यायावर मन अकुलाया-11 (यात्रा संस्‍मरण)-तुलसी देवी तिवारी

यायावर मन अकुलाया (द्वारिकाधीश की यात्रा)

भाग-11 आबूरोड अम्‍बेजी का दर्शन

-तुलसी देवी तिवारी

 आबूरोड  अम्‍बेजी का दर्शन
आबूरोड अम्‍बेजी का दर्शन

आबूरोड अम्‍बेजी का दर्शन

गतांक भाग-10 चित्तौड़गढ़ यात्रा से आगे

आबूरोड आगमन-

रात तो आँखें खोलते- मूँदते , कभी लेटते कभी बैठते बीत गई किंतु सुबह बहुत सुहानी हुई, अभी प्राची में गुलाल बिखरा भी न था कि हमारी गाड़ी आबूरोड पर रुक गई । स्टापेज बहुत कम समय का था, इसलिए हमने जल्दी-जल्दी समान उतारा और सभी साथी उतर कर खड़े हुए थे कि गाड़ी धड़ से निकल गई। अलसाई सी भोर अभी पेड़ों की फुनगी पर साँसें ले रही थी। मौसम ठंडा था। शॉल की याद आ रही थी। रेलवे स्टेशन से हम लोग बस स्टेण्ड गये । लगता है पहाड़ काट कर सड़क के लिए भूमि तैयार की गई है। अभी किसी तरह का जनरव नहीं था। एक पेड़ के तने पर एक तख्ती टंगी थी जिस पर लिखा था ’ आबूरोड’ इसके अलावा कोई पहचान का माध्यम नहीं दिखा।

अंबाजी आगमन-

चंद लम्हों में ही एक बस आती दिखी, हमारी भीड देख कर वह स्वयं ही रुक गई। उस पर लिखा था ’अंबा जी’ हम सब लोग उस पर बैठ गये। अंबा जी यहाँ से मात्र 35 किलो मीटर ही पड़ता है। मैंने उल्टी के डर से अपना सिर बाहर निकाल लिया। बस हवा से बातें करने लगी। कई गोलाइयाँ कई मोड़ पार करते निरंतर ऊपर चढ़ती बस बीच-बीच के स्टापेज पर रुकती -चलती लगभग आठ बजे अंबाजी के मोटर स्टेण्ड पर जाकर रुक गई। हमारा सामान बस के ऊपर एक रस्से से बंधा रखा था, हमारे साथियों ने अपना-अपना सामान उतारा, त्रिपाठी जी अपने सामान के साथ मेरा वाला ट्राली बैग भी लेकर चले। अभी बस स्टेण्ड की सफाई पूरी नहीं हुई थी, सफाई कर्मचारी जगह-जगह कचरे का ढेर लगा कर आगे का काम पूरा कर रहे थे। अभी तक धूल उड़ रही थी। वहाँ भी उस समय अधिक भीड़-भाड़ नहीं थी।

अनहोनी से टक्‍कर-

सामने ही निर्गम द्वार है वहाँं से मेन रोड दिखाई पड़ रहा है। हमारे बांईं ओर बरामदे जैसा शेड बना हुआ है। त्रिपाठी जी उस शेड से होकर बाहर निकलने के विचार से उसी तरफ बढ़ रहे थे। मैं देवकी दीदी की बांह पकड़े और बहनों के साथ उनके पीछे-पीछे चलने की कोशिश कर रही थी । तिवारी जी शर्मा जी, पटेल जी सभी आगे ही थे, इतने में – शेड के नीचे पड़े एक सिमेंट के अधटूटे खंभे में से निकल रहे छड़ से टकरा कर त्रिपाठी जी ,गिर पड़े । भाई लोग उन्हें उठाने के लिए दौड़े , दीदी का हाथ छोड़कर मैं भी दौड़ी। देखा तो उनकी पेंट का नीचला हिस्सा खून से भीगता जा रहा था, वहाँ का हिस्सा तिकोना फट गया था। मेरी ओर देख कर उन्होंने दीदी को लेकर सब के साथ आगे बढ़ने का संकेत किया , मेरी घबराहट देख कर कह दिया कि लगा नहीं है, आप लोग चलते रहो ! पटेल जी ने सारा समान ले लिया । तिवारी जी हमारे साथ चले, दीदी बार- बार पूछ रही थीं ’कइसे गिर गिन ओ ? लागिस तो नहीं? ’’
’’ नी लागे हे दीदी! दो रोगहा छड़ ला कोन जनि काबर ओ मेर धरे हें?’’ मेरा मन खिन्न हो गया था।
’’ हे अंबे माँ !त्रिपाठी जी को ज्यादा चोट न लगी हो, मैंने अपना भी सामान लदवा दिया था , हो सकता था कम सामान के साथ वे न गिरे होते !’’ मन में अपराध बोध हलचल मचाने लगा।

