व्यंग्य: ठेठ बातें
-प्रो. अर्जुन दूबे
1.मानव बनाम कितने?
मानव बनाम स्थान, नाम, रंग, भाषा, धर्म, सर्वशक्तिमान, आवरण और उसके औजार ।
मानव बनाम कितने? उपरोक्त अभी कम ही हैं, और न जाने कितने होते जाएंगे ! क्या मानव इनसे अकेले मुकाबला कर सकता है? कर ही रहा और अनंत काल तक करता ही रहेगा। क्यों करे? मुकाबला करने के लिए ही मानव का जन्म हुआ है। क्यों मानव मानव से लड़ रहा है? नहीं लड़ना चाहिए। क्यों नहीं लड़ना चाहिए? लड़ने की आदत छुड़ा दोगे?
अच्छा यह बताओ कि भेड़ा पालते हो? मैं तो नहीं, किंतु बहुत से लोग पालते हैं। कभी- कभी भेड़ा लड़ाने का खेल भी कराते हैं; मुर्गा पालकर उसका भी लडान कराते हैं; थोड़ा और खतरनाक किस्म का खेल जैसे बुल फाइटिंग या कभी कभी तो भैंसा लडान का भी मजा लेते हैं। कभी कभी उनकी जान के अलावा लडाने और खेल देखने वालों की जान भी चली जाती है। खेल में चली जाती है? हां ,हां। क्या कहना चाहते हो?।
सैनिकों के बारे में क्या नजरिया है, कोई भी देश हों? उनकी भर्ती करते हैं, उन्हें प्रशिक्षित करते हैं, खान- पान, रहन- सहन आदि की समुचित व्यवस्था करते हैं। पर किस लिए करते हैं? हमारी रक्षा करेंगे, करते ही हैं तभी तो तुम इतना बोल पा रहे हो। किनसे डर लगता है? शब्द कठोर हो जाएंगे, साफ्ट होना चाहिए। अच्छा बताओ कि किस लिए इनकी भर्ती करते हो? देश की रक्षा करने के लिए, मैं कितनी बार बताऊं? वे मरेंगे नहीं? क्या बात करते हो? लड़ने में मरेंगे अथवा मारेंगे ही। क्या वैसे ही जैसे भैंसा लडान में? व्यंग मत करो नहीं तो ठीक नहीं होगा; हम वो हैं जो सब कुछ करते कराते रहते हैं। आ गये अपनी ताकत के गुमान में?
इसमें ताकत क्या, लोग बंटे हुए हैं स्थान,देश, भाषा और पहनावे में। यही तो आधार हैं, भेड़ा लडान के खेल का। अच्छा और बताओ कि कितने आधार हैं जो नहीं होने चाहिए? तुम्हारे चाहने से थोड़े ही खत्म हो जाएंगे। क्यों नहीं? बताओ तो पहले! क्या कहूं तुम भी उसी में घुल-मिल जाओगे अथवा यूं कहूं कि घुल-मिल गए ही हो। क्या तुम नहीं? तुममें सभी हैं जैसे कृष्ण ने “मैं ” शब्द को सभी के लिए गीता में प्रयोग किया हैं। क्यों गीता का उदाहरण दिए?आ गये धर्म पर! तुम नज़ीर नहीं देते हो? क्यों नहीं, बिना नज़ीर के मेरा वजूद नहीं है जैसे तुम्हारा भी तो नहीं है। यानी अब कुछ कुछ समझ रहे हो?समझ तो हम सभी रहे हैं।तो फिर? नज़ीर समझ पर भारी है, बिना इसके मानव वजूद नहीं है; भेड़ा लडान तो होना ही है, यही मानव की जिंदगी है।
2.नाम से लगाव कि नाम से दुराव?
