यायावर मन अकुलाया (द्वारिकाधीश की यात्रा)
भाग-19 द्वारिकापुरी दर्शन-2
-तुलसी देवी तिवारी
द्वारिकाधीश मंदिर की भव्यता-
हम लोग धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे। अब श्री जी का मंदिर हमारे सामने ही था विश्व का सुंदरतम् शिल्प, जो संसार में द्वारिकाधीश मंदिर के नाम से पहचाना जाता है यह हिन्दुओं के चार पवित्र धामों 68 तीर्थों और सात पुरियों में अपना विशिष्ट स्थान रखता है जो हमारी भावना का केंद्र है। हम उसे देख पा रहे थे। मैंने अपने आगे देवकी दीदी को खड़ा कर लिया और हेमलता ने बेदमती भाभी को। हमारे साथी भी अपनी लाइन के साथ बढ़ते हुए सात मंजिल वाले गर्भगृह के समक्ष आ पहुँचे थे जिसके सामने एक बड़ा सा पाँच मंजिला जगमोहन है। यह एक बहुत बड़ा हॉल है जिसका मुख पश्चिम की ओर है। इसकी छत पर वेशकीमती झाड़ फानूस लटक रहे हैं, दीवारे फूल पत्तों कृष्णलीला के चित्रों से अलंकृत हैं। इसकी दीवारें भी दोहरी हैं हमने बाद में इसकी भी परिक्रमा की। हमने गर्भगृह के सामने पहुँच कर उन जगत के स्वामी के दर्शन किये, जिन्होंने जीव मात्र के कल्याण हेतु इस धरा पर अवतार ग्रहण किया। जिन्होंने जरासंध जैसे रिपु को स्वयं भाग कर विजयी होने का अवसर दिया क्योंकि उन्हेंने कोशिश करने वालों की जीत का सिद्धांत स्वयं ही दिया है। मेरा मन हर्ष से गद्गद् हो रहा था रोमावली खड़ी हो गई । रणछोड़ दास जी की श्याम वर्ण शंख, चक्र, गदा, पद्म धारी बहुमूल्य रत्नों के आभूषित पितांबर धारी छवि पर मेरी निगाहें टिक कर रह गईं। मैंने अपने साथ लाये तुलसीदल और पुष्प्प उनके श्री चरणों में अर्पित किये। जगन्नाथपुरी से मंगवाई गई छड़िया पटेल जी ने पूरे दल की ओर से चढ़ा दी। हम सब ने एक दूसरे को छूकर नेग पूरा किया।
पिता अपने सोने के दिव्य सिंहासन पर विराज रहे हैं । उनके सिर पर स्वर्ण मुकुट द्युतिमान् हो रहा है। मूर्ति लगभग तीन फुट ऊँची है। पैरों तक ग्यारह स्वर्ण हार शोभा पा रहे हैं, दरवाजों के चौखट पर चाँदी की पत्तर चढ़ी हुई है। उनकी बाईं ओर एक आले जैसे मंदिर में उनके अग्रज बलराम की मूर्ति शोभा पा रही है। उनके आस-पास राधा-कृष्ण, जाम्बवंती, सत्यभामा, लक्ष्मी, देवकी माता, माधवराव जी जो श्री कृष्ण के खजांची हैं, रुक्मिणी जी, युगल नारायण आदि के चित्र बने हुए हैं।