अंबाजी मंदिर आगमन-

सड़क पर आकर दो ऑटों पर सामान सहित बैठ कर हम लोग अंबे माता के मंदिर के समीप तक आये । यहाँ मंदिर से लगा हुआ ही ब्राह्मण समाज धर्मशाला है, उसी में हमें कमरे मिल गये। यह बाजार के बीच का स्थान है । इसकी दीवार से लगा हुआ ही मंदिर परिसर है। धर्मशाले के पास से ही लाईन से दुकानें बनी हैं, खिलौने, सिंगार सामग्री, पूजन सामग्री, चाय- नाश्ता, फल-फूल, नाना प्रकार की वस्तुएं। धर्मशाले का काउंटर सामने ही है, रिहायसी कमरे ऊपर बने हुए हैं। हम लोग पटेल जी के कहे अनुसार अपना समान रख कर पलंग पर आराम से बैठे। लगातार यात्रा के कारण हाथ पैर अकड़ रहे थे, बड़े आराम का अनुभव हुआ। दीदी बेचैन लग रहीं थीं, चिंता तो मुझे भी थी। आधे घंटे बाद त्रिपाठी जी कमरे में आये , वे हँस-हँस कर बातें कर रहे थे , दीदी जब निश्चिन्त होकर हाथ पैर धोने गईं तब कपड़ा उठा कर मुझे दिखाया और बताया ’’लगभग एक इंच का धाव हो गया है, अपनी दीदी को मत बताना नहींं तो रोने लगेगी। उन्होंने अपना कपड़ा लपेट कर बैग में रखा और उस कमरे में चले गये जहाँ उन्हें पुरूष भाइयों के साथ रहना था। हम लोग बारी बारी से नहा-धोकर तैयार हुए। त्रिपाठी जी आकर हम लोगों को भोजन के लिए ले चले, ब्राह्मण धर्मशाला के सामने ही एक अच्छा सा दो मंजिला गुजराती होटल है हम लोग वहीं गये। वह एक साफ-सुथरा होटल है, सेवक के संकेत पर हम लोग ऊपर चढ़ गये। 250रू. प्रति थाली के हिसाब से थाली में चावल, दाल, रोटी , सब्जी, कढ़ी, पापड़ आदि बहुत कुछ था। हमने खाना प्रारंभ किया किंतु यह क्या? सब कुछ मीठा! हमारे छत्तीसगढ़ में तो ऐसा हम लोग नहीं खाते, दाल सब्जी रायता आदि नमकीन रहता है।
’’ दीदी ! ये जम्मो जिनिस म चीनी डार दिये हें ओ!’’ मैने कहा
’’ हओ दाई! कइसे खवाही ?’’ वे मन मार कर कौर दो कौर खा रही थीं। जिससे जो खाते बना खाया, बाकी हाथ धोकर उठ गये। मुझे याद आया कि यहाँ के पानी में नमक अधिक होने के कारण भोजन में मीठा डाला जाता है। हमारे और साथी किसी अन्य होटल में खाना खाने गये।

अंबाजी मंदिर का इतिहास-

अंबाजी मंदिर की भौतिक स्थिति-

होटल के पास खड़े होकर ही मैंने उस दुग्ध धवल संगमरमर के अद्वितीय मंदिर के दर्शन किये जिसे देखने की लालसा में हम सब इतनी दूर आये हैं। जो गुजरातं की कुल देवी हैं। समुद्र तल से 1500 फीट ऊचाई पर बने इस मंदिर पर 358 स्वर्ण कलश सूर्य के प्रकाश से होड़ करते प्रतीत हो रहे थे। लाल ध्वज वायु के साथ लहरा रहा था। राजस्थान और गुजरात की संरक्षित सीमा पर स्थित यह मंदिर गुजरात के बनासकांठा जिले में पड़ता है। इसे अंटिंग मंदिर भी कहते हैं। यह एक बहुत बड़ा तांत्रिक पीठ भी है।

अंबाजी का पौराणिक इतिहास-

पुराणों के अनुसार माता सती ने अपने पिता दक्ष गृह यज्ञ में शिव का अंश न देख पति के अपमान् से व्यथित हो योगाग्नि में प्राणाहुति दे दी, मोहाविष्ट शंकर भगवान् ने सती माता का शरीर अपनी बाहों में उठाकर तांडव प्रारंभ कर दिया जिससे संसार में प्रलय की स्थिति आ गई । उनका मोह भंग करने के लिए भगवान् विष्णु ने अपने चक्र से सती माता के शरीर को खंड-खंड कर दिया। वे टुकड़े जहाँ -जहाँ गिरे शक्ति पीठ बने, जगत में दैवीय शक्ति के केंद्र इन शक्ति पीठों की संख्या 51 है। यहाँ माता सती का हृदय गिरा था, इसलिए भी माता की दया भक्तों पर कुछ अधिक ही है। देश भर से हजारों भक्त माता के दर्शन पूजन के लिए आते हैं और अपनी मुराद पूरी करके जाते हैं।

