यायावर मन अकुलाया (द्वारिकाधीश की यात्रा)
भाग-16 अहमदाबाद की यात्रा
-तुलसी देवी तिवारी
गतांक से आगे-यायावर मन अकुलाया-15
अहमदाबाद पहुँचना-
अगले दिन सुबह-सुबह मुँह अंधेरे ही हमारी गाड़ी गुजरात की व्यापारिक राजधानी अहमदाबाद पहुँच गई। अहमदाबाद का भव्य और आधुनिक रेलवे स्टेशन जनरव से छलका पड़ रहा था। सब अपनी धुन में मस्त! सब जल्दीबाजी में, एक दूसरे के पास-पास किंतु एक दूसरे से अजनबी। हम लोग साथ- साथ चलने की कोशिश कर रहे थे क्योंकि इस भीड़ में साथ छुटा तो व्यर्थ की परेशानी आ उपस्थित होगी। मैंने देवकी दीदी का हाथ पकड़ रखा था, प्रभा दीदी बगल में चल रहीं थीं। आगे- आगे .त्रिपाठी जी सामान सहित चल रहे थे, पीछे हेमलता थी । हम लोग स्टेशन से बाहर आये और दो ऑटो करके शहर की ओर चल पड़े। मुझे पता न चला कि कैसे किसने हमारे लिए होटल बुक किया हम पुराने बाजार में होटल नियाग्रा के पास जाकर ऑटो से उतरे। अब उजाला हो चुका था। सफाई कर्मचारी मार्ग की सफाई में लगे हुए थे जिसके कारण धूल उड़ रही थी। कूड़े के ढेर ने कानों में धीरे से बता दिय कि यह अल्पसंख्यक लोगों का मुहल्ला हैं। होटल नियाग्रा ऊपर की मंजिलों पर है, नीचे की मंजिल पर दुकाने हैं जो उस समय बंद थीं। हम लोग अपने कमरों मे जाकर थोड़ा आराम करने लगे।
अहमदाबाद की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि-
मेरे मन में प्रसन्नता की एक लहर सी उठ रही थी। आज मैं महात्मा गांधी की कर्मभूमि में थी, उनके राष्ट्रसेवा रुपी यज्ञधूम से आने वाली सुगंध मैं अनुभव कर रही थी। यह एक प्राचीन नगर है जिसका आधुनिकीकरण हो चुका है। वस्त्रउद्योग के लिए जाना जाने वाला अहमदाबाद लगभग एक लाख लोगों को रोजी-रोटी देता है। अहमदाबाद के बापू नगर में हीरा उद्योग की प्रबल संभावनाएं देखी जा रहीं हैं, वैसे पहले से भी यहाँ हीरे की कटाई छिलाई में हजारों कारीगर लगे हुए है। आगे हजारों को रोटी देने की योग्यता इस उद्योग में है। पुण्य सलिला साबरमति नदी के तट पर बसा यह नगर अपने ऐतिहासिक महत्त्व के कारण पूरे देश में प्रसिद्ध है। अहमदाबाद गुजरात का सबसे बड़ा और देश का सातवें नम्बर का शहर है। इसकी जनसंख्या 51 लाख के लगभग है, प्राचीन काल में यहाँ कर्णदेव का राज्य था, उन्होंने ही इस शहर की नींव रखी थी और अपने नाम पर इसका नाम ’कर्ण्ावती’ रखा था कालान्तर में अहमदशाह प्रथम ने आक्रमण करके इस राज्य को जीत लिया और इसका नाम बदल कर अहमदाबाद कर दिया। यह घटना सन् 1411 की है। बाद में पूरे देश के अन्य राज्यों की तरह अहमदाबाद भी अंग्रजों के अधीन हो गया। गुलामी की बेड़ियों को काटने के लिए धारदार हथियार इसी शहर से प्राप्त हुए ।
अहमदाबाद में भोजन की तलाश-
सब लोगों के तैयार होते-होते दोपहर हो गई , आज सब काम आराम से हो रहा था, कल की थकावट हम पर हावी थी। हम लोग एक बजे के करीब होटल के अपने कमरों में ताला डाल कर भोजन की तलाश में निकले । मुझे मीठे भोजन का भय सता रहा था। इस समय चौड़ी सड़कें वाहनो से भरी हुई थी। सारी दुकाने खुल गईं थीं । हमारे सामने बहुमंजिली दुकाने थीं, जहाँ ज्यादातर थोक सामान बिकता है। होटल की पहली दुकान में मोबाइल शॉप है आप को बता दूँ कि जब से बिलासपुर छोड़ा था मेरा मोबाइल बंद हो गया था। मुझे मजबूरी में किसी दिन पटेल जी किसी दिन त्रिपाठी जी के मोबाइल से घर समाचार भेजना पड़ता था। दुकान देखकर मन हुआ कि मोबाइल दिखा दूँ किंतु पेट में धमाचौकड़ी मचाते चूहों ने मुझे ऐसा करने नहीं दिया। हम लोग होटल की दाईं ओर फुटपाथ पकड़े पैदल-पैदल चले। किसी से पूछने पर पता चला कि आगे ’झूलेलाल’ नाम का होटल है, वहाँ के खाने में मीठा नहीं रहता , बस हम लोग आगे-आगे ही बढ़ते गये। लगभग दो किलोमीटर पर वह होटल मिल गया, जो सड़क के मोड़ पर था। वहाँ जाकर देखा तो भीड़ देखकर छक्के दूट गये। बड़े-बड़े भगोनो में आलू मटर की सब्जी बन रही थी, सांय-सांय रोटियाँ तवे से उतर रहीं थीं । धड़ाधड़ परोसी जा रहीं थीं लोग खाते जा रहे थे। काउंटर पर पैसे की बरसात हो रही थी, पता चला कि वहाँ खाना प्रति थाली 70 रूपये मिलता है। थोड़ी देर की प्रतीक्षा के बाद हमे अंदर बैठने की जगह मिल गई । खाने में नमक मिर्च बिल्कुल हमारी पसंद का था । थाली लगने में कुछ विलम्ब अवश्य हुआ किंतु तृप्ति मिली खाकर ।
हम लोग टहलते हुए होटल तक आये। कुछ देर आराम के बाद थोड़ा बहुत आस-पास ही घूमने के इरादे से नीचे उतरे । उस समय शाम हो गई थी। सड़क पर तिल धरने के लिए भी जगह नहीं थी। वाहन धीरे-धीरे चींटी की चाल से सरक रहे थे। बस जिधर देखो उधर सिर ही सिर दिखाई दे रहा था। मैने दुकान में अपना मोबाइल दिखाया, उसे कुछ समझ में नहीं आया। हमने सोचा देखते हैं घर के लिए कुछ ठीक- ठाक मिल गया तो ले लेंगे। हम लोग होटल के बांये चले, थोड़ी ही दूर पर एक बहुत बड़ा खुला बाजार हैं, नये पुराने डिजाइन की रंग- बिरंगी पोशाकें देखकर मन ललचाने लगा। जिन के घर छोटे बच्चे थे वे बच्चों के कपड़े खरीदने लगे। एक जगह पेटीकोट बिक रहा था, हम लोगों को भाव और कपड़ा दोनों ठीक लगा। सभी महिलाओं ने दो-दो चार-चार खरीद लिया। हेमलता ने सबसे ज्यादा खरीददारी की। वहाँ पास ही विष्णु भगवान का एक मंदिर है पटेल गुरू जी दर्शन करने चले गये। उनके पीछे हम लोग भी देव के दर्शन कर आये। किसी तरह भीड से निकले तो आगे एक पुल के फुटपाथ पर जाकर रुके वहाँ एक दुकानदार एक हाथ ठेले में गन्ना रखे रस निकाल कर बेच रहा था। हमने गन्ना रस पीकर अपनी प्यास बुझाई । यह वहाँ का गोल बाजार है पुल के उस पार भी दुकाने हैं हमने घूम-घूम कर कई जगह दाम पूछ, देखा गया कि सारी चीजें हमारे बिलासपुर में भी दस-पाँच के अंतर से मिल जातीं हैं । मैने सामान ढोने के भय से अपने आप को खरीददारी से रोका। साढ़े नौ बजे हम लोग होटल आ गयेंं अपने- अपने परिवार को अपने कुशल से होने की सूचना दी । अगले दिन के लिए पोशाक निकाल कर रख दिया गया । पास में रखे नाश्ते में से निकाल कर थोड़ा-थोड़ा खाकर पानी पीने के बाद दवाइयाँ ली । मैंने पानी की बोतल के लिए होटल के कर्मचारी से कहा । यहाँ भी मैं देवकी दीदी ,प्रभा दीदी और माया एक कमरे में थे। अगले दिन हमें अहमदाबाद के मुख्य- मुख्य दर्शनीय स्थानों के दर्शन करने थे। मुझे कब नींद आई पता भी नहीं चला।
साबरमती आश्रम –
दूसरे दिन तैयार होकर लगभग सात बजे हम लोगों ने अपने सामान सहित होटल छोड़ दिया दो ऑटो में बैठकर सब जगह घूमने के बाद हमे शाम को रेलवे स्टेषन जाना था जहाँ से हमे आगे की यात्रा करनी थी। रास्ते में झूलेलाल के यहाँ जलपान किया गया। उसके बाद ताजादम प्रसन्नचित्त हम लोग बस में बैठ गये। एक ओर श्मशान् और एक ओर जेल बीच में साबरमती आश्रम ।
सबसे पहले हम साबरमती आश्रम गये । बचपन से गाते आये हैं —
दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल ,
साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल।
