यायावर मन अकुलाया-1 (यात्रा संस्‍मरण)-तुलसी देवी तिवारी

यायावर मन अकुलाया (द्वारिकाधीश की यात्रा)

भाग-1

-तुलसी देवी तिवारी

यायावर मन अकुलाया-1 (यात्रा संस्‍मरण)

 यायावर मन अकुलाया -बाँयें से देवकी,दीदी, प्रभा, दीदी,सावित्री वैष्णव, तुलसी तिवारी, मीना तिवारी, सची बाई शर्मा ऊपर, बाँये से अशोक तिवारी, श्री आदित्य त्रिपाठी, मीनदास वैष्णव,शांतिलाल दुबे ओमप्रकाश शर्मा
यायावर मन अकुलाया -बाँयें से देवकी,दीदी, प्रभा, दीदी,सावित्री वैष्णव, तुलसी तिवारी, मीना तिवारी, सची बाई शर्मा ऊपर, बाँये से अशोक तिवारी, श्री आदित्य त्रिपाठी, मीनदास वैष्णव,शांतिलाल दुबे ओमप्रकाश शर्मा

मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह अपने निवास स्थान से दूर कहीं थेड़े समय के लिए जाने का अवसर प्राप्त होते ही अंगड़ाई लेकर उठ खड़ा होता है। कभी तीर्थाटन, कभी देशाटन तो कभी वायु परिर्वतन या रोजी-रोटी की तलाश। एक ही स्थान पर रहते हुए एक जैसी दिनचर्या से ऊबा हुआ मनुष्य, कुछ समय के लिए अन्यत्र गमन में स्फुर्ति ताजगी और नई रचनात्मक ऊर्जा प्राप्त करता है। मानवेतर जीव भी समय-समय पर छोटी बड़ी यात्राएं करते हैं। मानव मन की इसी प्रवृति को ध्यान में रख कर हमारे ऋषि-मुनियों ने हर व्यक्ति के लिए चारो धाम की यात्रा का विधान किया होगा मुझे ऐसा लगता है।

कुछ त्यौहारों पर महिलाओं के मायके जाने .का रिवाज है जैसे- तीजा, कजरी आदि। नातेदारी में विवाह आदि अवसरों पर उत्सव में शामिल होने के लिए लोग यात्राएं करते हैं। इससे उनके मन की यायावरी की चाहत पूर्ण होती है। मेरे मन में भी अक्सर यह हुड़क उठा करती थी कि मैं अपने देश के विभिन्न भागों के दर्शन करती, कैसा है मेरा देश जिसके प्रेम से मेरा हृदय घट छलकता रहता है? सम्पूर्ण यौवन अध्ययन अध्यापन, अर्थार्जन, नई पीढी के पालन-पोषण में व्यतीत हो गया। बार्धक्य की सीमा पर खड़ी मैं अपने आप में अधूरापन अनुभव कर रही थी कि मेरे जीवन में अप्रत्याशित मोड़ आया, दयालबंद संकुल प्रभारी श्री ठाकुर राम पटेल एवं सेवानिवृत प्रधान पाठक श्री आदित्य प्रसाद त्रिपाठी के लाघव प्रयत्न, प्रशंसनीय संगठन शक्ति और खास कर मेरे प्रति उनकी सद्भावना के फलस्वरूप अनेक पारिवारिक प्रशासनिक और मानसिक असुरक्षा संबंधी बाधाओं को पार कर सन् 2012 में बदरीनाथ, केदारनाथ सहित गंगोत्री यमुनोत्री की सफल यात्रा से वापस आई। (’सुख के पल’ नाम की पुस्तक में संपूर्ण संस्मरणात्म,रोचक वर्णन अवश्य पढ़ें।) ’सुख के पल’ को पढ़ कर कई और लोग हमारे साथी और सहयात्री बनने को तत्पर हो गये। दल के नेता त्रिपाठीजी एवं पटेल जी ने उनका स्वागत किया। एक बड़े दल के साथ 2013 में हमने दक्षिण भारत के प्रमुख स्थानों की यात्राएं कीं। (’ज्वार का पानी नाचे जिन्दगानी’ में संपूर्ण विवरण पढ़ें) 2015 के प्रारंभिक दिनों में जगन्नाथ पुरी की यात्रा संपन्न हुई। (जगन्नाथ की पुकार में संपूर्ण विवरण पढ़ें।) हमने जम कर यात्रा सुख की जुगाली की। या़त्रा संस्मरण इतवारी में प्रकाशित हुआ।