रामायण काल में अंबेजी की कथा-

कहते है यह मंदिर रामायण महाभारत काल में भी था । राम-रावण युद्ध के दौरान रावण के बार-बार जीवित होने से भगवान् श्रीराम श्रमित हो गय, उन्हे लगा – रावण वध उनकी शक्ति के बाहर है ,तब श्रृंगी ऋषि ने श्रीराम को आबू के जंगल में लाकर गब्बर माता की आराधना करने का आदेश दिया। उनकी पूजा से संतुष्ट होकर माता ने उन्हें एक तीर दिया जिससे बाद में रावण मारा गया। इस अरासूर की अंबे के मंदिर का अस्तित्व पूर्व वैदिक काल से ही है। अरावली पहाडियों के शीर्ष पर यह सर्वोच्च ब्रह्मांडीय नियंत्रक के रूप में विराजित है।

महाभारत काल में अंबेजी की कथा-

जूए में कौरवों से हारने के बाद 13 वर्ष वनवास के समय अंतिम 1 वर्ष का अज्ञातवास सफलता पूर्वक व्यतीत करने के लिए आशीर्वाद लेने आये अर्जुन को माता अंटिंग ने आशीर्वाद स्वरूप एक दिव्य वेशभूषा दी और राजा विराट के यहाँ वृह्नल्ला के रूप में रहने का संकेत दिया। उनके आशीर्वाद से उनका अज्ञातवास सफलता पूर्वक व्यतीत हो गया।

कहते हैं कि द्वापर में श्रीकृष्ण का मुंडन कराने बाबा नंद एवं माता यशोदा यहाँ आये थे। महाभारत युद्ध के पहले मझले पांडव भीम ने यहाँ विजय के लिए माता की आराधना की थी, माँ ने उन्हें अजयला नाम की एक माला दी जिसके प्रताप से पांडव कौरवों जैसे प्रबल शत्रु को परास्त कर सके। किंवदंतियों के अनुसार श्री कृष्ण को पति के रूप में पाने के लिए विदर्भ की राजकुमारी रूक्मिणी ने इसी मंदिर में आकर पूजा की थी।

गब्‍बर माता मंदिर दर्शन-

अंबे माँ से संबंधित कथाएं याद करते हम अपनें कमरे में आ गये। मैंने बेदमति भाभी का हाल-समाचार लिया। थोड़ी देर आराम करने के बाद अंबाजी के अन्य मंदिरों के दर्शन करने जाने का कार्यक्रम तय हुआ। अंबा माता के मंदिर में शाम सात बजे और सुबह छः बजे आरती का समय ज्ञात हुआ। अभी हमारे पास तीन-चार घंटे का समय था। मुँह हाथ धोकर हम लोग तरोताजा हुए, लगभग चार बजे दो ऑटो में बैठ कर हम लोग शहर की ओर चले। अंबा जी वाली रोड छोड़ कर आगे बढ़े और माँ की नगरी की शोभा देखते आगे बढ़े, यह शहर भी देश के अन्य शहरों के समान ही लगा। कहीं बड़े भवन तो कहीं झोपड़ी! सड़के अल्बत्ता अच्छी हैं ।

’’ पहले गब्बर माता के मंदिर चलते हैं माता जी की असली चौकी तो वहीं है, वह देखो शिखर पर एक छोटा सा मंदिर हैं वहाँ एक पत्थर पर माँ के पैरों के निशान हैं। जितनी पौराणिक घटनाएं हैं सब गब्बर माता के मंदिर के बारे में ही हैं जो लोग अंबा जी आते है वहाँ जरूर जाते हैं तो चलें बाबू?’’ ऑटो वाला अपनी बात कह कर त्रिपाठी जी का मुँह ताकने लगा।
’’ कितनी दूर है यहाँ से ? हमें अंबा माँ की संध्या आरती में शामिल होना है।’’
’’ होने को तो तीन मील ही है किंतु हजार भर सीढ़ियाँ हैं बाबू, टाइम तो लगेगा।’’ उसकी बात सुनकर वे हम लोगों का मुँह देखने लगे। बेदमति चोटिल हैं और त्रिपाठी जी को भी पैर में काफी चोट लगी है। देवकी दीदी घुटने के मारे नहीं चढ़ सकती, बाकी सब भी ऐसे ही हैं।
’’ चढ़ना नहीं हो पायेगा भाई और कहीं घुमा दो!’’ त्रिपाठी जी ने कह दिया।

