यायावर मन अकुलाया (द्वारिकाधीश की यात्रा)
भाग-13 माँ कात्यायनी अर्बुदा देवी मंदिर दर्शन
-तुलसी देवी तिवारी
माँ कात्यायनी अर्बुदा देवी मंदिर दर्शन
गतांक-भाग-12 माउण्ट आबू का सैर से आगे
आज (19.10.16) का दिन एकदम आराम का था, हम लोग बिना हडबड़ी के तैयार हुए, नाश्ता किया। और एक प्राईवेट बस बुक करके आबू पर्वत की सैर करने चल पड़े।
हनीमून पॉइट –
हम लोग नक्खी झील के उत्तर -पश्चिम में सुमुद्र तट से 4000 फुटकी ऊँचाई पर बसे आबू पर्वत के उस छोर की ओर जा रहे थे जिसे हनीमून पॉइट कहते हैं। पावस की विदाई का समय था,वह आबू को हरियाली एवं रंग-बिरंगे पुष्पों का उपहार देकर अपने जाने का मंसूबा बांध रहा था ।
ऊँचाई पर चढ़ने के लिए सड़कें गोल-गोल होकर ऊपर जा रहीं थीं, बस की खिड़की से मैं पहाड़ की तलहटी देख कर भयभीत हो रही थी। एक जगह ऐसा लगता था जैसे पर्वत पर उल्टा कटोरा रखा है। हम उस स्थान पर जाकर गाड़ी से उतरे, यहाँ एक ओर टीन शेड बना हुआ है। संभवतः आकस्मिक वर्षा से बचने के लिए नगर पलिका की ओर से बनाया गया होगा। वहाँ चौराहा है, इसलिए कि वह एक बड़ी सी चौरस जगह है जिस पर खड़े होकर और लोग भी पहाड़ का नजारा देख रहे थे। यहाँ मानव कृत कई स्थान ऐसे बने हुए हैं जहाँ से नीचे झांका जा सकता है। जमीन को पक्का करकें किनारे-किनारे आड़ी -खड़ी छड़ लगाई गई है ताकि कोई गिर न जाय। दो चार धोड़े वाले अपने ऊचे पूरे घोड़े लेकर पर्यटकों के बीच घूम रहे थे।
लवर्स रॉक –
’’फोटो भाई साब! घोड़े पर बैठ कर फोटो खींचा लो! 10 मिनट में फोटो मिलेगी भाई साब ! समय बीतेगा भाई साब, याद रह जायेगा।’’ वे आवाज देते फिर किसी से भाव पटाते। एक जगह चट्टान पर स्त्री- पुरूष की आकृति प्राकृतिक रूप से बनी हुई है। मैंने हैरत से दांतों तले अंगूली दबाई वह कौन सा चित्रकार है जिसने मानव अंग की एक-एक रेखा को इस चट्टान पर उकेर कर रख दिया! इसे ’लवर्स रॉक’ भी कहते हैं, इसी आकृति के कारण इस स्थान का नाम हनीमून पॉइंट भी पड़ा है। इस स्थान पर अधिक भीड़ थी हम लोग भी वहीं जाकर खड़े हुए थे। और भी आकृतियाँ बनी हैं जिन्हें देखकर सुखद आश्चर्य होता है। यह दो-तीन बड़ी-बड़ी चट्टानों से मिल कर बना है, आराम करने के लिए कई पत्थर पड़े हुए हैं, नव विवाहितों के लिए तो यह एक आदर्श प्रणय स्थली है, प्रकृति का संग और पूर्ण एकान्त । यहाँ से नीचे फैले मैदान हरियाली की चादर ओढ़े बड़े ही मन भावन दिखाई दे रहे थे। यहाँ से एक पगडंडी अनादरा गाँव को भी जाती है , इसलिए इसे अनादरा पॉइंट भी कहते हैं। यहाँ से अनादरा गाँव का दृश्य बड़ा मनमोहक दिखाई पड़ रहा है। सूर्यास्त का दृश्य यहाँ से भी सनसेट पॉइंट जैसा ही दिखाई देता है। हम लोगों ने ग्रुप फोटो लिया। हेमलता ने घोड़े पर बैठ कर फोटे उतरवाया।
