यायावर मन अकुलाया (द्वारिकाधीश की यात्रा)
भाग-10 चित्तौड़गढ़ यात्रा
-तुलसी देवी तिवारी
चित्तौड़गढ़ यात्रा
गतांक भाग-9 सांवरिया सेठ का मंदिर का दर्शन से आगे
चित्तौड़गढ़ –
चित्तौड़गढ़-वीरों की क्रीड़ा भूमि –
अभी सूर्य किरणे बड़ी नरमी से बसुधा के केशों का स्पर्श कर रहीं थीं। हम लोग चित्तौडगढ़ की ओर बढ़ रहे थे, जो एक महत्त्वपूर्ण एैतिहासिक स्थान है, वीरों की क्रीड़ा भूमि, उनके बलिदान का साक्षी, पन्ना धाय की स्वामी भक्ति , महारानी पद्मिनी, कर्मवती, आदि के सतीत्व की शक्ति ,गोरा -बादल का शौर्य, महाराणा सांगा की सहिष्णुता, भामाशाह की दानवीरता,की कहानियाँ जिसके धरती से लेकर गगन तक आज भी गूंज रही हैं । राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र की प्राचीन राजधानी चित्तौड़गढ़ जिसके माथे पर चित्तौड़ दुर्ग स्थित हैं यह स्वतंत्र भारत का एक प्रसिद्ध शहर है।
चित्तौड़गढ़ की भौगिलिक स्थिति-
यह राजस्थान के पहाडी़ भाग अरावली पहाड़ियों के दक्षिण पूर्व में स्थित है। इसकी समुद्र तल से ऊँचाई 408 मीटर,या 1323 फुट है। यह वायु मार्ग, सड़क मार्ग और रेल मार्ग द्वारा देश के अधिकांश छोटे-बड़े शहरों से जुडा़ हुआ है। देश के अन्य भागों के समान ही यहाँ भी तीन ऋतुएं होती हैं। ग्रीष्म और शीत ऋतु के मध्य वर्षा ऋतु होती है वर्षा का औसत 85 प्रतिशत रहता है कभी-कभी यहाँ की प्रमुख नदियों बेड़च और गंभीरी में बाढ़ आ जाती है जिससे चित्तैड़गढ़ जाने का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। । गर्मी में दिन बहुत गर्म और रातें अपेक्षाकृत ठंडी होती हैं। शीत ऋतु में कड़ाके की ठंड पड़ती है। चट्टानी प्रदेश होने के कारण भूमि अधिक उपजाऊ नहीं है। पहले तो मक्का,ज्वार गेहूँ भी प्रति एकड़ बहुत कम ही होता था। अब सिंचाई सुविधा के विस्तार के कारण यहाँ गन्ना, कपास, मूंगफल्ली आदि नगदी फसले भी होने लगीं हैं। चित्तौड़गढ़ के आस-पास तंबाकू ,अफीम एवं कुछ फल सब्जियाँ भी होने लगीं हैं । चूने के पत्थर और संगमरमर के लिए तो यह क्षेत्र आदिकाल से विख्यात रहा है। समय के साथ यहाँ पत्थर तोड़ना, पीसना, उस पर पॉलीस करना, सिमेंट की जालियाँ, बिजली के खंभे बनाना, कपास से बिनौला निकालना, तेल और खांडसारी का काम बड़े पैंमाने पर होता है। तिलहन की उपज के कारण ’मेहता बेजीटेबल प्रॉडक्ट’स्थापित है, बिड़ला सिमेंट वर्क्स जैसे बड़े उद्योग भी लगे हैं। गृह उद्योग मे भी चित्तैड़गढ़ बढ़-चढ़ा है। कपड़े पर छपाई,रंगाई,जूते बनाना, छूरी चाकू, कैंचियाँ आदि प्रतिदिन के उपयोग में आने वाली वस्तुएँ बनाई जातीं हैं ।
चित्तौड़गढ़ प्रशासनिक इकाई-
चित्तौड़गढ़ जिले का प्रधान प्रशासनिक केंन्द्र होने के कारण यहाँ विभिन्न विभागों के राजकीय कार्यालय हैं । कोर्ट कचहरी ,अस्पताल बैंक आदि के कारण यहाँ बहुत भीड़ रहती है। शिक्षा के क्षेत्र में अनेक संस्थान कार्य कर रहे हैं जिसके कारण देश के सभी क्षेत्रों से विद्यार्थी यहाँ आते हैं, सभी प्रान्त के सभी जाति धर्म के लोग रोजगार और व्यापार करने के लिए यहाँ आकर बसे हैं जिसके कारण यहाँ की आबादी बढ़ी है। फिर पर्यटन उद्योग तो है ही बढ़ा-चढ़ा।
चित्तौड़गढ़ अतित से आज तक-
यहाँ के कुछ लोगों से मेरी भेंट बिलासपुर में भी हुई है ये अपने को महाराणा के वंशज बताते हैं इनका घर इनकी गाड़ियाँ होती हैं ये घुमन्तू जीवन जीते हैं कहते हैं – ’’हमारे पूर्वज महाराणा प्रताप ने प्रतिज्ञा की थी कि चित्तौड़गढ़ जीते बिना किसी सुख-सुविधा का उपभोग नहीं करेंगे। हम उसी वचन को निभा रहे हैं ।’’ ये लोग लोहे के औजार बना कर अपना जीवन चलाते हैं । ऐसे लोग यहाँ भी नजर आये। विचारों के गहरे गह्वर से निकल कर मैंने पीछे छूटती सड़क पर दृष्टि डाली। बड़े-बड़े विश्राम गृह, जैसे महेश्वरी धर्म शाला, मीट्ठदास जी की धर्मशाला,पीछे छुटते जा रहे थे। इससे ज्ञात हुआ कि यहाँ ठहरने के स्थान की अच्छी व्यवस्था है। सड़क पर आते-जाते लोग जिनकी पारंपरिक पोशाक उनके राजस्थानी होने की गवाही दे रहे थे, पुरूषों की बड़ी सी पगड़ी, बगल बंदी तथा धोती और महिलाओं की घाघरा चोली और उसके ऊपर बड़ी वाली ओढनी जिससे उनका पूरा जिस्म वेष्ठित रहता है। कुछ घूंघटवालियाँ भी नजर आईं । बाकी पढ़े लिखे लोग अथवा अन्य प्रदेशों के निवासी सामान्य आधुनिक पोशाक के कारण पहचान में आ रहे थे।
चित्तौड़गढ़ किले की तलहटी –
सुन्दर -सुन्दर चौक चौराहे पार करते हम लोग किले की तलहटी में पहुँच गये। हम लोग जिधर भी गये चित्तौड़ की चिकनी चौड़ी सड़कों ने हमारा स्वागत किया। गंभीरी नदी का पुल पार किया जिसे अलाउद्दीन के पुत्र खिज्र खाँ ने बनवाया था जो खिलजी के चित्तौड़ विजय के पश्चात् यहाँ का सूबेदार बना था। यह मजबूत पुल मुसलमानी शैली में बना है। पुल के किनारे राज्य परिवहन निगम राजस्थान का बस स्टेंड है। सभी दिशाओं में जाने वाली बहुत सारी बसें आ जा रहीं थीं।
चित्तौड़गढ़ किला
बस स्टेंड से दो रास्ते हैं किले तक जाने के लिए, हमारा ऑटो बाई ओर वाली सडक से आगे बढ़ा। हम लोग किले के प्रवेश द्वार तक जा पहुँचे। त्रिपाठी जी किले में प्रवेश हेतु टिकिट लेने गये और मैंने अपने चारों ओर दृष्टि डाली- जिस पहाड़ी पर किला बना है उसके चारों ओर लोगों ने बस्ती बसा ली है, कुछ कच्चे कुछ पक्के घर नजर आये। मैंने ऑटो वाले को स्थानीय व्यक्ति जान कर उससे पूछा-’’ ये घर किन लोगों के हैं?’’