पाँच जैन मंदिर का दर्शन-

’’फिर ठीक है कुम्हारिया जी चलते हैं। ’’ उसने ऑटो की गति बढ़ा दी । लगभग दो किलो मीटर चल कर हम रुक गये। हमारे सामने पाँच जैन मंदिर थे। उतर कर हम सब मंदिर के दर्शन करने लगे। अन्य जैन मंदिरों की भाँति इनकी भी कारीगरी देखने लायक है। दीवारों पर सुंदर नक्काशी की गई है। पता चला कि ऐसे 360 मंदिर थें जो भूकम्प के कारण नष्ट हो गये। कुछ लोंगों का मानना है कि मंदिर देवी के प्रकोप से नष्ट हुए न की भूकम्प से। मंदिर के दरवाजों पर प्रतिहारी ,चंवर धारिणी, की मूर्तियाँ बनी हैं, मंदिर में जैन तीथंकरों की मूर्तियाँ विराजित हैं।

कोटेश्वर महादेव का दर्शन-


वहाँ से दर्शन करके हम लोग फिर आगे चले।- लगभग तीन किलो मीटर दूर एक शिव मंदिर देखकर हमारा ऑटो रुक गया। हम अंबा जी के प्रसिद्ध शिव मंदिर कोटेश्वर महादेव के सामने खड़े थे। हमने जलहरि सहित देवाधिदेव को प्रणाम किया, शिवलिंग के सामने ही नंदी की मूर्ति है उनके कान में मैंने अपनी मनोकामना कही। दल के सभी लोग मंदिर की कारीगरी मे खोये हुए थे। यहाँ एक कुंड है जिसमे गाय के मुख के समान प्राकृतिक संरचना से सदैव पानी गिरता रहता है। यहाँ हमारे जैसे बहुत से यात्री दर्शन कर रहे थे।

खोदियार माता का दर्शन-

हम लोग आगे गणेश मंदिर, हनुमान् जी के मंदिर से होते हुए खोदियार माता के मंदिर में पहुँचे–यह माता के अनेक रूपों में से एक है इनका इतिहास लगभग एक हजार तीन सौ वर्ष वर्ष पुराना है। रोशाला सौराष्ट्र के वल्लभीपुर राज्य में शासक राजा शीलभद्र थे। ममानियाँ गड़वी नाम के शिव भक्त भी उसी राज्य में रहते थे, वे राजा के विश्वास पात्र मित्र और सलाहकार थे। गड़वी की पहुँच राजा के अंतःपुर तक थी ,इससे उनके दरबारी जलने लगे । उन्होंने रानी के साथ मिल कर राजा के मन में यह बात बैठाई कि गड़वी की कोई संतान नहीं है, उसकी पत्नी बाँझ है, उसके साथ रहने और उसका मुँह देखने से राजा के भी संतान नहीं होगी।राजा उनकी बातों में आ गयां और गड़वी के लिए राज भवन के दरवाजे बंद करवा दिये। इससे गड़वी अत्यंत दुःखी हुए और शंकर जी के मंदिर में जाकर हठयोग साधने लगे ’’ जब तक मेरे संतान नही होगी तब तक मेरा हठयोग जारी रहेगा प्रभु !’’भक्त की पुकार सुन कर शंकर भगवान् ने दर्शन देकर वर मांगने को कहा। गड़वी ने अपना दुखड़ा कह सुनाया। तब भगवान ने कहा ’’तुम्हारी तकदीर में संतान है ही नहीं।’’ जब गड़वी हठ छोड़ने को तैयार नहीं हुआ तब भगवान् उसे अपने साथ नागलोक ले गये। नागों के राजा की सात पुत्रियाँ और एक पुत्र था वे गड़वी की संतान बनने को तैयार हो गये। उन्होंने कहा- आप जाओ! आठ पालने बनवा कर रखना, असाढ़ में पालने तैयार हो गये। एक दिन आठ साँप आये और पालनों में सो गये, कुछ देर बाद उन पालनों में सात पुत्रियाँ और एक पुत्र सो रहे थे । गड़वी की पत्नी ने अपने माँ बनने का समाचार सब को बता दिया जिससे लोगों ने समझा कि बिना गर्भ धारण किये बच्चे किसी काले जादू के प्रभाव से हो गये है। राजा शीलप्रभ को इस समाचार से बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने सोचा चाहे जैसे हो उसके संतान हो गई और उसका अशुभ होना मिट गया। चलते हैं ममानिया के घर चल कर जश्न मनाते हैं, दरबारी ऐसा नहीं चाहते थे उन्हांने विषैली मिठाइ मंगवाई और ममानिया ने आप के लिए भेजा है ऐसा कह कर राजा को खिला दिया। राजा ने मिठाई खा ली और सभी बच्चों को उठा-उठा कर प्यार करने लगा। जब जानबाई को उसने गोद में उठाया तब उसने अपने नन्हे हाथ उसके सिर पर रख दिये जिससे एक ज्वाला निकली और राजा की जान बच गई । दरबारियों ने समझाया कि ये जादू के बच्चे हैं देखिये! आप के सिर पर न जाने कहाँ से आग जल गई थी। इन्हें रखना ठीक नहीं है । इस पर राजा ने आठ लोहे के बक्सों में बंद करके इन्हें पानी में डाल देने का हुक्म दे दिया। परंतु जान बाई की कृपा से छिद्र युक्त लोहे के बक्से डूबने के बजाय तैर गये। राजा को अपनी गलती का एहसास हो गया। और उसने गड़वी से माफी मांगी।