धूप-दीप पुष्प और संसार की दिव्य वस्तुओं से इनकी पूजा हो चुकी है। वातावरण में पवित्र मनमोहक सुगंध छा रही है। मैं अपने तन-मन की सुध-बुध भूली जा रही थी। उस समय मन जैसे समाधी में चला गया हो। कहते हैं यहाँ आकर मनोकामना पूरी होती है मेरा तो न मन रह गया न मनोकामना । पूरी तरह पूर्ण काम कर दिया प्रभु ने। मेरे दोनाें जुड़े हाथ मेरे हृदय पर टिके हुए थे, सबका मान बढ़ाने वाले पिता को देखकर अपने आप नेत्रों से नीर बहने लगे। न कुछ देते बना न कुछ लेते। मंदिर की दीवार दोहरी है, दो दीवारों के मध्य आदमी के आराम से गुजर सकने का स्थान है, यही परिक्रमा पथ है। परिक्रमा करते हुए आगे बढ़कर हमने अन्य दर्शनार्थियों को अपने जैसे आनंद प्राप्ति का अवसर दिया।
कुछ ऐतिहासिक तथ्य-
म्ंदिर के कार्य कलाप पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय के अनुसार सम्पन्न होते हैं। द्वारिकाधीश की सेवा, आरती, भोग, शयन आदि सेवा कार्यों पर पुष्टिमार्गीय प्रभाव दृष्टिगोचर होते हैं। इसका कारण भी सर्व विदित है। छत्तीसगढ़ के चम्पारण्य में 1479 बैसाख कृष्ण एकादसी को जनमें जगत्गुरू श्री वल्लभाचार्य जी ने सम्पूर्ण देश की भाँति द्वारिका की भी अनेक यात्राएं की और जगह-जगह भागवत महापुराण कथा का पारायण किया। उन स्थानों पर उनकी बैठके आज भी वर्तमान हैं, जहाँ लाखों की संख्या में प्रति वर्ष श्रद्धालु दर्शन करने आते हैं । श्री वल्लभाचार्य के दूसरे पुत्र श्री विट्ठलनाथ जी की भी कई स्थानों पर बैठकें हैं। इस मंदिर में विराजित मूर्ति के बारे में कई बातें सुनने में आतीं हैं, मुसलमानों के बार-बार होने वाले आक्रमणों से मूर्ति की रक्षा के लिए किसी कृष्ण भक्त ने मूर्ति को सावित्री वाव (कुआँ) में छिपा दिया था, वल्लभाचार्य ने मंदिर को बिना मूर्ति के देखा तो लाड़वा गाँव में रुक्मिणी माता जी द्वारा सेवित मूर्ति लाकर स्थापित कर दी जो ईस्वी सन् 1551 तक रही। सोलवीं शताब्दी में तुर्कों के हमले के समय यह मूर्ति बेट ले जाई गई । समय देखकर, द्वारिका के इस मंदिर में सावित्री वाव से निकाल कर भगवान की असली मूर्ति पधराई गई, इसके भी पहले बारहवीं शताब्दी में डाकोर के देशभक्त राजपूत विजय सिंह उर्फ विजय बोडाणें के, द्वारा असली मूर्ति लाने की भी ऐतिहासिक मान्यता है। वर्तमान् में जो मूर्ति विराजित है उसे शकराचार्य अनिरुद्धाचार्य जी ने डुंगरपुर से लाकर पधराई थी, ऐसा माना जाता है।
मंदिर की स्थापत्य कला-
मंदिर की स्थापत्य कला बेजोड़ है, अलग-अलग समुदायों एवं देशों की वास्तु कला के दर्शन होते हैं। मंदिर के सभा कक्ष में भी ग्रीक और इरानी शिल्प का असर नजर आता है। सिर पर मुकुट पहने पंखों वाली परियाँ, पंखों वाले हाथी ये युनानी शिल्प कला के उदाहरण दिखाई दे रहे हैं। दूसरी शताब्दी के आस-पास प्रचलित ब्राह्मी लिपि में लिखे गये शिला लेख विद्वानों के इन अनुमानों को सत्य सिद्ध करते हैं। प्रभु का यह मंदिर बहत्तर खंभों पर टिका हुआ है, जिसमें साठ खंभे तो जगमोहन में ही हैं बाकी बारह खंभों के ऊपर श्री