यायावर मन अकुलाया-14 (यात्रा संस्‍मरण)-तुलसी देवी तिवारी

यायावर मन अकुलाया (द्वारिकाधीश की यात्रा)

भाग-14 दिलवाड़ा जैन मंदिर दर्शन

-तुलसी देवी तिवारी

dilwada jai mandir
यायावर मन अकुलाया-14 (यात्रा संस्‍मरण)-तुलसी देवी तिवारी दिलवाड़ा जैन मंदिर दर्शन

दिलवाड़ा जैन मंदिर दर्शन

गतांक भाग-13 माँ कात्यायनी अर्बुदा देवी मंदिर दर्शन से आगे

दिलवाड़ा जैन मंदिर दर्शन –

हम लोग नीचे आकर अपने साथियों के साथ बस में बैठकर दिलवाड़ा जैन मंदिर की ओर आगे बढ़े। मार्ग के वन्य श्री की शोभा का नेत्रों से रसपान करते दिलवाड़ा गाँव में स्थित दुग्ध धवल संगमरमर द्वारा निर्मित अति प्राचीन जैन मंदिर जो अपनी वास्तुकला, गढ़न के शिल्प आदि में अद्वितीय है।

दिलवाड़ा जैन मंदिर का इतिहास –

इस मंदिर के बारे में मैंने अब तक बहुत कुछ पढ़ा सुना है। इसके दर्शन की तो कभी कल्पना भी नहीं की थी। इतिहास में वर्णित है कि गुजरात के राजा भीम देव के सेनापति विमलशाह ने कई युद्ध जीत कर गुजरात राज्य की सीमा बढ़ाई और बेपनाह दौलत लूटी। एक समय आया जब युद्ध में हुए नर संहार के लिए वह अपने आप को दोषी मान कर बहुत दुःखी रहने लगा। इसके प्रायश्चित में श्रीधर्मघोष जी महाराज की प्रेरणा से आबू पर्वत पर एक जैन मंदिर के निर्माण की योजना बनी, किंतु यहाँ के ब्राह्मणों ने ये कहकर इसका विरोध किया कि ’’आबू हिन्दुओं का पवित्र तीर्थ है यहाँ जैन मंदिर नहीं बनने देंगे। ’’

विमलशाह ने मंदिर योग्य समस्त भूमि को स्वर्ण मोहरों से ढाँक दिया, इससे ब्राह्मण उनके पक्ष में हो गये, इस प्रकार उन्होंने चार करोड़ तिरपन लाख साठ हजार में इस जमीन को खरीद लिया । इस मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा जैनाचार्य वर्धमान सूरी जी ने 1031 में प्रथम तीर्थाकंर ऋषभ देव जी की प्रतिमा से की।

दिलवाड़ा जैन मंदिर की भव्‍यता-

हमारी बस इस भव्य मंदिर के पास जाकर रुकी । बाहर से तो यह मंदिर भी अन्य मंदिरों की तरह ही दिखाई दे रहा था, प्रवेश द्वार सादा सा है और इसके दाई ओर जैन मुनि की संगमरमर की प्रतिमा विराज रही है। मंदिर के मुख्यद्वार के सामने ही हमने हस्तिशाला देखी, इसका निर्माण पृथ्वीपाल द्वारा सन्1147 में कराया गया था। इसे उसने अपने पूर्वजों की याद में बनवाया था। इसमे संगमरमर के दस हाथियों के बीच विमल शाह की विशाल अश्वारोही मूर्ति बनी हुई है ।

दिलवाड़ा मंदिर के सामने ही मुख्य सड़क के दायीं ओर एक दिगंबर जैन मंदिर, कई श्वेतांबर और दिगबंर धर्मशालाएं हैं हमे रुकना नहीं था इसलिए उधर ध्यान नहीं दिया हमने।

वैसे तो यहाँ प्रवेश निःशुल्क है परंतु यहाँ का अनुशासन बहुत सख्त है। दर्शन का समय दोपहर बारह बजे से शाम चार बजे तक ही है। बारह बजे तक का समय जैन समुदाय की पूजा अर्चना हेतु सुरक्षित रखा जाता है।

मंदिर में किसी प्रकार का हथियार लेकर नहीं जाया जा सकता, खाने-पीने की वस्तुएं , चमड़े का सामान, छड़ी , रेडियो, कैमरा मोबाइल सब बाहर ही क्लाक रूम में सुरक्षित जमा करा दिया गया, हमेंं जगह-जगह लिखा हुआ दिख रहा था धुम्रपान निषेध , किसी भी कलाकृति को हाथ न लगाएं, स्तंभों से टेक न लगाएं कृपया शांति बनाए रखें। आदि, आदि।

दिलवाड़ा जैन मंदिर तद्युगीन हिन्दू संस्कृति के भी द्यांतक –

मैंने सत्य अहिंसा का सिद्धांत देने वाले जैन धर्म के प्रति श्रद्धा से सिर झुकाया। ये मंदिर जैन सांस्कृतिक वैभव के साथ ही तद्युगीन हिन्दू संस्कृति के भी द्यांतक हैं। ये मंदिर संपूर्ण कला को समेटे हुए से लगते हैं, नाना प्रकार के मनोभावों, देवी- देवता , नृत्य करती देवांगनाएं, पशु -पक्षी, फूल- पत्ते आदि- आदि का आभास सजीव जैसा ही हो रहा है, लगता है अभी बोल पड़ेंगे। ऐसी कारीगरी आज तक किसी ने देखी न होगी, हम आँखें फाड़े सब कुछ देख रहे थे। सफेद संगमरमर के इन पांच प्रमुख मंदिरों की शोभा का वर्णन मेरी अल्प बुद्धि नही कर सकती। ये विमल वसहि,लूण वसहि, श्री ऋषभदेव जी,श्री पार्श्वनाथ जी, श्री महावीर स्वामी जी के मंदिर हैं इनमें विमल वसहि और लूण वसहि प्रमुख हैं इन मंदिरों के गुंबजों की छतों पर ऐसी सजावट हुई है कि लगता है जैसे स्फटिक मणि जड़ी हो। मेहराबों को बारीक नक्काशी से सजाया गया है। प्रवेश द्वार की सादगी हमें सुदरता और मोहकता के दिव्य जगत में ले आई थी। इन पाँच श्वेताम्बर मंदिरों में एक श्री कुंथु नाथ जी का दिगंबर जैन मंदिर भी है। आगे हम लोग विमलशाह वसहि मंदिर में गये । मंदिर के चौखट पर ही माथा टेक कर मैने देव से अधिक उन श्ल्पियों के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त की जिन्होंने देव के इतना मनोहर गृह प्रदान किया और देव को इतना सुंदर रूप दिया। एक अत्यंत भव्य खुला हुआ कक्ष जो कला कृतियों से अलंकृत 48 खंभों पर टिका हुआ है इस रंग मंडप की छत में सुंदर झूमर लटका हुआ है। जिससे इस मंदिर की शोभा कई गुना बढ़ गई है। 48 खंभों की कारीगरी की कहीं भी आवित होती नजर नहीं आई। प्रत्येक दो खंभे सजे हुए तोरणों से जुड़े हुए हैं, इनकी छत पर भी भव्य शिल्पकला की नक्काशी हुई है, इसमे बने पशु- पक्षी, देवी- देवता सजीव से लगते हैं। इसके आस-पास की छतों पर सरस्वती, लक्ष्मी, भरत बाहुबली संग्राम, अयोध्या तक्षशिला आदि की सुंदर दृश्यावली उकेरी ग

विमल वसाहि की 59 देवरियाँ –

विमल वसाहि में 59 देवरियाँ बनी हैं जिनमें तीर्थंकरों की प्रतिमायें विराज रहीं हैं । इनके बाहर परिक्रमा पथ में भी अलंकृत छतों की सुंदरता देखते ही बनती है। मंदिर में वैसे तो 121 खंभे हैं जिनमें 30 पर खूबसूरत कारीगरी की गई है। मंदिर के मुख्यद्वार के सामने ही हमने हस्ति शाला देखा था इसका निर्माण पृथ्वीपाल द्वारा सन्1147 में कराया गया था। इसे उसने अपने पूर्वजों की याद में बनवाया था। इसमें संगमरमर के दस हाथियों के बीच विमलशाह की विशाल अश्वारोही मूर्ति बनी हुई है ।

