यायावर मन अकुलाया (द्वारिकाधीश की यात्रा)
भाग-17 स्वामीनारायण मंदिर अहमदाबाद दर्शन
-तुलसी देवी तिवारी
गतांक यायावर मन अकुलाया-16 से आगे
स्वामीनारयण मंदिर में बोलता चित्र
महाप्रभु के सिर के ऊपर जो ऊँचा सा नक्काशीदार गुंबद है, जो भव्य स्तंभों पर टिका हुआ है उसकी वास्तु कला देखते ही बन रही थी। आगे हम लोग स्वामीनारायण दर्शन चित्रकला प्रदर्शनी देखने लगे, अठारहवीं सदी में जब चारों ओर राजनैतिक, आध्यात्मिक अंधकार फैला हुआ था तब स्वामीनारायण ने अपने शिष्यों के साथ अखंड आध्यात्मिक प्रकाश का संचार किया। अपने चरण कमलों की छाप से लोगों में आत्मविश्वास जगाया कि तुम अकेले नहीं हो तुम्हारा पिता तुम्हारे साथ है। चित्रों में कहीं वे धार्मिक आडंबर का विरोधकर रहे हैं , कही सती प्रथा पर रोक लगा रहे हैं तो कहीं पशुबलि रोक रहे हैं।
फोटोग्राफी डिसप्ले
एक चित्र में कई छोटे-छोटे बालक पेड़ से चिपक कर पेड़ काटने वाले से उसे बचा रहे हैं, ये चित्र स्वामी जी के सामाजिक सुधार का प्रतिंबब हैं, आगे नीलकंठ एवं सहजानंदःमूल्यों के कक्ष हैं। यह स्वामी जी के जीवन उनके संदेशों, उनके द्वारा किये गये कल्याणकारी कार्यों की प्रदर्शनी है। ध्वनि, श्रव्य एवं प्रकाश के संयोजन से चलते-फिरते मानव पुतलों तथा फोटोग्राफी डिसप्ले के ,द्वारा प्रस्तुत किया गया है। यह चित्रावली आत्मसंयम, पवित्रता, सेवावृत्ति, प्रार्थना ,क्षमाशीलता, समानता एवं समर्पण को दर्शाती है। पत्थर के दो हाथ एक गोल सममतल मजबूत काँच को हाथ में उठाये हुए हैं जिसके ऊपर गाँव का दृश्य अंकित हैं पेड़ पौधे खेत खलिहान, हल जोतता किसान आदि दर्शित हो रहा है। यह संरचना काँच के उल्टे नादनुमा संरचना से ढँकी हुई है बीच में व्याख्यान देने वाला लेक्चर स्टेंड है, उसके बाद ठीक ऐसी ही एक और संरचना है बस इसके चित्र अलग हैं। इसमें लग रहा है जैसे एक झोपड़ी में कई लोग बैठे हुए हैं।
छत से पीतल के कई घंटे लटक रहे हैं बहुत सारे लोग खड़े होकर स्वामी जी का प्रवचन सुन रहे हैं सवामी जी ग्लोबनुमा संरचना के ऊपर विराजमान हैं। दीवारों पर भजनानंदी संतो की तस्वीरें लगी हुई हैं। एक ओर घनघोर वन का चित्र हे जिससे होकर ब्रह्मचारी नीलकंठ गुजर रहे हैं, उनकी भुजा के पास ही एक बड़ा सा साँप लटक रहा है। नीलकंठ बिल्कुल अविचलित नजर आ रहे हैं।
प्रेमानंदः आध्यात्मिक विरासत
आगे प्रेमानंदः आध्यात्मिक विरासत के चित्र बने है, गुरू शिष्य के संबंधों को रेखांकित करती उपनिषद कथा सत्यकाम जाबालि की हैं जिसका जीवंत चित्रांकन यहाँ दिखाई दे रहा है। गुरू जी द्वारा ली गई सभी परीक्षाओं में उत्तीर्ण होकर गायें चराते हुए सत्यकाम ने ईश्वर का साक्षात् किया है और जाकर श्रीगुरू के चरणों मे प्रणाम कर रहा है।
रामायण का चित्रण