मंदिर टिका हुआ है। इसके निर्माण में कही भी गोलाकार अथवा अर्द्ध गोलाकार कमान दिखाई नहीं दे रही है। इसमें लकड़ी अथवा लोहे का प्रयोग बिल्कुल नहीं किया गया है। इसकी दूसरी मंजिल पर यदु कुल की कुल देवी अंबा जी विराज रहीं हैं, ऊपर जाने के लिए बनी सीढ़ियाँ मानव श्रम की अमर कहानी कहती हैं, इनमे कही भी जोड़ नहीं है अर्थात एक ही पत्थर को काट -काट कर सीढ़ी का रूप दिया गया है। अन्य मंजिलों पर कहीं भगवान् का शयन कक्ष है कहीं मनोरंजन कक्ष तो कहीं पर बालको के साथ क्रीड़ा करते हुए मूर्तिमान हैं तो कहीं वे रानियों के साथ मंत्रणा करते नजर आये। भगवान् श्री कृष्ण के इस मंदिर पर प्राकृतिक आपदायें सिर पटक कर पीछे हट जातीं हैं। समुद्री तूफान, भूकंप आदि ने जब पूरे सौराष्ट्र के नगरों को तबाह-बरबाद कर दिया उस समय भी श्री मंदिर अरब सागर के गोमती घाट पर मजबूती से खड़ा रहा है, इसे भगवान् की लीला नहीं तो और क्या कहा जायेगा। मंदिर के दक्षिण की ओर बराबर-बराबर दो मंदिर हैं, एक यदुवंशियों के कुल गुरू दुर्वासा जी का और दूसरा त्रिविक्रम या टीकम जी का ये मंदिर भी बेश कीमती साजसज्जा से विभूषित हैं। इसके बाद प्रद्युम्न जी का दर्शन करते हुए हम लोग आगे बढ़कर कुशेस्वर महादेव के दर्शन करने लगे।
शंकराचार्य की गद्दी
हॉल में ही शंकराचार्य की गद्दी है। आठवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य ने हिन्दू धर्म के पुनरूत्थान के लिए संपूर्ण भारत का भ्रमण किया,पतनोंन्मुख बौद्धों के दुष्प्रभाव से हिन्दू धर्म को बचाने के लिए बड़े- बड़े पंडितों से शास्त्रार्थ कर उन्हे हराया और हिन्दू धर्म को संगठित करने के उद्देश्य से देश के चारों दिशाओंं में मठ की स्थापना की । उत्तर में बद्रीनारायण, दक्षिण में रामेश्वरम् पूर्व में जगन्नाथ पुरी, और पश्चिम में द्वारिका पुरी। इनके दर्शन प्रत्येक हिन्दू के लिये आवश्यक कर दिया। यहाँ उनकी यात्रा को समर्पित एक स्मारक भी है। इस पीठ का नाम शारदा पीठ है। यह पीठ भारतीय पुरात्त्व संस्कृति और विद्या के अभ्यासी पंडितों के लिए बड़े महत्व का है। पीठ के द्वारा यात्री निवास की निःशुल्क व्यवस्था की गई है।
हमने गद्दी को प्रणाम किया और यथा शक्ति चढ़ावा चढ़ाया। गद्दी के, द्वारा देश में अनेक शिक्षा संस्थान, चिकित्सालय, अन्न क्षेत्र आदि चलाये जाते हैं कई गौशालायें, अनाथालय आदि के साथ ही मठ में रहने वाले साधु संन्यासिओं का जीवन भी जनता द्वारा दिये गये दान पर ही निर्भर है हमें अपनी सामर्थ्य के अनुसार दान अवश्य करना चाहिए।
पंचनद अथवा पंच कुंड तीर्थ
हम लोगों ने प्रसाद वाली खिड़की से प्रसाद लिया और भीड़ के रेले के साथ मंदिर के दरवाजे से बाहर निकले। मंदिर के पीछे गोमती नदी के दूसरे तट पर स्थित पंचनद अथवा पंच कुंड तीर्थ के दर्शन की अभिलाषा हमारे मन में थी। हमने टिकिट लेकर सुदामा पुल पार किया और पंचनद तीर्थ क्षेत्र में आ गये। पुराणों के अनुसार जरासंध की विनाश लीला से मथुरा वासियों को बचाने के लिए जब श्री कृष्ण द्वारिका चले तब उनके साथ कायिक मानसिक रूप से सदा रहने वाले देवगण, ऋषि-मुनी भी उनके कार्य में सहायक बनकर चले । संभवतः मीठे जल के अभाव को दूर करने के लिए ही सभी देवों और ऋषि- मुनियों ने एक-एक कुंड बनाया। ब्रह्माजी ने अपने नाम से ब्रह्म कुंड बनाया, इस कुंड के पास उन्होंने सूर्य नारयण की स्थापना की यह मूल तीर्थ कहलाया। सभी देवों ने यथा चन्द्र, देवराज इन्द्र, वरुण, देवाधिदेव महादेव ने अपने अपने नाम से पवित्र कुंड बांधे। भगवान् विष्णु को द्वारिका में पधारा जान कर ब्रह्माजी के पुत्र यहाँ आये और समुद्र संगम में स्नान करके पंचनद तीर्थ की स्थापना की। उन्होंने जिन नदियों का आवाहन किया वे वेगपूर्वक आकर समुद्र में समा गईं, मरिच के लिए गोमती, अत्रि के लिए लक्ष्मणा, अंगिरा के लिए चन्द्रभागा,और पुलह के लिए कुशावती, एवं क्रुतु के लिए जाम्बवती नदी आईं थीं। यह पंचनद तीर्थ मनुष्य के समस्त पापों को धो देने वाला है।
कुछ वर्ष बाद महाभारत युद्ध के पश्चात् कुटुंब हत्या के पाप से जलते पांडव यहाँ आये और श्री कृष्ण से पाप शमन का उपाय पूछा उन्होंने समुद्र तट पर पाँच कुएं खोदने का मंत्र दिया। (हो सकता है तब तक समुद्र की रेत अथवा किसी अन्य प्राकृतिक कारण से देवों और ऋषियों द्वारा बनाये गये कुएं लुप्त हो गये हों।) उन्होनें पाँच कुएं खोदे और उनमें पवित्र नदियों की धारा स्थापित की। कुएं पाँच-पाँच दस-दस मीटर के अंतर पर है, लेकिन हर कुएं के जल का स्वाद भिन्न है। युधिष्ठिर ने लक्ष्मणा नदी, भीम ने जाम्बवती नदी, अर्जून ने गोमती नदी, नकुल ने कुशावती नदी,सहदेव ने चन्द्रभागा नदी का अन्वेषण किया और उनके जल स्रोत को बांध कर कुएं बना दिये । भगवान् ने पेय जल की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए बताया है कि जल स्रोत शोधन बड़े पुण्य का काम है, इससे अनेक जीव जीवन पाते हैं । पुराना पाप धुल जाता है।
इस समय तो कुंडो को हवन कुंड के आकार में पक्का करके संगमरमर से अलंकृत कर दिया गया है । गोमती सागर संगम पर बहुत ऊँचाई तक पक्का कर दिया गया है ताकि रेत आकर कुओं के पुनः न ढक दे। मान्यता है कि इनके जल से कुल्ला करके मंदिर दर्शन करने जाना चाहिए। हमें ज्ञात नहीं था इसलिए ऐसा न कर सके। इस समय यहाँ मेले का दृश्य था। ऊँट वाले अपने ऊँटों को सजा कर इधर-उधर बैठाये हुए