नाटक-प्रेम दिवस का परिप्रेक्ष्य
वेलेंटाइन डे पर विशेष
प्रो. रवीन्द्र प्रताप सिंह
नाटककार की घोषणा
नाटक के सभी पात्र, घटनाएं, स्थान तथा भाव काल्पनिक है। किसी व्यक्ति, स्थान, धर्म, जाति, सम्प्रदाय इत्यादि से कोई समानता सिर्फ एक संयोग हो सकता है ।
वेलेंटाइन डे पर विशेष
वेलेंटाइन डे पर विशेष: नाटक-प्रेम दिवस का परिप्रेक्ष्य
वेलेंटाइन डे पर विशेष
पात्र
शरमन
विक्षिप्त
चांद भाई
प्रस्तोता
ध्वान वर्तिका
ध्वान मर्दन
तारक शाह
काली
लामा वेशधारी
भिखारी
छात्र
दृश्य-एक
(पुरानी हवेली जो हॉस्टल बना दी गयी है, उसी का एक कक्ष)
शरमन 20-21 वर्ष का एक युवक पुस्तकों से घिरा अध्ययन निमग्न। पार्श्व में रेडियो पर गीत बजता हुआ।
पतझड़ है झड़ जाने दो, वसन प्रकृति के, मदहोशी के, इस अंधड़ में उड़ जाने दो। पतझड़ है झाड़ जाने दो, पतझड़ है झड़ जाने दो।
(बारह अचानक कोलाहल, अस्त व्यस्त कपड़े पहने एक व्यक्ति विक्षिप्त अवस्था में चल रहा है, बोलता जा रहा है, शरमन दरवाजा खोलकर उसको देखता है)
जड़ ले ली, जमीन भी, घर भी
क्या मोहब्बत का हक भी ले लोगे
क्या करोगे,
क्या करोगे मेरी राह में कंकड़ बिछाकर
(वह व्यक्ति बैठ जाता है, सोचता है। फिर तेज ध्वनि में चिल्लाता है)
क्या कहूँ, किसको कहूँ
है कौन इसमें जा छुपा
हर तरफ गुलजार थी
आते वो जब आती फज़ा,
वो अचानक क्या गये,
खूंरेजी अत्याचार से,
क्या कहूँ किसको कहूँ
किसका जहर उनको लगा?
शरमन– अरे, 14 फरवरी !
(अचानक सर पकड़ कर बैठ जाता है। दो तीन मिनट तक सिर्फ मौन। नेपथ्य में उसी विक्षिप्त व्यक्ति के शब्द और बाहर हॉस्टल प्रांगण में किसी अन्य छात्र का प्रलाप, निम्नवतः )
आके फिर से धमक गया
बैलेन्टाइन का मायाजाल
अन्दर मन बिच विरहा धधकै
बाहर बड़ा बवाल
दूसरा छात्र – क्या चांद भाई
चांद भाई – अब कैसा बवाल, किस बवाल की बात कर रहा।
(शरमन पुस्तक में मार्क लगाकर रख देता है। एक ठंडी आह! अपने कक्ष की खिड़की खोलकर झांकता है, विक्षिप्त ठीक उसी की खिड़की के नीचे जमीन पर पसर गया है। अपने बैग में कुछ ढूंढ़ रहा है। शरमन गंभीरता से उसे देखता है। अचानक एक भिखारी बड़बड़ाते हुए निकलता है।)
भिखारी – अबे क्या देंगे ये सब, खुद ही फटेहाल।
ये भी तो हमारे ही जैसे मंगता जात।
रोज रोज, हर वक्त बस, आओ, कल का क्या
तुमको ढूंढ़ा, आ जाया करो, बड़ा सूना सा
लगा तुम नहीं….. क्या देंगे। कहते हैं जिसको तू मिल जाये फिर क्या…… हाँ…. क्या
क्या और!
(शरमन भिखारी पर चीखता है फिर विक्षिप्त का सम्बोधित करते हुए)
शरमन – क्यों बाबे, किसलिए धरना दे रखा मेरी खिड़की के नीचे। जाइये कहीं अलग, यहां कौन सुनेगा, खुद को लगी पड़ी है।
विक्षिप्त – दिल जले हो क्या?