एक समय आठो भाई बहन नदी के किनारे खेल रहे थे कि किसी विषैले जंतु ने उनके भाई मेहरक को काट लिया उनकी बहन आवल ने बताया कि अमी नाम की बूटी पाताल लोक में मिलती है यदि सूर्यास्त से पहले मेहरक को खिला दी जाय तो यह बच सकता है जानबाई स्वयं ही पाताल लोक गई और बूटी लेकर जलमार्ग से आने लगी, जल्दीबाजी में उसके शरीर में कई जगह चोट लग गई खोदा गया लेकिन उसने कोई परवाह नहीं की, मगर ने उसकी मदद की और वह समय पर आ पहुँची जिससे मेहरक की जान बच गई। बाद में मगर को उसकी सवारी मान लिया गया। जैसे मगर जल -थल दोनों में रह सकता है वैसे ही माता हर जगह सहायता करतीं हैं, शरीर खोदा जाने के कारण ही उनका नाम खोदियार माता पड़ा। और भी अनेक किस्से उनकी दयालुता के लोक में प्रचलित है। स्त्रियों बच्चों पर इनका विशेष स्नेह रहता है।

अम्‍बेजी माता का दर्शन-

उनके विशाल मंदिर में जाकर हमने दर्शन किया । भक्तों की भीड़ में हम भी शामिल हो गये। माँ का स्वरूप एक बालिका जैसा है उनकी दो भुजाएं हैं एक हाथ में एक पतली लम्बी छड़ी है और दूसरे से आशीवार्द देती हैं। यह मंदिर बहुत पुराना है जो कलात्मक खंभों के ऊपर टिका हुआ है। मंदिर ऊँची कुर्सी पर बना है, बहुत सारी सीढ़ियाँ चढ़कर हम माँ के दरबार तक पहुँचे थे। सामने भक्तों के लिए छायादार स्थान है ताकि अधिक देर तक लाईन में लगने पर भी उन्हें अधिक तकलिफ न हो। माँ को बारंबार प्रणाम करके हम लोग वापस ब्राह्मण धर्मशाला आ गये। इस समय सभी दुकाने लग गईं थीं, थोड़ा सा समय था मैं दीदियों के साथ घर के लिए खिलौने आदि देखने लगी। देवकी दीदी और बेदमति भाभी को काउंटर के पास बिछे तखत पर बैठा दिया गया। धर्मशाले के दरवाजे तक अंबा माँ के मंदिर का वेरिगेट लगा था । अभी शाम ठीक से उतरी भी न थी धरती के आंगन में, कि लोग लाईन में लगने लगे। पिछड़ने के डर से हम लोग भी खड़े हो गये। तब भी हमारे सामने करीब पचास लोग खड़े हो चुके थे। सड़क की बत्तियाँ जल गईं। मंदिर की जगमग और बढ़ गई ।

अम्‍बे मंदिर की दिव्‍यता-

दो लाइन है, एक महिलाओं, एक पुरूषों के लिए। अपने अपने घेरे में हम बराबर-बराबर चल रहे थे, प्रभा दीदी मेरे पीछे ही थीं –’’ देखबे लेखिका बाई हमर संगे संग रहिबे, गँंवाबे झन!’’ उनकी बात सुन कर मैं जरा सा मुस्कुराई। मैने माँ के भवन को गर्दन ऊँची करके देखा! ओह! इतना ऊँचा भवन! लगभग 103 फुट ऊँचा, लगभग दस फुट की कुर्सी पर बना है। इसका कलश लगभग तीन टन का है । इसके निर्माण में लगा पत्थर प्राचीन पर्वत माला अरासुर की खानों से लाया गया है। मंदिर के कलश पर शुद्ध सोने की परतें चढ़ाई गइंर् हैं। मंदिर में लगा संगमरमर विशेष दुधिया किस्म का है तभी तो इसकी सफेदी में कोई अन्तर नहीं आता। ज्ञात सूत्रों के अनुसार इस मंदिर का निर्माण सबसे पहले बल्लभी राजा अरूण सेन ने 14वीं शताब्दी में करवाया था। बाद में अहमदाबाद के एक नागर भक्त तपिशंकर ने 1584 से लेकर 1594 तक इसका विस्तार किया। सन् 1975 से इसकी मरम्मत का काम आज तक चल रहा है। इस मंदिर का वास्तु शिल्प हिन्दुस्तानी है, मंदिर निर्माण परंपराओं का प्रदर्शन करते हुए कलश, साज संभार, की व्यवस्था, की गई है। सब कुछ अद्भुत्!

