-आलेख महोत्सव-
यथा प्रजा तथा राजा
आजादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर ‘सुरता: साहित्य की धरोहर’, आलेख महोत्सव का आयोजन कर रही है, जिसके अंतर्गत यहां राष्ट्रप्रेम, राष्ट्रियहित, राष्ट्र की संस्कृति संबंधी 75 आलेख प्रकाशित किए जाएंगे । आयोजन के इस कड़ी में प्रस्तुत है-रमेश चौहान द्वारा लिखित आलेख ”यथा प्रजा तथा राजा”।
गतांक –अक्षुण्ण रहे हमारी स्वतंत्रता
यथा प्रजा तथा राजा
-रमेश चौहान
प्रस्तावना
‘यथा राजा तथा प्रजा’ यह लोकोक्ति आपने सुनी ही होगी । किन्तु मैं कह रहा हूँ ‘यथा प्रजा तथा राजा’ । दोनों एक दूसरे के विलोम हैं अर्थ में भी और भाव में भी । ‘यथा राजा तथा प्रजा’ इस लोकोक्ति की उत्पत्ती राजतंत्र से हुई है । राजतंत्र में राजा का राज्य राजा की संपत्ती हुआ करती है । आज लोकतंत्र है, लोकतंत्र में राज्य या देश किसी शासक, सरकार या राजा की संपत्ति नहीं है अपितु वह देश उस देश के आम नागरिकों का देश है । देश राजा का नहीं प्रजा का है । प्रजा ही अपने लिए राजा का चुनाव करती है इसलिए ‘यथा प्रजा तथा राजा” ।
नेता प्रजा के हाथों का मैल है-
लोकतंत्र में नेता प्रजा के हाथों का मैल है । सरकार प्रजा का प्रतिबिम्ब है । जो व्यक्ति आज सरकार का अंग है या नेता है, वह कल तक प्रजा का अभिन्न अंग रहा है । वह प्रजा की चाहत, इच्छा शक्ति और उनके व्यवहार से भली-भांति परिचित रहा है । यही कारण है कि नेता जब प्रजा के लिए लॉलीपॉप बनाता है, तो उसमें उन समस्त पदार्थों का मिश्रण रखता है,जो प्रजा को पसंद हो चाहे वह मुफ्खोरी का स्वाद हो चाहे घुसखोरी का तड़का । जब प्रजा अपने लोभ-लालच के गंदे हाथों से मतदान करता है तो नेता प्रजा के हाथों का मैल ही होगा न । हालांकि कुछ लोगों का हाथ साफ रहता है किंतु इनकी संख्या गंदे हाथों वालों की संख्या से कम हो जाती है ।
नेता भ्रष्टाचारी कैसे होते हैं ?
खासो आम की यह चाहत होती है कि उसे कम परिश्रम में अधिक धन की प्राप्ति हो जाए । उसे संसार के सारे ऐशोआराम का सुख प्राप्त हो । खासो आम में आम कौन है? प्रजा । और खास कौन है ? शासक-प्रशासक । जब प्रजा कुछ पैसे, कुछ वस्त्र कुछ प्रलोभन के एवज मतदान करने को तैयार हो जाए तो नेता क्या करें जो चुनाव में प्रलोभन देने के लिए खर्च किया है तो चुनाव के बाद उसकी वसूली का तो प्रयास करेगा ही करेगा । जब वह शासक हो जाता है तो अपने खर्चे की वापसी के लिए प्रशासक पर दबाव डालता है, यह दबाव उसी प्रजा तक स्थानांतरित हो जाता है । इस प्रकार यह प्रक्रिया प्राकृतिक चक्रीय प्रक्रम की तरह स्वाभाविक गतिमान हो जाता है ।
प्रजा के अंत:मन की विवेचना
देश में आज जो भी अच्छा या बुरा दिखाई दे रहा है, वह किसी राजा के बदौलत नहीं है अपितु प्रजा के बल पर है । प्रजा के व्यवहार के अनुरूप, प्रजा के मांग के अनुरूप ही सरकार वह करने के लिए बाध्य या विवश है, जो प्रजा चाहती है । प्रजा के अंत:मन की विवेचना करेंगे तो आप पाएंगे इनके दिखाने दांत अलग और खाने के दांत अलग । यह अलग बात है शत प्रतिशत जनता के लिए यह कहना सरासर गलत होगा किंतु इनकी संख्या इतनी तो अवश्य है जितने में लोकतंत्र में सरकार गठन हो जाए । प्रजा के अंत:मन को यदि आप झांके तो पाएंगे कि शायद वो कह रहे हैं-