कुछ दिन बीते कि यायावर मन पुनः कहीं जाने के लिए, देश के किसी और हिस्से को देखने और उस वातावरण में साँस लेने के लिए अकुलाने लगा। हिन्दू धर्म ग्रन्थों के अनुसार प्रत्येक गृहस्थ के लिए देश के चार धाम की यात्रा करना धार्मिक कर्त्तव्य है। उत्तर में बदरीनाथ, दक्षिण में रामेश्वरम्, पूर्व में जगन्नाथ पुरी और पश्चिम में द्वारिका पुरी । इनके दर्शन का प्रावधान देश प्रेम की भावना बढ़ाने, अपने देश की अनेकता में एकता वाली गंगा जमुनी संस्कृति को सहज ढंग से आत्मशात कराने की सुविधा प्रदान करने के उद्ेदश्य से किया गया है ऐसा निश्चित तौर पर प्रतीत होता है।

हमारे ऊपर एक करने योग्य कर्त्तव्य का भार था । जगन्नाथ पुरी से खरीदी गई छड़ी द्वारिकाधीश को चढ़ाने की परंपरा है जैसे गंगोत्री का जल रामेश्वरम् में चढ़ाने की परंपरा है। पटेल जी के पास रखी छड़ियाँ सदा याद दिलातीं रहतीं थी कि अभी हमें भगवान् द्वारिकाधीश के दर्शन करने हैं। वे जब आते यही चर्चा चल पड़ती ’’ चलो मैडम जी द्वारिकाधीश घूम आते हैं फिर इधर जिन्दगी रहे ना रहे।’’ घर के लोग सख्ती से मना कर देते। इसमें प्रमुख कारण यात्रा के दौरान मेरा अस्वस्थ हो जाना था । एक दिन जब त्रिपाठी जी ने पूछा कि- ’’मैडम आप की टिकिट ले लूँ?’’ तब मन की यायावरी भावना ने मन में हलचल मचाई, देश दर्शन की अभिलाषा ने हिम्मत बंधाई । मैंने साहस करके कह दिया ’’ठीक है ले लीजिए, शायद रणछोड़ दास की कृपा हो जाय और मेरी यात्रा का योग बन जाय।’’ मुझे विश्वास था उन पर। हमारी यात्रा में अभी दो माह का समय था।

त्रिपाठी जी पूरा कार्य क्रम बना रहे थे। द्वारिकाधीश की यात्रा कर चुके लोगों से मिल-जुल रहे थे। कैवर्त्य जी जो रेल विभाग में टिकिट बुकिंग क्लर्क हैं ,वे हर प्रकार से हमारी मदद करते आये है, वे इस बार भी हमारी सुविधा के अनुसार लोअर अपर बर्थ की व्यवस्था कर चुके थे। इस यात्रा में हम लोग पन्द्रह सहयात्री हुए जिनमें.श्री आदित्य त्रिपाठी उनकी पत्नि श्रीमती देवकी त्रिपाठी श्री ओम प्रकाश शर्मा पत्नि श्री मती ….ठाकुर राम पटेल उनकी पत्नी श्रीमती बेदमती पटेल,श्री अशोक तिवारी, उनकी श्रीमती मीना तिवारी, (संकुल प्रभारी दयालबंद) कुमारी माया दूबे (कतिया पारा निवासी अधिवक्ता, देवकी दीदी की मौसेरी बहन) श्री शांतिलाल ..दूबे जी (दुर्गा उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के संचालक) ,कुमारी हेम लता (बेदमती पटेल की मुँह बोली बहन) मोपका निवासी श्री मीनदास .वैष्णव जी उनकी पत्नी श्री मती.सावित्री वैष्णव,..श्रीमती प्रभा शुक्ला (श्री आदित्य त्रिपाठी की छोटी बहन) और मैं स्वयं तुलसी देवी तिवारी (सेवा निवृत राष्ट्रपति पुरस्कार प्रांप्त उच्चवर्ग शिक्षिक) शामिल हुई।