म्ंदिर के प्रांगण से हलचल का आभास मिलने लगा था। हम लोगों के पीछे भी सैकड़ों लोग खड़े हो चुके थे। जहाँ हम खड़े थे वहाँ से मंदिर का विशाल प्रवेश द्वार,ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ, दोनों पंक्तियों को संभालने के लिए खाकी वर्दी वाले कर्मचारी , अगल-बगल सजी दुकाने सब कुछ दिखाई दे रहा था। जब हम लोग सीढ़ियों के पास पहुँचे तब हमें रोक दिया गया। नारियल की रस्सी बांध कर अवरोधक बनाया गया था। महिला सिपाही ने एक-एक करके हमें अन्दर भेजा , अंदर में भी लाईन से ही आगे बढ़ना था। इस प्रवेश द्वार के पास ही दो और दरवाजे हैं एक के बीच में टेबल लगा कर कुछ भद्रजन बैठे हुए थे। शायद किसी चीज की रसीद काट रहे थे। और उसके बगल वाले से लोग बाहर निकल रहे थे। रसीद काटने वाले शायद ट्रस्ट के पदाधिकारी थे।

अम्‍बे मंदिर का ट्रष्‍ट-

लगभग सौ वर्षों से एक ट्रस्ट मंदिर के कार्य-क्रमों का संचालन कर रही है। प्रकाश और ध्वनि, भोग प्रसाद , मंदिर की साज-सज्जा, रख-रखाव, पुजारियों का मानदेय, चढावे का हिसाब आदि-आदि सम्पूर्ण व्यवस्था उसी के अधीन है। लाईन में लगे-लगे मेरी निगाहें अपना काम कर रहीं थीं। मंदिर की दीवारों पर बने देवी देवताओं के चित्र प्राकृतिक दृश्यावली, मंदिर से संबंधित जानकारियाँ, सिर के ऊपर संगमरमर के झालरदार जाली वाले तोरण और पैर के नीचे मक्खन सा चिकना और सुकोमल अनुभूति प्रदान करने वाला संगमरमरी फर्श। हम लोग सामने का मंडप पार कर गर्भ गृह के सामने आ खड़े हुए। मैंने अंदर दीवार में एक साधारण से गोख में विराजित माताजी की आकृति में सजे उस स्वर्ण बीज श्रीयंत्र के दर्शन किये जो तीनों लोक के प्राणियों पर अकारण ही करुणा की वर्षा करता रहता है। उसके सामने ही अत्यंत प्राचीन पवित्र अखंड ज्योति जल रही हैं ।

अम्‍बे माता की गर्भगृह की भव्‍यता-

गर्भ गृह के दरवाजे पर माँ के वैभव का प्रतीक हाथी की मूर्ति बनी हुई है दूसरी ओर चंवर धारिणी की मूर्ति बनी है। गर्भ गृह में पूजा करने वाले पुजारी ने अपनी आँखों पर पट्टी बांध रखी है। माँ का तेज सहन करने वाली आँखों भला किस मनुष्य के पास हैं? आरती की ज्योति जल उठी! एक साथ शंख घड़ियाल, घंटे, आदि बज उठे । धूप का पवित्र धुआँ वातावरण में छा गया। जयकारे की ध्वनि से कानों ने कुछ और सुनने से इंकार कर दिया। अंदर समवेत स्वर में माँ की आरती गाई जा रही थी —

–’’ जय अंबे गौरी मइया जै श्यामा गौरी ,
तुम को निशदिन ध्यावत हरि ब्रह्मा शिवजी,
मैया जै अंबे गौरी !’’