दिलीप साहब जीवित नहीं हैं ।यह बात तो काफी पुरानी हो चुकी है जिसे मैं जानता हूं। लेकिन, मैं जानता था कि ये हिन्दू थे ,क्योंकि ऐसे नाम तो हिंदू में ही मिलते हैं जबकि पता चला कि नाम तो यूसुफ था; ऐसे नाम तो मुसलमानों के होते हैं। मुसलमानों को अस्तित्व में आये डेढ़ हजार बर्ष ही हुए हैं किंतु इसके पहले भी तो ऐसे नाम अथवा ऐसे मिलते जुलते नाम भी तो रहे ही हैं, मशलन खुशरो प्रथम, ईसा पूर्व सात सौ बर्ष पूर्व, अलेक्जेंडर को उच्चारण करने में अलेक्क्षेंद्र, फिर सिकंदर; हेलेना चंद्रगुप्त की प्रेमिका-पत्नी विदेशी थी, तब ईसाई धर्म भी नहीं था फिर भी नाम से ही देशी-विदेशी का गंध मिल गया था; हां, ही हो, कीमो, हीपो, सू से सी चाऊ, सिंजो आदि नाम भी देशी नहीं लगते हैं,य द्यपि वर्णमाला में अक्षर तो हैं। लेकिन बोली बता देती है कि वह देशी है कि विदेशी! रूप के बारे में क्या ख्याल है? बहुत अच्छा सवाल किया। रूप को भी नाम देते हैं तभी तो तुम्हारे हृदय में भावनाओं का जबरदस्त प्रवेश हो जाता है और तुम नाम जानने के लिए, यदि नहीं जान पाये हो तो,अधीर रहते हो। सही कह रहे हो ,वैलेंटाइन डे पर तो इसकी महिमा का क्या पूछना!
फिर गंभीर विषय पर, क्यों कि गंभीर रहो, सुखी और सुरक्षित रहोगे। वह विषय क्या है? नाम-धर्म।
धर्म भी नाम धारण कर लिया कि नाम धर्म धारण कर लिया? जिसने जिसको भी किया हो, दोनों को सुनकर अगर हम उसकी श्रेणी में आते हैं, तो अच्छा लगता है और ऐसा लगता है कि अपने ही हैं। थोड़ा और नजदीकी बढा लें? वह कैसे? नाम के आगे उपनाम लगा कर जिससे जाति पता चले, जान पहचान गहरी हो जाएगी। पर कुछ लोग उपनाम नहीं लगाते हैं तो उनका क्या? पता लगाने वाले पता लगा ही लेते हैं और ऐसे लोग खुद अपना पता बताने उसमें सम्मिलित हो जाते हैं। नजदीकी बढी कि दूरी? फिर ऐसा क्यों?
3.कामद-रति संवाद:
सबके फसाद की जड़ मैं हूं?
क्या कहा, मैं ही फसाद का कारण हूं?रति ने कामद से पूछा ।
हां, हां तुम ही हो। तुम्हारा साथ तो दिया था किंतु तुम्हें कुछ नहीं हुआ और उल्टे मैं जल गया । खुदा न खास्ते बच गया तो भागने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है और मोर्चा लिया तो मारा गया हूं, कामद ने कहा।
तो कैसे जीवित हों?
आत्मा तो नश्वर नहीं है, यह तुम भी जानती हो।
तो क्या अब साथ छोड़ दोगे! रति ने फिर पूछ दिया?
मैं कैसे छोड़ सकता हूं और क्या कभी छोड़ पाऊंगा? आत्मा तो रहती ही है भले ही रूप बदल लें, कामद ने कहा।
तो इतने व्याकुल, परेशान और बुझे बुझे क्यों दिखाई दे रहे हो? क्या औरों से परेशानी हो रही है? क्या यह सोचते हो कि और वे मुझे परेशान करेंगे ही, अपने तो छुएंगे ही नहीं? रति ने कुरेंदा।
नहीं, देख रहा हूं कि अपने ही…। कहो, कहो, रति ने फिर कुरेंदा।
नहीं नहीं, मैं कोई उपाय ढूंढ रहा हूं।
वह क्या ?
कि तुम्हारा वजूद ही न
होता, न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी।
ऐसा मत सोचो,यह भयावह सोच है। यह संसार दुर्लभ है, कितना सुन्दर है! लोगों की सोच नहीं बदल सकते हो? धर्म की बातें करते हो, सर्वशक्तिमान के बारे में भी सोचते और उसके खातिर कुछ करने, यहां तक कि मारने-मरने, के लिए सदैव तत्पर रहते हो। क्यों नहीं समाज में बदलाव के लिए सुधारवादी सोच विकसित करने के लिए आंदोलन चलाते हो जिसे अनेक महान लोगों द्वारा पूर्व में किया जाता रहा है।
किंतु उसके परिणाम क्या हुए? कामद ने पूछा
तुम तो बहुत ही निराशावादी हो और ऐसे लोग तो कहेंगे ही कि मेरा वजूद ही सभी फसाद की जड़ है। रति ने कहा
और सुनो तुम अकेले नहीं आये थे और न ही आये हो और न ही अकेले आओगे, मैं भी रहूंगी भले तुम कितना ही मिटाने की कोशिशें करोगे!