उस वर्ष एक अक्टूबर से नवरात्र का शुभारंभ हो रहा था। मैंने अतीव प्रसन्नता से सराबोर होकर अपने उपवास की संपूर्ण तैयारी की । शक्ति की अराधना के इस पर्व पर मुझे ऐसा लगता है जैसे मेरी लौकिक माता जिनका निधन लगभग आज से इकतालिस वर्ष पूर्व हो चुका है , मेरे घर आईं हैं, अपना संपूर्ण आशीर्वाद प्यार दुलार लुटाने। मैं अपना ज्यादातर समय उनके स्मृतिलोक में उनके साथ विचरते हुए ही बिताना चाहती हूँ किन्तु उस वर्ष मेरी अभिलाषा अपूर्ण ही रह गई । एक अक्टूबर प्रतिपदा के दिन ही अपने एक अत्यंत आत्मीय जन के द्वारा में चोटिल कर दी गई। कमर में सांघातिक चोट लगी जिसके कारण मेरा चलना-फिरना ,उठना-बैठना मुहाल हो गया। अस्पताल ले जाई गई तो एक्स रे आदि के द्वारा पता चला कि कहीं अस्थि भंग नहीं हुआ है किन्तु माँस पेशियों में बहुत चोट लगी है जिसका इलाज़ लंबे समय तक चलेगा। हाई पावर एन्टीबायोटिक एवं दर्द निवारक गोलियाँ दी गईं जिन्हें भोजन के बाद ही लेना था अतः मेरा व्रत भंग हो गया। जब जान के लाले पड़े हो तब यात्रा की याद कहाँ रहती है। मझले पुत्र योगेश और कनिष्ठ पुत्र विवेक ने दवा दारू से लेकर सेवा सहाय तक मेरा बहुत ध्यान रखा। बड़े पौत्र इन्द्रजीत जिसे मैंने सदा अपना चौथा पुत्र माना एवं विवेक के पुत्र विमर्श ने मेरी जिस तरह सेवा की उसे मैं कभी भूल नहीं पाऊँगी। तीन चार दिन के बाद दर्द कम होने लगा। कमर में पट्टा बांघ कर थोड़ा बहुत प्राकृतिक शंका निवारण हेतु दीवार के सहारे जाने लगी। यात्री दल के लोगों में मेरे न जा सकने की आशंका से मायुसी छाने लगी।

मैंने देह पर ही नहीं अपनी संपूर्ण अस्मिता पर चोट खाई थी। देह से भी अधिक मन घायल था। पटेल गुरूजी ने जब मेरी हालत देखी तब कुछ समय के लिए मौन रह गये,(मैंने उन्हें गिर कर चोट खा जाने की झूठी बात कही थी। ) फिर मेरा हौसला बढा़ते हुए मुस्कराये और बोले ’’ चिन्ता मत करो मैडम जी हम आप को उठा कर ले जायेंगे। वादा किये हैं तो चाहे जैसे हो आप को द्वारिकाधीश के दर्शन कराके रहेंगे। घर संसार से मेरा जी उचट रहा था। फिर मन यात्रा पर जाने के लिए अहकने लगा। यात्रा पर निकलने के दो दिन पहले चिकित्सक से परामर्श लिया गया तो उन्होंने कमर पट्टे, दवाईयों के साथ आराम-आराम से यात्रा करने की अनुमति दे दी। परिजन मेरी दशा से सदमें में थे, वे चाहते थे कि जैसे भी हो मैं उस अनहोनी को जल्दी से जल्दी भूल जाऊँ, अतः किसी ने मेरे जाने का विरोध नहीं किया। सबने मेरे स्वास्थ्य को लेकर चिन्ता जताई।