’’ यह सारी जमीन और किला महाराणा के वंशजों की है उनकी प्रजा ने घर बना लिए हैं, राजा साहब कभी-कभी आते हैं , कुछ नहीं कहते अपनी प्रजा को । बिजली पानी और सड़क की व्यवस्था यहाँ के स्थानीय प्रशासन ने कर दिया है, वो देखो पानी की बड़ी सी टंकी किले के ऊपर बनी है।’’ उसने अंगूली से संकेत करके मुझे पानी टंकी दिखलाई । वहाँ आस-पास कुछ दुकाने लगीं हुई थीं जिनमें नाश्ता बिक रहा था। राजस्थान सरकार की हस्त शिल्प की दुकान पर कुछ ग्राहक आना-जाना कर रहे थे। हमारे जैसे किला देखने वाले और भी कई लोगों की हलचल थी वहाँ। जहाँ तक नजर जाती कम ऊँचाई वाले वृक्षों की हरियाली नजर आ रही थी। मेरी बगल में देवकी दीदी बैठी थीं और उनकी बगल में प्रभा दीदी। वे भी चुपचाप नये स्थान का जायजा ले रहीं थीं। हमारी और बहने ऑटो से उतर कर कमर सीधी कर रहीं थीं।
चित्तौड़गढ़ का इतिहास-
जनश्रुति-
संयोग से मैं कुछ पल भीड़ में अकेली थी, मेरा मन चित्तौड़गढ़ के इतिहास में भटकने लगा। आज से पाँच हजार वर्ष पहले एक बार महाबली भीम अमरत्व की खोज में यहाँ आये थे। अधर्यता के कारण उन्हें सफलता नहीं मिली, क्रोध में आकर जोर से पद प्रहार करने से यहाँ एक जल स्रोत उत्पन्न हो गया जो अभी भी भीम ताल के नाम से जाना जाता है। कुछ लोग मानते हैं कि अमरत्व नहीं अक्षय धन की तलाश में भीम इधर आये थे। क्योंकि महाभारत युद्ध की तैयारी के लिए अतुलनीय सम्पत्ति की आवश्यकता थी। इस क्षेत्र में उनकी मुलाकात एक सिद्ध पुरूष से हुई जिसके पास पारस मणि थी। उसके साथ एक यति भी था । जब भीम ने उससे परसमणि मांगी तब उसने एक शर्त रख दी – ’’यदि आज रात भर में ही आप मेरे लिए एक सुन्दर भवन बना देंं तो सुबह मैं आप को पारस मणि दे दूंगा अन्यथा आप को पारस मणि नहीं मिलेगी।’’ भीम ने अपने भाइयों के बल पर यह शर्त मान ली । सबकी शक्ति से विश्वकर्मा जी उस किले को बनाने लगे। इधर योगी को पारस देने में बहुत कष्ट होने लगा। उसने अपने साथी यति से कहा कि तुम मुर्गे की बोली में बांग देना शुरू करो! मुर्गे की बांग सुनकर भीम ने मान लिया कि सुबह हो गई और काम रुकवा दिया। क्रोध में पद प्रहार से बना ताल देखने का अवसर अब हमें मिलने वाला था ।
चित्तौड़गढ़ किले का निर्माण-
बाद में मौर्य वंशी राजा चित्रांग ने सातवीं सदी में इस किले का निर्माण किया था। अनेक विध्वंशक युद्धों का दंश झेलने वाला यह गढ़ बार-बार गिरता उठता रहा है। अनेक राजपूत वीरों ने अपने रक्त से इसे सींचा हैं। अनेक वीरांगनाओं ने अपने जौहर की ज्वाला से इसे तपाया है। 180 मीटर ऊँची पहाड़ी पर बना यह गढ़ राजपूतों की आन-बान और शान का प्रतीक है। वैसे मेवाड़ राजपूतों के अधिकार मे कब आया इस पर इतिहासकारों का एक मत नहीं है। 1568 में उदय सिंह जब तक राजधानी दूसरी जगह नहीं ले गये तब तक चित्तौड़गढ़ मेवाड़ की राजधानी रहा। प्राप्त अभिलेखों के अनुसार गुलिया वंश के बप्पा रावल ने आठवीं शताब्दी में अंतिम सोलंकी राजकुमारी से विवाह किया और चित्तौड़ का एक भाग दहेज में प्राप्त किया। उनके बाद उनके वंशजों ने मेवाड़ पर शासन किया जो सोलहवीं सदी तक गुजरात से अजमेर तक फैल गया। अजमेर खंडवा रेल मार्ग पर चित्तौड़ जंक्शन से करीब दो मील उत्तर पूर्व में एक अलग पहाड़ी पर चित्तौड़गढ़ दुर्ग बना है। इस दुर्ग का आकार 500 फिट की ह्वेल मछली के समान है, इसकी लंबाई तीन मील और चौड़ाई आधा मील है एवं परिधि 8 मील है। यह 700 एकड़ भूमि पर निर्मित है। यह जो आज मेरे समक्ष है भारत की वीर भूमि देश का गौरव जिसके कण-कण में देश प्रेम समाया हुआ है मेरे अहो भाग्य की मैं सती शिरो मणि पद्मिनी की चरणरज से पावन हुई धरती के दर्शन करूँगी।
चित्तौड़गढ़ किले के सप्त द्वार-
1. पाडन पोल द्वार-
त्रिपाठी जी सबके लिए 15-15 रूपये की टिकिट लेकर आ गये थे। हम सब अपने -अपने स्थान पर पुनः बैठ गये। और हमारे ऑटो किले के प्रथम विशाल द्वार से अन्दर प्रविष्ट होते इसके पहले ही दरवाजे के बाईं ओर रावत बाघसिंह के चबुतरे पर नजर पड़ी, ये महाराणा मोकल के प्रपौत्र बाघ सिंह 1534 में गुजरात के बहादुर शाह के आक्रमण काल में महाराणा विक्रमादित्य का प्रतिनिधित्व करते हुए काम बाये थे। उनकी वीरता के समक्ष स्वयं ही मेरा सिर झुक गया। इस पहले द्वार का नाम पाडन पोल है। इससें अन्दर दुर्ग में जाने के लिए एक लंबी सर्पाकार सड़क है जो हमें दुर्ग तक ले जायेगी, परंतु इसके पहले हमें ऐसे ही छः द्वार और लांघने पड़ेंगे। इस किले की रक्षा के लिए ये सातों द्वार राणा कुंभा के शासन काल में बनवाये गये थे। सड़क के दोनो ओर पत्थर की मजबूत दीवार बनी है। ताकि कोई पशु अथवा पथिक गिर कर पहाड़ी की तलहटी में जाकर अपने प्राण न गंवा दे।
2. भैरोपोल द्वार-
आगे किले का दूसरा दरवाजा मिला, जिसे भैरोपोल कहते है , यहाँ देसुरी के सोलंकी भैरोदास गुजरात के बहादुरशाह से युद्ध करते वीरगति को प्राप्त हुए थे। उनकी पुण्य स्मृति में यह द्वार बनवाया गया था। मूलद्वार के आतताइयों द्वारा भंग कर दिये जाने के बाद उदयपुर के महाराणा फतह सिंह ने इसका पुर्निर्माण करवाया।
जयमल राठौर की छतरी –
