्र जीवन जीना चाहते हैं तो स्वाभीमानी एवं स्वालंबी आत्मनिर्भर बनें ।
-रमेश चौहान
बहुत सुंदर सार्थक संदेश निहित वृहद और प्रेरणादायक लेख लेखन हेतु हार्दिक शुभकामनाएँ
धन्यवाद आचार्य जी