सरकारी संपत्ति हमारे बाप की
प्रजा के दिलों दिमाग में यह घर कर गया है सरकारी संपत्ति हमारी नहीं हमारे बाप की है । अपने बाप का माल समझ कर लोग जहां सरकारी जमीन खाली दिखे वहां अपना आशियाना और खेत खलिहार बना लेते हैं, चाहे वह जमीन जगंल हो, नदी हो या गोचर भूमि । अपने गांव शहर की गलियों, सड़कों पर इनके बाप का ही राज रहता है, जहां जैसे मन आये वैसे नाचते रहते हैं ।
जब भी इन्हें कोई आंदोलन करने का मन हो तो सरकारी संपत्ति को ऐसे फूँक देते हैं जैसे इनके बाप का लगाया घास हो । यह मानना गलत भी नहीं है निश्चित रूप से सरकारी संपत्ति उनकी और उनके बाप की ही है । किन्तु उन्हें यह ध्यान तो रखना चाहिए कि वे अपने बाप के इकलौते संतान नहीं है इन संपत्तियों पर उनके और भाईयों का भी अधिकार है ।
मुझे अधिकार चाहिए कर्तव्य आप करो
यह वहीं प्रजा है जो यह सोचती है कि मुझे तो बस अपना अधिकार चाहिए, कर्तव्य तो आप करो । संविधान पढ़े हों या न हो पढ़े हो किन्तु इनका तकिया कलाम होता संविधान ने हमें यह अधिकार दिया है । मेरी मर्जी मैं जो बोलना चाहूं, बोल सकता हूं क्योंकि मुझे बोलने की आजादी है । मेरी मर्जी मैं अपनी आस्था के नाम पर दूसरों की आस्था की ऐसी की तैसी कर सकता हूं, यहां तक जिस देश के हित के लिए संविधान बनाया गया है उसी संविधान के नाम पर देश को ही गाली देते रहते हैं ।
मुझे कर्जमाफी चाहिए, मुफ्त का चाहिए-
अधिकांश प्रजा यह चाहती है उसे मुफ्त में सब कुछ मिलता जाए, उनके द्वारा लिए गए कर्ज की माफी हो । इसी नब़्ज को पकड़ कर जब कोई राजनैकि पार्टी कर्ज माफी को घोषण करता है तो हारते चुनाव को आसानी से जीत जाता है, बिजली मुफ्त, पानी मुफ्त कह कर कोई भी सरकार बना लेता है । जब प्रजा ही रेवड़ी खाना चाहती है नेता तो रेवड़ी बांटेंगे ही बांटेंगे । यह वहीं जनता है जो हर चीज को या तो मुफ्त चाहती है या सब्सिड़ी पर । इसलिए अधिकांश सरकारों की योजनाएं रबड़ी से सनी रेवड़ी ही है ।
प्रजातंत्र में प्रजा मालिक और सरकार टेक केयर
प्रजातंत्र में प्रजा मालिक और सरकार टेक केयर होता है । लेकिन मालिक ही टेक केयर को मालिक मान लेता है । कोई भी राष्ट्र सरकार से नहीं है अपितु राष्ट्र भी और वहां की सरकारें भी प्रजा से ही है । प्रजा का मन जैसे होगा उसी के अनुरूप वे सरकार चुनेंगी और वह सरकार वैसी दिखेगी जिसकी वह उपज है ।
राष्ट्र का सर्जक, पालक एकमात्र प्रजा ही है
लोकतंत्र में प्रजा को स्वयं के वजूद को समझना चाहिए । यथार्थ वह प्रजा ही अपने राष्ट्र का सर्जक भी है और पालक भी । अपने काम को व्यवस्थित और सुचारू रूप से चलाने के लिए वह सरकार का चयन करती है । प्रजा चाहती है सरकार अच्छी हो तो प्रजा को अच्छा होना होगा । आखिर कर हम सुधरेंगे तब युग सुधरेगा ।
-रमेश चौहान
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-संपादक
सुरता: साहित्य की धरोहर
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