थे, उनकी पीठ पर कुछ गोल सा बांध रखा था जिस पर सुरक्षित बैठा जा सकता था। एक कुॅएं से दूसरे कुएं तक दस फुट चौड़ी चेकर टाइल्स लगी सड़क बनी हुई है जो एल के आकार में कुएं के पास जाती है । स्थानीय लोग प्रातः भ्रमण कर रहे थे कुछ लोग तट पर रखी बेंचों पर बैठे गोमती के जल को निहार रहे थे। बच्चे उछल कूद मचा रहे थे, हमने कुंडों के दर्शन किये, कुछ देर बैठ कर जैसे गये थे वैसे ही वापस लौट आये।
अब हम होटल की ओर चल पड़े। अभी तक हमने चाय-पानी भी नहीं पीया था। सभी के पेट में चूहे कूद रहे थ। मोक्षद्वार से शहर के अंदर प्रविष्ट होने से पहले हमने अपने गीले कपड़े और जूते चप्पल लिए और होटल कृष्णालय आ, नीचे भोजन करके अपने कमरों में गये। 80रूपये प्रति थाली के हिसाब से हमें मनपसंद भोजन मिल गया।
जुगाड़ लगाकर कपड़े सुखाये गये। थोड़ा विश्राम करके घूमने निकलना था। वैसे मन परम विश्रांति प्राप्त कर रहा था। हमारी यात्रा का मुख्य लक्ष्य हमें प्राप्त हो चुका था बाकी तो सोने मे सुगंघ जैसी बात थी।
पुरातत्व वैज्ञानिक अनुमान-
मुझे आश्चर्य हो रहा था इस बात को सोचकर कि 1980 तक लोगों को यह पता नहीं था कि जिस द्वारिका को आज से 5300 वर्ष पहले श्री कृष्ण ने बसाया था वह द्वारिका कोई और है। यह तो उसके नाम पर बसी उसी की समरूप नगरी है। हाँ द्वारिकाधीश मंदिर अपने स्थान पर ही बनता आया है। जिसके कारण इसका प्रभाव सदा अक्षुण रहा है । अब उन इतिहासकारों की भ्रान्ति का निवारण हो गया है जो कहते थे कि ईसा पूर्व भारत में कोई शहर नहीं था। इस खोज से मिले साठ किलो मीटर के क्षेत्र में फैली व्यवस्थित ज्यामितीय संरचना मानव निर्मित है इसे अधिकतर वैज्ञानिकों ने स्वीकार किया है। किनारे से 20 किलो मीटर अंदर फैला यह पूरा वैभव किसी समृद्ध शहर का अवशेष ही है, समुद्र की 30 मीटर की गहराई में प्राप्त पत्थर के औजार, हड्डियाँ और दाँत जिनके कार्बन रीडिंग से वे 9500 वर्ष पुराने ज्ञात हुए हैं । समुद्र के भीतर ही नहीं भूमि पर भी खुदाई की गई है 10 किलो मीटर की गहराई में 10000 हजार साल पुराने भवनों के नमूने प्राप्त हुए हैं। पुरातत्व वैज्ञानिकों का अनुमान है कि दस हजार वर्ष पूर्व बर्फ पिघलने से समुद्र का जल स्तर 400 फुट तक बढ़ जाने से कई पुराने किनारे जल मग्न हो गये और कई नये निकल आये। उसी में द्वारिका डूब गई होगी, अब यहाँ बात यह फंसती है कि कृष्ण की द्वारिका तो 5000 हजार वर्ष पूर्व थी फिर यह दस हजार वष पूर्व के अवशेष क्या इंगित करते हैं? मैं एक बार पुनः स्मरण कराना चहूंगी कि यादवों के आदि पुरूष यदु को जब यह क्षेत्र राज्य के हिस्से में मिला तब हो सकता है कि पूरा सौ योजन मरूस्थल न हो, यदु ने अपने राज्य में नगर का निर्माण कराया हो, समय के साथ किसी प्राकृतिक आपदा के कारण यदुवंशियों को देश के अन्य भाग में जाना पड़ा हो दस हजार वर्ष पुरानी वही द्वारिका हो। 1980, 2005 और 2007 में भारतीय नौ सेना के गोताखोर और पुरातत्वविभाग ने मिल कर इस सारे सर्वेक्षण को सफलता पूर्वक अंजाम दिया। पलंग पर लेटे- मन का घोड़ा दौड़ रहा था।