रामायण भारतीय संस्कृति का महान् ग्रंथ है, इसमें बताया गया है कि एक पिता, एक पुत्र, एक पति, एक राजा , एक मित्र, एक भक्त , एक विजेता कैसा हो । आज के समय में इसके प्रसंग और भी प्रासंगिक हो गये हैं। यहाँ रामायण के कई प्रसंगों का चित्रण हुआ है रिष्यमूक पर्वत पर जब सुग्रींव और राम की मैत्री हो जाती है और सुग्रींव देवी सीता द्वारा गिराये गये आभूषण राम लक्ष्मण के सामने रखते है तब लक्ष्मण माता सीता के पैर के नूपुर ही पहचान पाते हैं क्योंकि उन्होंने उनके चरणों के सिवा किसी अंग को कभी देखा ही नहीं , रोज प्रणाम करते समय नूपुर पर नजर पड़ जाती थी, इसलिए उसे पहचान सके।
सबरी की कुटिया
एक जगह सगुण भक्ति की मूर्तिमति छवि मतंग मुनि की शिष्या सबरी की कुटिया, उसके सामने लगे पेड़, टोकरी में रखे पके-पके बेर और डंडे के सहारे खड़ी राम के आने की बाट जोहती भक्तिमति शबरी का चित्र बना हुआ है।
महाभारत का चित्रण
रामायण के समान ही महाभारत भी महर्षि वेद यास रचित संसार का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है जिसे लिखने के लिए स्वयं श्री गणेश जी को कलम उठानी पड़ी । यह एक शिक्षाप्रद ग्रन्थ है, जिसमें मानव जीवन के विभिन्न कर्तव्यों समाजिक दायित्वों और उसके अंतिम लक्ष्य पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। श्री कृष्ण की लीलाएं, गोपियों का प्रेम, द्रौपदी स्वयंबर, द्यूत क्रीड़ा,पांडवों की पराजय, गीता का उपदेश, सुदामा के प्रति कृष्ण का प्रेम अदि दृश्य आधुनिक तकनीक के सहारे बहुत ही सुंदर बन गये हैं। कुरू राजसभा का भी चित्र है सबसे ऊँचे सिहासन पर नेत्रहीन धृतराष्ट बैठे हुए हैं, भूमि पर द्यूत की बिसात बिछी हुई है, एक तरफ कपट से हँसते दुर्योधन, दुःशासन, कर्ण, शकुनि आदि हैं तो उनके समक्ष हारे हुए पाँचों पांडव, सिर झुकाये बैठे हैं। दुःशासन द्रौपदी के वस्त्र हरण कर रहा है भीष्म, विदुर, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, आदि सिर झुकाये सब कुछ देख रहे हैं। रंगबिरंगी साड़ियों का ढेर लगता जा रहा है फिर भी दुर्योधन की समझ में कुछ नहीं आ रहा है। वह द्वापर था जब एक स़्त्री के अपमान ने महाभारत जैसे विश्व युद्ध को जन्म दिया, इस समय कलयुग है हर रोज का अखबार नारी के अपमान की कथा कहता है आज न तो देश में नारी सुरक्षित है न उसका सम्मान।
काले भैंसे पर सवार यमराज के दिये प्रलोभन ऋषिपुत्र नचिकेता अस्वीकार करता है और अपने प्रश्न का उत्तर मांगता है यमलोक का सटीक चित्र बना हुआ है।
संत कवियों का परिचय
आगे अलग- अलग मंदिर जैसे खंडों में भरत के उन संत कवियों का परिचय दिया गया है जिन्होंने ईश्वर भक्ति में मगन होकर उनकी भक्ति के गीत गाये और उनके दर्शन प्राप्त किये , इनमें—गोस्वामी तुलसीदासजी,सूरदास, कबीर दास, मीराबाई, जयदेव अडाल, तुकाराम, नरसिहं मेहता तथा प्रेमानंद की मूर्तिया, प्रेमानंद मंडप में लाइन से बने बड़े-बड़े आलों में उनके प्रिय वाद्यों के साथ लगी हुईं है। एक जगह स्वामीनारयण जी का दरबार सजा हुआ है अनुयायी द्वारा पूछे गये प्रश्न का स्वामी उत्तर दे रहे हैं -’’ शाश््वत आनंद कैसे प्राप्त किया जा सकता है ?’