अरे,पगली! मैं कहां तुम्हें मिटा पाऊंगा? लगता है कि मैं ही मिटा दिया जाउंगा!
अरे छोड़ो! तुम लोग हो ही ऐसे, सिवाय मिटने मिटाने के क्या कर सकते हो? रति ने कहा
तब?
चलो, कमजोर नहीं हूं अब मैं। अपने भ्रम त्याग दो और गौर से देखो, स्वयं में आंदोलन हूं। तुम्हारे पीछे भले ही कोई नहीं चले तुम्हारे निहित स्वार्थों के कारण किंतु मेरे साथ हैं क्योंकि मेरे में संवेदनाएं अधिक हैं तुम्हारी तुलना में। इसलिए मेरी रक्षा की चिंता छोड़ो, अपनी देखो।
फिर भी तुम अभी कह रही चलने को पर चले कहां? कामद ने पूछा।
कहीं भी, ये मिटाने वाले कुछ नहीं कर पायेंगे। ये मिटाने के फेर में खुद ही मिट जायेंगे और इनका जीवन गुमनामी के महासागर में विलीन होकर मिट जायेगा, यही सत्य है जिसे स्वीकार करो।
4.बन कर गीदड़ जायेंगे किधर?
मैं समझा नहीं कि गीदड़ कौन है? भागे-भागे फिर रहे हो और पूछ रहे हो कि गीदड़ कौन है। जानते हो, सियारमरवा अपने कार्य में दक्ष होते हैं क्योंकि सियार कहीं भी छिपा हो, वे आवाज लगा कर जान ही जाते है; यही नहीं वे बहुत ही एक्सपर्ट कुत्तों को साथ लेकर चलते हैं जो सियार पकड़ कर मार देते हैं और फिर सियारमरवा और कुत्ते मिल कर सियार को खा जाते हैं। लेकिन अब सियार बचे ही कितने हैं! जो भी बचे हैं कभी न कभी भूले भटके ही सही, शहर की ओर आ ही जाते हैं जहां अनेक प्रजातियों के कुत्ते उनके स्वागत के लिए तत्पर रहते हैं।
बहुत ही गूढ बातें कह रहे हो, समझ में नहीं आ रहा है। यह तो बहुत ही अच्छा है, भीतर ही रहो, मौज करो। कैसे रहूं, खाने बिना मर जाउंगा; नहीं, गलत कहा है मैंने, खाने बिना नहीं मर सकता हूं क्योंकि उसकी व्यवस्था तुम होशियारी से कर देते हो ताकि आसानी से नहीं मर सकूं; हां,अगर नहीं बाहर निकला तो अनपढ़ रह जाउंगा, नहीं, यह भी गलत है, पढे लिखे ही क्या कर ले रहे हैं, जिन्हें तुम बहुत ही सरलता से समझा दे रहे हो? भगवान ने आंखें दी है, बाहर निकल कर संसार देखने को मन करता रहता है, सड़क पर बने ढाबे, चाय की दुकानों, मनोरंजन आदि के साधनों, रेल,बस आदि में बैठकर अथवा सोते हुए निफिक्र घूमने का मन करता है और बहुत कुछ, कितना गिनाऊं, करता रहता है। मृगतृष्णा गई नहीं है तुम्हारी। खैर इसे छोड़ो, दिक्कत कहां और क्या है? आप के मुहावरे से है। मुहावरे से? बाहर निकला नहीं कि खोजी जीवों की नजरों से बचना कठिन है। किसकी खोजी नजर है? किस किस को बताऊं? एक को समझ कर उससे निपटा/ बचा नहीं कि दूसरा आ धमकता है। क्या करता है? मारता पिटता है? मार पीट से तो खा पीकर उबर जाता हूं, लेकिन यह, क्या कहूं? घूंमू तो घूमने का दूं, खाउं तो खाने के अलावा का दूं, रहने में भी दूं, यहां तक पानी पीने में भी.., और मरने के बाद भी, मुझे क्या और कहां पता चले! हां मेरे अपने जो मरने नहीं देना चाहते थे, उनके दुःख मत पूछ! कितना सुनाऊं!
-डा.अर्जुन दूबे,
रिटायर्ड प्रोफेसर, अंग्रेजी,
म.मो.मा.प्रौ.वि.वि.गोरखपुर उ.प्र.