प्रकृति की सुंदर कारीगरी पर मुग्ध हम लोग वहाँ से लगी हुई पहाड़ी पर गये जहाँ पार्वती के प्यारे पुत्र विघ्न विनाशक विराज रहे हैं। हमने उन्हें पूरी श्रद्धा से नमन किया। लगा जैसे हाल ही में संगमरमर आदि लगाया गया है जिससे मंदिर की शोभा और अधिक बढ़ गई है। पुजारी ने पूछने पर उसने बताया कि प्रतिवर्ष गणेश चौथ पर यहाँ मेला लगता है। यहाँ से भी सूर्यास्त का दृश्य बहुत सुंदर दिखाई दे रहा है। यहीं से एक पगडंडी क्रेगपॉइंट को गई है।
शंकर मठ अर्बुद विश्वनाथ –
वहाँ से उतर कर हम लोग अपनी बस के पास आये और अब हम लोग शहर के मुख्य बाजार के पास स्थित शंकर मठ पहुँचे। यह लाल पत्थर से बना आबू पर्वत का एक धार्मिक स्थान है । श्री काशी मूर्तिपीठ द्वारा कुमा खेड़ा रोड पर स्थापित इस चमत्कारिक मंदिर के शिखर के ऊपर एक बड़ा सा शिव लिंग है वर्षाकाल में इंद्रदेव स्वयं इसका जलाभिषेक करते हैं। इस मंदिर के विशाल प्रवेश द्वार ने हमारा स्वागत किया। मंदिर में जाने के लिए पक्की पतली सड़क बनी है और सड़क के किनारे सुंदर-सुंदर फूलों का बगीचा है। इसमें लगे गुड़हल के फूलों की दीर्घता देख कर मैं आश्चर्य में पड़ गई। यह मंदिर आयताकार पत्थरों को जोड़कर बनाया गया है, सीढ़ी पर गोमुख बना हुआ है। इस मंदिर में स्थापित देवाधिदेव के प्रतिरूप शिवलिंग को एक पहाड़ी की 35 टन वजनी और 52 फुट ऊँची शिला को प्रख्यात शिल्पकारों ने ,खुदाई, छिलाई और घिसाई करके बनाया है। इसमें ऊपर सफेद जटाएं और मस्तक पर तीन नेत्रों का आभास होता है। यहाँ का शिवलिंग लगभग 11 फुट ऊँचा और 8 फुट की गोलाई वाला है। यह काले सलेटी मार्बल पत्थर से बना है। सन् 1971 में निरंजन अखाड़े के महामंडलेश्वर स्वामी महेषानंद गिरी जी महाराज के कर कमलों द्वारा इसका लोकार्पण हुआ। इन्हें अर्बुद विश्वनाथ कहते हैं इनके सामने ही नंदी महाराज विराजमान हैं उनके समीप ही एक अष्टधातु का त्रिशुल गड़ा हुआ है। हमने प्रभु के इस अद्भुत् रूप को देख कर प्रणाम किया और अपनी यात्रा को सफल माना ।
हनुमान् मंदिर –
आबू कोर्ट रोड से डेढ़ किलोमीटर आगे हनुमान् मंदिर के पास हम लोग अपनी बस से उतरे । पिता तो सर्व व्यापी हैं ही, देश के किसी भी कोने में चले जायँ हम, हनुमान्जी महराज हमारी रक्षा के लिए अवश्य मिलेगे, ये हमारे जीवित पूर्वज हैं इसीलिए हमारे कष्ट जल्दी दूर कर देते हैं इस मंदिर में प्रभु का विग्रह 10 फुट ऊँचा है इनके कंधों पर श्रीराम लक्ष्मण जी विराजमान् हैं लगता हैं प्रभु की सहायता