शरमन – कौन है बे, तू पूछने वाला?
शरमन – कौन है बे, तू पूछने वाला?
(शरमन हंस पड़ता है…. हंसते हंसते बता किस नाव का!)
शरमन – किस नाव का….. खुद को सम्भाल नहीं पा रहे, ऐलाने-इश्क कर रहे।
विक्षिप्त – बहुत फरमाया बरखुरदार ने, बुखारे-इश्क में इतना तथा मैं उम्र भर ना मिला मुझको शिफा-ए-हुस्न का कोई हुनर होश में आया तो देखा, ताबूत मेरा ही तो ये
चुनायें उस पे ये उभरा दिखा, हबीबे हुस्न की बद याद हैं।
शरमन – बड़े कातिल लगते हो वैसे, नाम क्या है?
विक्षिप्त – जिसने जो चाहा कह दिया, बस उसने न अपना कहा।
शरमन – चोट खाये लगते हो!
विक्षिप्त – चोट क्या उसको लगे,
भई जो फकीरा हो गया।
जिन्दगी की चाह में,
यूं ही गुजारा हो गया।
शरमन – आप ऊपर आ जाइये महोदय, मुझे दुख है, बेपरवाही से पेश आया आपसे। बड़े रोचक शख्स लगते हैं आप।
विक्षिप्त – ना, ना, ठीक हूँ मैं यहां। कोई बात नहीं,
शरमन – नहीं, आइये ना आप, आइये आप ऊपर, मैं आता हूँ। आइये आप मेरे साथ।
(शरमन नीचे उतर कर विक्षिप्त को अपने कक्ष में बुला लाता है)
विक्षिप्त – (आश्चर्य से देखते हुए) तो यह है आपका कक्ष। वाह मेरा फिजिकल से लेकर पूरा छायावाद, बहुत पढ़े लिखके, क्या करते हो बेटा।
शरमन – बस यहीं बगल यूनिवर्सिटी….
विक्षिप्त – (बीच में रोकते हुए) क्या बेकार सवालात! मुझे क्यों बुला लाये। मैं कहीं टिकता नहीं। हवा दूँ मैं मोहब्बत का। कुछ और अब दिखता नहीं।
शरमन – आप रुकिये, थोड़ी देर बैठिये, बड़े थेक से लगते हैं, पानी पीकर चले जाइएगा।
विक्षिप्त –
थकेंगे ना कभी
फैलाव हम ऐसे
हजारों बंधनो को बांध देती है ये दुनिया
तोड़कर बढ़ते हम रहते
उन्हें लगता के हम थकते।
(अट्ठहास शरमन भी हंसी में शामिल हो जाता है….. विक्षिप्त शान्त हो जाता है। अचानक अपना सिर दीवार से टकराता है। शरमन परेशान होकर चिल्लाते हुए बाहर भागता है। विक्षिप्त सामान्य होता हुआ)
विक्षिप्त – अरे नहीं, क्या हुआ मैं तो यूं ही।
शरमन – बाबा, आपका ‘‘यूं ही’’ बड़ा खतरनाक है। पूरा भूकम्प आ गया।
विक्षिप्त – क्या करें भई बात ही कुछ ऐसी है।
जरा सुनिए-
मैंने पूछे दिल से किे ये नाम तो उनका बता
उसने यूं ही कह दिया, मैं क्या कहूँ वे बेवधा
कुछ मुमालिक वो सुना कर क्या अचानक उठ गये
दिल ने कहा वे गैर हैं, मैंने उन्हें अपना कहा।
अब बहारे शौक में हर तरफ बस जहर है
जिसने हवा में जहर घोला नाम है उसका छिपा।
हिचकियां आती मुसलसत, धड़कने कहती वो हैं,
मैं उन्हीं की आस में इस उम्र भर भटका फिरा।