जैसे हो सका मैंने अपनी तैयारी की और ठीक दिनांक 9.10 .16 दुर्गानवमी के दिन हम सभी अपने-अपने घरों से निकल कर रात साढ़े आठ बजे बिलासपुर रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म नंबर एक पर पहुँच गये। सभी के परिवार वाले विदा करने स्टेशन पर आये थे। पहली बार हम अपने नये सहयात्रियों से मिले, बहन हेमलता सिंह जो स्वतंत्र समाज सेविका हैं उनकी इस या़त्रा में तीर्थ के साथ ही अपनी मुँह बोली बहन बेदमती का सहयोग करने की सद्भावना निहित थी क्योंकि एक दुर्घटना में कुहनी के नीचे से दोनो हाथ गंवा चुकी बेदमती अपने दैनिक कार्यों के लिए किसी के सहयोग पर आश्रित हैं पूर्व की यात्राओं में उनकी बड़ी बेटी की सास ये सारे दायित्व निभातीं थीं, इस बार उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं था जिसके कारण वे हमारे साथ नहीं जा रहीं थीं।, मोपका के श्री मीनदास वैष्णव जो एकाधिक बार देश के सारे तीर्थो की यात्राएं कर चुके थे बिजली विभाग से सेवा निवृत हुए कितने वर्ष हो गये उन्हें स्वयं याद नहीं, खेती किसानी, वृक्षारोपण कथा प्रवचन आदि में लगे रहने वाले वयोवद्ध किन्तु युवकोचित चुस्ती-फुर्ती से सम़ृद्ध सज्जन , उनकी पत्नी सावित्री बाई दुबली-पतली गोरी नारी अपने पति की सच्ची हमसफर,सामने के दो-तीन दाँत टूटे हुए हैं पारंपरिक आभूषणों से सुसज्जित बेहद फुर्तिली महिला हैं। बाद में पता चला उनकी अच्छी सेहत का राज, वे अपनी स्वर्गवासी पुत्री की तीन संतानों का लालन-पालन वर्षो से कर रहीं हैं अब तो सभी बच्चे पढ-़लिख कर काम-काज में लग चुके हैं। एक पोती की शादी भी कर चुकीं हैं। पूरे घर का सारा काम स्वयं ही करतीं हैं। चर्बी की हिम्मत है जो सावित्री के शरीर को स्पर्श भी कर जाय? प्रभा शुक्ला हमारी ही उम्र की मिलनसार महिला हैं बेटे बेटी का ब्याह कर चुकने के बाद फुड कारपोरेशन से सेवा निवृत पति के साथ वृद्धावस्था चैन से गुजार रहीं हैं । ये बिलासपुर सरकंडा की रहने वाली हैं । बाकी तो सब पुराने साथी ही थे।

यथा योग्य अभिवादन करते हुए हम एक दूसरे से परिचित हुए फिर एक परिवार में बदल गये। समय पर नर्मदा एक्सप्रेस प्लेटफार्म नंबर तीन पर आकर खड़ी हुई हमे विदा करने आये परिजनो में मेरे मझले पुत्र योगेश, छोटे विवके, पोते इन्द्रजीत,विमर्श,त्रिपाठी जी के पुत्र, वैष्णव जी के पुत्र,हेम लता की बहिन बेटे आदि ने हमारा सामान चढाया और हमे हमारी बर्थ तक पहुँचाया। हम सभी एक ही डिब्बे में थे भले ही कंपार्टमेंट अलग-अलग थे। हमे व्यवस्थित करके वे दस तरह की हिदायतें देते रहे ।