हमने घूम कर देवरियों के दर्शन करना आरंभ किया, पहली देवरी में भगवान् नेमीनाथ की मूर्ति स्थापित है। गुंबज में नर्तक, बादक कमल पुष्प आदि उकेरे गये हैं।
दो से सात में– कलापूर्ण फूलों, पूजन सामग्री, पुष्पहार लिए जैन श्रावक- श्राविकाएं , पक्षियों, बाजा बजाते मनुष्यों की छवियाँ निर्मित की गईं हैं।
आठ में जैन तीर्थंकर के समवसरण की रचना की गई है। नौ में पद्य प्रभु जी के पंचकल्याणक की मूर्ति बनी है। दस में नेमीदाथ जी के जीवन से संबंधित, जैसे – उनकी बारात, दीक्षा व केवल्य ज्ञान प्राप्ति के दृश्य अंकित हैं।
ग्यारह में –विद्यादेवी – महारोहिणीकी 14 हाथ की मनोहारी मूर्ति बनी हुई है।
बारह में – पंचकल्याणक का दृश्य बना हुआ है।
तेरह में खिला हुआ कमल पुष्प एकदम सजीव की तरह बना है।
चौदह से सतरह – पंचकल्याणक दृश्य बने हुए हैं।
उन्नीस- इसमें नृत्य, अभिनय करती नटी, के साथ कमल का फूल बना हुआ है।
बीस में–पहले गुंबज में गजलक्ष्मी,व दूसरे में शंखेश्वरी देवी की सूक्ष्म कारीगरी वाली मूर्तियाँ विराजित हैं।
तेइस में– अम्बिका माता की हृदयहारी मूर्ति निर्मित है।
बत्तीस में श्री कृष्ण के कालिया मर्दन, बाल लीला, शेषनाग, आदि की सुंदर मूर्तियाँ बनी हुई हैं ।
अड़तीस में—सोलह हाथ वाली सिंहवाहिनी विद्यादेवी की संपूर्ण कलाओं से युक्त मूर्ति सुशोभित है।
इकतालिस में—भगवान् शांतिनाथ जी की मूर्ति है श्रीकृष्ण जी के होली खेलने का दृश्य उकेरा गया है।
ब्यालिस में–मयुर पर विराज रही सरस्वती माता ,हाथी पर सवार लक्ष्मी माता एवं गरूड़ पर सवार शंखेश्वरी देवी की सुंदर सुस्पष्ट मूर्तियाँ स्थापित हैं, इनकी रचना में बड़ी बारीकी का परिचय दिया गया है।
तिरालिस में–देवरी के बीच में लक्ष्मी माता तथा इनके आस-पास हंस, मयूर पर बैठे अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियाँ विराज रहीं हैं।
चौवालिस में—नक्काशीदार तोरण व परिकर में वारिषेश प्रभु की सुंदर मूर्ति विराज रही है। गुंबज में कमल के फूल में सोलह नर्तकियाँ बनी हुई हैं।
छियालिस से अड़तालिस –सोलह भुजा वाली देवी शीतला,हंसवाहिनी सरस्वती, एवं पद््मावती जी की मनोहर मूर्तियाँ स्थापित हैं ।
उन्चास–हिरण्य कश्यप वध की सजीव झांकी दिखाई दी ।ं
पचास–श्री शांतिनाथ जी की मूर्ति स्थापित है । गुंबज में अभिषेक का दृश्य उकेरा गया है।
इक्यावन– गुंबजों में बीस खंडो का एक बहुत ही सुंदर शिल्प पट्ट बना हुआ है।
(प्रत्येक प्रतिमा के नीचे उसके नाम सहित महत्त्वपूर्ण जानकारी अंकित है जिन देवरियों में नाम आदि नहीं हैं उसकी जानकारी मुझे प्राप्त नहीं हो सकी।)

’लूण वसहि’ दिलवाड़ा मंदिर का एक और आकर्षण

दिलवाड़ा मंदिर से दौ सौ वर्ष पश्चात् गुजरात के सोलंकी राजा वीरधवन के मंत्री द्वय वस्तुपाल और तेजपाल द्वारा अपने भाई के नाम पर बनवाये गये ’लूण वसहि’ दिलवाड़ा मंदिर का एक और आकर्षण है। सन् 1230 में 12 करोड़ तिरपन लाख रूप्ये की लागत से गुजरात के श्रेष्ठ कारीगर शोभन देव व उसे 1500 सौ साथियों की दिन-रात की मेहनत से सात साल में बना यह मंदिर आकार में विमल वसहि से छोटा किंतु कला की दृष्टि से श्रेष्ठ है। यह जैन धर्म के बाइसवें तीर्थंकर श्री नेमी नाथ जी को समर्पित है। इसकी प्राण प्रतिष्ठा सन् 1343 में मुनि श्री विजय सेन सुरी जी महाराज द्वारा हुई ।

हम लोग लूण वसहि मंदिर में प्रवेश कर रहे थे। कहने में संकोच नहीं कि इस मंदिर की दीवारों,स्तंभों, तोरणों, एवं छत के गुंबजों पर महान् कारीगरों द्वारा छेनी हथौड़ी से सफेद संगमरमर को तराश कर बनाये गये बेल-बूटे , झाड़-फूल- पत्ती, हाथी- घोड़े, ऊँट, बाघ , सिंह, मछली, पक्षी नर-नारी, एवं देवी- देवताओं की अनेक मूर्तियों के साथ-साथ,राज दरबार, बारात , विवाहोत्सव , आदि के दृश्य एकदम सजीव से लग रहे हैं। मैंतो जैसे किसी अन्य लोक में भ्रमण कर रही थी। पत्थर के कठोर धरातल को तराश कर ऐसी कोमलकांत रचना करना अद्भुत् है। यह मुझें प्यारा एहसास दे रहा था।

लूण वसहि के गर्भगृह के मंडप के मुख्य दरवाजे के दोनो ओर दो आकर्षक आले बने हुए हैं इनकी सुंदरता बेजोड़ है। ये देवरानी – जेठानी के आले हैं । उनकी स्पर्धा के कारण उस समय इनके निर्माण में 18 लाख का खर्च आया था।

लूण वसहि मंदिर की 49 देवरियाँ –

इस मंदिर में भी देवरियाँ बनी हुई है जिनकी संख्या लगभग 49 है। हम लोग इनके दर्शन करते हुए आगे बढ़ने लगे-

पहली देवरिया – इसके छत में दोनों बृक्ष बने हैं और बीच में माँ अंबिका देवी की सुंदर मूर्ति बनी है। पत्थर को छिल करके ही एक- एक अंग और आभूषणों की रचना की गई है।
दूसरी एवं तीसरी देवरिया- यहां नर्तकियाँ, हंस, पुष्प आदि के सुंदर पट्ट बनाये गये हैं ।
चौथे से छठवे देवरिया– गुंबजों के कोनों में सुदर युगल मूर्तियाँ बनाई गईं है ।
नौवां-समवसरण रचना, द्वारिका नगरी, जैन संघ का गिरनार पर्वत, और उसका दृश्य ।
ग्‍यारहवां–भगवान् नेमी नाथ के जीवन प्रसंग, विवाह दीक्षा आदि का हू ब हू दृश्यांकन किया गया है।
चौदह से सोलह—भगवान् पार्श्वनाथ जी व शंतिनाथ जी के जीवन पट्ट आदि बनाये गये हैं

उन्‍नीसवें-भगवान् कुंथु नाथ जी की मूर्ति, भगवान् मुनि सुव्रतनाथ जी के जीवन से संबंधित कथा पट्ट बनाये गये हैं।

तेईस से तीस- अन्यान्य कलात्मक रचनाएं तैयार की गईं हैं।
तैंतीस से पैंतींस–परिकर सहित अन्य तीर्थंकरों की सुंदर मूर्तियाँ बनाई गईं हैं।
छत्‍तीस- वीणावादिनी की मनोहर मूर्ति स्थापित है।
तिरालिस से पैंतालिस-विभिन्न कलाकृतियाँ बनी हुई हैं।
छियालिस से उन्‍चास- देवरी में गुंबज को बहुत ही कलात्मक ढंग से सजाया गया है। शेष बची देवरियाँ समय के प्रभाव से अपना परिचय नहीं दे पा रहीं हैं ।