इसे पार करते ही दाहिनी ओर दो छतरियाँ दिखाई दीं। छोटी छतरिया, जिनके नीचे बने चबुतरों के नीचे भारत माँ के दुलारे लाल चिरनिद्रा का आनंद ले रहे हैं। छः खंभों वाली छतरी राठौर जयमल मेढ़तिया की है। मारवाड़ के मेढ़तिया वंश में 17 सितंबर 1500 ईसवी में जन्में जयमल मेवाड़के राव वीरमदेव के ज्येष्ठ पुत्र थे।1567 में जब मेढ़ता का किला अकबर के हाथ चला गया तब ये चित्तौड़ के राणा के पास मुगलो से लोहा लेने के लिए सेना तैयार करने की इच्छा से चले गये। मेवाड़ के राणा ने उन्हें बदनौर की जागीर दे दी । उसी वर्ष बीस अक्टूबर को अकबर ने जब चित्तौड गढ़ पर आक्रमण किया और महाराणा उदय सिंह शक्ति संचय हेतु पहाड़ों पर चले गये तब वे राठौर जयमल औा सिसोदिया पत्ता को किले की रक्षा की जिम्मेदारी सौंपकर गये थे। इन लोगों ने अकबर को नाको चने चबवा दिया। अकबर ने जयमल को लालच दिया कि ’’संधि कर लो! हम चित्तौड़गढ़ तुम्हें दे देंगे।’’
’’ तुम क्या दोगे? वह तो हमारा ही है।’’ यह कह कर अकबर को मुँहतोड़ जवाब दे दिया। अकबर की सेना ने किले की दीवारों की नींव में बारूद भरकर आग लगा दिया जिससे किले की दीवारें गिर गई राजपूतो ने उसकी मरम्मत कर दी । जयमल भी उसी काम में लगे थे कि अकबर ने संग्राम नाम की बंदुक से उन्हे गोली मार दी, वे पैर से घायल हो गये तो अपने रिस्तेदार कल्ला के कंधे पर चढ़कर अकबर की सेना से युद्ध किया। लड़ते-लड़ते दोनों वीरगति को प्राप्त हुए । यह उन्हीं वीर शिरोमणि जयमल राठौर की छतरी है। और उनके बगल में ही चार खंभों वाली नररत्न कल्ला की छतरी है। ’’ धन्य है वह माँ जिसने तुम्हें जन्म दिया ।’’ मैं उनके देश की हूँ यह सोच कर मैंने गर्व का अनुभव किया। हम लोग वाहन पर बैठे-बैठे ही देखते हुए धीमी गति से आगे बढ़ रहे थे।
3.हनुमान पोल द्वार-
आगे बढ़ने पर दुर्ग का तीसरा द्वार जिसका नाम हनुमान पोल है नजर आया, यहाँ हनुमानजी का एक छोटा सा मंदिर बना हुआ है। आराध्यदेव का मंदिर देख दोनो हाथ जोड़कर मैंने प्रणाम किया। यहाँ से अब ऊँचाई प्रारंभ हो गई है।
4. गणेश पोल द्वार
सड़क के घुमाव पर चौथा द्वार जिसका नाम गणेश पोल है मिला । इस दरवाजे पर गणेश जी का मंदिर हैं। हमने विघ्नहर्ता को प्रणाम किया।
5. जोडला द्वार-
आगे पाँचवां जोडला द्वार मिला ये सड़क के दूसरे धुमाव पर हैं।
6. लक्ष्मण द्वार
इसी घुमाव पर छठवां लक्ष्मण द्वार है । इस पर लक्ष्मण जी का छोटा सा मंदिर है। यहाँ से सड़क उत्तर की ओर जाती है।
7. राम पोल द्वार
इस पर चल कर हम किले के सातवें द्वार राम पोल के पास पहुँच गये। यही किले का प्रमुख दरवाजा है, यह भारतीय स्थापत्य एवं हिन्दू संस्कृति का प्रतीक है। राम पोल का मुख पश्चिम की ओर है इसमें प्रवेश करते ही हमें दाहिनी ओर श्रीरामचंद्र जी का मंदिर मिला है। यहाँ से दुर्ग के आंतरिक भाग में जाने के लिए दो रास्ते हैं,एक उत्त्तर की ओर जाता है दूसरा दक्षिण की ओर, जिस ओर दुर्ग के अधिकतर दर्शनीय स्थल हैं। हमने एक खाली स्थान पर अपनी गाड़ियाँ छोड़ दी। और पैदल-पैदल वह सब कुछ देखने लगे जिसे देखने की तमन्ना वर्षों से मन में पल रही थी। सूर्य की रोशनी माथे पर पड़ रही थी। किले पर विखरे इतिहास को देखने की ललक में हमें बाकी कुछ महसूस नहीं हो रहा था। देवकी दीदी के साथ मैं सबसे पीछे चल रही थी। भाई लोग आगे -पीछे चल रहे थे।
सिसोदिया पत्ताका स्मारक-
रामपोल के सामने ही दक्षिण वाले रास्ते की तरफ मुड़ने से पहले ही चूण्डावत शाखा के प्रधान व आमेर के रावतों के पूर्वज सिसोदिया पत्ता का स्मारक है, इन्होंने ने सन् 1567 में अकबर के आक्रमण के समय चित्तौड़गढ़ की रक्षा के लिए उसकी सेना से भीषण युद्ध किया था। कहते हैं कि युद्ध भूमि में लड़ते हुए एक हाथी ने अपनी सूंड़ में उठा कर पटक दिया जिससे उनकी इहलीला समाप्त हो गई। इस युद्ध में अकबर जयमल-पत्ता की वीरता से इतना प्रभावित हुआ कि इन दोनो की हाथी पर चढ़ी हुई मूर्तियाँ बनवाकर आगरे के द्वार पर खड़ी करवा दी, बाद में यह चलन हो गया। बीकानेर के किले के सूरजपोल में अभी इनकी मूर्तिया देखी जा सकती हैं।
नौलखा भंडार –
हम थोड़ा दक्षिण की ओर बढ़े तो वहाँ कुछ खंडहर सा दिखाई दिया। कहते है यह पुरोहित जी के महल के खंडहर हैं । आगे एक मंदिर मिला जो तुलजा भवानी का मंदिर है। कहते हैं राणा सांगा के भाई पृथ्वीसिंह के दासी पुत्र बनबीर ने अपने तुलादान से प्राप्त धन से इसे बनवाया था। यह वही बनवीर था जिसने छलपूर्वक चित्तौड़ के महाराणा विक्रमादित्य को मार कर गद्दी हासिल की थी। अपनी सुरक्षा के लिए उसने किले को दो भाग में विभक्त करने के लिए एक दीवार बनवा रहा था किंतु इसके पूरा होने के पहले ही महाराणा उदय सिंह ने उसे वहाँ से खदेड़ दिया। देखने से ऐसा लगता है जैसे टूटे भवनो के पत्थरों से इसका निर्माण हुआ है । इस अधूरी दीवार के पश्चिमी सिरे पर एक आधी गोलाई लिए एक अधूरा बुर्ज और कमरा है, पता चला कि बनवीर का बनवाया यह नौलख का खजाना है। लगता है वह यहाँ अपनी सुरक्षा के लिए अस्त्र-शस्त्र छिपाकर रखता था। पहले इसका नाम न लखा भंडार था बाद में बिगड़ कर नौलखा भंडार हो गया।
श्रृंगार चंवरी –
बनवीर की दीवार के मध्य भाग में राजपूत व जैन स्थापत्य कला का अन्यतम् उदाहरण है ’श्रृंगार चंवरी’ चार खंभों पर बनी छतरी के नीचे बीच में एक बेदी बनी हुई है। इस स्थान पर महाराणा कुंभा की पुत्री का पाणिग्रहण हुआ था। वैसे मूल में इस स्थान पर जैन मंदिर होना पाया गया है । एक शिलालेख के अनुसार इसका निर्माण शाह केल्हा के पुत्र और महाराणा कुंभा का कोषाध्यक्ष बेलका ने करवाया था।
