व्यंग लघु आलेख: तलाश
– अर्जुन दूबे
1. विवाह संस्कार में संस्कार की तलाश
विवाह, विवाह करने और होने के दृष्टिकोण बदलते जा रहे हैं, विशेष रूप से से हिंदू समाज में। विवाह एक संस्कार है, जैसा कि हमारे शास्त्र बताते हैं, जो समय से संपन्न होने चाहिए। विवाह आठ प्रकार के होते हैं जिनका वर्णन शास्त्रों में उल्लिखित है।
मैं तीन प्रकार के विवाह, प्रथम कन्या के पिता/माता द्वारा कन्या के अनुरूप और उसके हित के लिए वर तलाश करके विवाह संपन्न कराया जाना; द्वितीय प्रेम विवाह जिसमें लड़का लड़की प्रेम के वशीभूत माता पिता के सहमति असहमति होने की क्रिया के बीच हो जाता है; तृतीय लड़का लड़की एक दूसरे को पसंद करते हैं तथापि विवाह न होकर डेटिंग से प्रारंभ होकर Live in Relationship में रहना पसंद करते हुए विवाह किए तो किए नहीं तो ब्रेकअप ही सही।
प्रेम विवाह करने वाले प्रेम पहले करते और विवाह बाद में। क्या प्रेम करना और प्रेम को प्राप्त करना सरल है? जो प्रेम से वंचित हैं उनका विवाह कैसे हो? एक अनेक से प्रेम करे, शेष शून्य में रहें, या live in relationship पर किसके साथ और कब तक? एक दूसरा माध्यम बलात् /अपहरण के द्वारा live in relationship बल रहने तक ही टिक पाता है, स्थायित्व के अभाव की संभावना बनी रहती है।
विवाह करने के लिए भौतिक अवलंबन /आधार भी तो आवश्यक है, निःसंदेह। जिनके पास आधार नहीं है, उनसे कौन विवाह करेगा? स्वाभाविक है विशेष रूप से लड़कों के मामलों में। आधार से परिपूर्ण लड़की क्यों आधारहीन लड़के के साथ विवाह करे अथवा उसके माता-पिता ही सहमति दें।
जीवन में प्रेम जिसकी वेलेंटाइन डे पर महत्ता बढ़ जाती है मात्र उस प्रेम से चलने वाला नहीं है; कुछ न कुछ संतोषजनक आधार चाहिए चाहे वह बिजिनेस का हो, खेती का हो अथवा नौकरी का । बिजिनेस हर व्यक्ति कर नहीं सकता, खेती का आधार आधारहीन हो गया है जिसमें जीने खाने का इंतजाम बमुश्किल हो पाता है क्योंकि कम खेत क्षेत्रफल और विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति करना होता हैं; नौकरी दुर्लभ हो गयी है, हां जीने खाने भर की बमुश्किल नौकरी खोजने पर मिल तो सकती है और मिलती भी है जो चाकरी में भी तब्दील हो जाती है, जिसके माध्यम से वैवाहिक जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति करना पुनः मुश्किलों से भरा हो जाता है।
विवाह जैसे बंधन के लिए सशक्त आधार होने चाहिए तभी विवाह होने की संभावना बनती है और बन भी गई तो विवाह में कितना ठहराव हो सकता है! हिंदू धर्म के अनुसार विवाह एक पवित्र संस्कार है जिसमें बंधने के पश्चात बंधन से मुक्ति तब तक नहीं मिल पाती है जब तक कि कोई एक लाइफ पार्टनर लाइफ से ही चला नहीं जाता है। यह जीवन-मृत्यु, जन्म-जन्मांतर का बंधन होता है। क्या नहीं लगता है कि यह जन्म-जन्मांतर का बंधन जबरदस्त संक्रमण काल से गुजर रहा है? स्थिति कैसी हो रही है जैसे अन्य पहलुओं पर संवेदनशीलता के साथ मंथन करें।
2.फिल्मों में सच्चाई की तलाश:
फिल्मों मे सच्चाई नही होती है, विषय बस्तु को तोड मरोड़ कर दिखाया जाता है, ऐसा आरोप लगाने वाले लगाते हैं. ऐसा ही आरोप द कश्मीर फाइल्स को लेकर दिया जा रहा है। सच्चाई कैसे जानेगें? उन लोगोें के द्वारा जो इस दुनियां में नही हों अथवा उन्होनें अपनी पीढयों को बताया हो? हर बात लिखित मे बताई नहीं जाती है. लिखित मे पास्ट बातों/घटनाओं को तो इतिहास ही बताता है जिसमें भी सच्चाई पर प्रश्न चिह्न बना रहता है. इतिहास एक रिपोर्ट है जिसमें भूत घटनाक्रम को भविष्य के आइने में मूल्यांकन के लिए दिखाया जाता है. चूकि सत्ता पक्ष के काल में अथवा शासन व्यवस्था संचालित करने वालों के द्वारा अथवा संरक्षण में रिपोर्ट रूपी इतिहास के घटनाक्रमों को प्रस्तुत किया जाता है तो इसकी सच्चाई विवादित हो जाती है; लोकतंत्र मे तो इसी के आलोक में धरना प्रदर्शन हो जाते हैं ।
यदि फिल्में सच्चाई के ही विषय वस्तु तक सीमित हों तो क्या इतिहास के पन्नों मे ही झाकें?. इसके बावजूद
हम इतिहास की नोस्टाल्जिया से भाग नहीं सकते हैं ।
मैंने एक फिल्म देखी थी मुगले आज़म. बाद मे एक और फिल्म अनारकली भी, जिसमे नायिका अनारकली का प्रेम बादशाह अकबर के साहेबजादे सलीम से होता है अथवा यूं कहें कि सलीम का अनारकली के साथ इम्तिहां प्यार हो गया था. बादशाह को मंजूर नहीं था; समझाने बुझाने का कोई असर नहीं. तब अनार कली को दिवार मे जिंदा चुनवा कर मौत के आगोश भेज दिया जाता है, कही कही यह भी उल्लेख होता है कि उसे उसके मां के साथ राज्य से बाहर भेज दिया जाता है और सलीम को कैदखाने मे डाल दिया जाता ताकि हो सके कि वह किसी शाही राजकुमारी से प्यारा करे;सच्चाई अनुत्तरित रहती है ।
इतिहास में अकबर बिरबल, न्यायप्रिय शासक के रूप में बताया जाता है; अनारकली, यदि ऐतिहासिक चरित्र है तो, उसके प्रति ऐसा न्याय? मुगले आज़म और अनारकली दोनों बहुत हिट फिल्में रही थी; क्या सच्चाई के नाते अथवा प्रस्तुतिकरण के नाते?
फिल्मों को देखना अथवा नहीं देखना देखने वालों पर है ,किसी के निर्देश पर नहीं; सच्चाई और प्रस्तुतिकरण के मध्य संशय बना रहेगा ।
-डॉ. अर्जुन दूबे