’’ माँ! जहाँ तबियत खराब लगे वहीं रुक कर तुरन्त फोन करना, लेने आ जाऊँगा।’’ विवेक ने अपने अंदाज में आश्वस्त किया ।
’’ माँ बहुत सावधानी से रहना वक्त पर दवाइयाँ लेती रहना,हिम्मत से अधिक मत चलना, कहीं चढ़ाई हो तो नीचे ही रुक जाना। ’’ योगेश ने गंभीरता से सलाह दी। गाड़ी ने सीटी बजाई, हमारे परिजन आशीर्वाद लेकर गाड़ी से उतर गये। वह एक भाव-भीना वक्त था। वे प्लेटफार्म पर खड़े हाथ हिलाते रहे, जब तक गाड़ी ने गति न पकड़ ली। हम खिड़की से बाहर देखते रहे। उस समय मैं अपने सारे वातावरण से खिन्न थी, अपने शहर, अपने घर -परिवार, सबसे दूर जाना चाहती थी। फिर भी अपना शहर छोड़ते हुए हृदय में पीड़ा की उपस्थ्ति अनुभव कर रही थी। हमारे कंपार्टमेंट में मेरे सिवा देवकी दीदी, प्रभा दीदी सावित्री दीदी, माया दूबे के साथ ही एक बर्थ त्रिपाठी जी की थी। मुझे और देवकी दीदी को नीचे की बर्थ दी गई, बाकी लोग मिडिल या अपर बर्थ पर जम गये। अगल-बगल के कंपार्टमेंट में सारे सहयात्री व्यवस्थित हो गये। रात्रि का भोजन हम अपने अपने घर से करके आये थे अतः सब लेट गये। शरीर को आराम मिला,और अब तक हावी तनाव कम हुआ तब अनुभव हुआ कि मेरे कदम किस सौभाग्य की ओर बढ़ गये हैं, पश्चिम भारत की यात्रा का उद्देश्य मात्र तीर्थाटन ही नहीं था,वरन् संकट मोचन का आभार मानना भी था। नौ वर्ष पूर्व योगेश एक बहुत बड़ी दुर्घटना के शिकार हो गया था, ब्रेन हेमरेज के फलस्वरूप एक अंग लकवा ग्रस्त हो गति हीन हो गया था। ऑपरेशन के बाद भी कई माह उसकी हालत गंभीर बनी रही थी, उस समय मैंने संसार के सारे देवी देवताओं से उसके जीवन की रक्षा के लिए प्रार्थना की थी, जितने तीर्थो के बारे में पढ़ा अथवा सुना था, सबके दर्शन की मानता मान रखी थी । अब चाहे जैसे भी हो महाकाल के दर्शन का सौभाग्य मिलने वाला था। महाकालेश्वर जिनकी स्तुति करने में शेष शारदा भी समर्थ नहीं हैं, ब्रह्मा विष्णु हमेशा जिन्हें भजते हैं पार्वती के नाथ सदाशिव जो संसार के कलुष-कल्मष का नाश करते हैं। नवीनता के लिए उर्वर भूमि तैयार करते हैं सिर पर गंगा धारण करने वाले जटा में अर्द्ध चन्द्र और नागों के हार से विभूषित सारे संसार के कारण स्वरूप शंकर भगवान् की कृपा से मेरे पुत्र को नया जीवन मिला। बस अब कुछही घंटे शेष थे जब मैं अपने चर्म चक्षुओं से जगत पिता के दर्शन करने वाली थी । हमारा पहला पड़ाव है देश -काल इतिहास द्वारा वंदित गुह्यवन या श्मशान, सृष्टि की रचना करने वाले ब्रह्मा जी के द्वारा कुशो और समिधाओ द्वारा पूजित कुशस्थली,सर्व पापों का क्षरण करने वाले ,इस पावन क्षे़त्र में मरने वालो को पुर्नजन्म के फंदे से छुड़ाने वाले ऊसर प्रदेश जिसका वर्तमान नाम उज्जैन है। इसके दर्शन की अभिलाषा तो न जाने कब से मन में पाले हुए थी, कृपालु प्रभो अब मेरी साध पूरी करने वाले हैं मेरा मन पुलकित हो रहा था। सोचते- सोचते नींद पलको के द्वार पर हौल-हौले दस्तक देने लगी थी कि कुछ शोर जैसा सुन कर चौक कर सचेत हो उठी।

’’ हेमलता ला बने नइ लागत हे!’’कोई किसी से कह रहा था। हेमलता दो कंपार्टमेंट के बाद वाली बर्थ पर थी।
’’ काय होगे ओ’’ मैंने सूचना देने वाली सावित्री दीदी से पूछा
’’ मूड़ ह पिरावत हे। ’’
’’ आराम करही त बने लाग जाही।’’ दिन भर का तनाव सिर दर्द का बहुत बड़ा कारण होता है। यह सोच कर मैंने ज्यादा महत्त्व नहीं दिया और लेटे सुन-गुन लेती रही। मन में खटका तो लग ही गया था ।

थोड़ी देर बाद जब जी नहीं माना तो बाबा राम देव के पतंजलि फार्मेसी द्वारा निर्मित दिव्यघारा तेल ले कर उसके पास गई । वहाँ का तो मंजर ही कुछ और था , उसे जोर की डकारें आ रहीं थी, ऐसी की उसका पूरा बदन हिल जा रहा था। वह बुरी तरह छटपटा रही थी। मैं एकदम से घबरा गई क्योंकि हार्ट अटेक के लक्षण भी ऐसे ही कुछ पढ़े थे मैंने। उसके सिर में पहले भी बनफूल तेल लगा हुआ था बगल में बैठी सहयात्री उसका सिर दबा रही थी, मैं आत्मग्लानि से भर उठी ’’ हमारे रहते एक अनजानी स्त्री हमारे साथी की सेवा कर रही थी ।