मूल नायक की प्रतिष्ठा खरतरगच्छके आचार्य जिन सेनसूरि के हाथों से सम्पन्न हुई। अतः स्मारक के मध्य स्थित वेदी पर जिन की चौमुखी मूर्ति रही होगी जिसे मुगलों ने तोड दिया होगा। पाँच फुट ऊँचे प्रासाद पीठ पर बने इस वर्गाकार भवन का प्रवेशद्वार उत्तर और पश्चिम दिशा में है। जिनके ऊपर पार्श्वनाथ की मूर्तियाँ बनी हुई हैं दक्षिण और पूर्व की ओर सुन्दर गवाक्ष बने हैं। इसके वाहरी भाग में भी देवी देवताओं एवं सुन्दर भाव-भंगिमा वाले नर्तक-नर्तकियें की मूर्तियाँ तराशी गईं हैं। इस मंदिर की वास्तुकला का अवलोकन करते हम आगे बढ़े ।
तोपखाना –
बनवीर की दीवार के पूर्वी भाग में तोपखाना नामक स्थान है। यहाँ महल की अनेक छोटी-बड़ी तोपों को एकत्र कर के सैलानियों के दर्शनार्थ रखा गया है। इसके पास ही पुरातत्व विभाग का कार्यालय है, इसमें किले से प्राप्त मूर्तियों एवं अनेक प्राचीन वस्तुओं का संग्रह है। हमारे दल में मीना तिवारी को पुरानी वस्तुओं में खासी दिलचस्पी है, वे एक-एक कारीगरी को बड़े ध्यान से देख रही थीं । जिन्होंने दुर्दिन में महाराणा प्रताप को अपना सारा धन दान में दे दिया, जिससे सेना संगठित कर प्रताप ने मुगलों के विरूद्ध युद्ध जारी रखा।उन भामाशाह का स्मारक भी यहीं हैं। इसके पास ही आल्हा काबरा की हवेली के भग्नावशेेष अपने समय की कहानी कहते हमारी ओर ही निरख रहे थे। मैदान के पूर्वी सिरे पर पातालेश्वर महादेव का प्राचीन मंदिर है। हम लोग दर्शन के लिए मंदिर के अंदर तक गये । पत्थर पर खुदाई का काम देख कर दंग रह गये।
कुंभा महल-
बनवीर की दीवार के दक्षिण मे राजपूत पद्धति से बने भवनों के भग्नावशेष हैं ये महल भारतीय स्थापत्य के बेहतरीन नमूने हैं। महाराणा कुंभा ने इनका जिर्णोद्धार करवाया (ये महाराणा मोकल के पु.त्र थे सन्1433 में गद्दी नशीन हुए थे। ) इसीलिए राणा कुंभा के महल कहलाते हैं, हमने महल के अहाते में और कई संरचनाएं देखी इनमें दीवाने आम, सूरज गोखड़ा, जनाना महल, शिव मंदिर प्रमुख हैं ।
रानी पद्मिनी का जौहर –
इतिहासकार मानते हैं कि रानी पद्मिनी का जौहर इसी स्थान कुंभा महल पर हुआ। याद आते ही मन में एक हूक सी उठी,मन हुआ यहाँ की मिट्टी को अंँकवार भर कर भेंट लूँ, उसकी वीरता पर गर्व करती रही हूँ, आज जरा उसके दुर्भाग्य पर दो आँसू बहा लूँ, जिस फूल से केमल गात को सूर्य की किरणें भी स्पर्श करने में संकोच करतीं थीं। जिसके लिए रावल रतन सिंह ने राज-पाट छोड़ कर साधु बनकर सिंहल द्वीप की यात्रा की, , जिसकी एक झलक पाने के लिए अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ से युद्ध मोल लेकर अपनी सेना का संहार करवा लिया, जिसकी आन की रक्षा के लिए गोरा बादल के साथ पाँच हजार राजपूत वीरों ने अपने प्राणों की आहूति दे दी, क्या जौहर की कराल लपटों में जल कर राख बनने के लिए था? वाह रे! ! वीरांगना तेरा संकल्प, तेरा साहस, तेरा सतीत्व , तेरा जाति धर्म के लिए समर्पण, तेरा मरण तुझे अक्षय अमरत्व दे गया। तू तो भारत के भाल का तिलक बन गई। यदि तू ने ऐसा न किया होता तो भारत में हिन्दुओं का क्या होता ? जिन तेरह हजार रमणियों ने तुम्हारे पथ का अनुगमन किया उनका जीवन कैसे अभिशाप सहने के लिए लाचार होता, विर्धमियो के द्वारा उनका यौवन लहुलुहान होता, वार्धक्य या तो आता नहीं, आता भी तो भिक्षा वृत्ति ही जीवन यापन का आधार होती, उनकी संताने रक्तबीज की तरह पूरे भारत मे छा जातीं , धन्य हो भारत की बेटियों अपना जीवन होम करके तुम लोगों ने भारत का मुँह उजला किया।’’ मेरी भावनाएं मेरी आँखों से बह निकलीं।
’’ काय होगे ओ लेखिका बाई?’’ देवकी दीदी मुझे ध्यान से देख रहीं थीं पूछ बैठीं।
’’ कुछू नहीं ओ! कुछू पर गे आँखी म अइसे लागत हे।’’मैंने बहाना बनाया। सभी मुखर हो गये थे यहाँ आकर । मैंने पहले ही बताया है कि हम लोग शिक्षा जगत से जुड़े हुए लोग हैं, आज तक जो पढ़ते-पढ़ाते आये उसे प्रत्यक्ष देख कर रोमांचित हुए जा रहे थे।
कंवरपदा महल-
यहीं कुंभा महल के दक्षिण-पश्चिम में कंवरपदा महलों के खंडहर दिखाई दे रहे थे। इन्हीं महलों में महाराणा उदय सिह का जन्म हुआ था । इन्हीं में दासी पुत्र बनवीर से उदय सिंह को बचाने के लिए पन्ना धाय ने अपने पुत्र का बलिदान दिया था।
धाय मॉं पन्ना का बलिदान-
इन खंडहरों में घूमते हुए मेरा दिल अपने अतीत में जा उलझा। मेरा अनुज स्वर्गीय अनंग मिश्र तब हमारे बीच था, उसका सुलेख उसका, सुकंठ ,उसका आरोह-अवरोह के साथ आदर्श वाचन सुन कर श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाया करते थे। एक दिन में गृहकार्य में व्यस्त थी और वह रामकुमार ’भ्रमर’ रचित पन्ना धाय का त्याग एकांकी पढ़ रहा था, तब वह कक्षा दसवीं का छात्र था। न जाने कब उसके वाचन ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया और कब मैं अपनी सुध-बुध खो बैठींं, मेरी आँखों से आँसू बह रहे थे। मेरी सब्जी चुल्हे पर जल चुकी थी। मैंने पढ़ना उसी से सीखा जो मेरे शिक्षकीय जीवन में मेरे चुम्बकीय व्यक्तित्व का अंग बना।
’’कैसे बोल सकी होगी पन्ना कि यह जो सोया है उदयसिंह है, तुम्हारा कंठ कांपने से कैसे बच सका ? हाय पन्ना अपने पुत्र के रक्त के गरम-गरम छींटों से अपनी चुनरी रंग जाने पर भी कैसे तुमने अपना रुदन रोका होगा?’’
