वर्षा ऋतु पर कविता: हे मेघ, घुमड़ जा अलकापुरी को
-डॉ अर्जुन दूबे
वर्षा ऋतु पर कविता हिन्दी साहित्य के आदि काल से आज आधुनिक काल तक अनवरत लिखि जा रही है । वर्षा ऋतु पर श्रृंगार की कविता चाहे वह संयोग श्रृंगार हो या वियोग श्रृंगार कवियों का और पाठकों का प्रिय विषय रहा है । इस मानसून पर प्रस्तुत है श्रृंगार रचना -‘हे मेघ, घुमड़ जा अलकापुरी को’ ।
हे मेघ, घुमड़ जा अलकापुरी को
हे मेघ, घुमड़ जा अलकापुरी को
मड़राओ मेरे प्रिया के ठांव ।
कह देना मेरा संदेश
विरह व्यथा तुम ही जानोगी
प्रियतम बैठा मेघ की छांव ।।
मोल नही, सबसे अनमोल
प्रेम ही मेरा लक्ष्य प्रिये है
चकाचौंध में कहां रह गयी!
आ जाओ अब मेरे गांव ।।
जिसे बनाया सुंदरतम हूं मैं
जरा निहारो इस प्रेमनगर को
हूं जिसे बनाया तेरी खातिर
जहां उमड़ घुमड़ करते नित मेघ;
कही़ कुबेर इसे न छीने!
निर्जन बन गया है उसका देश
मेघ छोड़ कर चले आये हैं
भेज रहा पढ लो पांती तुम
अब डर नहीं कुबेर से मुझको
अब मैं नहीं हूं दुर्बल इतना
आने नहीं मैं दूंगा उसको;
तुम हो गयी भले ही दूर
मेरी डोर बंधी है तुमसे
वैसे ही जैसे कंपास
दोंनो छोर अलग है लेकिन
बना देते हैं पूरा व्यास ।
पर यह डोर किसे दिखती है?
मन में जिसके उमडे़ प्रेम!
हूं बिना अपेक्षा तुममे़ लीन
बस पढ लो तुम मेरा संदेश ।
मेघ बना है मेरा दूत
जरा निहार उसे तुम लेना
देखोगी, हूं मैं तुममें तल्लीन,
तुममें तल्लीन, तुममें तल्लीन!
-डॉ अर्जुन दूबे