लूणवसाहि मंदिर में भी एक विस्तृत हस्तिशाला है, हम लोग उसे देखते हुए आगे बढ़ने लगे। इसके दस ख्ांड गिने गये, प्रत्येक खंड में एक- एक संगमरमर के हाथी बने हैं जिन पर वस्तुपाल,तेजपाल , उनकी पत्नियों एवं रिश्तेदारों की जीवंत मूर्तियाँ बनी हुई हैं इसके बीच में चौमुखे मंदिर में जैन मूर्तियाँ स्थापित हैं। हम लोग लूणवसाहि के बाहर आये दरवाजे पर बाईं ओर एक चबुतरे पर एक कीर्ति स्तंभ बना हुआ है । लूण वासाहि मंदिर के बाहर दायीं ओर दिगंबर मंदिर स्वामी कुंथुनाथ जी को समर्पित है। पास ही चौदहवीं शताब्दी में गुजरात के भीमा शाह द्वारा बनवाया गया मंदिर , प्रथम जैन तीर्थंकर भगवान् ऋषभ देव जी को समर्पित है। यहाँ उनकी 108 मन वजनी पीतल की प्रतिमा स्थापित है। इसे पीतल हर मंदिर भी कहते हैं। मंदिर की वर्तमान् मूर्ति अहमदाबाद के सुल्तान मोहम्मद वेगड़ा के मंत्री सुंदर व नंदा ने विक्रम संम्मत 1525 में स्थापित करवाई थी। आगे हम लोग पार्श्वनाथ जी के मंदिर गये यह एक तीन मंजिला मंदिर हैं इस मंदिर में उनकी चौमुखी प्रतिमा विराजित हैं।इसीलिए इसे चौमुखा मंदिर भी कहते हैं। इस मंदिर के बारे में जनश्रुति है कि दिलवाड़ा मंदिर बनाने वाले कारीगरों ने इसे बिना पारिश्रमिक के अवकाश के समय बनाया था। इसकी प्रचीनता का अनुमान नहीं लगाया जा सका हैं लोगों का मानना हे कि इसे खतरगच्छ के श्रावकों ने बनवाया था।इस मंदिर के चारों ओर अनेक देवी-देवताओं ,यक्षिणियों आदि की मनमोहक मूर्तियाँ बनी हैं। इस मंदिर की प्रतिष्ठा जिनचंद्र सुरि जी द्वारा सन् 1458 में हुई थी।

रसिया बालम और कुंआरी कन्या का मंदिर

ऋषभ देव जी के मंदिर के पास ही एक छोटा सा मंदिर जैन धर्म के अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी जी का है। दिलवाड़ा मंदिर के दक्षिण में थोड़ा आगे जाने पर प्रकृति के शांत सुरम्य वातावरण में आबू के अमर प्रेमियों का मंदिर बना हुआ है। इसे रसिया बालम और कुंआरी कन्या का मंदिर कहते हैं। कुंआरी कन्या के मंदिर के सामने ही उसके अन्नय प्रेमी रसिया बालम की मूर्ति बनी हुई है। (रसिया बालम की कहानी नक्की झील वाले प्रकरण में लिखी जा चुकी हैं)यहाँ आस-पास कई गुफाएं हैं। जो जल गुफा, पांडव गुफा, व भीम गुफा आदि के नाम से जानी जातीं हैं, कहते हैं वनवास काल में पांडव लोग कुछ समय यहाँ भी वास किये थे।

यहाँ से दो किलोमीटर आगे 1894-95 में सिरोही के महाराजा ने राजपूताने के गवर्नर जनरल कर्नल ट्रेवल की पुण्यस्मृति में दिलवाड़ा से दो किलोमीटर दूर उत्तर में ट्रेवलताल बनवाया था यह यक सुंदर पिकनिक स्पॉट है , समयाभाव के कारण हम लोग उधर न जा सके ।

-तुलसी देवी तिवारी

शेष अगले भाग में- भाग-15 अचलगढ़ की यात्रा

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