’’ रहने दीजिये मैं देख लेती हूँ मैंने आभार मानने वाले अंदाज में उन्हें किनारे हटने का निवेदन किया और हेमलता का सिर अपनी गोद मे रख कर दबाने लगी।

’’परेशान मत हो दीदी, मुझे ऐसा होता रहता है , गैस ऊपर चढ़ जाता है। थोडी देर में अराम मिल जायेगा।’’ मेरी घबराहट का अनुभव कर वह कराहते हुए मुझे सान्तवना दे रही थी, मेरी दोनो टांगो में कंपन होने लगा था। चोटिल कमर लगता था टूट कर शरीर से अलग हो जायेगी। मैंने अपने दिमाग को जरा साधा और एक समय सीखी गयी एक्यूप्रशेसर की विद्या का प्रयोग प्रारंभ किया जिसमें हथेली में प्वाइंट खोज कर जहाँ तेज दर्द होता है वहाँ एक विशेष प्रकार से दबाव डाला जाता है । मुझे प्रयासरत देख कर अग्रवाल मैडम जो पहले हेमलता की सेवा कर रहीं थीं बोल पड़ीं ’’दीदी पेट के बल लेटो तो जरा !’’ हमने हेमलता को पेट के बल सुला दिया उसे डकार लगातार आ ही रहा था।

’’ दीदी ! गर्दन के नीचे पीठ के सबसे ऊपरी सिरे पर दबाओ तो!’’ मैं अपने दोनो अंगूठों से गर्दन के नीचे के भाग को दबाने लगी। वह पीठ के बीच मे अंगूठे से दबाने लगी, हेमलता को और जयादा डकारें आईं, लेकिन थोड़ी देर बाद धीरे-धीरे उसका शरीर शिथिल पडने लगा। उसे नींद आ गइ,र् डकार आना भी बंद हो गया । मैंने चैन की एक लंबी साँस ली, अब मैंने उस सहृदय महिला की ओर ध्यान दिया जिसने जाति-धर्म या वर्ग जाने बिना ही मालिस जैसी सेवा के लिए अपना हाथ बढ़या। मैं उनके प्रति सदा आभारी रहुंगी । वे एक खूबसूरत सी गोरी -नारी जरा सा दोहरे बदन की (मोटी नहीं कह सकते) महिला थीं, बाहों में ढेर सारी रंगबिरंगी चूड़ियाँ, मांग में मोटा सा सिंदूर, महंगी साड़ी पहने हुए एक संभ्रान्त घर की लक्ष्मी लग रहीं थीं। उनके साथ उनकी पुत्री और पुत्र भी थे जो उनके क्रिया-कलाप देखकर एकदम शांत बैठे थे, सबकी सेवा करना उनका स्वभाव ही था। मेरे आभार व्यक्त करने के साथ ही हमारा परिचय प्रगाढ़ होने लगा। पता चला कि वे सरकारी स्कूल की शिक्षिका ह,ैं गाँव में सास बीमार हैं उनकी सेवा के लिए बच्चों को लेकर वहाँ जा रहीं हैं । हमारी गाड़ी कटनी से आगे चल रही थी। मैंने देखा कि दल के प्रायः सभी लोग चिन्तित और परेशान से इधर-उधर से हमें ही देख रहे थे हेमलता को आराम से सोते देख कर सभी लोग अपनी-अपनी बर्थ पर चले गये थे अग्रवाल मैडम को बीना में उतरना था। उन्हें अराम करने के लिए कह कर मैं भी अपनी बर्थ पर आ गई। मुझे नींद आ गई, मैं अग्रवाल मैडम को उतरते समय विदा नहीं दे सकी।

क्रमश: अगले भाग में यायावर मन अकुलाया-2 (यात्रा संस्‍मरण)-तुलसी देवी तिवारी

-तुलसी देवी तिवारी

Loading

One thought on “यायावर मन अकुलाया-1 (यात्रा संस्‍मरण)-तुलसी देवी तिवारी

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *