यायावर मन अकुलाया (द्वारिकाधीश की यात्रा)
भाग-18 द्वारिकापुरी दर्शन-1
-तुलसी देवी तिवारी

द्वारिका का पौराणिक और ऐतिहासिक महत्व-
कृष्णालय में भी हम लोग चार ही एक कमरे में रुके थे, आराम से नित्य क्रिया से निवृत होकर बदलने के लिए कपड़े लेकर हम लोग मुँह अंधेरे ही होटल से निकल पड़े । आज की सुबह अनोखी थी, हम उस द्वारिका की हवा में साँस ले रहे थे, जिसने पृथ्वी का भार हरण करने के लिए अवतार ग्रहण करने वाले जगदाधार प्रभु श्री कृष्णचन्द्र भगवान् को विपत्ति के समय शरण दी। मथुरा के मूल निवासी यादव जब कालयवन और जरासंध के आक्रमणों से पूरी तरह विनाश के कगार पर आ खड़े हुए तब उस स्थान को त्यागने के सिवा कोई अन्य विकल्प न बचा। उस समय उन्होंने जमाने से उपेक्षित इस पितृभूमि में आकर शरण ली थी। महाराज ययाति के बड़े पुत्र यदु के वंशज यदुवंशी इस सौ योजन की मरूभूमि जो उन्हे अपने आदि पुरूष ययाति से अपने पितृ पुरूष यदु को मिली थी, क्योंकि यदु ने अपने पिता ययाति को जो शुक्राचार्य के शाप वश वृद्ध हो गये थे मांगने पर अपना यौवन दान नहीं किया, इसलिए राज्य के हिस्से में बंजर भूमि मिली थी, जीवन यापन की सुविधाओं के अभाव में यदुवंशी अपने पशुओं के साथ आगे बढ़ते गये थे, मथुरा के घने जंगल यमुना का किनारा पशुओ के लिए विस्तृत चारागाह देखकर वे वही बस गये और कालान्तर में वहीं के वासी होकर रह गये। जब वहाँ रहना जनजीवन के लिए आत्मघाती हो गया तब फिर से अपनी भूमि की याद आई। श्री कृष्ण के वाहन विनिता पुत्र पुत्र गरुड़ के परामर्श और मित्र ककुद्मी के आमंत्रण पर द्वारिका को फिर से बसाने का संकल्प किया। उन्होंने देखा कि क्षेत्र की जलवायु जनजीवन के अनुकूल है। अरब सागर के ओख बंदरगाह के कारण रोजगार की सुविधा और देश विदेश से सांस्कृतिक संपर्क बढ़ेगा । गोमती नदी के कारण उसके तटीय इलाके में जंगल उग आये थे और उसी के कारण पेयजल के प्रचूरता की भी संभावना थी। जरासंध या कालयवन इतनी दूर सेना लेकर नहीं आ सकते , अतः आक्रमणों से सुरक्षा रहेगी। श्री कृष्ण ने देवशिल्पी विश्वकर्मा को रातों रात एक सुंदर नगर बनाने की आज्ञा दी । विश्वकर्मा ने जगह छोटी होने की बात कही, श्रीकृष्ण ने सुमुद्र से बारह योजन भूमि मांगी, उसने उनकी मांग इस शर्त पर स्वीकार की कि जब श्री कृष्ण का काम हो जायेगा तब वह वापस अपनी भूमि पर आ जायेगा, समुद्र बारह योजन पीछे हट गया और वहाँ सर्व सुविधा युक्त मथुरा की समस्त प्रजा के लिए भव्य भवन, मैदान पशुओं के लिए चारागाह चिकित्सालय मल्ल शाला राजभवन रनिवास आदि वह सब कुछ बना दिया जिसकी एक विकसित नगर में आवश्यकता होती है।
महाभारत युद्ध के पश्चात् जब श्री कृष्ण अपने समस्त कुटुम्ब के साथ गोलोक वासी हो गये तब समुद्र ने श्रीकृष्ण के मंदिर को छोड़ कर पूरी ,द्वारिका को उदरस्थ कर लिया। सबसे पहले श्रीकृष्ण के परपोते वज्रनाभ ने यहाँ मंदिर बनवाया और अपने पूर्वजों की याद को चिरस्थायी कर दिया, यही कारण है कि पुरातत्ववेत्ता मानते हैं कि यह वह द्वारिका नहीं हैं जिसमे कृष्ण जी रहते थे फिर भी उसी नाम पर उसी जगह के पास