व्यंग्य आलेख-
एक अदना सा गड्ढ़ा बोला रहा हूँ
-रमेश चौहान
व्यंग्य आलेख
मैं एक अदना सा नाली का गड्ढा बोल रहा हूं । ऐसे तो गड्ढा कहीं भी पाया जा सकता है, खेतों पर खलिहानों पर, गलियों पर, सड्कों पर जिसे हर कोई देख सकता है किंतु मैं जहां स्थित हूं शायद किसी की नजर वहां तक नहीं जाती । शायद कोई मुझे देखना ही नहीं चाहते । मैं पूर्ववर्ती स्थानीय सरकार से लेकर परिवर्तित वर्तमान स्थानीय सरकार की दृष्टि से ओझल बिंदास जिंदा हूं । मैं कब से यहॉं डटा अड़ा हूँ, इस बीच स्थानीय सरकार से लेकर राज्य और केन्द्र की सरकारें भी बदल गई ।
ऐसे तो मैं गड्ढा ही हूं किंतु मैं लोगों एवं जनप्रतिनिधियों के उदासीनता का प्रतीक के रूप अपना परिचय रखता हूँ । मैं लोगों के उस सोच को जीवंत करता रहा हूँ जिसमें लोग यह सोचते हैं इस काम का फला करेगा इससे मुझे क्या ?
जिस प्रकार एक चींटी हाथी का कुछ नहीं बिगाड़ सकता वह उसके पैरों तले रौंदा जाता है किंतु जब वही चींटी हाथी के नाक पर घुस जाए तो हाथी का जिंदा रहना मुहाल कर देता है । ठीक उसी प्रकार मैं एक अदना सा गड्ढा ही हूं जो मनुष्यों की पैरों तले रौंदा जाता हूं किंतु जहां मैं बैठ चुका हूं वहां से मैं मनुष्य के जीना मुहाल कर सकता हूं ।
गॉंव की गली हो या शहर का चम्चमाती पक्की सड़के, पहुँच मार्ग हो या स्टेट हाइवे मैं कहीं भी पाया जा सकता हूँ । मुझे अपना अस्तित्व प्यारा है किन्तु ‘मैं जीयो और जीने दो’ पर विश्वास करता हूँ । इसिलिये मुझे मुझसे टकराते-हपटते गिरते देखकर दुख होता है शायद उन लोगों से अधिक जो किसी गिरते देखकर मुस्कारते हुये आगे बढ़ लेते हैं, शायद उन से भी अधिक जो गिर कर कराह होते हैं । मुझ से टकरा कर गिर कर यदि कोई मनुष्य मर जाये तो मुझे भी मरने का मन करता है किन्तु मेरा जन्म और मृत्य न मेरे हाथ में हैं न ही ईश्वर की । यह तो केवल और केवल मनुष्यों के हाथों में हैं ।
मैं कभी सपाट गलियों पर तो कभी अंधड़मोड़ पर, कभी चौराहे पर तो कभी T आकार की गली के मध्य पर जन्म ले लेता हू । लेकिन मुझे अधिक दर्द तब होता है जब मैं ऐसे जगह जन्म ले लेता हूँ, जहां से नगर की सबसे पुरानी बस्ती के लोग दिन रात मुझ से टकराते गिरते पड़ते आते जाते रहते हैं । लोगों को गिरते देख कर मंदमंद मुस्कुराते रहता हूं और सोचता हूं वहां से गुजरने वाले लोगों के निष्क्रियता के बारे में, मेरे इर्द-गिर्द बसने वाले उन सज्जन मनुष्य के बारे में, और अंत में उन जनप्रतिनिधियों के बारे में जिनका दायित्व ही गली नाली की देखरेख करना है । मैं विगत कई वर्षों से यथावत बना हुआ हूं ।
मैं यह सुनकर दंग रह जाता हूँ जब लोग यह बतियाते हैं मैं कोराना महामारी जिसके कारण महिनों लॉकडाउन रहा से अधिक खतरनाक हूँ । जितने आदमियों का जान कोराना नहीं ले सका उससे कहीं अधिक व्यक्तियों को यमद्वार तक पहुँचाने में मेरा हाथ है ।
मुझे तब इठलाने का मन करता है जब मैं किसी गॉंव, नगर या शहर के पुरानी बस्तियों के मध्य पाया जाता हूँ । क्योंकि किसी भी किसी नगर की पुरानी बस्ती का कोई सुध लेने वाला नहीं होता । पुरानी बस्तियों के इस स्थिति के लिए दोष किसे दिया जाए ? स्थानीय लोगों को, स्थानीय शासन-प्रशासन को या लोगों के आधुनिक सोच को । मुझे लगता है यह दोष केवल और केवल अतिक्रमण के प्यासे लोगों का ही है, जो गलियों को सकरी और सकरी करते जाते हैं जिनका घर आलीशान तो बन जाता है किंतु सामने की गली सकरी गंदी और मुझ जैसे गड्ढों से युक्त रह जाता है । जहॉं पहले गलियॉं अपनी ऑंचल लहरा कर इठलाती थी वहीं आज हाथ भी नही पसार पाती ।
चाहते तो कोई भी व्यक्ति मेरा मुंह आसानी से बंद कर सकता है क्योंकि मेरे इर्द-गिर्द धनी संभ्रांतों का डेरा है, किंतु शायद यह यह नव विचार क्रांति का ही प्रभाव है कि लोग सामाजिक सरोकार से दूर केवल अपने में मस्त रहना चाहते हैं । अपनी शौच क्रिया के लिये भी जो सरकार की ओर टकटकी लगाये रहते हैं शायद मैं इसी सोच का जीवंत प्रतिबिंब हूं ।
व्यंग्य आलेख -रमेश चौहान
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