स्थानीय दर्शनीय स्थल-
हमारे दल के लोग टिकिट बुकिंग काउंटर से सोमनाथ यात्रा के लिए 23 तारीख का टिकिट ले आये। लगभग तीन बजे हम लोग तैयार होकर नीचे आ गये, आज द्वारिका के स्थानीय दर्शनीय स्थलों के दर्शन कर लेने का कार्यक्रम था। हम लोग दो ऑटो में बैठ कर शहर घूमने निकले, यहाँ समुद्र के किनारे क्यारियाँ बनी हुई दिखाई दी जिनमें ज्वार का पानी भर जाता है, पानी धूप में सूखता रहता है, भर जाने पर इसी पानी से नमक बनाया जाता है। जैसे हमारे यहाँ अनाज के खेत होते हैं वैसे ही यहाँ नमक के खेत देखने में आये । पता चला कि मीठापुर में टाटा नमक का कारखाना है, गुजराती में मीठा नमक को कहते हैं। सड़क पर इस समय आवागमन अधिक था। दिन भर की मेहनत से क्लांत मुख युवतियाँ जो मछली सुखातीं अथवा नमक की सार-संभाल करती हैं, अब अपने घर को लौट रहीं थीं। स्थानीय लोगों को देख कर अनुमान लगाना सहज था कि यहाँ के अधिकांश नागरिक मेहनतकश होने के बाद भी गरीब तबके से आते हैं। सड़क पर दौड़ता जाने पहचाने पूर्जां के मेल से बना एक नया सा वाहन देखने को मिला जो मुझे बहुत पसंद आया क्योंकि बेकार हो चुकी वस्तुओं से काम की वस्तु बनाने का मुझे बचपन से ही शौक रहा है, वह एक सस्ता और सहज प्राप्त वाहन है, पुरानी यामाहा के इंजन के साथ ट्रक के पुराने चक्के लगा कर पीछे एक मध्यम आकार की ट्राली जोड़ दी गई है जिसमें आराम से माल ढुलाई की जा रही है। यामाहा की सीट पर बैठा चालक अकेले कई जानवरों के बराबर सामान ढो रहा है। ऐसे बहुत सारे वाहन सड़क पर चलते दिखाई दिये।
भड़केश्वर महादेव
शरद़ ऋतु थी किंतु मौसम का तेवर नहीं बदला था, धूप तेज लग रही थी। हम जिस रास्ते से आगे बढ़ रहे थे। वह कस्बाई लग रहा था। सड़क भी अच्छी कहने लायक नहीं थी, हम लोग भड़केश्वर महादेव जा रहे थे। हमारा ऑटो जहाँ जाकर रुका वह समुद्र की सतह से लगभग दो सौ फुट ऊँचा था। ऑटो वालों ने वहीं हमें उतार दिया और भी कई ऑटो वाले वहाँ खड़े थे। सामने ही ठाठे ंमारता अरब सागर अपनी चाँदी सी चमकती लहरों के साथ आँख मिचौली खेल रहा था। लगभग पाँच सौ मीटर कच्चे रास्ते के बाद हम लोग एक पुल पर चल रहे थे। सामने ही श्री भड़केश्वर मंदिर का लाल ध्वज सागर से आती हवा के साथ लहरा रहा था।
पता चला कि मंदिर अभी बंद है चार बजे खुलेगा। उस समय साढ़े तीन बज चुके थे। वापस जाने में कोई बुद्धिमानी नहीं थी अतः हम लोग पुल पार कर मंदिर के पास जाने लगे। यह पुल समुद्र के अन्दर काफी दूर तक चला गया है। पुल एक किलो मीटर से कम क्या होगा? आगे पुल दाहिनी ओर मुड़ता हुआ भड़केश्वर मंदिर तक जाता है। समुद्र जल में पता नही कितने नीचे से मंदिर की नींव डाली गई है मुझे तो कुछ समझ में नहीं आया। मंदिर के सामने एक सामान्य सा जगमोहन शिव जी के चित्रो से सजा हुआ , मंदिर के द्वार पर एक छोटा सा ताला लटक रहा था पुजारी भोजन करने गये थे। मंदिर के चारों ओर परिक्रमा और मंदिर की नींव से अनवरत टकराता सागर का ज्वार ! परिक्रमा के बाहर रेलिंग बना हुआ है जिसे पकड़कर में खड़ी होकर सागर की व्यग्रता का अनुभव करने लगी। सिर के ऊपर तेज धूप और बदन को अपने शीतल स्पर्श से आनंदित करती हवा । देवकी दीदी प्रभादीदी आदि सब साथ ही थीं। कुछ साथी ऑटो में बैठ कर ही मंदिर खुलने का इंतजार कर रहे थे। समुद्र से बहुत ऊपर मंदिर है सागर के कगार को पत्थर से जोड़ाई करके पक्का किया गया है। यह जोड़ाई ढलावदार है। और ढाल पर बहुत सारे ऐसे पत्थर पड़े हैं जैसे सिमेट के गमले उल्टे करके रखे गये हो ये एक साथ दो-दो हैं । कई यात्री इन पर बैठे मंदिर ,खुलने का इंतजार कर रहे थे। पुल के नीचे समद्र तट पर कुछ लोग मजे ले ले कर नहा रहे थे । उनकी प्रसन्नता देखकर मेरे बदन में खुशी की तरंग दौडने लगी। चार बजे मंदिर खुल गया। जय हो भड़केश्वर महादेव की! कहते हम लोगों ने देवाधि देव के दर्शन किये । वे अपने पूरे वैभव के साथ विराज रहे हैं। सफेद संगमरमर का शिव लिंग सर्प का मुकुट और पार्वती माता रूपी जलहरी दीवारों पर शिव परिवार के चित्र ,पुजारी जी धोती कुर्ता वाले अधेड़ से आदमी हैं उन्हांने हमें लाचीदाने का प्रसाद दिया। यथा शक्ति दक्षिणा देकर हम लोगों ने पुल पार किया । पटेल गुरूजी मेरे लिए जानकारी एकत्र कर रहे थे अपने कुछ साथियों से हम पीछे थे उन्हें हमारा आराम से चलना अच्छा नहीं लगा,मेरे प्रति कही किसी बात से पटेल जी नाराज हो गये मैंने अपनी चाल बढ़ा दी और पटेल जी से शांत रहने का आग्रह किया। भड़केश्वर मंदिर आज के युग का मंदिर है। आडंबर रहित और शांतिदायक स्थान । हम वापस लौटे थोडी ही दूर पर प्रजापिता ब्रह्म कुमारी का एक मंदिर मिला हम लोग रुक कर अंदर गये। वहाँ शिव बाबा के बारे कुछ बातें पढ़ी। एक श्वेत वसना बहन एक ग्रामीण औरत से मूंगफल्ली के दाने निकलवा रही थी। मैंने उत्सुकतावश पूछ लिया- ’’बहन जी इतनी सारी मूंगफल्ली कहाँ से आई ?’’
’’ गाँव के लोग लाते हैं बाबा को भोग लगता है न ऽ !’’ उसने सहज भाव से उत्तर दिया।
’’ ये कौन है?’’
’’ यह यहीं की एक भक्त महिला है जो लोग आते हैं हम उन्हें अच्छी बातें भी बताते हैं काम भी हो जाता है। ’’ बहन ने बताया । महिला हमारी बातचित से असंपृक्त अपनी गर्दन हिला-हिला कर सूपे से मूंगफल्ली के दाने और छिलके अलग कर रही थी। बहन से अधिक तो उसी की एकाग्रता प्रशंसनीय थी। एक बार घूम कर देखने के बाद सब लोग आकर ऑटो में बैठ गये।
गीता मंदिर
प्रजापिता ब्रह्म कुमारी नये जमाने का नया संप्रदाय है जो कम समय में ही पूरे विश्व में अपनी पहचान बना रहा है। इसमें महिलाओं की प्रधानता है। जाति-धर्म का कोई बंधन नहीं है। थोडी ही दूरी पर बिड़ला ग्रुप द्वारा संचालित गीता मंदिर है यह भी आधुनिक भारत का प्रकल्प है। इसमें खाली जगह में छतनुमा संरचना के कारण आवाज गूंजती है। मुख्य मूर्ति श्री कृष्ण भगवान् की है उनके चरणोंमें धुटनों केबल बैठे अर्जून ने अपना धनुष धरती पर रख दिया है। और आशा भरी नजरों से भगवान को देख रहा है। गीता के उपदेश को जन-जन तक पहुँने केलिए बिड़ला ग्रुप ने अन्य शहरों की भाँति द्वारिका में भी यह सुंदर मंदिर बनवाया है। हमस ब दीवार पर लिखे गये गीता के अठारहों अध्यायों में से कुछ – कुछ को पढ़ते हुए मंदिर की अद्भूत शांति का अनुभव कर रहे थे। पटेल जी गीता के नित्य प्रति के अध्येता हैं उनके चेहरे पर छाया आनंद देख मैं सोचने लगी प्रभु अपने आनंद घन स्वरूप में किसे समसहित कर लेंं कुछ पता नहीं । मंदिर में शायद कोई त्यौहार मनाया गया था पताकाओं झंडियों से मंदिर सजाया गया था। पता चला कि यात्रियों की सुविधा केलिए बिड़ला ग्रुप का एक साफ-सुथरा यात्री निवास भी है।
रामधुन संकीर्तन मंदिर
पास ही खेल परिसर में हम लोग सिद्धेश्वर, महादेव भुतेश्वर महादेव , गायत्री शक्तिपीठ,पंचमुखी हनुमान् मंदिर के दर्शन करते हुए रामधुन संकीरतन मंदिर आ गयें यहाँ एक बड़े से सुसज्जित हॅाल में कालीन बिछा हुआ था, जहाँ कुछ भक्त बैठे ’हरे राम हरे राम राम हरे हरे का सस्वर गायन कर रहे थे। ढोल मंजीरा रखा हुआ था हम लोग भी बैठ कर राम नाम का गायन करने लगे। कोई ढोल बजाने लगा कोई मंजीरा। सभी साथी कुछ देर यहाँ बैठना चाह रहे थे। हमारे सामने ही एक मंच बना हुआ था जिस पर सुंदर चादर बिछी हुई थी। भगवान् राम के जीवन से संबंधित चित्र दीवारों पर बने हुए थे। बहुत आनंद आया यहाँ चंद पल बैठ कर अब तक शाम रात में बदल चुकी थी। चहुँ ओर बिजली की रोश्नी जगमगाने लगी। हम लोग ऑटो में बैठ कर मंदिर के पास आये । और आरती में शामिल हो आनंदित हुए। मंदिर के पास ही जगमगाता बाजार है हम लोग बाजार की ओर निकल गये अपने हित मित्रों के लिए उपहार खरीदे, कॉफी पी और सब तरफ घूम- घाम कर अपने होटल आ गये। नीचे से ही भोजन करते अपने कमरों में गये। दिन भर देखे गये स्थान बार- बार आँखों में झूल जाते थे। कुछ देर हमने आपस में बात- चित की, सबेरे केलिए कपडे़ आदि निकाल कर रख दिया गया। अगले दिन हम आज से अधिक व्यस्त रहने वाले थे। ढाई बजे की बस से हमे सोमनाथ केलिए निकल जाना था अतः दवाई वगैरह लेकर सो गये ।