बसने के कारण और फिर द्वारिकाधीश के मंदिर के कारण द्वारिका संसार भर में पहले की तरह ही पूज्य मानी जाती है। आधुनिक इतिहासकारों और पुरातत्ववेत्ताओं ने अत्यधिक रुचि लेकर शोध किया और उत्साह जनक परिणाम दिया है, द्वारिका नगर का अस्तित्व पूर्व वैदिक काल से भी पहले से पाया गया है, हड़प्पा सभ्यता के अवशेष भी ढ़ूढ़ निकाले गये हैं। पहली द्वारिका के डूब जाने के बाद दूसरी शताब्दी में बसी द्वारिका को भी समुद्र निगल गया। उसके बाद ई. सन् पहली,चौथी,और छट्ठी शताब्दी में द्वारिका बसाई गई । जिस पर आज हम कदम रखते गोमती स्नान हेतु जा रहे हैं। मन में कुछ अजीब सा अनुभव हो रहा था, लग रहा था जैसे हम वह नहीं जो कल तक थे कोई दूसरे ही हैं जहाँ भगवान् श्री कृष्ण ने अपनी सोलह हजार एक सौ आठ पटरानियों के साथ गृहस्थ जीवन व्यतीत किया, अलग- अलग परिवेश से आईं पटरानिया स्वाभाविक तौर पर भिन्न- भिन्न स्वभाव वाली रही होंगी, एक पुरूष ने इतनी सारी स्त्रियों के मन को समझा, सबका मान रखा, सबकी इच्छा पूरी की , सबकी शिकायतें दूर की, सब से समायोजन किया। हर गृहस्थ को अपनी पत्नी का सम्मान कैसे करना चाहिए यह उनके चरित्र से सीखा जा सकता है।
गोमती घाट-
अब तक उजाला नहीं हुआ था, मंदिर के द्वार से घाट तक 56 सीढ़ियाँ बनी हुई हैं , जिनकी ऊँचाई समान्य है ताकि वृद्धों को भी चढ़ने- उतरने में कोई विशेष परेशानी न हो। मंदिर से लेकर घाट तक होर्डिंग लाइट लगी है जिससे एक-एक तिनका दिख रहा था। हमारे समान बहुत सारे यात्री इस समय घाट की ओर जा रहे थे। कुछ लोग अपने माता अथवा पिता को पकड़े संभाल-संभाल कर सीढ़ियाँ उतार रहे थे, कई महिलाएं अपने उनींदे बच्चों को घसीटे लिए जा रहीं थीं । सब को जल्दी थी द्वारिकाधीश के दर्शन की। जल्दी लाइन में लगेंगे तो जल्दी दर्शन होगा। हम लोगों ने इस तरह नहीं सोचा इसलिए आराम से सब कुछ देखते जा रहे थे। देवकी दीदी का हाथ मेरे हाथ में था। बाकी सब साथी पास-पास ही चल रहे थे, घाट पर पहुँच कर मैंने नजर उठाकर गोमती नदी का सौभग्य देखा वह अपनी मंजिल अरब सागर से मिल रही थी। कोई हा-हाकार नहीं था, कोई बेचैनी नहीं थी, गोमती की धारा यहाँ तक आई और न जाने कहाँ लुप्त हो गई। हम इसी सरिता सागर संगम में स्नान करने आये हैं, सोच कर मन में गुदगुदी हो रही थी। मैंने ’सुख के पल’ में लिखा है कि मेरा जन्म गंगा किनारे हुआ था, गंगा जैसी नदी देखकर मैं अपनी सुध-बुध खो बैठती हूँ, गंगा प्रेम में एक बार डूबते-डूबते बची थी। ’’ होश नहीं खोना हैं गोमती जी से मिल कर !’’ मैंने मन ही मन स्वयं से वादा किया।
गोमती स्नान-
सीढियों के बाद कुछ दूर तक रेत का मैदान है, जिस पर काली मिट्टी की एक महीन सी परत जमी हुई थी, हम लोगों ने सीढ़ी पर ही एक किनारे अपने सूखे कपड़े रख दिय, और सब महिलाएं एक साथ और पुरूष भाई जरा सी दूरी बनाकर स्नान करने लगे। नदी अधिक गहरी नहीं है फिर भी अनजान जगह होने के कारण हम लोगो ंने किनारे पर ही स्नान किया, अँजूरी से सिर पर पानी डाल-डाल कर । स्नान से तन मन को शीतलता मिली, मेरा मन पानी में डूबे रहने का था, क्योंकि प्रातःकालीन हवा के स्पर्श से गीले शरीर में ठंड लग रही थी। नदी का जल अपेक्षकृत गरम था। मैंने आकाश की ओर देखा, आदित्य का सिंदूरी गोला अग-जग पर सोना छिड़क रहा था। हौले से उठती-गिरती लहरों पर नन्हीं- नन्हीं किरणें झिलमिला रहीं थीं। मैनें अपने आस-पास देखा- सभी उम्र के स्त्री-पुरूष बालक- बालिकाएं स्नान कर रहे थे। सबने अपनी-अपनी आँखों पर पलकों का पर्दा डाल रखा था, सब अपने आप में ही व्यस्त थे। जल इस समय शांत था लोग आराम से स्नान कर रहे थे।
गोमती पूजन-
स्नान करके निकलने वालों को दूध, फूल और दीया बत्ती वाले अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे।
’’ दूध ले लो माँ! गोमती मैया की पूजा कर लो! फूल नहीं चढ़ाओगे इतनी दूर से आये हो? दस रूपये के तीन दीये , ले लो माँ बड़े सस्ते हैं।’’
इस तरह की आवाजें सुनकर हमें याद आया कि पूजा तो करना ही चाहिए हमें। किनारे-किनारे पाइप लगे हैं जिसे पकड़कर ऊपर चढ़ने में आसानी होती है। हम लोग अपने कपड़ें के पास आये, सब लोग कपड़े बदलकर फिर से जल के पास आये और सामग्री खरीद कर विधिवत् पूजा करके नदी में दीपदान किया। नदी के जल पर अनेक जलते हुए दीपक तैर रहे थे। जो बहुत ही सुंदर प्रतीत हो रहे थे। उन्हीं के साथ हमारे दीये भी मिल गये, हम देखते रहे कि वे कितनी दूर तक जलते हुए जाते हैं इस समय मंद समीर चल रहा था इसलिए दीये बहुत दूर तक जलते तैरते चले गये ं जब उन्हें पहचानना मुश्किल हो गया तब हम लोग अपने गीले कपड़े पॉलीबैग में उठाये पाइप के सहारे- सहारे फिर ऊपर चढ़ने लगे। किनारे पर जगह-जगह ज्वार के समय बैठ कर नहाने के लिए चौकोर चबुतरे बने हुए हैं, दुल्हन की तरह ऊँटों को सजाये ऊँट वाले ग्राहकों को ऊँट की सवारी के लिए आमंत्रित कर रहे थे, फोटो ग्राफर अलग टेर लगा रहे थे ’’ दस मिनट में फोटो भाई साब!आइये इधर खड़े हो जाइये !’’ हमें तो हरिदर्शन की लगन लगी थी। सो हम लोग इधर-उधर ध्यान न देकर अपने रास्ते चले जा रहे थे। सीढ़ी की दीवार से लगे मघ्यम ऊँचाई के पेड़ मिल रहे थे। जितने लोग नहाकर वापस जा रहे थे उससे कई गुने तो नहाने चले आ रहे थे।
गोमती की पौराणिक गाथा-
मैं अपने आप को बहुत सौभाग्य शालिनी मान रही थी जिसे इस तपों भूमि पर पैर रखने का शुभ अवसर मिल सका। महाप्रलय के पश्चात् जिस समय सारी पृथ्वी जलमग्न थी छीर सागर में शयन करने वाले भगवान् विष्णु के नाभी से निकले कमल से ब्रह्मा जी का जन्म हुआ, तब उन्होंने विष्णु भगवान् की आज्ञा से अपनी मानसिक शक्ति द्वारा चार पुत्र उत्पन्न किये जिनके नाम सनक, सनंदन, सनातन और सनत्कुमार रखे। उन्होंने अपने पुत्रों को पृथ्वी पर प्रजा की सृष्टि करने का आदेश दिया, किंतु वे तो विष्णु भगवान की भक्ति के सिवा कुछ भी करने को तैयार नहीं हुए । वे दिगंबर वेश वाले सदा तपस्वी आर्यावर्त के पश्चिमी समुद्री किनारे आकर अरब सागर के तट पर कठोर तप करने लगे। उनका लक्ष्य श्री हरि के स्वरूप का दर्शन पाना था। बहुत समय बाद उनके तप से प्रसन्न होकर समुद्र के जल में प्रभु सुदर्शन चक्र के साथ प्रगट हुए, उनका तेज कोटि सूर्यो के समान था । उन्हे देख कर ब्रह्मा के पुत्र आश्चर्य चकित रह गये। सारे ऋषि-मुनियों ने भगवान् की स्तुति की। भगवान् ने उन्हें संसार से अलिप्त विशुद्ध ज्ञान प्राप्ति का आशीर्वाद दिया। उनकी तपःस्थली द्वारावती को सदा मोक्षदायी होने का वर दिया, साथ ही सुदर्शन चक्र के प्राक्ट्य के कारण इस स्थान को चक्रतीर्थ का नाम दिया। उस समय यहाँ घनघोर जंगल था। समुद्र का जल भी खारा था। इनके भीषण तप को देख कर वशिष्ट ऋषि ने अपनी पुत्री दिव्य लोक में बहने वाली गोमती नदी को भू लोक पर जाकर बहने की आज्ञा दी ताकि तपस्वियों को मीठा जल मिल सके तभी से पुण्य सलिला गोमती माता पृथ्वी वासियों के सारे पाप धोकर उनके लिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्थ कर रहीं हैं।
ऋषियों ने गोमती के जल से भगवान् विष्णु के चरण धोकर चरणामृत लिया, उनके अर्न्तधान होने के बाद गोमती नदी समुद्र में समा गईं । स्वर्ग में इनका नाम गंगा था धरती पर आकर गोमती हो गया।
यहाँ चारों ओर समुद्र से घिरे द्वारिका तीर्थ के बीच में शंखदेव भगवान् का वास है इसलिए इसे शंख तीर्थ भी कहा जाता है। यहाँ सनकादि ऋषियों का वास रहता है।
द्वारिकाधीश मंदिर का प्रवेश द्वार-
मैने सतयुग से विद्यमान् इस स्थान का नमन किया और सीढ़ियाँ खत्म कर अपने साथियों के साथ पक्की सड़क पर आ गई, अब तक चहुँ ओर उजाला फैल चुका था। हमने एक माला फूल की दुकान पर अपने गीले कपड़े व जूते चप्पल रख दिये, हमारे सामने आधुनिक शिल्पकला का अन्यतम उदाहरण द्वारिकाधीश मंदिर का प्रवेश द्वार था। इसकी कारीगरी का वर्णन करना मेरे लिए बहुत कठिन है। सफेदी लिये हुए हल्के पीले रंग के दिखाई देने वाले दो विशाल दरवाजों की बगल में एक छोटा दरवाजा भी है। दोनों में एक आगमन और दूसरा निर्गमन द्वार है। दरवाजों पर मनभावन शिल्पकारी की गई है, जिसे देखकर मन मुदित हो गया। हमने अंदर प्रवेश किया उस विशाल प्रांगण में दोनो ओर मंदिर , प्रसाद कक्ष, रसीद कक्ष, पेयजल की मशीन, आदि-आदि नजर आया। बहुत अंदर आने के बाद हमें लाइन लगी दिखाई दी, अधिक नहींं तब भी पचास लोग हमारे आगे थे। हम लोग महिलाओं की लाइन में लगीं और भाई लोग पुरूषों की लाइन में खड़े हो गये। देवकी दीदी और बेदमति भाभी को हमने बाहर ही बैठा दिया। लाइन में लगे-लगे मन बिना पंख के ही उड़ने लगा, मंदिर के शीर्ष पर फहराती श्री जी की ध्वजा के साथ। चाहे ध्वजा धार्मिक स्थलों की हो, राष्ट्रीय प्रतीक हो, या किसी सेना की पहचान हो , हर कोई अपने ध्वज का सम्मान करता है, उसके सम्मान के लिए मरने मारने के लिए तैयार रहता है, जैसे हमारा राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा, हमारी आन- बान और शान है इसके लिए अनेक वीर सपूतों ने हँसते- हँसते फाँसी के फंदे को चूम लिया।
मोक्षदायिनी सप्त पुरियों में एक द्वारिका पुरी-
मोक्षदायिनी सप्त पुरियों में एक मानी जाने वाली कुशावती, द्वारावती, द्वारिका, मोंक्षदायिका, मुक्तिधाम आदि नामों से जानी जाने वाली परम पवित्र वेदकालीन नगरी द्वारिका जिसका अर्थ मोक्ष द्वार होता है, इसका दर्शन श्री कृष्णजी के काल में भी दुर्लभ था। जिन छप्पन सीढ़ियों को चढ़ कर समुद्र संगम से यहाँ तक आये हैं, ये इसकी प्रतीक हैं कि श्री कृष्ण मंदिर तक पहुँचने के लिए 56 अवरोध थे इन अवरोधों पर परीक्षण के बाद ही नवागंतुक श्री हरि के दर्शन प्राप्त कर सकता था।