के लिए सुग्रींव से मैत्री कराने ले जा रहे हैं , या तो फिर अहिरावण के हाथों बलि होने से बचा कर ले आ रहे होंगे उनका तो जीवन ही श्रीराम की सेवा के लिए समर्पित रहा और अब उन्हीं की आज्ञा से संसार भर के दुखियों के दुःख दूर करते हैं। मैंने आँखों में आँसू भर कर पिता को कृतज्ञता ज्ञापित की। मेरी जीवन नैया के तो आप ही खेवैया हैंं प्रभु!’’ ,यहाँ महंत श्री त्रिवेदी दास जी ने एक आश्रम बनवाया है जिसमें यात्रियों के ठहरने की अच्छी व्यवस्था है। यहीं से एक रास्ता गौमुख को जाता है। सात सौ सीढ़ियाँ उतरना चढ़ना हमारे बस का नहीं था इसलिए हम इस सुरम्य स्थल तक जाने से रह गये।
वशिष्ट आश्रम –
हम लोग बस से वशिष्ट आश्रम पहुँचे। यहाँ ई. सन् 1337 में चन्द्रावती नगर के सम्राट कान्हण देव द्वारा निर्मित एक मंदिर है। इसमे गुरू वश्ष्ठि जी के साथ उनकी पत्नि अरुंधती और उनके दोनों सुयोग्य शिष्य राम और लक्ष्मण की मनोहारी मूर्तियाँ हैं। हमने उन्हे प्रणाम किया स्वाभाविक इच्छा जाग उठी ’’हे ईश्वर हमें भी एक ऐसा शिष्य दे देते जो हमारा नाम अमर कर देता ।’’
’’पहले गुरू वशिष्ठ तो बनों !’’ मन में किसी ने कानाफूसी की।
म्ंदिर के मुख्य द्वार के पास ही वशिष्ठ जी की गाय नंदिनी की मूर्ति स्थापित है। कहते हैं यहाँ गुरूवशिष्ठ ने घेर तप किया था। आश्रम के सामने स्थित अग्नि कुंड वही पवित्र अग्नि कुंड है जिसमें से राजपूतों के चार वंशों की उत्पत्ति मानी जाती है। दंतकथा के अनुसार जब भगवान् परशुराम ने पृथ्वी को क्षत्रीय विहीन कर दिया तब आबू पर्वत पर रहने वाले ऋषि-मुनियों ने इस अग्नि कुंड में यज्ञ करके देवों की मदद से राजपूतों के परमार, चौहान् सोलंकी ,परमार आदि चार वंशों की उत्पत्ति की इसीलिए क्षत्रीय इसे आज भी अपना पवित्र तीर्थ मानते हैं ।
व्यास तीर्थ-
आश्रम के पास ही एक छोटा सा पातालेश्वर महादेव का मंदिर है, वहाँ भी दर्शन करते हुए हम लोग व्यास तीर्थ आये यह वशिष्ट आश्रम से लगभग एक किलो मीटर की दूरी पर है। यह महाभारत के रचयिता वेदव्यास जी को समर्पित तीर्थ है, कहते हैं यहाँ आकर मूर्ख के भी ज्ञानचक्षु खुल जाते हैं। यहीं पर एक नाले के ऊपर नाग की सुंदर मूर्ति बनी हुई है इसे महानाग अर्बूदा कहते हैं।
आगे गौतम आश्रम, जमदग्नि आश्रम, लखचौरासी जहाँ चट्टानों पर जीव की चौरासी लाख योनियों के पद चिन्ह बने हुए हैं, ये कैसे बने इन्हें किसने बनाया यह आज तक एक रहस्य है। कोदरा डेम, जो दो पहाड़ियों को बांधकर बनाया गया है और वर्ष भर आबू वासियों की जल आपूर्ति के साथ ही सौलानियों के लिये आकर्षण का केन्द्र भी है और जिसकी जल धारिता नौकरोड़ चालीस लाख गैलन है , जिसकी ऊँचाई चार हजार एक सौ सौंतालिस फिट है।
प्रजापिता ब्रह्म कुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय-
हमलोग दर्शन करते हुए आज के युग का तीर्थ ’ प्रजापिता ब्रह्म कुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय पहुँचे। यह नक्खी झील के पास पांडव भवन में स्थित है। यह अन्तर्राट्रीय आध्यात्मिक क्रान्ति का केन्द्र है, यहाँ ईश्वरीय ज्ञान और सहज योग की निःशुल्क शिक्षा दी जाती है। यहाँ के संग्रहालय में दिव्य बुद्धि पर आधारित बहुत सारे चित्र लगाये गये हैं। श्वेत वसना कई बहने यहाँ दर्शकों का मार्ग दर्शन करने हेतु तत्पर दिखाई दीं। पाण्डव भवन के ठीक सामने ओम् शांति भवन है जिसका निर्माण सन् 1983 में हुआ, यह तीन-चार हजार व्यक्तियों के एक साथ बैठने की क्षमता वाला है। यह राजस्थान का पहला, भारत का तीसरा और एशिया का पाँचवा अद्वितीय हॉल है। उस समय भी वहाँ बहुत सारे लोग बैठे हुए थे, हम लोग भी बैठे, एक बहन जीवन को सुन्दर बनाने से संबंधित कुछ बातें बता रहीं थी। जो लगभग 15 मिनट की थी। उसके बाद हमारी जगह अन्य लोगों ने ले ली । यहाँ प्रतिवर्ष फरवरी में एक सभा होती है जिसमें भाग लेने के लिए देश भर के भाई -बहन आते है और दिव्य संदेश लेकर जाते हैं।
विश्व नव निर्माण आध्यात्मिक संग्रहालय-
सूर्यास्त स्थल मार्ग पर विश्व नव निर्माण आध्यात्मिक संग्रहालय है यहाँ शिक्षाप्रद चित्र लगाये गये हैं, एक विशाल चित्र दीवार पर लगा है जिसमें एक मोटा-तगडा अश्व दौड़ रहा है, अनेक रस्सियों से उसकी लगाम बनाई गई है उन सभी रस्सियों को एक मनुष्य ने पकड़ रखा है वह अश्व के साथ जुड़ी हुई गाड़ी पर बैठा हैं । हम लोग चित्र का अर्थ समझने का प्रयास कर रहे थे कि एक बहन जो वहाँ एक सवा मीटर की छड़ी लेकर खड़ी थीं ने हमे समझाना प्रारंभ कर दिया। — ’’ यह घोड़ा हमारा मन है और ये रस्सियाँ जिनसे घोड़े की लगाम बनी है हमारी इन्द्रियाँ हैं और सवार हमारा विवेक है, यदि विवेक लगाम खींच कर रखेगा तो मन इंद्रियों के अनुसार चल कर हमारा पतन नहीं कर सकेगा, अन्यथा हमारा पतन होना निश्चित है। ’’ हमने योग भवन भी देखा, वहाँ एक प्रकार की अनोखी शांति का साम्राज्य था ।
वहाँ से बाहर आकर त्रिपाठी जी मेरे लिए पुस्तकें खरीदने लगे, (आप को पता है कि हमारी यात्रा का प्रमुख उद्देश्य यात्रा संस्मरण तैयार करना है, पुस्तके इसमें परम सहायक होती हैं, हम लोग जहाँ भी दर्शन करने जाते हैं पुस्तकें अवश्य खरीदते हैं। ) उन्होंने पुस्तकें बेचने वाले भाई से नम्रता पूर्वक पुस्तक के संबंध में कुछ जानकारी मांगी, जिसका उत्तर उन्होंने अत्यंत रुक्ष स्वर में या यूं कहे कि उद्दंडता पूर्वक दिया कि वे अवाक् रह गये, वे तो यहाँ के वातावरण और शिक्षाओं को सत्य अथवा सत्य के करीब समझ रहे थे। जिस समय त्रिपाठी जी भाई की तरफ देख रहे थे उसी समय मैं वहाँ पहुँची, सारा माजरा समझ कर मुझे कुछ आश्चर्य नहीं हुआ, मैं किसी सम्प्रदाय विशेष के प्रभाव में आने वाली नहीं हूँ, मेरा अपना स्वयं का विचार है जिसके अनुसार मेरे जीवन का संचालन होता है। मैं कोई कड़वी बात कहती उसके पहले ही त्रिपाठी जी पेमेंट कर चुके थे। हम लोग वहाँ से बाहर निकल आये।
माँ कात्यायनी अर्बुदा देवी (अधर देवी ) मंदिर दर्शन-
महर्षि विश्वामित्र अबूर्दाचल में सौराष्ट्र से आये, दरिया के जल से संत सरोवर का निर्माण किया और उसके किनारे सोमनाथ महादेव की स्थापना की। स्कंदपुराण के अनुसार इस तालाब में स्नान से रोगी रोग मुक्त हो जाता है। इतिहास के अनुसार 1030 में सोमनाथ नामक गाँव से आये ब्राह्मणों ने पहले सोमनाथ जी की फिर दिलवाड़ा मंदिर की स्थापना कीं। हमने बस में बैठे-बैठे ही इन महान् तीर्थो को प्रणाम किया । आगे अब हम आबू की मुख्य देवी अर्बूदा (अधर देवी ) के दर्शन हेतु पहुँचे । यह प्राचीन मंदिर आबू पर्वत के मुख्य बाजार के उत्तर में दो किलों मीटर दूर 4220 फिट की ऊँची एक पहाड़ी पर स्थित है। मंदिर के नीचे कुछ वृक्ष और कुछ दुकाने हैं जहाँ कुछ खाने पीने की वस्तुएं, माँ की पूजा का सामान, बैग आदि मिल रहा था। मदिर के भव्य प्रवेश द्वार के ऊपर ’’ माँ कात्यायनी अबूदा देवी मंदिर प्रवेश द्वार ’’ लिखा हुआ है। द्वार के ऊपर छत डाल कर छोटे-छोटे मंदिर बना कर उनके ऊपर कलश स्थापित किया गया है। दोनों किनारों पर एक-एक और एक बीच में हैं । मंदिर के अंदर प्रवेश करने से पहले हमने देखा कि कौन ऊपर चढ़ सकता है? त्रिपाठी जी के पैर में चोट थी दीदी पैर दर्द की मरीज , बाकी सबको भी कुछ न कुछ परेशानियाँ थीं ।
मैं ऊपर तक जाने के लिए तैयार हुई मेरे साथ प्रभा दीदी भी तैयार हो गई । सब लोगों को नीचे बैठा छोड़ कर हम दोनों ने प्रवेशद्वार के अंदर कदम रखा। हमारे सामने लोहे के पाइप से दो भागों में विभक्त चौड़ी सीढ़ियाँ थी। माँ का नाम लेकर हमने कदम बढ़ाया और चढ़ना प्रारंभ किया । माँ के दर्शन की लालसा मन में उमंग जगा रही थी। जैसे-जैसे हम ऊपर चढ़ते गये आनंददायी पर्वतीय दृश्य हमारे सामने आते गये। दोनों ओर दूर-दूर तक फैली हरियाली, झील, तालाब, मंदिरों के कलश सब कुछ बहुत अच्छा लग रहा था, हम लोग दौड़़ कर चढ़ रहे थे, कभी सीढियों की चौड़ाई पर चलते जिससे पिंडलियों में हल्का आराम मिल जाता । मुख्य मंदिर के प्रवेश द्वार के सामने कुछ दूर से ही दुकाने शुरू हो गई, उन्ही वस्तुओं की जिनकी आमतौर पर तीर्थों के पास होती हैं । अंदर में कुछ कमरे बने हैं जहाँ पीने के पानी की, पुजारी आदि के रहने की व्यवस्था हैं। माता का गर्भगृह एक गुफा के अंदर है, जहाँ बैठ कर जाना पड़ा। हमारे साथ और भी भक्त थे । माता की मूर्ति गुफा की दीवार पर बिना सहारे के ही लटकी हुई प्रतीत हुई, यहाँ इनके सिर के ऊपर एक और मूर्ति है माँ का रूप भक्तों को अभय देने वाला और पापियों का नाश करने वाला है। परमार क्षत्रियों की पूज्या माँ अर्बूदा की छवि का मैंने जी भर कर रसपान किया। उनके सामने एक अखंड दीपक जल रहा था जिसकी उजास में हम दर्शन कर कर रहे थे, वैसे उजाले की व्यवस्था है यहाँ पर । गुफा में और भी बहुत सारे देवी देवताओं की मूर्तियाँ नजर आईं।
मॉं की पूजारन-
माँ की मूर्ति के पास बैठी थी एक वयोवृद्ध, गौर वर्णी, नाटे कद की महिला जिसे देख कर ऐसा लगा जैसे कहानियों में भक्त की रक्षा करने वाली माता ही हों । वे प्रसाद चढ़ा रहीं थीं दे रहीं थी, भक्तों को टीका लगा रहीं थी, गजब की कार्य क्षमता देखी मैंने उनमें मन में जिज्ञासा उधम मचाने लगी। उनके कोमल चरणों में आंँचल रख कर प्रणाम किया मैंने, वह मेरी ओर ध्यान से देखा, और आशीर्वाद दिया-’सदा सुखी रहो बेटी!’’ ऐसा लगा जैसे माँ अबूर्दा ने ही आशीर्वाद दे दिया हो।
’’ माँ! आप का नाम क्या है और कैसे इस दुर्गम स्थान पर आप पुजारी बनी हैं।’’
’’ मेरा नाम कमला देवी मिश्रा है , यह मंदिर मेरे पुरखों का बनवाया हुआ है। मेरे कोई भाई नहीं था सो बचपन से ही पिता के साथ माँ की सेवा में रही। शादी के बाद थोड़े ही दिन में अकेली हो गई । ससुराल वालों ने कहा -’’चुपचाप घर में रहो, हम लोग सब कुछ कर देंगे।’’ परंतु अपने पुरखों का मंदिर मैंने नहीं छोड़ा और सारी जिन्दगी माँ के चरणों में काट दी। ’’ उन्होंने संक्षेप में अपना जीवन वृतांत सुना दिया।
’’ माँ! इतने दिनों बाद यहाँ मिल गई’’ , मेरी आँखों में प्रेमाश्रु भर आये ।
’’मैंं ’मिश्रा’ परिवार की बेटी हूँ मॉं, बहुत समय पहले माता का देहांत हो गया था, आप को देख कर लगा वे मिल गईं मुझे।’ मैंने अपनी आँखें पोछीं।
’’जा बेटी ! माँ अर्बूदा सदा तेरी रक्षा करें , तेरे पाँव में कभी कांटा न गड़े । ’’ उन्होंने दिल से मुझे आशीर्वाद दिया। हमने अपना चढ़ावा उनके हाथ में दिया और प्रसाद लेकर दूसरे भक्तोंं के लिए स्थान रिक्त कर दिया। पंचामृत लेकर गुफा के रास्ते ऊपर आ गये, मन पूरी तरह आनंद विभोर था। मैंने अपनी चप्पल खोज कर पहनी जिसे हम मंदिर के बाहर उतार कर गये थे।
कहते हैं महर्षि वशिष्ठ ने अर्बूद नामक साँप को वरदान दिया था कि तुम सभी देवी देवताओं के साथ आबू पर्वत पर रहो। ऋषियों का वरदान ऐसा ही होता है, देते किसी एक को हैं कल्याण पूरे संसार का होता है।
’’ मोर चप्पल कहाँ गय ओ?’’ प्रभा दीदी की चप्पल नहीं मिल रही थी उन्हेंने अपनी तरफ से खोज लेने के बाद ही मुझसे बताया था। मैंने भी इधर’उधर खोजा लेकिन वे नहीं मिलीं, उन्हे बिना चप्पल के इतनी सारी सीढ़ियाँ उतरनी पड़ी। मैंने अर्बूदाचल की निशानी अपने लिए एक बड़ा वाला बैग खरीद लिया था। नीचे आकर पता चला कि शांतिनाथ दूबे, माया और मीनदास वैष्णव भी अपनी पत्नि के साथ दर्शन करने गये हैं ं हमें भीड़-भाड़ में नजर नहीं आये । मैने अपने बड़ों को प्रणाम करके आशीर्वाद लिया। प्रभा दीदी ने अपने भइया भाभी सहित सभी साथियों को चप्पल चोरी हो जाने का समाचार दिया । देवकी दीदी ने बताया कि ’’बाला जी में हममें से अधिकांश की चप्पलें चोरी हो गईं थी , चलो मौका मिलते ही खरीद लेंगे।’’ लगभग आधे घंटे बाद वे सभी नीचे आये तब हम सभी अपनी बस में बैठ कर ’’ दिलवाड़ा जैन मंदिर के दर्शन करने चल पड़े।
दूध बावड़ी
अर्बुदादेवी मंदिर की तलहटी में एक बावड़ी दिखाई दी पता चला कि इसका नाम दूध बावड़ी है, कहते हैं प्राचीन काल में ऋषि-मुनियों के उपयोग के लिए इसमें दूध भरा रहता था अब जल है । हमने बस धीमी करा कर इसे देखा।
ओरिया महादेव जी का मंदिर
आगे ओरिया महादेव जी का मंदिर आया यहाँ हम लोग बस से उतरे । यहाँ भोले नाथ का एक पुराना मंदिर है, परमार राजा धारावर्ष के राज्यकाल में वि. सं. 1265 में केदार ऋषि नाम के एक साधु ने इसका जीर्णोद्धार किया। यहाँ और भी देवी देवताओं के टूटे-फूटे मंदिर दिखाई दिये जो देख-भाल के अभाव की कहानी कह रहे थे। अब हम लोग गुरूशिखर की ओर बढ़ रहे थे, जो अरावली पर्वत का सर्वोच्च शिखर र्है। समुद्र तल से इसकी ऊँचाई लगभग 5653 फुट है, हिमालय और नीलगिरी के बीच में उठा हुआ यह शिखर आबू से लगभग 15 किलो मीटर दूर है। हम ओरिया से आगे चल रहे थे, लगभग चार किलोमीटर आगे बढ़ने पर हमें विष्णु भगवान् के अवतार दत्तात्रेय जी का मंदिर दिखाई देने लगा। गुरूशिखर के ऊपर बना यह मंदिर प्रकृति की गोद में बसा एक सुरम्य स्थल है । हमारे चहुँ ओर हरियाली का साम्राज्य नजर आ रहा था बीच-बीच में फुलों के बगीचे हमारा मन हर ले रहे थे। गाड़ी से उतर कर मैंनें नजर भर कर अपने आस-पास का जायजा लिया। बहुत सारी सीढ़ियाँ नजर आईं जो- गोल- गोल घूम कर मंदिर तक गईं हैं, जो चढ़ने में असमर्थ थे उन्हें नीचे ही शर्बत की दुकान पर कुर्सी में बैठा दिया गया और बाकी लोग चढ़ने लगे। सीढ़ियाँ चौड़ी हैं उन पर