माँ महिष्मर्दिनी का दर्शन-

मैंने पूरे मन से आरती गाई । मेरे हाथ जुड़े रहे और रोमावली खड़ी रही । आरती के पश्चात् सब के ऊपर पवित्र जल का सिंचन किया गया। वर्दीवाली सेविका ने हमें आगे बढ़ने का संकेत किया। लाईन आगे बढ़ी, माता की महिमा से आपाद मस्तक आप्लावित मैं दूसरे रास्ते से मंडप में ही वहाँ आ गई जहाँ प्रसाद मिल रहा था। मेरे सभी साथी आस-पास ही थे। एक ओर हमने माँ महिष्मर्दिनी की मूर्ति देखी जो मंडप में ही एक ओर विराजित है। आरती के समय मुझे ऐसा लगा जैसे कुछ पलों का विराम लगा हो , मैंने वहाँ की एक बहन जी से प्रश्न किया तो उन्होंने बताया —कि ’’आरती के मध्य माँ की मनुहार करनी पड़ती है प्रार्थना करके मनाना पड़ता है। तब फिर से आरती की जाती है नही तो माँ आरती स्वीकार नहीं करती और कुछ न कुछ गड़बड़ हो जाती है। यह प्राचीन परंपरा है। ’’ मुझे समझ में आ गया माता और संतान का प्यार है यह जिसमें रूठना मनाना चलता रहता है।

देश भर के प्रसिद्ध मंदिरों में जाकर हमने अनुभव किया कि नारियल जो हम लेकर जाते हैं देवता के चरणों तक पहुँच नहीं पाता , या तो हमे वापस कर दिया जाता है या दुकानदार को बेच दिया जाता है जिसे अन्य श्रद्धालु क्रय कर के माँ के दरबार में पुनः पहुँचते हैं । वास्तव में मंदिर के रखरखाव नवनिर्माण आदि के लिए धन की आवश्यकता होती है माँ को न तो धन की आवश्यकता है न ही किसी चढ़ावे की। इसीलिए अब हम लोग दान पेटी में यथा शक्ति नकद ही डाल देते हैं। हमने यहाँ भी वही किया। दान की रसीद कटवा ली या दानपेटी में डाल दिया । परिसर में भीड़ बहुत हो गई थी। हमने परिक्रमा करते हुए एक बार मंदिर का अंदर से अच्छी प्रकार दर्शन किया। फिर एक जगह चबूतरे पर थोड़ी देर बैठे।

अम्‍बे माताजी के संदर्भ में चर्चा-

मेरे बगल में ही एक गुजराजी परिवार बैठा था, परिचय बढ़ाने की नियत से मैंने उनमे जो मेरी हम उम्र महिला थी उसे नमस्कार किया। मुस्कुराकर उसने भी हाथ जोड़ दिये।

’’ दीदी! यहाँ हमेशा ऐसी ही भीड़ रहती है क्या?’’ मैंने पूछ लिया।
’’यह तो बहुत कम भीड़ है बेन जी, नवरात्र में आकर देखो ! जितनी दुकाने लगीं हैं उनके छोर तक लाइन लगती है। दुनिया भर के भक्त माँ से मिलने आते हैं । माँ किसी को खाली हाथ नहीं लौटाती सबकी मुरादें पूरी करतीं हैं माता रानी। भादो की पूर्णिमा से ही यहाँ मेला शुरू हो जाता है। लोग झंडा ले लेकर आते हैं माँ को अपने घर आने का न्यौता देने । नवरात्री भर दुर्गा सप्तसति, देवी भागवत गरवा भंवई आदि की धूम रहती है। कोई अपने घर में नहीं ठहरता उस समय ,आइए नऽ इस साल नवरात्री के समय !’’ उस महिला ने बड़े अपनत्व के साथ मुझे निमंत्रण दे डाला।

’’ माता रानी की इच्छा होगी तो आयेंगे ही।’’ मैने उसका मन रखने के लिए कह तो दिया लेकिन? लगभग 33 वर्ष से दोनों नवरात्रों में व्रत करती आई थी इस बार वह भी छूट गया।

’’ बहन जी ! माँ का इतना सुंदर सिंगार कौन करता है कि श्री यंत्र में माँ की छवि उभर आती है।’’ मैने उससे फिर पूछा।
’’ वह तो पुजारी लोग ही करते हैं, माता की महिमा है बेन जी नहीं तो उनको भला कौन सजा सकता ? तीनों कालों में तीन रूप में सजाई जातीं हैं, सुबह के समय कुंआरी कन्या , दोपहर को युवती और शाम को प्रौढ़ा । आरती भी सुबह छः बजे ,मध्यान्ह आरती12 बजे, संध्या आरती 7 से 7.30 तक होती है, मंदिर दर्शन के लिए सुबह सात से रात 9.15 तक खुला रहता है। मौसम के अनुसार थोड़ा बहुत बदलाव होता रहता है।’’ उन्होंने अपनी जानकारी के अनुसार मेरी जिज्ञासा शांत की ।