वो मिलेंगे है यकीं, इसी पर कायम सफर
चल रहा हू रात दिनप लग रहा स्याही ईटी।
शरमन – शायर है आप तो महोदय
विक्षिप्त – क्या शायर, क्या शायरी, बस ये तो यूं ही
वो जो आये फातिहा पढ़ने हमारी कब्र पर
मुझको भी क्या हो गया मैं जी उठा गजलें पढ़ा
उनका शिकवा था कि क्यों मैंने न हाले दिल कहा
क्या करूं मुझको लगा कि नजर ही होती जुबाँ।
लोग कहते हैं के फूलों से वफा जाहिर करूँ
मुझको तो हर गुल पे, उनकी ही सदी भारी पड़ी।
जिन्दगी में जो भी खुशियां उनकी इनायत ही तो थे
करना अंधेरी रात में थर थर कंपाती सर्द में गुनगुनी गरमी कहां
आज देखें मामला क्या है इधर/इस रात को
क्या कयामत की है दस्ताक, आ गये कुरबत में वो
शरमन – दिल टूटा है हुजूर आपका, समझ गये हम, सब समझ गये। लेकिन ये बताइये आपकी ये लाइनें क्या मानपी है ‘‘आ गये कुरबत में वो’’।
विक्षिप्त – जिस तरह डाली निगाहें उस तरफ बस तुम दिखे
पतझड़ों में तुम दिखे फिर बहारों में भी दिखे।
देखकर तुमको कहां पर किताबों से दूरियां बढ़ने लगी
जन्नत उधर तुम भी पड़ी, मैं इधर था इस तरफ।
अपने में हो तुम फलसफा, आलिमों की बात क्या,
मैं हूँ रोशन तुम से ही, तुम हारे औलिया
बेखबर फिरता रहा ता उम्र मैं तो दीन से
तुमसे क्या नजरें मिलीं इसपे भरोसा हो गया।
शरमन – महान है, आप! आपसे मिलकर धन्न हुआ। चलिए कुछ खा-पी के आते हैं। मेस बंद हो जायेगी वरना। अरे 9 बज रहे हैं।
(शरमन विक्षिप्त को पकड़ कर उठाता है वह बे मन से चल पड़ता है)
दृश्य-दो
(मेस के बाहर प्रांगण में एक मंच, जहां पर कुछ छात्र-छात्राएं एक नाटक प्रदर्शित कर रहे हैं। शरमन और विक्षिप्त इसे देखने हेतु रुक जाते हैं।)
प्रस्तोता –
है नाटक यह विषयान्तर
है प्रेम दिवस का परिप्रेक्ष्य,
जाति वर्ग सम्प्रदाय किसी भी
विचार भाव से यह निरपेक्ष।
श्वान वर्तिका श्वान सुन्दरी
उसका प्रेमी ‘मर्दन श्वान’
कहीं अचानक एक दिवस,
उसने यूं ही किया प्रस्थान।
श्वान वर्तिका प्रेम दग्ध
प्रतिपक्ष उसको लाये टीस
बड़ी अभागिन वह बेचारी
रक्त जलाकर दीपक रखती
प्रियतम आने की राह ताकती।
शायद प्रकृति अधीर हो गयी
उसी सुधि आकर ली आखिर
आया देखे श्वान लौटकर
किन्तु अरे क्या-यही यों कैसे?
सुनो भाइयो, बहनो मेरे
प्रेमीगण यह गाथा गान।
श्वान वर्तिका-
गंध तेरी देह की, प्रियतम, नहीं वैसी रही,
क्या हुआ, किस हेतु तुमने, बदलाव को माना सही?
इस महा साम्राज्य में, श्वान मर्कट विश्व में
किस बात की चिन्ता हुई, तुम प्रवासी क्यों बने?