मीरा बाई का ससुराल-
प्रेम, घृणा और समर्पण का सारा खेल इन्हीं महलों में खेला गया। मेढ़ता के कुडकी गाँव में जन्मी मीरा, राव जोधा जी के वंशज, राव दूदा जी के द्वितीय पुत्र रतन सिंह की पुत्री और महान् योद्धा महाराणा सांगा के पुत्र भोजराज की भार्या थीं। अल्प वय में ही माता-पिता ,ससुर, पति खो चुकी मीरा ने गिरधर गोपाल की शरण ले ली। बाल्यकाल का अनुराग बढ़ता ही गया। महाराणा विक्रमादित्य ने मीरा के आचरण को राजपरिवार के लिए लज्जाजनक माना, उन्हें साधु संगत और मंदिर में नृत्य गान करने से मना किया किंतु सांवरे के प्रेम को वे अपने दिल से निकाल न सकीं तब राणा ने उन्हें विष पीने के लिए विवश कर दिया। मीरा ने अमृत समझ कर पी लिया। वह उनके लिए अमृत ही हो गया। उनके दुःखों की गाथा सुनकर उनके चाचा वीरम देव ने उन्हें मेढ़ता बुला लिया । वहाँ से उन्होंने कई तीर्थों की यात्राएं कीं। अंत में उन्होंने द्वारिका में निवास किया सन् 1540 में उन्होंने गोलोक धाम गमन किया। उनके भजन गाते, सुनते, समझते समझाते मेरा जीवन यहाँ तक पहुँचा है। भक्तिकालीन सगुण भक्ति के उपासक कवियों में सूरदास, तुलसीदास के साथ मीरा बाई का नाम अवश्य लिया जाता है। वे इसी महल में दुल्हन बन कर आईं और यहीं उन्हें विष पीना पड़ा।
फतह प्रकाश महल –
कुंभा महल के प्रमुख द्वार के बड़ी पोल या त्रिपोलिया कहा जाता है। बड़ी पोल से बाहर निकलते ही हमारी नजर उदयपुर के महाराणा फतह सिंह द्वारा निर्मित दो मंजिले भव्य महल पर पड़ी। जिसे फतह प्रकाश महल कहते हैं। अन्दर जाकर हमने विघ्न विनाशक श्रीगणेश जी के दर्शन किये। वास्तव में यह राज्य सरकार द्वारा स्थापित एक संग्रहालय है जिसमें इस क्षेत्र में प्राप्त पाषणकालीन मूर्तियाँ, अस्त्र -शस्त्र, प्राचीन चित्र, लोक कला की ऐतिहासिक सामग्री का संग्रह है। हमने सब जगह घूम-घूम कर सब कुछ देखा। बड़ी पोल के उत्तर में टूटी फूटी दुकानों के अवशेष देख कर ऐसा लगा जैसे कभी यहाँ बाजार रहा होगा। पता चला यह मोती बाजार था ।
सतबीस देवरी –
फतह महल के दक्षिण पश्चिम सड़क से लगा हुआ ही ग्यारहवीं सदी में बना एक भव्य जैन मंदिर है। वहाँ जाकर देखा तो 27 देवरियाँ हैं इस मंदिर का नाम भी ’सतबीस देवरी’ है। मंदिर के अन्दर गुम्बद नुमा छत व खंभों पर की गई खुदाई बहुत ही मनमोहक है, यहाँँ वर्तमान में भी सुव्यवस्था बनी हुई है। जैन साधु एवं साध्वियाँ वहाँ निवास करतीं हैं। हमने उनके दर्शन किये।
कुंभश्याम मंदिर –
यहाँ से एक छोटी सड़क दक्षिण पश्चिम की ओर गई है जो विजय स्तंभ तक चली गई है, हम लोग इसी सड़क पर आगे बढ़े। विजय स्तंभ के पहले हम लोग राणा कुंभा द्वारा सन् 1449 में निर्मित कुंभश्याम मंदिर पहुँच गये। विष्णु भगवान् के वाराह अवतार का मंदिर है। मंदिर के सामने एक ऊँची छतरी में गरुड़ की मूर्ति स्थापित है। आकाश से बातें करता शिखर, विशाल कलात्मक मंडप,व प्रदक्षिणा पथ इन्डोआर्यन वास्तु कला का सुन्दर उदाहरण है। इसके भीतरी परिक्रमा के पिछले ताक पर विष्णु के बाराह अवतार को चि़त्रत किया गया है, तथा बाहरी ताकों पर त्रिविक्रम और शिव पार्वती के स्थानकरूप का अद्भुत चित्रण हुआ है। दुर्ग में स्थित कुंभस्वामी का मंदिर महाराणा कुंभा द्वारा निर्मित तीन कुंभास्वामी नामक विष्णु मंदिरों में एक है। कहते हैं इसी प्रकार के दो मंदिर कुंभलगढ़ तथा अचलगढ़ में भी बने हैं। ये सभी मंदिर पत्थर के हैं इनमें प्रायः भूरे रंग के बलुआ पत्थरों का प्रयोग हुआ है। इन सभी मंदिरों के गगनचुंबी शिखर मनोहर कला कृतियों से सुसज्जित हैं, ऊँची-ऊँची कुर्सियों पर बनाया गये मंदिर तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं, इनके गर्भगृह के द्वार पर, मंडप की छतों पर, स्तंभों पर,सुंदर मूर्तियों एवं अन्य शुभकारी चिन्हों का अंकन हुआ है। बाहरी भाग में भी मोहक कलाकृतियों के अलावा प्रधान ताकों पर भगवान् विष्णु के विविध रूपों की भव्य मूर्तियाँ बैठाई गईं हैं। जो तत्कालीन कला समृद्धि की परिचायक हैं । मैंने हाथ जोड़कर विश्व के पालनकर्ता अनाथों के नाथ को प्रणाम किया और अपने सम्मुख आने का संयोग उत्पन्न करने केलिए आभार जताया। कुंभ स्वामी का यह मंदिर कला की दृष्टि से तो उत्कृष्ट है ही इसमे बनी मूर्तियों से पन्द्रहवीं सदी के मेवाड़ के जन जीवन की झलक भी मिलती है। तत्कालीन पहनावा, आभूषण, केश सज्जा आभूषण, अलंकरण, वाद्य यंत्र,शस्त्राशस्त्र, आदि पर विशेष प्रकाश पड़ता है।
मीरा मंदिर –
हमने देखा कि इसी अहाते में एक और मंदिर है जो मीरा मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। इसके सामने ही मीरा जी के गुरू रैदास जी का स्मारक छतरी के रूप में है। वहाँ बांस से घेरकर लाइन लगाने की व्यवस्था की गई थी। हरे रंग का मैट मंदिर तक बिछा हुआ था कुर्सियाँ खाली पड़ी थीं टेंट वाले अपना सामान समेट रहे थे पूछने पर पता चला कि यहाँर राजस्थान सरकार का आयेजन मीरा महोत्सव सप्ताह कल समाप्त हुआ है, हर साल होता है। मंदिर में डी.जे.पर तजस्वर में एक राजस्थानी भाषा में मीर का भजन चल रहा था उसके आकर्षण में बंधे हमस ब लोग वहाँ जाकर खडे़ हो गये।
हमने पास जाकर दर्शन किया मंदिर में मुरली बजाते हुए श्रीकृष्ण और भक्ति में लीन मीरा बाई का चित्र लगा है। मेरा मन गाने लगा – मेरो तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई ,जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई ।
जटाशंकर मंदिर-
हमारे वहन यहीं खड़े थे। हमने बेदवती भाभी को एक पेड़ के चबुतरे पर यहीं बैठा दिया था हमारे ऑटो चालक हमारे सामान के साथ उन्हें भी देख रहे थे। हम लाग कुंभश्याम मंदिर से आगे चले तो विजय स्तंभ जाने वाले रास्ते के दहिनी ओर सड़क से जरा सा हट कर जटाशंकर का मंदिर है। हम सभी दर्शन करने गये वह एक बहुत ही सुंदर शिव मंदिर है। विश्वरूप शिवलिंग जलहरी रूप मातृशक्ति के साथ अपनी प्रभा से जगत को उद्भाषित कर रहा था। शिवालय की छत पर खुदी मूर्तिया आज भी अखंड हैं। मंदिर की बाहरी दीवारों पर भी खुदाई का बहुत अच्छा काम हुआ है। उस समय मंदिर में कोई विशेष भीड नहीं थी इसलिए दर्शन लाभ लेकर हम लोग आगे बढ़े।
विजय स्तंभ-