अभिषेक मंडपम्
अब हम लोग अभिषेक मंडपम् में आ गये थे। यहाँ पवित्र जल से श्री नीलकंठवर्णी का अभिषेक किया जाता है। हमारे हिन्दू धर्म में अभिषेक विधि एक प्राचीन परंपरा है। ’यह परमात्मा के प्रति प्रेमपूर्ण आदराजंलि है। जीवन में भौतिक एवं आध्यात्मिक सुख शांति और मंगल की प्राप्ति के लिए जल अभिषेक विधि की जाती है। उसी परंपरा के निर्वहन हेतु यहाँ भी अभिषेक मंडपम् निर्मित है। इसमें तपोमूर्ति भगवान् स्वामीनारायण अर्थात बालयोगी श्री नीलकंठ वर्णी की मूर्ति का जलाभिषेक किया जाता है। तप, संयम , सेवा, निश्छलता,निर्भयता, नम्रता, प्रेम आदि शुभ गुणों से सभी के जीवन अलंकृत हो , सभी की शुभ प्रार्थनाएं पूरी हों, यही भावना इस पवित्र अभिषेक ़ विधि में निहित है। इस मंडप में दीवार में एक बराबर आले बनाकर बालयोगी नीलकंठ जी की मूर्तियाँ स्थापित की गईं हैं। बीच वाले खंड को आला नहीं कह सकते यह मंदिर है सफेद पत्थर के कलात्मक डमरू के ऊपर एक हाथ में कमन्डल और दूसरा हाथ पेट पर रखे हुए बालयोगी जी की मूर्ति विराजित है। यह सुवर्ण मंडित जान पड़ती है। अगल- बगल आले में तीन-तीन मूर्तियाँ स्थापित हैं कहीं सुखासन में बैठ कर ध्यान लगाये है तो कहीं एक पैरघुटने पर रखे दोनो हाथ ऊपर उठाये हैं, कहीं नदी के टापू पर बैठे ध्यान लगाये हैं, उनके सिर पर चील मंडरा रही है। ये सभी मूर्तियाँ कला का अप्रतीम उदाहरण हैं।
हम लोग मंदिर में स्थित अक्षर हाट की ओर आ गये। यह व्यवस्थित दुकान है जहाँ भाँति- भाँति के आकर्षक उपहार, पूजन सामग्री , इसके अतिरिक्त हिन्दू धर्म पर आडियो- विडियो, स्वामीनारायण अक्षरधाम, हिन्दू धर्म बी. ए. पी. एस. तथा अन्य धर्मिक सामाजिक साहित्य मिल रहा था। मैंने ’ स्वामीनारायण अक्षरधाम नाम की सुंदर पुस्तक खरीद ली , संस्मरण लिखते समय इसने बड़ी मदद की। हित मित्रों , बाल- बच्चों को देने के लिए स्वामी जी की परंपरा के पाँचवे गुरू प्रमुख जी महराज की फोटो वाली बहुत सारी की रिंग 10-10 रूपये में खरीदी कुछ पूजन सामग्री ली । मेरे सभी साथी खरीददारी कर रहे थे। देवकी दीदी मेरे पास ही थीं, हेमलता न जाने क्या-क्या ढेर सारा ले रही थी।
हम लोग मंदिर के भूतल कक्ष में आये जहाँ श्री स्वामीनारायण जी की वस्तुएं संगृहित है, ये वस्तुएं उनके इस धरती पर अवतरण की साक्षी हैं । यहाँ उनका संक्षिप्त इतिहास भी दर्ज है। यह कक्ष भी अनेक चित्रों से सजाया गया। यहाँ स्वामी जी का पंखा,खड़ाऊ आदि सुरक्षित है।
अद्भुत कारीगरी