लाख तथ्यों तर्क से, विश्वास है मुझको यही
लाख तथ्यों तर्क से, तुम रखोगे पक्ष अपना
किन्तु मन में दूर तक जाने कहाँ अब छिप गयी
भावना जो सृजन की थी प्रनय हित तेरे लिए
श्वान मर्दन-
न न ऐसी बात तो कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं
मैं चला इस ओर यूँ ही है, प्रकारान्तर विषय
तुम जानती हो न प्रिये मैं तो पिछले दशक से ही
ज्ञान का खोजी रहा अन्वेषणों में रत रहा
एक दिन यूं ही प्रकृति के जटिल कतिपय तथ्य लेकर
चट्टान पर बैठा ही था कि घुंघरुओं की ध्वनि सुनी
विश्वास कर, मैं तो तरंगों की गति बस नापने
उस ओर यूं ही हो लिया, सोचकर दर्शन नया
कदम बस पद एक दो पर सोचकर बस सर्जना
किन्तु वैसा कुछ नहीं तुमने गढ़ी जो परिकल्पना
श्वान वर्तिका-
किन्तु मानव जाति के तुम अरे
रूपसी उस मानवी की गोद में बैठे रहे
जानती हूँ मैं, अरे ठहरी इधर स्त्री यहाँ
तुमने मन रखा वहीं होड़ आये भावना
श्वान मर्दन – (स्वगत)
वैसे महाशय श्वान मर्दन बात सच में कह रही
आया भला फिर लौटकर मैं यहां अपने द्वीप में
पर मन कहां, जीवन कहां उर का न स्पन्दन यहां
वह रूपसी जिसको मुझये, सविनय प्रतिपल ही मिला
(मंच के दूसरे भाग में श्वान मर्दन के जीवन में हाल में ही घटी घटना चल रही है। एक दिन वह अपने द्वीप के तटीय वन में विचरण कर रहे थे कि भ्रमण पर आयी एक युवती उन्हें पुचकार कर पास बुला लेती है और पालतू बना लेती है। शायद प्रवासी थी वह, तीन चार माह के प्रवास में यह उसके पारिवारिक सदस्य की तरह रहे, स्वदेश लौटते समय नियमों के अन्तर्गत यह उन्हें साथ न ले जा सकी और श्वान मर्दन को दुबारा वापस लौटकर आना पड़ा।)
श्वान वर्तिका – क्या सोच रहे हो मर्दन!
श्वान मर्दन – सोच क्या,
फिर किस लिये
तुम खड़ी सम्मुख प्रिये
मैं तो यूं ही विगत से कुछ
अंजुलि में ले रहा।
सोचता इस ऋतु में
फिर से तुम्हारा दास बन
मांगू प्रणय हित कुछ समय
कमनीयता की रूप मेरी वर्तिका!
श्वान वर्तिका – धिक् श्वान मर्दन, क्या हुआ तुमको प्रिये
क्यों भावनायें वक्र कर, सम्प्रदाय दूषित कर रहे
जानते हो है सदा वर्जित यहाँ
कितनी जरूरी भी बने, पर झूठ प्राख्यापन निरा
मैं जानती विज्ञान को, जानती में ज्ञान धारा
विश्वास होता है नहीं कर रहे जो सर्पना
श्वान मर्दन – न कहो तुम तथ्य ऐसे
उर मेरा है दग्ध प्रेयसि!
वध करो सम्मुख खड़ा,
यदि शक का किंचित परिकल्पना।
(श्वान वर्तिका गंभीर चिन्तन मन्न, पाश्र्व में किसी कौए की ध्वनि)
प्रेम प्रदर्शन का है पर्व
कोई न जाने इसका मर्म
जितने मीठे तथ्य प्रतीत
उतनी टेढ़ी उसकी रीति
मेरा तो है यही प्रलाप
प्रेम की परिणति सदा विलाप!
शरमन – साला कुन्ता
चलो, क्या खाट है यहाँ
कुत्ता हो कुत्ता
विक्षिप्त – नहीं मित्र, नहीं।
(थोड़ा आगे चलकर दोनों बैठ जाते हैं।)
दृश्य-तीन
दोपहर बाद का समय
(हाॅस्टल के पास एक बेंच। विक्षिप्त और शरमन दोनों बैठे हैं। विक्षिप्त के चेहरे पर प्रसन्नता है कपड़ो व्यवस्थित। अब वह विक्षिप्त नहीं लगता। पीछे दूर एक बेंच पर दूसरा छात्र तारक शाह बैठा है। विक्षिप्त और शरमन के हाथों में पैड और पेंसिल है। दोनों कुछ लिख रहे हैं। शरमन ने शायद कुछ लिखा है। विक्षिप्त का ध्यान आकृष्ट करते हुए)
शरमन – सुनिये चचा,
‘‘दो कदम का साथ मांगा/चटख नरम धूप से
क्या हुआ उन्हें भला/वो खिलखिलाके हंस पड़ी।
हंसी की वो बिजलियाँ हाय, दिल पे क्या गिरी
के दिन में उनका राज है हम उपनिवेश हैं।
(अचानक तारह शाक का हस्तक्षेप)
तारक शाह – अरे वाह, काहे के वे उपनिवेश, बड़ा
सब सुन लिया है, यहीं था खड़ा हुआ।
शरमन – कुछ नहीं, बस यूं ही
तारक – यूं ही क्या, बता मुझे
शरमन – तू तो जानता है सब
तारक – जानने में और सुनने में फर्क है दोस्त,
सुना, सुना दे अपनी कथा।
शरमन – अरे फिर कभी बैठेंगे दोस्त, लम्बी चर्चा है। चल अभी चलते हैं क्लास है।
शरमन – घंटा क्लास!
देख मैंने एक कविता लिखी है-
उड़ जाऊं
मैं स्नेह प्रेम ले
काले बादल
मैं तेरे संग
दूर वहाँ
पूरब उत्तर में
छोटा सा है
नीड़ हमारा
जहाँ चहकती धूप सुबह ही
और सांझ चुपके सी आती
दूर देश से पक्षी आकर
जहां रात दिन कलरव करते
दूर वहां पूरब-उत्तर में
छोटा सा है नीड़ हमारा
(आश्चर्य चकित होकर विक्षिप्त बेेंच से कूदकर शरमन के पैर के पास उकड़ूं बैठ जाता है, बगल से माली फावड़ा और खुरपी लिये गुजरता है।)
बस हियां मोहब्बत का धुंधकारा
ना पैसा ना कौड़ी माम न
सब फरेब है जग यू सारा
दुनिया बारौ सपना तापौ
भई हियां मोहब्बत का धुंधकारा
हिंया मोहब्बत का धुंधकारा
ना बोनस ना कहू प्रमोशन
अरे हमें बस मुखड़ा प्यारा
बस मैडम का मुखड़ा प्यारा।
(लामा के केश में एक व्यक्ति दो तीन पुस्तकें लिये छाता लगाये चले जा रहे हैं गीत गाते हुए)
‘‘क्यों भूला है तू रे, माया में
प्रेम विरह है, जल जाने दे
क्या है ये सिद्धान्त ये दर्शन
इनमें क्या निकलेगा, आखिर
हृदय दग्ध है विरही मन है
जग सारा जल जाने दो
मोक्ष मिलेगा पाकर तुझको
बस आ अपने में मिट जाने दे
मेरा क्या अस्तित्व है प्रियतम
अपने उर में छुप जाने दे।
धरती जलती धुंध है ऊपर
आंचल में छुप जाने दे।
(अचानक एक भिखारी कई झोलियां टांगे, लड़ा फंदा चला जा रहा है, बगल से आवाज देते हुए निकलता है)
वेलेंटाइन के नाम पे दे दे बाबा
दे दे गौरा पार्वती के नाम पे
इमामे आबिद के नाम
देवो के देव कामदेव के नाम पे
दे बाबा, आटा दे दे बाबा
वैलेंटाइन के नाम का सीधा
(सभी का ध्यान उसकी तरह आकृष्ट होता है और सबके सब चिल्लाते हुए दौड़ा लेते हैं)
समदेत स्वर – प्रदूषित कर रहा है प्रेम को
फटीचर मारो साले को
देर तक आवाज आती है।
अरे मोरे बाप अरे मेारी माई
गिर गयी मोरी सगरी कमई फटही कमरी
फटी रजाई
भाग भाग रे आफत आई।
पर्दा गिरता है
वेलेंटाइन डे पर विशेष आलेख-प्यार और संबंध में पहले कौन ?