हमारे सामने था राजपूतों की गौरव गाथा कहता, भारतीय वास्तु कला का अप्रतीम उदाहरण महाराणा कुंभा की वीरता का उद्घोष करता विजय स्तंभ जो 47 फुट वर्गाकार एवं दस फिट ऊँचे आधार पर बना,122फिट ऊँचा नौ मजिला स्मारक है।यह आधार पर 30 फुट चौड़ा है, इसमे ऊपर जाने के लिए 157 सीढ़ियाँ बनी हैं। ये केन्द्रीय दीवार के साथ धूमती हुई ऊपर चली गईं हैं इस स्मारक में अंदर और बाहर हिंदु देवी-देवताओं ,अर्द्धनारीश्वर,उमामहेश्वर, लक्ष्मीनारायण, ब्रह्मा, सावित्री, हरिहर, पितामह,व विष्णु भगवान् के अनेकों रूपों एवं अवतारों, रामायण, महाभारत,आदि के पात्रों की अनेक मूर्तियाँ खुदी हुई हैं । इसके अतिरिक्त, देवियों मात्रिकाओं दिग्पालों ,ऋतुओं ,नदियों एवंज न जीवन की झाँकियों की सुन्दर अंकन हुआ है। जिससे उस समय के शस्त्राशस्त्रों,नृत्य,वादन,वाद्य यंत्रों ,एवं सामाजिक जीवन का परिचय मिलता है। इन चित्रों के नीचे जो लेख खुदे हैं वे भारतीय वास्तु कला के शब्द कोष कहे जा सकते हैं। (उन्हीं के कारण एक अनजान व्यक्ति भी इन्हें किताब की भाँति पढ़ सकता है । वैसे मैं अपने पाठकों को बता दूँ यहाँ प्रायः हर कलाकृति ,मंदिर, या विशेष स्थान का परिचय शिलालेख आदि के द्वारा दिया गया है।)
श्री रतनलाल अग्रवाल ने इस स्मारक, एवं कुंभश्याम मंदिर की मूर्तियों के निर्माण का श्रेय जइता तथा उसके पुत्रों नापा, पोमा, पुंजा, भूमि, चूथी, बलराज आदि को दिया है। हमने इस स्तंभ की पाँचवीं मंजिल पर इनकी मूर्तियाँ भी देखी। इन मूर्तियों के नीचे ’शिल्पीनः लिखकर उनके नाम लिखे हैं। इसका निर्माण कार्य सन्् 1440 से प्रारंभ होकर 1448 में पूरा हुआ था। इस स्तंभ के विषय में कहा जाता है कि मालवे के सुल्तान महमूद खिलजी को प्रथम बार परास्त करने की याद में राणा कुंभा ने अपने इष्ट देव भगवान् विष्णु के लिए यह कीर्ति स्तंभ बनवाया था। इसकी ऊपरी छतरी आकाशीय बिजली गिरने के कारण नष्ट हो गई थी जिसे उदयपुर के महाराणा स्वरूप सिंह ने बनवा दिया था।
समिधेश्वर मंदिर-
विजय स्तंभ की खूबसूरती अपनी आँखों में सुरक्षित कर हम लोग इसके दक्षिण में स्थित समिधेश्वर मंदिर पहुँचे, यह शंकर भगवान् का प्राचीन मंदिर है। यहाँ शिवलिंग के पीछे दीवार पर शिव की त्रिमुर्ति है। उनके ये तीन मुख सत्व गुण, रजो गुण और तमो गुण के प्रतीक हैं । इस मदिर का निर्माण मालवा के राजा भोज ने करवाया था तथा चित्तौड़ के महाराण मोकल सिंह ने सन् 1427 में इसका जीर्णांद्धार करवाया। इसे मोकल मंदिर भी कहते हैं। इस मंदिर में दो शिलालेख हैं । एक शिलालेख 1150 का है जिसके अनुसार गुजरात के सोलंकी कुमारपाल का अजमेर के चौहान अनाजी को परास्त कर चित्तौड़ आना ज्ञात होता है। तथा दूसरा शिलालेख सन् 1428 का है यह महाराणा मोकल सिंह के संबंध में है। अपने संस्मरण हेतु जानकारी नोट कर मैं अपने साथियों के साथ महासती स्थल पहुँची। यह विजय स्तंभ और समिद्धेश्वर मंदिर के बीच में एक सममतल मैदान है। ज्ञात हुआ कि यह राणाओं का श्मशान स्थल है। जहाँ क्षत्राणियाँ अपने मृत पतियों के साथ चितारोहण करती थीं। यह बड़े गर्व का कार्य माना जाता था। राजाराममेहन राय ने इसका घोर विरोध किया। और लार्ड विलियम बेटिंग ने कानून बना कर इसे प्रबिंधित कर दिया।
महासतीद्वार –
कुछ समय पूर्व हुई खुदाई में समिद्धेश्वर मंदिर के उत्तरी प्रवेशद्वार के पास राख की कई पर्ते पाई गईंं हैं, माना जाता है कि महाराणा विक्रमादित्य और उदयसिंह की माता ने अकबर से युद्ध के समय तेरह हजार वीरांगनाओं के साथ यहाँ जौहर किया था। इसके उत्तर में महारावल समर सिंह द्वारा निर्मित सती द्वार बना है। एक प्रवेश द्वार पूर्व की ओर भी है जिसे महासतीद्वार कहते हैं। यहाँ एक भग्न दीवार है लगता है किसी महल की है। अपने दल की बहनों के साथ उस पर चढ़ कर मैंने ऊपर से नीचे देखा-मैदान में हवन कुंड जैसी एक संरचना है, शायद जौहर स्थल को एक विशाल हवन कुंड मानकर वीरांगनाएं अपने जीवन को हविष्य बना देतीं थीं, यहाँ खड़े होकर मैंने रानी कर्मवती (जो महान् योद्धा महाराणा सांगा की भार्या थीं) की विवशता को अनुभव किया।
गोमुख कुंड –
भरे मन से हम लोग आगे बढ़े- तो सुंदर सी प्राकृतिक संरचना ने हमारा सारा अवसाद हर लिया। यहाँ भूगर्भित चट्टान से गाय के मुख के समान छिद्र के द्वारा शंंकर भगवान् के साक्षात् विग्रह का अहर्निश जलाभिषेक होता रहता है। यह एक तीर्थ स्थान है जहाँ लोग स्नान के लिए आया करते हैं। यह गोमुख कुंड कहलाता है। इस कुड में भाँति-भाँति की मछलियाँ जल क्रीड़ा कर रहीं थीं, इनके लिए चारा बेंचने वाले किनारे पर खड़े थे। हमने उनसे चारा खरीद कर जल में डाला और मछलियों की हलचल देख कर आनंदित हुए।
पार्श्वनाथ मंदिर-
गोमुखकुंड के उत्तरी किनारे पर पार्श्वनाथ जी का एक जैन मंदिर है जिसका निर्माण महाराणा रायमल जी के समय हुआ था। मूर्ति पर कन्नड़ में कुछ लिखा है लगता है इसे दक्षिण भारत से मंगवाया गया था। इस मूर्ति पर सन् 1468 में उत्कीर्ण देवनागरी में खुदा लेख भी है। पता चला कि इस मंदिर में सुंरंग के दरवाजे हैं जो कुंभा महल तक गये है। चट्टानों पर छोटे -छोटे पौधे उगे हैं, मानों उन्हें हरित वसन पहना रहे हों।बीच में जल कुंड और बाबा का मंदिर, आ हा! तन मन की थकान् मिट सी गई। गोमुख कुंड से थोड़ा आगे बड़े थे कि सड़क के दोनों ओर जलाशय दिखाई दिये। पश्चिम की ओर का जलाशय हाथी कुंड कहलाता है, कहते हैं पहले यहाँ हाथी पानी पीते थे। सड़क के पूर्व की ओर का जलाशय खातण बावड़ी कहलाता है। मैंने यह देखा की चित्तैड़गढ़ प्राकृतिक संसाधनों से मालामाल है तभी इसके इतने सारे शत्रु भी रहे हैं।
नौगजा पीर की कब्र –
आगे नौगजा पीर की कब्र है। कहते हैं कि मौर्यकाल में नौ गज लंबा एक मुसलमान यहाँ की राजकुमारी से ब्याह करना चाहता था किंतु उसकी यह इच्छा पूरी न हो सकी और वह अल्ला को प्यारा हो गया। यह उसी की कब्र है। यह कब्र राजपूतों की धार्मिक उदारता का प्रतीक भी हैं।
सलूंबर की हवेली –
इसके पास ही एक खंडहर हैं यह सलूंबर की हवेली के भग्नावशेष है । चित्तौड़ के भीष्म कहे जाने वाले चूंड के वंशधर यहाँ रहते थे। महाभारत के भीष्म के ही समान चित्तौड़ में भी एक भीष्म हुए है ये सन् 1373 में यहाँ राज्य करने वाले यशस्वी महाराणा लाखा के पुत्र चूंडा थे, एक बार राजसभा में मंडोर के राव रणमल की पुत्री हंसाबाई के साथ युवराज चूंडा के विवाह प्रस्ताव का प्रतीक नारियल आया, चूंडा उस समय वहाँ नहीं थे, राणा लाखा ने परिहास में कह दिया कि मेरे जैसे बूढ़े के लिए यह नारियल नहीं आया ऐसा लगता है। इस बात पर चूंडा ने अपने पिता की शादी हंसाबाई से इस शर्त पर करवा दी कि हंसाबाई का पुत्र ही चित्तौड़ की गद्दी का उत्त्राधिकारी होगा। उन्होंने अपने वचन के पालन हेतु अपना सारा जीवन होम कर दिया। धन्य है ऐसा पुत्र!
बौद्ध स्तूप –
आगे बढ़ने पर सड़क के मोड़ पर पश्चिम की ओर गोमुख की चट्टानों के बीच राठौर जयमल और सिसोदिया पत्ता के महलों के खंडहर मिले जो आज भी अपने स्वामियों के वीरोचित कार्यों की याद लिए खडे दिखाई देते हैं। चित्तौड़ के लिए अंतिम साँस तक अकबर की सेना से लड़ते हुए खेत रहे। पत्ता के महलों का आसमानी रंग उस समय भी कहीं-कहीं दिख रहा था। इन महलों के पूर्व में एक जलशय है, इसके किनारे पत्थर के छः बौद्ध स्तूप मिले हैं, इससे लगता है कि कभी यहाँ बौद्ध मंदिर रहे होंगे।
कालिका माता मंदिर-
आगे जयमल,पत्ता के महल के दक्षिण की ओर सड़क के पश्चिमी किनारे पर बहुत ही सुन्दर, विशाल और ऊँची कुर्सी पर बना कालिका माता का प्राचीन मंदिर देख कर मन प्रफुल्लित हो गया। मंदिर के खंभों, छत तथा गर्भ गृह में खुदाई का काम बहुत पुराना लगता है। संभवतः इसका निर्माण मेवाड़ के गुहिल वंशी राजाओं ने आठवीं नौवीं शताब्दी में करवाया होगा।
इसके गर्भगृह के दरवाजे पर बनी सूर्य प्रतिमाओं के आधार पर लगता है पहले यह एक सूर्य मंदिर था, मुगलों के आक्रमण के समय इन्हें तोड़ दिया गया होगा, बाद में कालिका देवी की मूर्ति की स्थापना की गई होगी। महाराणा सज्जन सिंह ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया तथा हाल ही में केन्द्रीय पुरातत्व विभाग ने बड़े पैमाने पर मरम्मत का कार्य करवाया है । सुना है कि नवरात्रि के समय यहाँ मेला लगता है। दूर-दूर से लोग माँ के दर्शन करने आते हैं। माँ के दर्शन करके मन में साहस और शक्ति का संचार हुआ। मंदिर के उत्तर पूर्व में स्थित एक कुंड है जिसे सूर्य कुंड कहा जाता है। इस मंदिर के दक्षिण में किले के ऊपर रहने वाले लोगों के लिए राज्य सरकार ने पानी की एक टंकी का निर्माण करवाया है। यहाँ से पाइप के द्वारा नलों में पानी पहुँचाया जाता है।
रानी पदिमनी का महल-
सूर्य कुंड के दक्षिण में तालाब के किनारे कर्णसिंह के वंशज रावल रतनसिंह की पत्नी पदिमनी के महल हैं एक छोटा महल तालाब के मध्य में बना हुआ है। हम लोग महल के अन्दर प्रविष्ट हुए रानी के महल में बड़े-बड़े काँच लगे हुए हैं हम लोग अपनी धूल धूरसित छवि देखकर आपस में हँसने लगे। वास्तुकार ने न जाने कौन सी विधि का प्रयोग करके इन महलों का निर्माण किया था । तालाब के बीच वाले महल में खडे़ व्यक्ति का प्रतिबिंब इन शीशों में साफ दिखाई देता है। कहा जाता है कि अल्लाउद्दीन खिलजी ने यहीं से रानी पद्मिनी की परछाई देखी थी। लोगों का मानना है कि रानी पद्मिनी ग्रीष्मकाल में उस महल में आराम करती थी। वैसे उसका निवास कुंभा महल में था। इन महलों की स्थिति देखकर इनकी प्राचीनता पर संदेह होना स्वाभाविक है। हो सकता है अल्लाउद्दीन खिलजी द्वारा तोड़े जाने के बाद इनका जिर्णोद्धार कर नये महल बना दिये गये हों। ज्ञातव्य है कि महाराजा सज्जन सिंह ने सन् 1881 में इन दीवारों पर पुनः प्लास्टर करवाया। क्योंकि 23 नवंबर 1881 ईसवी को चित्तौडगढ़ पर उनका दरबार हुआ जिसमें भारत के तत्कालीन गर्वनर जनरल लार्ड रिपन स्वयं चित्तौड़ आये तथा महाराणा को जी. सी.एस.आई.की उपाधी प्रदान की।
महल की सुंदरता रानी के अनुरूप ही है, मेरा मन महारानी पद्मिनी की मानसिक शक्ति का गुणगान करने लगा था। अब तक सुर्य भगवान् पश्चिम की ओर झुकने लगे थे। हम लोग थोड़ी देर एक पेड़ की छाया में बैठे थे कि हमारा ऑटो वाला आ पहुँचा, कहने लगा– ’’ अब यही से लौट चलिए।’’
बढ़ई रानी कर्मा खाती –
’’ अरे नहीं! आये हैं तो पूरा देखकर ही जायेंगे।’’ अशोक तिवारी ने विरोध किया।
’’ मैं सब बता देता हूँ और क्या है उधर आप का मन न माने तो चले जाइएगा, बल्कि एक अच्छी जगह ले चलना चाहता हूँ जहाँ आप लोग थोड़ा आराम भी कर लेंगे।’’
’’ अच्छा ले बता भाई!’’ पटेल जी ने कहा।
’’ ये देखिये खंडहर जो महाराणा क्षेत्र सिंह की बढ़ई रानी कर्मा खाती का है, इसके दो बेटे थे इनने राणा मोकल सिंह की हत्या की थी। आगे ज्यादातर खंडहर ही हैं। इसी सडक पर थोड़ा आगे एक जगह है दीवार से धिरी हुई कहते है महाराणाकुंभा ने मालवा के सुल्तान महमूदशाह को पाँच माह बंदी बनाकर यहाँ रखा था। उसके बाद पुराना परेड ग्राउंड है। कुछ नहीं वहाँ घास फूस उग आया हैं। फिर एक पुराना तालाब है चित्रांग मौर्य का बनवाया हुआ। बीका खोह है जहाँ गुजरात के बहादुर शाह से लड़ते हुए बूंदी का हाड़ा अर्जून अपने पाँच सौ साथियो के साथ वीरगति को प्राप्त हुआ था। राज टीला है जहाँ पुराने जमाने में राजाओं के राज्याभिषेक हुआ करते थे। मृगवन है जहाँ पशु देखने को मिलेंगे। मोहर मगरी है जिस पर चढ़कर अकबर की सेना ने किले की दीवार फांद कर युद्ध जीता था। जैनियों का कीर्तिस्तंभ है वह आदिनाथ का स्मारक हैं । बस और क्या?’’ उसकी बातें सुनते हम लोग वहाँ आ गये जहाँ हमारे ऑटो खड़े थे।
अद्भूत नृत्य-
मीरा मंदिर में डी.जे.पर तेज स्वर में राजस्थानी भाषा में मीरा का भजन बज रहा था। उसके आकर्षण में बंधे हम सब लोग वहाँ जाकर खडे़ हो गये। वहाँ हमने विभोर कर देने वाला दृश्य देखा । एक गोरी नारी पतली सी युवती मीरा के वेष में सजी, एक हाथ में तानपुरा और दूसरे में लगभग दो फुट की गिरधर गोपाल की मूर्ति लिए भजन की लय के साथ मगन होकर नृत्य कर रही थी। उसकी साड़ी कमर पर पिन फंसाकर अटकाई गई थी जिसका रंग सफेद और किनारा काला था, सिर पर सामने की ओर जूड़ा बना था जिसमें फूलों की वेणी लगी हुई थी। उसकी आँखें आधी मूंदी हुईं थीं और होठों पर मृदुल हास स्थाई था। वह गोल-गोल घूम कर लगातार नाच रही थी। मेरी पलके तो जैसे झपकना ही भूल गईं थीं।लगता था मीरबाई ही नूतन देह धारण कर अपने गिरधर को रिझा रहीं है।
हमारे अलावा उस मंदिर में उस समय दो चार युवतियाँ और दो चार अधेड़ औरतों के साथ एक युवक और एक लगभग पचास वर्ष का आदमी था बाद में एहसास हुआ कि ये उसके परिजन होंगे। उस समय तो न दर्शक को होश था न नर्तकी को। समय जैसे ठहर सा गया था । लगभग आधे धंटे तक वह नाचती रही ,अचानक गाना बंद हुआ और वह घायल पंक्षी की भाँति त्योराकर गिरने को हुई कि उस उम्र दराज व्यक्ति ने उसे अपनी गोद में संभाल लिया वह एक कुर्सी पर बैठ गया, औरतें उसे हवा करने लगीं। युवक ठगा सा देख रहा था। नर्तकी का गोरा रंग गुलाबी दिखाई दे रहा था उसका पूरा शरीर पसीने से भींग गया था।
राजस्थान हस्तशिल्प प्रदर्शनी
अब जाकर मुझे याद आया कि कई घंटे से एक घायल महिला को अकेले छोड़ रखा है हम लोगों ने, क्या हमें इतना स्वार्थी होना चाहिए? बेदमति के पास पहुँच कर मैंने उनका हाल-चाल पूछा , उन्होंने बताया कि मैं सो गई थी अभी ही उठी हूँ आप पछताइये मत ! मेरा मन थोड़ा हल्का हुआ। हम लोग अपने ऑटो मेंं यथा स्थान बैठ कर किले केेेेेे सभी द्वारों को पार करते हुए बाहर आ गये। ऑटो वाले ने एक भव्य शो रूम के पास ले जाकर हमे उतार दियां उसका नाम था ’ राजस्थान हस्तशिल्प प्रदर्शनी।
’’ आइये -आइये ! यह सरकारी दुकान है। बहुत सस्ता और सुन्दर सामान मिलता है। आये हैं तो कुछ तो ले के जायेंगे न ऽ निशानी। ’’ दोनो ऑटो वाले हमारी चापलुसी कर के हमें प्रदशनी के भीतर पहुँचा कर स्वयं न जाने कहाँ गायब हो गये।
एक चमचमाते हुए हॉल में विभिन्न प्रकार के सिले हुए कपड़े सजे हुए थे। विशेष का सूती कपड़े , तकिए, गद्दे, और आकर्षक रंगों की रजाइयाँ, वहाँ कई लड़के थे जो सेल्समेंन थे, सभी के साथ एक-एक हो लिए। सभी को बड़े आदर के साथ दुग्ध धवल शैया पर बैठाया और सामने सामान का ढेर लगा दिया।
’’ ये देखिये माँ जी साड़ी! आप पर खूब जँचेगीं, प्योर सिल्क, हमारे चित्तौड़गढ़ की बनी है, यहीं के बुनकरों ने बुना है।’’ मेरे पास वाले लड़के ने शायद मेरे चेहरे पर छपे बेवकूफी के निशान पढ़ लिए थे।
’’ नहीं बेटा , साड़ी नहीं चाहिए!’’ मैंने उसके मीठे बोल का ख्याल न करते हुए अपने साथियों को देखा शर्मा दंम्पत्ति साड़ियाँ पसंद कर रहा था। देवकी दीदी, प्रभा दीदी, माया सभी व्यस्त हो चुके थे।
’’बहुत थक गइंर् हैं माताजी!’’ सेल्समेंन ने मेरी दुःखती रग पर हाथ रख दिया।
’’ हाँ बेटा घूम रहे हैं दिन भर से।’’
’’ अब मैं आप को एक ऐसी चीज दिखाता हूँ जिससे आप की सारी थकावट , दर्द दस मिन्ट में छू मंतर हो जायेंगे।’’ वह त्वरित गति से गया और आधा किलो वाली जयपुरी रजाई निकाल लाया।
माता जी यह हमारे चित्तौड़ की खास चीज है, पच्चीस साल की गारंटी , खराब होने पर नई देंगे बदल कर । यहाँ जो आपने सीताफल के पेड़ देखे हैं नऽ….? उनके बीज की रूई से बनता है। आप ने किले से देखा होगा इसका कारखाना, लोग सीता फल के बीज से रूई निकालते हैं और भी जंगली दवाइयाँ जिनका उपयोग पुराने जमाने में राजा लोग करते थे , वही सब इसमें भरी गई हैं आप को विश्वास न हो तो लेट जाइये आराम से, देख लीजिए आराम लगता है या नहीं !’’ वह तो जैसे पूर्णविराम लगाना ही भूल गया। उसका आग्रह इतना प्रबल था कि मैं वहाँ बिछे लंबे-चौडे गद्दे पर लेट गई उसने मुझे रजाई ओढ़ा दी । बाकी सब का भी इसी प्रकार सत्कार हो रहा था।
दस मिनट बाद उसने पूछा -’’माँ !दर्द में आराम मिला?’’ रजाई से आराम हो न हो उसकी पुकार से अवश्य मेरा दर्द दूर हो गया। सोचा चलो एक रख लेती हूँ सफर में भी काम आयेगी , कितना ठग लेगा?’’
’’अच्छा कितने का दिया?’’ मैंने दाम पूछा वह परम उत्साहित होकर बताने लगा–’’सस्ता है माँ! बस दो हजार रूपये!’’उसने एक दम ऐसे कहा जैसे मुफ्त का दे रहा हो।
’’ यह तो बहुत ज्यादा है बेटा रिजनेबल लगा लो’।’’ मैंने आदतन कह दिया।
’’ अरे! मेरी माँ तो सेठानी है, बेटे पर भरोसा कर के ले जा याद करेगी। ’’ मैं उसे निराश न कर सकी , रजाई बांधने के लिए कह दिया। मैने हॉल में नजर डाली -मेरे ज्यादातर साथियों के हाथ में रजाई ही थी। (वह एक रानी कलर की बेहद सुंदर रजाई थी जिसे मैं कम वजन और छोटे आयतन के कारण इस्तेमाल करती आई।)अशोक तिवारी सेल्स मेंन से बार-बार पूछ रहे थे कि रजाई खराब निकलने पर कैसे वापस करेंगे अपना फोन नंबर दे दो !’’ वह कह रहा था कि ’’बिल में सब लिखा है, पार्सल से भेज देना!’’
’’ हम पार्सल कर देंगे और आप को फोन करते रहेंगे आप उठायेंगे नही ंतब क्या करेंगे?’’ मैं काउंटर पर पहुँच कर विल अदा करके खड़ी थी , पूछ बैठी । दुकान में नये ग्रहकों का दल आ चुका था। सेल्समेन उधर मुखातिब हो चुके थे। काउंटर पर बैठे युवक ने फोन करके ऑटो वालों को बुला लिया और हम एक तरह से जबरन वहाँ से विदा कर दिये गये। गंभीरी पुल पार करके ऑटो चल पड़े रेलवे स्टेशन की ओर। कई बड़े -बड़े भवन, जैसे भोपाल भवन, गुंरुकुल, प्रताप उद्यान, सर्किट हाउस , बालउद्यान, कलेक्टरी चौराहा,महाराणा की घोड़े पर चढ़ी हुई प्रतिमा,आदि देखते हम लोग सटेशन पर उसी जगह पहुँचे जहाँ एक दरगाह है उसे देखते ही कान में कोई फुसफुसाया—’’ ऑटो वालों के चक्कर मे पड़ कर कुछ मत खरीदना ठगते हैं यात्रियों को!’’
चित्तोगढ़ से बिदाई-
’’ ओह! अब याद आई ! मैं हाथ मल कर रह गई । रेलवे स्टेशन के पास ही शाकाहारी भेजन की दुकान देख ली गई । हम लोग दिन भर से भूखे थे अतः भोजन कर के ही स्टेशन पर गये। स्टेशन पर गाड़ी की प्रतीक्षा करते-करते मैं चादर बिछा कर लेट गई रात घिर आई थी। बिजली के बल्ब झिलमिल-झिलमिल करके उजला फैला रहे थे। दिन भर देखे दृश्य आँखों से ओझल होना नहीं चाहते थे। महाराणा प्रताप की घोड़े पर चढ़ी मूर्ति मेरे दिल दिमाग पर छा गई थी। जिस चित्तौडगढ़ के लिए उन्होंने अपना पूरा जीवन होम दिया , सारी उम्र वन-वन भटकते रहे, अकबर से लड़ते-लड़ते मेवाड़ का सारा प्रदेश मुगलों से मुक्त करा दिया । उदयपुर को छोडकर गोगुंदा को राजधानी बना कर अपना राजतिलक करवाया उस चित्तौड़गढ़ में कभी पैर भी नहीं रख सके। उदयसिंह के हाथ से चित्तौड़गढ़ क्या गया, कभी वापस ही नहीं आ सका।
आठ बजे हमारी गाड़ी अजमेर के लिए छुटी थी। साढ़े दस बजे अजमेर पहुँच कर आगे आश्रम एक्सप्रेस से आबू रोड जाना था। अजमेर में गाड़ी लेट थी, इसलिए एक बजे तक चल सके।
-तुलसी देवी तिवारी
शेष अगले भाग में- भाग-11 आबूरोड अम्बेजी का दर्शन