वहाँ से निकल कर हमने अपने जूते चप्पल लिए और परिसर की अद्भुत कारीगरी देखने के लिए घुमने लगे। यहाँ तो सरसों के दाने के बराबर जगह भी बिना कारीगरी के नहीं है। मैदान के किनारे किनारे खुले हुए मंडप हैं जहाँ आप बैठ सकते हैं, एक जगह कृत्रिम नदी का निर्माण किया गया है जिसमें जानवर जल पीते दर्शाये गये हैं। मैं देवकी दीदी के साथ एक जगह बैठी कि हमारे सभी साथी वहाँ पहुँच गये, फोटोग्राफर ने हमें घेरे में लिया, हमने सामुहिक फोटो खि्ांचवाया।
भव्य थियेटर
यहाँ एक भव्य थियेटर भी है जिसमें सत् चित् आनंद वॉटर शो अर्थात प्राचीन भरत के आध्यात्मिक रहस्य की खोज के लिए ऋषि पुत्र नचिकेता के गृहत्याग की रोमांचक कथा की प्रस्तुति जो 80 फुट लंबे और साठ फुट चौड़े जल पटल पर दिखाई जाती है, सहजानंद स्वामी की जीवन कथा आदि दिखाई जाती है। हमारे पास समय का अभाव था, आज ही हमें द्वारिकाधीश के लिए गाड़ी पकड़नी थी इसलिए हमें थियटर जाने का लोभ त्यागना पड़ा। यहाँ प्रेमवती आहार गृह भी है जहाँ देश विदेश के शाकाहारी व्यंजन लिते हैं हमने चाय- कॉफी पीकर अपने को तरो ताजा किया और मंदिर को प्रणाम करके बाहर आ गये । मैंने सन् 2012 में दिल्ली वाले अक्षरधाम मंदिर का दर्शन किया था। बड़ी अभिलाषा थी गांधी नगर के अक्षरधाम के दर्शन की आज भगवान् ने मेरी मनोकामना पूर्ण की। हम लोग आनंद से भरे-पूरे जब तक बाहर आये त्रिपाठी जी हमारा जमा किया हुआ समान लेकर आ गये। मेरा मोबाइल तो बंद ही था उसका बोझ ढोना मेरी विवशता थी क्योंकि मुझे उम्मीद थी कि वह बन जायेगा।
दादा भगवान् फाउंडेशन
बस में बैठ कर अब हम लोग दादा भगवान् फाउंडेशन पहुँचे । हमें फाउंडेशन के कार्यालय से थोड़ा दूर ही जहाँ मंदिर है , गाड़ियों से उतर जाना पड़ा। उस समय वहाँ मंदिर बंद हो चुका था इसलिए दर्शन नही हो सका , वहाँ उपस्थित सेवादार ने हमें बताया कि —’’थोडा आगे जाइये! वहाँ निःशुल्क भोजन मिल रहा है, प्रसाद पा लीजिये पहले, फिर दर्शन भी हो जायेंगे। क्योकि शॉर्टकट से जाने के लिए पैदल ही रास्ता है आगे, इसलिये हम लोग एक दूसरे के पीछे लगे उस ओर बढ़ चले । बताना न होगा कि हम सभी क्षुधातुर थे, दोपर दो से अधिक ही समय हो रहा था। उस सेवादार की बात एकदम अपनी माँ की तरह लगी जो भूखे-प्यासे घर आते ही भोजन करने का आग्रह करती है। थोड़ी देर में ही एक बड़े से हॉल की ओर जाती भीड़ हमें दिखाई देने लगी। भूख और बढ़ गई । हॉल के दो दरवाजे हैं, एक आगमन एक निर्गम। हम लोग आगमन द्वार के पास रुके, वहाँ टेबल लगा कर श्वेत वसन कुछ महानुभाव बैठे आगंतुकों का स्वागत कर रहे थे। एक बड़े से चमचमाते हुए स्टील के ड्रम में जल रखा हुआ था चप्पल बाहर उतारो! डल्लू से पानी लो पानी ढंको, बाहर बने स्थान पर जाकर हाथ -पैर धेओ , मंडप में प्रविष्ट हो ! खाली टेबल देखकर विराजो, तुरंत गरम गरम रोटियाँ, दाल-चावल, सब्जी अचार देने वाले लाइन से पहुँच गये । हर चार टेबल के मध्य सिर पर एक पंखा चल रहा था। भोजन का निर्माण हमारे सामने ही कई लोग मिल कर कर रहे थे। सब कुछ सुव्यवस्थित और पवित्र! हम लोगों को गमन मार्ग के नजदीक टेबल मिली थी। सभी साथी आस-पास बैठ कर भोजन कर रहे थे। अभी कोई किसी से कुछ बोल नहीं रहा था, मैने सोचा-’जरा सा विलंब हमें इस प्रकार विह्वल कर डाल रहा है वे गरीब क्या करते होंगे जिनके घर में अन्न का अभाव है? ’हम लोग जैसे ही भोजन करके तैयार हुए, एक महिला आई और बर्तन समेट ले गई । दूसरी आई और टेबल पोंछ गई । । हमारे ही जैसे भूख से मुँह सुखाये लोगों का रेला अंदर घुसा, हमने उतनी ही तेजी से जगह रिक्त कर दी। गमन मार्ग से आकर हमने अपने चप्पल- जूते लिए,और पास ही स्थित दादा भगवान् सत्संग भवन चल पड़े।
विशाल प्रवेश द्वार पार कर हम आगे बढ़े प्रवेशद्वार से लेकर हॉल के दरवाजे तक हरे रंग का मैट विछा हुआ था। हमने अपने जूते चपपल उतारे और हॉल में प्रवेश किया। एक तरह से कहें तो दादा भगवान् संस्था हमारे लिए एक नया नाम था। हम छत्तीसगढ़ के एक शहर बिलासपुर के रहवासी हैं, अपने काम-धाम में इस कदर मशगुल कि दुनिया में क्या-क्या बदल गया जान ही नहीं पाते।
दादा भगवान् फाउंडेशन का परिचय
एक बहुत बड़े साफ-सुथरे सभा कक्ष में आगे बढ़ते हुए हम लोग दूसरे सिरे तक पहुँचे, वहाँ एक अधेड़ उम्र के सज्जन चेहरे पर सौम्य मुस्कुराहट लिए एक कुर्सी पर विराज रहे थे, उन्होंने हमारा आत्मीय स्वागत किया। मैंने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और इस संस्था के बारे में पूछा। वे बताने लगे-’’ दादा भगवान् जीवन के पूर्वार्द्ध में हमारे जैसे ही साधारण मनुष्य थे। उनका नाम अम्बालाल मूल जी पटेल था। इनका जन्म 7 नवंबर सन् 1908 को हुआ । ये बडे धर्मप्राण सत्संग प्रेमी थे। सन् 1958 में रेलवे स्टेशन में बैठे-बैठे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ कि वे एक शरीर नहीं उनके अंदर परमात्मा का जो अंश है वह हैं । वे परमानंद में निमग्न रहने लगे। खान-पान वस्त्र आभूषण आदि का कोई ध्यान नहीं रहा । लगभग चार वर्ष बाद उनके भतीजे के पुत्र आर्थात उनके नाती ने कुछ सवाल किये और उन्होंने जब उसके अलौकिक उत्तर दिये तब सब को समझ में आया कि उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हो चुकी है। उसी ने उन्हें दादा भगवान् संबोधित किया जो दादा के न चाहते हुए भी रूढ़ हो गया। उसने ही सबसे पहले दादा से दीक्षा ली। अपने जीवन काल में दादा ने अपनी संस्था का बहुत विस्तार किया। देश विदेश में अनेक मंदिर एवं सतसंग भवन बनवाये, जहाँ अध्यात्मिक उन्नति का मार्ग बताया जातं है। इनका एक ही स्वार्थ है जो सुख हमें मिला वह दूसरों को भी मिले। निःशुल्क भोजन शाला , पाठशाला, चिकित्सालय मंदिर धर्मशालायें आदि का निर्माण करवाया। अनंत जनसमुदाय उनसे जुड़ता चला गया। गुजरात के ही अडाजल में हमारा प्रधान कार्यालय है जहाँ इससे कई गुना बड़ा सत्संग भवन है। वहाँ श्रीमंधर सिटी में दादा भगवान् परिवार के लोग सर्व सुविधा युक्त आवासों में रहते हैं । और अपना आध्यात्मिक जीवन ऊँचा उठाते हैं।विदेशो ंमें भी हमारे सत्संग भवन बने हुए हैं सद्गुरूदीपक जी और नीरू माता के प्रवचन कई भाषाओं में टी.वी. पर प्रसारित होते हैं। दादाजी ने कई पुस्तकें भी लिखी हैं जिन्हें पढ़ कर आप इस संगठन के बारे में अच्छी प्रकार समझ सकते हैं।’’ उन्होंने अपनी बात खत्म की।
’’ वैसे आप लोग कहाँ से आये हैं ?’’ उन महाश्य ने पुनः हमारी ओर देखा।
’’ हम लोग छत्तीसगढ़ के रहने वाले है । वहाँ बिलासपुर नाम के शहर में रहते हैं’’ मैने उत्तर दिया।
’’ वहाँ तो दादा परिवार के बहुत से लोग हैं हम वहाँ जाते रहते हैं, आप लोग भी आइये सत्संग में! सच कहता हूँ बहुत आनंद आयेगा। ’’ परम उत्साही नजर आ रहे थे वे ।
’’ जी हाँ अवश्य आयेंगे !’’ मैंने कह दिया । हम लोग वापसी के लिए उठ गये। हॉल में दीवार से लगकर एक बड़े से आले में विशाल शिवलिंग और माता पार्वती की मूर्तियाँ स्थापित हैं, हमने जगत् पिता और जगत जननी को शीश झुका कर प्रणाम किया और वहाँ से बाहर आ गये। कुछ दूर चल कर उसी स्थान पर आये जहाँ दादा भगवान् का मंदिर है, मंदिर अभी तक बंद था अतः हम लोग बाहर से ही मदिर में प्रतिष्ठत भगवान् पद्मनाभ को प्रणाम करके वहाँ आये जहाँ हमारे सामान के साथ बस रुकी थी। यथा स्थान बैठ कर हम लोग आगे बढ़े। अब हम वैष्ण्व देवी माता के दर्शन करने जा रहे थे जो अहमदाबाद में ही हमें अपने धाम में दर्शन का सुख देने वाला था।
माता वैष्णव देवी
अब दिवाकर पश्चिम की ओर प्रस्थान कर रहे थे। मौसम मनभावन था। शहर का नजारा करते हुए हम लोग माता वैष्णव देवी के द्वार तक पहुँचे, वाहन स्टेंड में बस से उतरे और माँ के भव्य भवन पर दृष्टि डाली , लगा जैसे कटरा ही पहुँच गई हूँ ,यहाँ कतार से खड़ी गाड़ियाँ देखकर ही समझ में आ गया कि कितनी भीड़ हैं मंदिर में , मंदिर का क्षे़त्र तो इतना विस्तृत है कि हजार- दो हजार व्यक्ति का कुछ पता ही न चले। हमारे सामने ऊँचे नीचे शिखरों वाला पर्वत था जिस पर कई कलश थे जिनके ऊपर माता का लाल ध्वज लहरा रहा था । पता चला कि मंदिर का लोकार्पण 1999 में हुआ अर्थात यह मंदिर हमारे युग का साक्षी है। मानव की संकल्प शक्ति का शाहाकार , जैसे आवश्यकता पड़ने पर ऊँचे पहाड़ों को काट कर समतल मैदान बना लेते हैं वैसे ही दुर्गम पर्वत पर बसने वाली माँ को अपने शहर में सबकी पहुँच में रखने की इच्छा हुई तो छोटे-छोटे पत्थरों को जोड़-जोडकर इतना ऊँचा पहाड़ ही बना डाला। जो हू ब हू अपने मूल स्थान जैसा ही लगता है।
ये सारे पत्थर धांगाध्र गाँव से मंगवाये गये हैं, इन्हें भूरी चट्टानों के टुकड़े जोड़कर बनाया गया है। मुख्य द्वार भी पत्थरों को जोडकर ही बनाया गया है यह बहुत ऊँचा है और वैसे ही लंबा चौड़ा भी । इसका अनगढ़पन ही इसकी कारीगरी है। कृत्रिम को प्रकृतिक बनाने का उद्यम है। प्रवेश ,द्वार से लेकर मंदिर के दरवाजे तक हरे वाले प्लस्टिक सीट से छाया बनाई गई है ताकि अधिक देर तक लाइन में खड़े होने पर भी माई की किसी संतान को कोई तकलिफ न हो । थोड़े समय में ही देश- विदेश में लब्धख्याति यह मंदिर अहमदाबाद के अडाजल थाना क्षेत्र मे आता है। परिसर विस्तुत और आधुनिक सुविधाओं से मालामाल हैं, एक से अधिक एक्वागार्ड, मंदिर के पीछे बहुत बड़े क्षेत्र में सजा- धजा रेस्टोरेंट, बैठने के लिए बेंच, लोग परिवार सहित मोद मगन दिखाई दिये। सामान एवं जूते चप्पल की सुरक्षा के लिए समुचित स्थान नजर आया । वैसे इस मंदिर में कैमरा मोबाइल प्रतिबंधित नहीं है। हम लोगों ने प्रवेश हेतु टिकिट लिया और सारी मर्यादाओं का पालन करते हुए मंदिर के द्वार पर पहुँच कर माँ के आगे शीश झुकाया। दरवाजे पर एक खंभे के अंतर पर दो सिंह मूर्तियाँ बैठाई गईं हैं माताजी की एक भव्य मूर्ति के दर्शन करते हम आगे बढ़े, हमारे सभी साथी आगे-पीछे थे। यहाँ दर्शनार्थियों की संख्या अच्छी खासी थी। आगे ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ हैं हमारे जो साथी ऊपर चढ़ने में असमर्थ थे उन्हें नीचे ही बैठा दिया गया। अंदर की बनावट गुफा जैसी है छत ऐसा लगता है जैसे पहाड़ को काट कर बनायी गई है। नीम उजाले में ऊपर चढ़कर अब नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ मिलीं, आगे वालों के पीछे-पीछे मैं आगे बढ़ रही थी। सीढ़ियों के किनारे-किनारे बने सहारे ने बड़ी सहायता की। अब तो उजाला और भी कम हो गया, सीढ़ी के आजू-बाजू माता की लीलाओं की चित्रकारी देखते हम वहाँ पहुँचे जहाँ माताजी की पिंडी विराजमान है। पिंडी के ऊपर स्वरूप विग्रह स्थित है,.जैसे उनके मूल स्थान में है। मैंने श्रद्धापूर्वक माँ को प्रणाम किया, मैदान में भी एक मंदिर मे निवास कर के हमे कृतार्थ करने के लिए मैंने उनका आभार माना। यहाँ बल्ब जल रहा था जिसके कारण उजाला था। परंतु गर्मी बहुत लग रही थी, शु़द्ध वायु हेतु कहीं-कहीं एडजास्ट पंखे लगे हुए हैं जिससे कुछ राहत मिल जाती है चलते – चलते हम लोग मंदिर की दूसरी ओर से बाहर निकल आये। हमारे सामने ही वह आमोद स्थल है जिसके बारे में पहले चर्चा की गई है। देवकी दीदी और बेदमती भाभी यहीं बैठे थे।
भूल-भुलैया
अधिक समय न गंवा कर हम लोग मंदिर से बाहर हो लिए अब हमारा मन रेलवे स्टेशन जाने का हो रहा था किंतु पास ही हमें ’भूल-भुलैया ’का बोर्ड लगा दिखा,वहाँ टिकिट के लिए लगी भीड़ ने हमारे कान में कुछ कहा शायद यह कि–’’कुछ बात जरूर है देख लेना चाहिए।’’ बस फिर क्या था त्रिपाठी जी लाइन में लग कर हमारे लिए टिकिट ले आये। यहाँ हम सब लोग अंदर प्रविष्ट हुए और वह तमाशा देखा जो देखना बाकी था। अंदर में नाना प्रकार के आदमकद आइने लगे हुए थे। प्रत्येक में हमें अपनी शक्ल भिन्न – भिन्न दिखाई दे रही थी। किसी में नाक हाथी की सूंड़ जैसी तो किसी में कान सूपे जैसे किसी में पेट दो हाथ निकला हुआ तो किसी में होठ गले तक लटके हुए, पहले तो मैं अचकचा कर रह गई, बाद में प्रारंभ हुआ हँसने का दौर! हम और हमारे जैसे और भी बहुत सारे लोग पेट पकड़-पकड़ कर लोट -पोट हो रहे थे आँखों से पानी बह चला था। यह भूल-भुलैया एक मंजिल में है हम चले तो जा रहे थे लेकिन जायेंगे कहाँ यह समझ में नहीं आ रहा था। जब हम लोग गोल-गोल घूम कर बार-बार एक ही जगह आने लगे जब वहाँ के गेटकीपर ने रास्ता दिखाया तब कही जाकर हम लोग बाहर आ सके। सबकी जबान पर एक ही बात थी ’’वाह! क्या खूब दिखाया भाई ?’’
हम सब एकदम ताजादम हो चुके थे। एकदम हल्के-फुल्के। सबके चेहरे पर लाली थी और सब अपनी आँखें पोछ रहे थे।
’’ स्सऽ! दाई रोआ डारिस हँसवात-हँसवात। ’’ प्रभा दीदी ने भूल- भूलईया की ओर देखकर शिकायती लहजे में कहा।
अहमदाबाद से बिदाई
अब हम लोग अहमदाबाद रेलवे स्टेशन की ओर जा रहे थे। धूप कोमल होती जा रही थी, लगभग पाँच बज चुके थे। मेरे साथियों में जिनको चाय- नाश्ते आदि की आवश्यकता थी उन्होंने झूले लाल के यहाँ ले लिया। स्टेशन पहुँच कर थोड़ी देर आराम से बैठे, त्रिपाठी जी ने हम लोगों से खाने के लिए पूछा तो देवकी दीदी प्रभा दीदी ने मना कर दिया, मेरा मन भी कुछ खाने से ज्यादा सोने का था। माया श्री शांतिलाल दूबे जी के साथ खाना खा कर आ गई । पटेल एवं वैष्ण्व परिवार की जिम्मेदारी हेमलता ने संभाल रखा था। शर्मा जी तिवारी जी आत्मनिर्भर यात्री हैं रात धिर आई थी, स्टेशन पर बत्तियाँ जगमगा रहीं थीं। भीड़- भाड़ बढ़ गई थी। साढ़े आठ बजे के करीब गाड़ी आई हम सब उस पर सवार हुए। अपनी- अपनी बर्थ पर कब्जा जमाया और बिस्तर बिछा कर लेट गये।
द्वारिका पहुँचना
सोते जागते भोर हेने से पहले ही लगभग चार बजे हमारी गाड़ी द्वारिका स्टेशन पर रुकी, नीचे उतर कर सभी साथी एक साथ मिले और ऑटो वाले की सलाह पर मंदिर के निकट ही स्थित होटल कृष्णालय में ठहर गये। यहाँ नीचे होटल है और ऊपर यात्री निवास। यह पौराणिक , धार्मिक , नगर गुजरात के जाम नगर जिले में पड़ता था, अब द्विरका स्वयं एक जिला है।
शेष अगले भाग में-