अम्‍बे माता का फिर से दर्शन-

हम लोग थके हुए थे और आराम चाहते थे। विगत रात्रि सोना लगभग नहीं हो पाया थां वैसे मेरे साथी यात्रा की योजना इस प्रकार बनाते हैं कि रात में या तो किसी जगह सो सकें या लंबी यात्रा पर रहें ताकि ट्रेन में सो सकें । किसी विशेष कारण से ही कल वाली परेशानी हुई थी। भाइयों ने एक होटल देखा और हम लोग भोजन आदि से निवृत्त होकर धर्मशाला आ गये। अपनी दवाई वगैरह लेकर तैयार हो गये । देखा तो अभी नौ ही बजा था , मैने माया से कहा – ’’ चल ना बहन! एक बार और घूम कर आते हैं।’’

’’ चलो दीदी !’’ माया तैयार हो गई, मैने दीदी से कह दिया कि हम लोग जरा नीचे से आ रहे हैं।
अभी तो सड़क पर रौनक देखने लायक थी। मंदिर का कलश स्वर्णिम आभा से दमक रहा था। दुकानों में भी बहुत भीड़ थी। आरती के समय जैसी लाइन इस समय नहीं थी। हम लोग जल्दी ही मंदिर प्रांगण में थे। हम सब कुछ आराम से देख समझ रहे थे। माँ के दर्शन से मन कहाँ तृप्त होने वाला था? इस बार हम लोग उस तरफ गये जिधर मंदिर की ह़ी कपड़े की दुकान है, माता को लोग बहुतायत से वस्त्र चढ़ाते हैं मंदिर समिति उस चढ़े हुए प्रसाद को श्रद्धालुओं को बेच कर नकद करती है। महिलाओं को कपड़े आकर्षित करते ही हैं, हम लोग दुकान के काउंटर पर जाकर खड़े हुए, वहाँ रंग बिरंगी साड़िया फैली हुईं थीं। कुछ महिलाएं उन्हें पसंद कर रहीं थी। हमने देखा दाम पूछा किंतु ले नहीं सके मुझे दुकान से साड़ियाँ महंगी लगी। फिर मेरे मन में ये बात थी कि देवताओं को कोई अच्छे कपड़े नहीं चढ़ाता, प्रतिकात्मक पूजन होता है। सभी को पता है देवी माँ को वस्त्रों की आवश्यकता नहीं है। सारा आकाश ही उनका आंचल है। देवियाँ अपने सुख सौभाग्य के लिए माँ को वस्त्र चढा़ती है। वाह रे आदमी! भगवान् को भी ठगने से बाज नहीं आता । जो खरीद रहे थे वे भी संभवतः पूजा में चढ़ाने के लिए ही खरीद रहे थे। मंडप में प्रवेशद्वार के दायें, न्यास का कार्यालय है जहाँ ’’ अरासुरी अंबा माता देवस्थान न्यास’ का बोर्ड लगा है वहाँ जाकर कोई भी भक्त पूजा, पाठ कन्या भोजन अथवा किसी भी अन्य धार्मिक अनुष्ठान हेतु राशि जमा करा सकते है। मैंने 101 रूपयें की रसीद कटवाई। और घूमते घामते धर्मशाले आ गये। प्रातः जल्दी उठकर तैयार होना है ताकि प्रात‘ छः बजे की आरती के दर्शन कर सके । कल ही माउंट आबू के लिए हमारी अगली यात्रा होने वाली है। कमरे आकर दरवाजा खोलवाने पर प्रभा दीदी ने खोला ।

कसक बाकी रह गई –

’’ काय-काय ले लानऽ ओ तूमन ?’’ देवकी दीदी ने पूछा वह भी जाग रही थी।
’’ कुछू नहीं दीदी, एक बार अउ ’दरसन’ करे गे रहेंन ।’’ अपनी बेल्ट उतारते हुए मैंने कहा। आवश्यक दवाईयाँ लेकर बत्ती बुझाकर लेट गई । मन एकाग्र नहीं हो पा रहा था, दिन भर के क्रिया-कलाप चित्रपट की भाँति नाच रहे थे। ’ एक बार अकेली आने पाती और मन मुताबिक रहने पाती तो बहुत अच्छा होता, इतने बड़े क्षेत्र को कुछ घंटों में कैसे समझा जा सकता है? हम गब्बर माता के दर्शन नहीं कर पाये वह भी एक कसक बाकी रह गई । वैसे तो मेरे लिए भी मुश्किल ही था हजार सीढ़ियाँ चढ़ना, गाइड बुक में मैंने पढ़ा है कि अरावली पहाडियों के दक्षिण पश्चिम में वैदिक नदी सरस्वती का उद्गम स्थल है। वैसे तो हमने बद्रीनाथ में भी भीम पुल के पास ऊँचे पहाड़ की रन्ध्र से गिरते पानी को सरस्वती नदी समझ कर प्रणाम किया था। पूरा शोध किये बिना सत्य का पता कैसे चले?

-तुलसी देवी तिवारी

शेष अगले भाग में-भाग-12 माउण्‍ट आबू का सैर

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