फिल्म जागृति की पंक्तियाँ गुनगुना उठी मैं । स्कूल में अक्सर कार्यक्रमों में हम यह अीत गाया करते थे। आश्रम के द्वार पर पहुँते पहुँते मन आनंदातिरेक से भर उठा लगा जैसे यह स्थान जन्म-जन्म से मेरा अपना है। वे बहुत सारे जीवन मूल्य जो मेरे जीवन को संचालित करते हैं वे इसी स्थान से निःसृत हुए हैं। आज वे मेरे अपने बन चुके हैं जिनसे कभी दूर का भी नाता नहीं था। हम मोहनदास करमचंद गांधी की तपोभूमि के द्वार पर खड़े थे हमारे लिए द्वार खुला था शायद वह भी लम्बे समय से हमारी प्रतीक्षा कर रहा था। सादगी से परिपूर्ण दरवाजा पार करने से पहले मैंने उस पुण्य भूमि की धूल उठा कर माथे से लगाया जिसने भारत का भाग्य ही बदल दिया। अपने आकर्षण से देशभक्त मनिषियों को अपनी ओर खींचा और एक शक्ति पूंज का दर्शन सारी दुनिया को कराया।
साबरमती आश्रम का ऐतिहासिक पृष्ठभूमि-
दक्षिण अफ्रिका में सत्याग्रह का सफल प्रयोग करने के बाद अपने देश भारत की दुर्दशा से दुःखी गांधी जब 1915 में भारत आये तब अपने कार्य क्रमों के संचालन की सुविधा के लिए कोचरब में जीवनलाल देसाई की कोठी के एक बड़े हिस्से में सत्याग्रह आश्रम की स्थापना की। यह स्थान साबरमती आश्रम से मात्र आठ किलो मीटर दूर अहमदाबाद में ही है। गांधी जी ने दक्षिण अफ्रिका मे रहते हुए वहाँ फिनिक्स आश्रम की स्थापना और सफल संचालन किया था। उन का मानना था कि हमारी शिक्षा हमारे अनुकूल होनी चाहिए अेग्रेजी शिक्षा से देश का भला नहीं हो सकता। दक्षिण अफ्रिका में रहते हुए उन्होंने जो अपने पुत्र हरिलाल और मणिलाल को अंग्रेजी शिक्षा से दूर रखा इसके कारण आजन्म उन्हें अपने पुत्रों का विरोध झेलना पड़ा। उस समय ऐसे आश्रमों का देश में अभाव हो गया था जहाँ व्यक्तित्व के बहु आयामी विकास की अवधारणा क्रियाशील हो। गांधी जी सत्याग्रह आश्रम को कृषि, पशुपालन, कुटिर उद्योग, पूर्ण स्वावलंबन , की प्रयोग शाला बनाना चाहते थे किंतु वहाँ उतना स्थान नहीं था, इसीलिए सन् 1917 में साबरती नदी के किनारे 100 एकड़ भूमि में इस आश्रम की नींव रखी। पहले केनवास के खेमे रहने के लिए और टीन की छत वाला रसोई घर बना कर रहना प्रारंभ किया था उन्होंने , उनके साथ उस समय 25 लोग थे जो उनके सिद्धान्तों के अनुसार जीवन जीना चाहते थे। बाद में यह संख्या 40 हो गई।
वे आश्रम के जीवन को सत्य अहिंसा, आत्मसंयम विराग एवं समानता पर आधारित रखना चाहते थे, विभिन्न जाति धर्म के लोगों के साथ छुआछूत रहित व्यवहार वहाँ अपरिहार्य था। आश्रम जीवन सामुदायिक विकास की प्रयोगशाला बने इसके लिए चरखा, खादी ग्रामोद्योग द्वारा , राजनितिक, आर्थिक सुधार लाना चाहते थे। अहिंसात्म आंदोलन द्वारा स्वतंत्रता के लिए संर्घष को आगे बढ़ाना चहते थे। यहाँ रहते हुए मिलों में हुई हड़ताल का सफलता पूर्वक संचालन कर सके। आश्रम में रहते हुए ही खेड़ा सत्याग्रह संचालन भी सम्पन्न किया। यहाँ उन्होंने रोलेट एक्ट के विरोधी राष्ट्रीय नेताओं का एक समेम्मलन बुलाया जिसमें सभी से सत्याग्रह प्रतिज्ञा पर हस्ताक्षर करवाया था।
दो मार्च सन् 1930 को भारत के वाइसराय को पत्र लिखा- कि मैं नौ दिन का सविनय अवज्ञा आंदोलन प्रारंभ करने जा रहा हूँ । बारह मार्च सन् 1930 को 78 लोगों के साथ डांडी मार्च किया और वहाँ अपने कटोरे में नमक बना कर सरकार का नमक कानून भंग किया। उनके इस साहस से ब्रिट्रिश शासन की चूलें हिला दी । इसके बाद जीवन में बापू कभी साबरमती आश्रम कभी नहीं आ सके। उन्होंने प्रतिज्ञा कर ली कि जब तक देश आजाद नहीं हो जाता वे आश्रम में पैर नहीं रखेंगे। गांधी जी गिरफ्तार कर लिए गये , सभी आन्दोलनकारियों की सम्पत्ति जब्त कर ली गई, गांधी जी ने आश्रम भी ले लेने के लिए सरकार से कहा किंतु जनभावना के मद्दे नजर सरकार ऐसा न कर सकी। गांधी जी ने आश्रम वासियों को आश्रम खाली करके गुजरात के खेड़ा जिले के वीरसद गाँव के पास रास ग्राम पैदल जाकर बसने के लिए कहा किंतु ऐसा नहीं हो सका , एक अगस्त सन् 1933 को मार्ग में ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। गांधी जी ने साबरमती आश्रम भंग कर दिया। बहुत समय तक आश्रम जन श्ून्य रहा। बाद में इस स्थान का प्रयोग हरिजन और पिछड़े वर्ग के शिक्षण एवं प्रशिक्षण के लिए किया जाने लगा। हम लोग उस दिन के पहले दर्शनार्थी थे, मुस्किल से साढ़े आठ बज पाये थे।
साबरमती आश्रम का मनोरम दृश्य-
शरदऋतु का सूरज आश्रम के गगन चुंबी वृक्षों की ओट से झांक रहा था। उसकी छिटकी हुई किरणे वि.चत्र चित्रकारी कर रहीं थीं। पूरा परिसर पक्का है, स्वच्छता ऐसी कि खोजे से भी नीचे गिरा हुआ पेड़ का एक पत्ता न मिले । घने दरख्तों में छिपे पक्षी कलरव कर रहे थे। कौए, गौरैया, कबूतर, कठफोड़वा अदि की बोलियाँ तो मैं पहचान रही थी किंतु बहुत से अनजाने स्वर मन को आमोद से भर रहे थे, गिलहरियाँ परिसर में निर्द्वंद्व होकर एक दूसरे के पीछे भाग रहीं थीं लगता था कोई खेल खेल रहीं है।
वृक्षों के लिए चबूतरे बने हुए हैं जो बैठने के काम भी आते हैं। एक चबूतरे पर गांधी जी की जीवंत मूर्ति स्थापित है। एक जगह गांधी जी के तीन बंदरों की मूर्तियाँ हैं जिनमें एक ने अपना मुँह बंद कर रखा है तो दूसरे ने अपनी आँखें और तीसरे ने अपने कान बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो का संदेश देते बंदरों की कहानी हम बचपन से ही सुनते समझते आये हैं, बड़ा अच्छा लगा यहाँ इन्हें देख कर। एक ऊँचे से दीवारनुमा चबुतरे पर डांडी मार्च का दृश्य जीवंत किया गया है। सारी मूर्तियों के आगे गांधी जी की मूर्ति बनी है। लाइन से बहुत सारे कमरे बने हुए है जिन्हें खपरैल से छाया गया है। कमरे उस समय बंद थे। संग्रहालय का दरवाजा खुुला था। हमारे बाद और कुछ लोग आ चुके थे। जो हमारे आगे पीछे घूम रहे थे।
साबरमती नदी
संग्रहालय के दरवाजे को देखते-देखते मेरी नजरें साबरमती नदी के नीर आपूरित पाट की ओर उठ गईं जो पास ही बह रही थी उसकी लहरों पर मचलती रविरश्मियाँ अठखेलियाँ कर रहीं थीं। मैंने देश के कई शहरों की यात्रा की है, बड़ी-बड़ी नदियों को देख कर आँसू बहाया है, गंगा, यमुना, महानदी आदि जीवन दायिनी नदियाँ जहाँ आज मानव की स्वार्थपरता के कारण नाले का रूप ले चुकीं हैं वहीं साबरमती नदी स्वच्छ जल से लबालब भरी हुई है ऐसा देख कर मन हर्षित हो गया। उन व्यक्तियों के लिए मन से आर्शीवाद निकला,जिनके अथक प्रयास से ऐसा पावन कार्य संपन्न हो सका। । जल पर एक तिनका भी तैरता हुआ न दिखा, बस हौले- हौले बहती हवा उस जल की सतह को हौले- हौले सहला रही थी जैसे स्पर्श करने में भय खा रही हो आगे का तो मैंने नहीं देखा पर जहाँ तक नजर गई वहाँ तक स्टील पाइप का डिजाइनदार बेरिगेट लगा हुआ है और एक बंदूकधारी खाकी वर्दी वाला सतर्कता पूर्वक उस साहसी जीव की प्रतीक्षा कर रहा था जो नदी का स्पर्श करने का दुःसाहस करे, और वह उसे खुदागंज का मार्ग दिखाये। वास्तव में ऐसी कड़ाई से ही नदियों का जीवन बचाया जा सकता है। साबरमती का दर्शन ही उसमें स्नान करने इतना पुण्यकारक लगा मुझे। मैंने नदी का स्पर्श तो नहीं पाया किंतु उसे छूकर आती शीतल पवन को अपने नथूनो के द्वारा अपने फेफड़े में भर कर उसे अपने हृदय से अवश्य लगाया। मेरे सारे साथी आश्रम में इधर- उधर बिखरे मन भावनी सूचनाएं पढ़ रहे थे यहाँ तो पूरा इतिहास ही बिखरा पड़ा था, बस बटोरने की आवश्यकता थी।
गांधीजी का संग्राहलय-
हम लोगों ने संग्रहालय में कदम रखा, पहले कदम पर ही मुझे लगा जैसे बापू से मुलाकात हो रही है। मेरी नजर चरखा कातते बापू पर जाकर ठहर गई । उन्होंने अपनी जरूरत भर कपड़े के लिए सूत कातने का लक्ष्य प्रत्येक भारतीय के समक्ष रखा था। आज उनकी कर्मभूमि अहमदाबाद देश भर के वस्त्रों की आपूर्ति करने का दम रखता है, ऊन की कताई- बुनाई में बढ़ा- चढ़ा है। लाखों लोग देश भर से यहाँ रोजी- रोटी की तलाश में आते हैं और अपना मनोरथ सफल करते हैं। कमरे में गांधी जी के जन्म से लेकर अवसान तक के चित्र लगाये गये ह। मेरा जीवन मेरा संदेश शीर्षक दिया गया है, आठ नेताओ के चित्र लगे हैं जिनमें बापू सबसे विचार विमर्श करते दिखाई दे रहे हैं। पुस्तकालय भी है जिसमें 80 से अधिक पत्रिकाएं , 34117पत्र, 8781 पृष्ठ की पांडु लिपि रखी गई है । यंग इंडिया, नवजीवन तथा हरिजन में लिखे गये लेखों की मूल प्रति भी सुरक्षित दिखाई दी । भारत से लेकर विदेशों में दिये गये व्याख्यानों के लगभग 100 पृष्ट संगृहित हैं। इस पुस्तकालय में साबरमती आश्रम की 4000 और महादेव देसाई के प्रकाशन की 3000 हजार पुस्तकें संगृहित हैं। मैंने पुस्तकों के साथ थोड़ा समय बिताया, एक पुस्तक ’ ’गांधी को किसने मारा’ खरीदी ,इसके साथ खादी की रूमालें, कलमें हस्तशिल्प की और कई वस्तुएं खरीदीं। मेरे साथी भी अपनी रुचि का सामान खरीद रहे थे। इस समय मेरी जबान बंद थी, लेकिन अंदर मैं बहुत मुखर थी। मैंने अनुभव किया कि कैसे महात्मा जी ने तिल-तिल कर जोड़े गये अपने नीड़ को देश हित में त्याग दिया होगा, हिमालय के समान मनोबल वाले बापू ने अपना सारा जीवन विपरित परिस्थितियों में गुजारा, लम्बे समय तक गुलाम रहने के कारण देशवासी आजादी का स्वाद तक विस्मृत कर बैठे थे, उन्होंने गोरे साहब को भगवान् मानना और उसके लम्बे जीवन के लिए ईश्वर से प्रार्थना करना सीख लिया था। बापू ने चरखे के माध्यम से उन्हे आजादी के एहसास से परिचित कराया।
’’ जब हम चरखा चलाते हैं तब अपने मन का काम करते हैं इसका हमें लाभ मिलेगा, काते गये धागे से कपड़े बुने जायेंगे जिससे हमारा तन ढंकेगा , ऐसे ही जब सारे काम हम अपनी इच्छा से कर सकेंगे तब हमारा जीवन कितना अच्छा होगा ? उसे पाने के लिए हमें आजाद होना होगा, उसके लिए अहिंसात्मक संघर्ष अपरिहार्य हैं ।’’
गांधी स्मारक
बाहर आकर हम लोग अन्य संरक्षित कक्षों को देखने लगे, जिनका संबंध गांधी जी की भावना से था। देश की आजादी के लिए अपना जीवन न्याैछावर करने वाले बापू की 30 जनवरी 1948 को दर्दनाक शहादत से स्तब्ध देश उन्हें श्रद्धांजली देना चाहता था उनका स्मारक बनाकर । साबरमती आश्रम से अधिक कौन सा स्थान होगा जिसे बापू वे अपनी आत्मा का प्यार दिया हो? अतः एक राष्ट्रीय स्मारक की स्थापना की गई । गांधी स्मारक निधि नामक संस्था ने ही आश्रम को यह नया रूप दिया है जिसे देखकर हम गांधी जी के जीवन और उनके संदेश से परिचित हो पा रहे हैं। सन् 1951 में साबरमती आश्रम में सुरक्षा एवं स्मृति न्यास का ऑफिस बना, उसी समय से यह न्यास गांधी जी के निवास,—वह जो सामने है,–’ हृदय कुंज’ जहाँ बा-बापू 12 से 13 वर्ष तक रहे, उपासना भूमि, नामक प्रार्थना स्थल, और मगन निवास है , इसकी रक्षा सार संभाल यही संस्था करती है। 10 मई सन् 1963 में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इस विशाल संग्रहालय का लोकार्पण किया। , उस समय के चित्र भी देखने को मिले थे हमें । हम लोगों ने थोड़ी देर पेड़ों की सघन छाया में बैठ कर सुखानुभूति प्रांप्त की।
अक्षर धाम मंदिर
अब हम लोग अहमदाबाद की चौड़ी चिकनी सड़कों पर दोनो तरफ बने ऊँचे- ऊँचे भवनो को देखते ऐतिहासिक दरवाजों से गुजरते देश के गौरव हिन्दू धर्म ध्वजा को सारे संसार में फहराने वाले अक्षर धाम मंदिर की ओर जा रहे थे। इस मंदिर के बारे तब जाना जब 24 सितंबर सन् 2002 को कुछ आतंकियों ने हमला कर दिया था टी. वी. चैनल्स हो या रेडियो! वही समाचार, अक्षरधाम मंदिर पर आतंकीत हमला! समाचार के पन्ने भी इसी समाचार से रंगे रहते थे। मैं हर पल का समाचार देखती सुनती और ईश्वर से प्रार्थना करती कि यह हमला नाकाम हो जाय। हमारे वीर जवानों ने हमला विफल कर दिया था, न्यूनतम हानि पर मंदिर को पूरी तरह बचा लिया गया था। वैसे 32 श्रद्धालु और तीन सुरक्षा कर्मी शहीद हो गये थे। मंदिर के बाहर ही बड़ी संख्या में दो पहिया , चार पहिया वाहन व्यवस्थित ढंग से खड़े थे। रेडीमेड कपड़े की दुकान रोड के किनारे लग गई थी। थैले वाले, खिलौने वाले अपनी-अपनी दुकाने लगाये ग्राहकों से भाव-ताव कर रहे थे। हमारे वाहन मंदिर से थोड़ी दूरी पर खड़े हुए और हम लोग उतर गये। हमारे समक्ष आसमान में अपनी ध्वजा लहराता आधुनिक युग की शिल्प कला का जीवंत प्रतिनिधि जिसने अपने अंदर आज तक की वास्तुकला की समस्त विशेषताओं को समो रखा है। जो दूर से हल्के लाल रंग का दृष्टिगोचर हो रहा है , जिसका 23 एकड़ में विस्तृत परिसर है, दस फुट ऊँची चहारदीवारी से धिरा हुआ है, उसके ऊपर कांटेदार तार लगाये गये हैं।
लगता है आतंकी हमले के बाद से सुरक्षा इंतजाम और बढ़ा दिये गये हैं, जो उचित भी है।
अक्षर धाम मंदिर का इतिहास-
अक्षरधाम मंदिर पूरी तरह आजाद भारत की निर्मिति है सन् 1970 में जब गुजरात की राजधानी गांधीनगर घोषित हुई तब गुजरात के मुख्यमंत्री हितेन्द्र भाई देसाई ने योगी जी महराज को नई राजधानी के लिए आशीर्वाद मांगने हेतु आमंत्रित किया, अगस्त सन् 1970 में गांधी नगर में मुलाकात के दौरान सेक्टर बीस के निकट एक बहुत पुराने बरगद के पेड़ को देख कर गुजरात के सम्माननीय महानुभावों की उपस्थिति में तत्कालीन परिवहन मंत्री श्री बी.जे. पटेल ने श्री योगी जी महाराज से निवेदन किया- यह वृक्ष तथा इसके आस-पास का क्षेत्र इसकी पवित्रता को प्रसारित कर रहा है। हमें आशा है आप यहाँ एक भव्य मंदिर का निर्माण करायेंगे।’
स्वामी जी ने उस विशाल क्षेत्र की ओर देखा और कहा– हम प्रार्थना करते हैं कि वहाँ एक ऐसा भव्य मंदिर बने जो समग्र मानव जाति को आध्यात्मिक मार्ग पर चलने को प्रेरित करे। ’ स्वामी जी द्वारा किये गये संकल्प को उनके योग्य उत्तराधिकारी पूज्य प्रमुख स्वामी ने पूरा किया। ये स्वामी नारयण संप्रदाय के पाँचवे उत्तराधिकारी गुरूदेव हैं । इस मंदिर का निर्माण बी. ए. पी. एस. ने करवाया जिसे प्रमुख स्वामी जी ने अपने लाधव प्रयास से पुष्पित पल्लवित किया। मंदिर के निर्माण के लिए योगी जी ,द्वारा संकल्पित भूमि का एक छोटा टुकड़ा प्राप्त हो गया था, भव्य मंदिर बनाने के लिए और भूमि खरीदी गई। 14. 12. ..1979 को स्वामी जी द्वार इसका शिलान्यास हुआ और 1985 में वैदक विधि से उद्धाटन हो गया। प्रदर्शनी आदि बनाने के लिए विश्व भर के शिल्पियों के विचार आमंत्रित किये गये। 30.10.1992 को इसका पूर्ण रूप से उद्धाटन हुआ और 2.11. 1992 को अक्षर धाम मंदिर जनता के लिए खोल दिया गया।
अक्षर धाम मंदिर का दर्शन-
हम लोग भव्य द्वार से अंदर प्रविष्ट हुए। गमन मार्ग में एक ऊँचा सा लम्बा-चौड़ चबुतरा है जिसके बीचोबीच वर्गाकार जगह है जिसका तल थोड़ा नीचे है,उस चौकोर में श्री स्वामी नारायण जीके पर चिन्ह विराजित हैं उस वर्ग के चारों कोनों पर एक-एक अलंकृत शंख रखा गया है सभी लोग इन्हे प्रणाम करके ही आगे बढ़ रहे थे। हमने भी इन्हें प्रणाम किया। आगे इस चबुतरे के अंत में जहाँ से नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनी हैं, दोनों ओर कलात्मक छतरियाँ निर्मित हैं जिनमें नीचे कमरे हैं, जहाँ चमडे का सामान मोबाइल कै।मरा आदि जमा कराया जाता है और एक ओर सुरक्षा कर्मी तैनात रहते हैं, इनकी छत के ऊपर ही छतरिया हैं , इस जगह पानी अथवा धूप से बचने के लिए दर्शनार्थी खड़े हो सकते है। यहाँ तक आने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं । दोनो छतरियों के बीच से होकर मंदिर तक जाया जाता है। बीच में एक लम्बा-चौड़ा चबुतरा जैसा बना हुआ है, नहीं -नहीं में सात- आठ फुट ऊँचा तो होगा ही, इस पर चढ़ कर उस तरफ उतरने के बाद हमें सममतल मार्ग मिला जो बहुविधि अलंकृत है। मंदिर जो भारतीय संस्कृति एवं आध्यात्म के पुरोधा भगवान् स्वामी नारायण जिनका आर्विभाव सन् 1781और अवसान सन् 1830 मे हुआ , जिन्हें यह विश्व की महानतम् विरासत समर्पित है, हमारे समक्ष अपने सम्पूर्ण वैभव के साथ उपस्थित था। मुख्य द्वार से लेकर मंदिर के द्वार तक चौड़ी सीढियाँ बनी हुई हैं , उसके पहले पहुँच मार्ग के दोनो ओर द्युतिमान् हरितवर्णी घास के कालीन बिछे हुए है, मार्ग के बीचो-बीच फव्वारे लगे हुए हैं और मार्ग को बगीचे से अलग करने वाले पत्थर के छोटे- छोटे खंभे जो लम्बे से चबुतरे में गड़े हुए हैं, उनके पीछे पीले रंग की घास को तराश कर मोहक संरचना की गई है इसके ठीक पीछे पहुँच मार्ग से सीढ़ियों तक दोनों ओर घास को तराशकर बड़ी बड़ी गेंदों का रूप दिया गया है ।
अक्षर धाम मंदिर की भव्यता-
इस मंदिर का सर्वांग गुलाबी पत्थरों से निर्मित है, जिन्हें राजस्थान के बंसीपहाड़पुर की खदानों से लाया गया है, पूरे मंदिर के निर्माण में 6000 मेट्रिक टन पत्थर की खपत हुई , बंसीपहाड़पुर यहाँ से 825 किलोमीटर दूर है। यहाँ से 225 किलो मीटर दूर पिंडवारा में पत्थरों की गढ़ाई एवं तराश का कार्य संपन्न हुआ, और भी कई कार्यशालाओं में दिन-रात काम चलता रहा। तब जाकर यह भव्यतम् मंदिर बनकर तैयार हुआ। सबसे विशेष बात यह है कि इसके निमार्ण में छड़ और सिमेंट का प्रयोग नहीं किया गया है। यहाँ तो जिधर नजर डालो चमत्कार ही चमत्कार नजर आ रहा है । सीढ़ियाँ पूरी कर हम दरवाजे के बाईं ओर हो लिए क्यांंकि वहाँ जूते चप्पल रखने की व्यवस्था थी। मोबाइल कैमरा तो गेट के बाहर ही जमा कर आये थे। जूता रक्षक सभी को बड़ा-बड़ा झोला दे रहा था जिसमे कई जोड़ी जूते चप्पल रखे जा सकते थे । हमने इस व्यवस्था का सम्मान किया। यहाँ बहुत से लोग आते जा रहे थे किंतु कहीं भी धक्का-मुक्की वाली नौबत नही थी। मंदिर की ऊँचाई 108 फुट, चौड़ाई 131 फुट,लम्बाई 240 फुट है। मंदिर के चहुँ दिश हरे- भरे मैदान हैं 1692 फुट का पक्रिमा पथ लगता है महामंदिर को गलबहियाँ डाले हुए है। वास्तु कला से सुशोभित 97 स्तंभ हैं 220 बीम जो पत्थर के ही बने हैं,मंदिर में चारों ओर पत्थर की ही 57 जालीदार खिड़कियाँ लगी हुईं हैं । किस नजाकत से कारीगरों ने इन्हें बनाया होगा हमारी तो सोच में भी नहीं आ सकता। 17 गुंबज बने हैं ,आठ कलात्मक बरामदों से युक्त मंदिर में एक सुसज्जित चबुतरा है। सब कुछ देखते हुए लगा जैसे किसी अन्य लोक में आ गई हूँ, जहाँ चारों ओर पवित्रता, शांति और आनंद का साम्राज्य है।
भगवान् श्री स्वामी नारायण
विस्तृत कक्ष को पार कर हम लोगों ने सबसे पहले गर्भ गृह में विराजित भगवान् श्री स्वामी नारायण की सात फुट ऊँची स्वर्ण मंडित दिव्य प्रतिमा के दर्शन प्राप्त किये। उनके दोनो बगल में उनके प्रथम आध्यात्मिक उत्तराधिकारी, अक्षर ब्रह्म गुणतीतानंद स्वामी तथा अक्षर मुक्तगोपालानंदस्वामी की स्वर्णमंडित मूर्तियाँ विराजमान हैं। मैंने हाथ जोड़कर श्रद्धापूर्वक उन्हें प्रणाम किया जिन्होंने मानवता के कल्याण हेतु अपना जीवन होम कर दिया।
दो अप्रै्ल सन 1781में भगवान् श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या से 14 किलोमीटर दूर छपिया गाँव में जन्म लेकर घनश्याम नाम के एक बालक ने माता भक्तिदेवी और पिता धर्म देव को धन्य किया । आठ वर्ष की उम्र में यज्ञोपवित संस्कार के पश्चात् उसने संस्कृत व्याकरण,गीता, आदि धर्मशास्त्रों, पुराणों एवं उपनिषदों का अध्ययन पूर्ण कर लिया। 10 वर्ष की उम्र में काशी की धर्मसभा के पंडितों को शास्त्रार्थ में पराजित किया। मात्र 11 वर्ष की अवस्था में गृह त्याग कर देश भर के तीर्थों की यात्रा पर निकल पड़ा। सात वर्षों में बारह हजार किलोमीटर की यात्रा उसने नंगे पाँव , खुले बदन की उसने उत्तर में हिमालय,मानसरोवर,पूर्व में नेपाल, कामाख्या मंदिर, गंगासागर, दक्षिण में रामेश्वरम,पश्चिम में गिरनार, जूनागढ़,आदि मुख्य तीर्थ स्थानों की यात्रा की। अब लोग इस बालक को नीलकंठ कहकर पुकारने लगे थे। वह जहाँ भी जाता चार प्रश्न पूछता,जीव,ईश्वर,ब्रह्म और परब्रह्म के लक्षण क्या हैं?असंतुष्ट होने पर आगे निकल जाता। गुजरात में लोज आश्रम पहुँचने पर उसे संतोष प्रद उत्तर की प्राप्ति हुई इसलिये वह वहीं बस गया। कुछ दिन बाद ही गुरू रामानंद स्वामी ने उस प्रतिभा शाली बालक को साधु दीक्षा देकर उसका नाम सहजानंद स्वामी रख दिया। उसके तप को देख कर 21 वर्ष की उम्र में ही रामानंद स्वामी ने उसें अपने सम्प्रदाय के गुरूपद पर आसीन किया। गुरू के देहोत्सर्ग के बाद सहजानंद जी ने अपने अनुयायियों को ’स्वामी नारायण’ का महामंत्र प्रदान किया। अब वे सर्वत्र स्वामी नारायण के नाम से पहचाने जाने लगे। गुरू पद संभालने के बाद से लेकर लीला संवरण काल तक अपने 3000 समर्पित परम हंस संतो के साथ भगवान् स्वामीनारयण ने गुजरात और सौराष्ट्र में फैले धर्मिक आडंबरों, नैतिक अघःपतन, तथा सामाजिक बुराइयों का अंत कर मनुष्य मात्र को पवित्र जीवन जीने का मार्ग दिखा कर ईश्वर की भक्ति की ओर उन्मुख किया।
गुजरात में यज्ञोंं में होने वाली पशु बलि,सती प्रथा, दूधपीती के नाम पर कन्याओं की हत्या, छुआछूत तथा ऊँच- नीच,के भेद- भाव को मिटा कर स्वामी जी ने गुजरात में नवजागरण के युग का सूत्रपात किया। संतों ने अनेक प्रकार के त्रास, अपमान,तिरस्कर,सहते हुए प्रजा में पवित्र जीवन की स्थापना हेतु अपने जीवन की आहुति दे दी। जो बनपगी ,सगराम,बाघरी जैसे अनेक डाकुओं और दुर्जनों, जिनके नाम पर अंग्रेज सरकार भी कांपती थी, उनके हृदय परिवर्तित कर भगवान् का परम भक्त बना दिया। लाखों अनुयायियों ने जिन्हे परमेश्वर मानकर भक्ति की , मैने आँखें बंद कर उन्हें अपनी भावान्जलि अर्पित की। हमारे सभी साथी इस समय आस-पास ही मौजुद थे। कुछ सोच रहे थे कुछ ऊपर नीचे अगल-बगल फैले वास्तु शिल्प के वैभव में स्वयं को खोया-खोया अनुभव कर रहे थे।
शेष अगले भाग में- भाग-17 स्वामीनारायण मंदिर अहमदाबाद दर्शन