श्री जी के मंदिर के ऊपर लहराता 52 गज का ध्वज-
श्री जी के मंदिर के ऊपर लहराता 52 गज का ध्वज हमें श्री कृष्ण के शासन काल की अनूठी पद्धति का परिचय देते हैं। उनके काल में यदुबंशियों की संख्या 56 करोड़ थी उनके सुशासन के लिए 56 कोटि यादव विभागाध्यक्ष थे। यहाँ 56 कोटि का अर्थ 56 करोड़ न होकर 56 विभाग है। इनमें चार प्रमुख विभाग जो चर्तुव्यूहकहे जाते थे, ईश्वर स्वरूप बलराम ,श्रीकृष्ण , प्रद्युम्न और अनिरुद्ध के अधीन रहा करते थे। उनके प्रतीक के रूप में ये ध्वजाएं मंदिर के शिखर पर चार स्थानों पर मेरे सामने लहरा रहीं हैं। सबसे ऊँचे शिखर पर लहराने वाली घ्वजा बावन गज की है यह उन बावन विभागों की सूचना देती हैं जिनके द्वारा द्वारिका का राज्य संचालित होता था। इन बावन विभागाध्यक्षों के निवास पर उनके कार्यों को प्रतिबिंबित करती एक गज की ध्वजा लहराया करती थी। इसका निरीक्षण स्वयं श्रीकृष्ण जी किया करते थे। इन विभागों में शिक्षा, स्वास्थ्य, संरक्षण, आमोद- प्रमोद ,धार्मिक व्यवस्था आदि थे। जिन्हे आज वास्तविक द्वारिका के न रहने पर भी हम समझ सकते हैं, मान्यता है कि ध्वजा के दर्शन मात्र से लोगों की मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं । मंदिर के ऊपर लहरा रहे झंडे में इंद्रधनुष के सातों रंग शामिल होते हैं ये रंग लाल, हरा, पीला नीला, सफेद , भगवा, गुलाबी है जो उमंग, उत्साह, हर्ष पराक्रम, आध्यात्मिक प्रेरणा, प्रकृति, सुख शांति, ज्ञान-विज्ञान, बल-पौरुष, पवित्रता, शुद्धता, साहसिकता त्याग बलिदान मानव मन की प्रफुल्लता आदि के द्योतक हैं। कहते हैं तत्कालीन द्वारिका के पचास प्रवेश द्वार थे उसके बाद श्रीकृष्ण मंदिर तक जाने के लिए स्वर्गद्वार और मोक्षद्वार दो दरवाजे और थे इन बावन दरवाजों के प्रतीक के रूप में भी श्री मंदिर पर लहराने वाला ध्वज 52 गज का बनता है। मैंने नजर भर के उस ध्वज को देखा जो अनेक अर्थ अपने आप में समेटे हुए था। बावन गजों का पृथक अस्तित्व दर्शाने के लिए प्रति गज से बाद ध्वजा की किनारी पर एक छोटी ध्वजा टांक दी जाती है। दुकान में पड़ा रहने वाला साधारण कपड़ा अपने वांछित आकार में सिल कर तैयार होने के बाद जब मंत्रों द्वारा पूजित हो जाता है तब श्रीजी का दैवीय स्वरूप प्राप्त कर लेता है। ध्वज चढ़ाना बहुत खर्चिला है, इसकी बुकिंग बहुत पहले से करवाई जाती है। श्ऱ़द्धालू के घर में पहले पूजन होता है हित मित्रों सहित मंदिर आकर ब्रह्मण द्वारा पूजा करवानी पड़ती है। द्वारिका के स्थानीय गुगली ब्रह्मणों को ब्रह्मभोज कराना पड़ता है। इस विषय की जानकारी के लिए गुगली ब्राह्णजाति मंडल के कार्यालय में सम्पर्क करना चाहिए। इस पूजा से प्राप्त राशि मंदिर समिति में जमा होती है जिससे मंदिर की देख-भाल होती है।
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