चिकने सलेटी पत्थर जमाये गये हैं। आसपास कंटीली झाड़ियाँ हैं, पहाड़ पर हरे रंग की काई जमी है जिससे दूर से पहाड़ हरा दिखता है । मंदिर के कलश के ऊपर केसरिया ध्वज लहरा रहा है। हमारे जैसे बहुत से सैलानी चढ़ रहे थे। मंदिर के गर्भ गृह में भगवान् दत्तात्रेय की मनोहारी छवि विराज रही है। उनके तीन सिर हैं आगे वाला विग्रह रूद्राक्ष की माला पहने देवाधिदेव महादेव की है, पृष्ट भाग में ब्रह्मा और विष्णु की छवि है। लगता है ये एक हृष्ट-पुष्ट गाय के एकदम सामने उससे सट कर खड़े हैं उनके सामने कई कुत्तें की मूर्तियाँ बैठी अवस्था में हैं, हमने हाथ जोड़कर माता अनुसूइया के लाल को प्रणाम किया।
सती अनुसूइया का सतीत्व-
(प्राचीन काल में महर्षि अत्री की पत्नी अनुसूइया का नाम महान् सती के रूप में सारे ब्रह्मांड में गूंज रहा था । लक्ष्मी ,पार्वती और सरस्वती माताओं को इसमे संसय जान पड़ा, उन्होंने अपने पतियों को अनुसूइया जी के सतीत्व की परीक्षा लेने के लिए भेजा । तीनों देव सन्यासी के वेश में अत्री आश्रम पहुँचे और माता से निर्वस्त्र होकर भोजन कराने का आग्रह करने लगे उस समय ऋषि आश्रम में नहीं थे। माता ने अपने हाथ में जल लेकर उनके ऊपर छिड़क दिया जिसके प्रभाव से तीनो छः -छः माह के शिशु बन कर रुदन करने लगे माता ने बड़े प्रेम से उन्हें स्तनपान कराया । कुछ माह व्यतीत हो जाने पर तीनों देवियाँ मुनि के आश्रम आईं और माता से अपने पतियों को पूर्व रूप में लाने की प्रार्थना की और उन्हें संसार की सबसे बड़ी सती मान लिया। विदा के समय के माता ने कहा- ’हे प्रभु! हम तो वितरागी थे, आप ने आकर हमारे हृदय में वात्सल्य रस का संचार किया आप के जाने के बाद हम कैसे रहेंगे?’’
’’ हे माता हम तीनो के अंश से तुम्हारे एक पुत्र होगा और हमें भी आप का स्नेह मिलेगा।’’ समय पाकर दत्तात्रेय जी का जन्म हुआ, अत्री अनुसूइया की देह से ।
मंदिर में एक अति प्रचीन पीतल का घंटा है जिस पर 1441 का लेख खुदा हुआ है। इसकी ध्वनी बड़ी दूर तक सुनाई देती है। मंदिर में 14वीं शताब्दी के धर्मसुधारक रामानंद जी के पद चिन्ह भी अंकित हैं। इस मंदिर के पास ही माता अनुसूइया जी का मंदिर भी है, हमने इन महासती को प्रणाम किया। मंदिर के प्रांगण से मैने पर्वत की शोभा देखी। मन गद्गद् हो गया। गुरूशिखर के पास ही सेना के राडार लगे हुए हैं । जो सेना की निगरानी में सुरक्षा व्यवस्था करते हैं। यहाँ एक अखंड धूनी जल रही है जिसकी आग कभी नहीं बूझती। यहाँ हमने मंदिर की व्यवस्था में लगे कई स्थूलकाय साधुओं को देखा ।
-तुलसी देवी तिवारी
शेष अगले भाग में- भाग-14 दिलवाड़ा जैन मंदिर दर्शन