यायावर मन अकुलाया (द्वारिकाधीश की यात्रा)
भाग-2 महाकाल का दर्शन (महाकालेश्वर, उज्जैन)
-तुलसी देवी तिवारी
गतांक यायावर मन अकुलाया-1 (यात्रा संस्मरण) से आगे
अगले दिन ( दिनांक 10.10.16) आदतन प्रातः पाँच बजे मेरी नींद खुल गई। सबसे पहले उसकी सीट तक जाकर मैने हेमलता को देखा, वह अभी सो रही थी। देवकी दीदी ने बताया कि बीच में वह बाथरुम जाने के लिए उठी थी , अब वह एकदम ठीक है। संतोष के साथ खिड़की से बाहर झाँक कर मालवा की पुण्य भूमि के दर्शन किये। अभी उजाला नहीं हुआ था, मेरे मन में प्रसन्नता के फूल खिल रहे थे। ज्ञान-विज्ञान की कर्मभूमि, योगी राज भगवान् श्रीकृष्ण बलराम और उनके मित्र सुदामा के गुरु सांदिपनि की पुण्य ज्योति से ज्योतित,आर्य भट्ट एवं वाराह मिहिर की जन्म स्थली , अवन्तिका,कनकश्रृंगा,कुशस्थलि,पद्मावती कुमुदवती,अमरावती,विशाला आदि नामों से पुकारी जाने वाली उज्जैन नगरी! भारत के पुनीत आध्यात्मिक तीर्थों एवं पीठों में एक है यह। सम्राट विक्रमादित्य, महान् संस्कृत कवि कालीदास,ने इस नगर का गौरव बढ़ाया। समस्त मृत्यु लोक के स्वामी, और काल गणना के अधिपति महाकाल की निवास स्थली होने का गौरव प्राप्त यह पौराणिक, ऐतिहासिक नगरी सदा प्रातः वंदनीय है। मेरे मुँह से अस्फुट स्वर में निकल पड़ा ’’अयोध्या मथुरा कांची अवंतिका पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिका।’’ (सात महान् तीर्थें के नाम मनुष्यों को आवागमन के चक्कर से छुड़ाने वाले हैं उन्हीं में एक उज्जैन भी है।) अब कुछ ही समय बाद उस पवित्रतम् नगर में हम प्रवेश कर सकेंगे । यह अनुभूति ही सारे दुःखों से पार ले जा रही थी।
प्रातः के सवा आठ बजे नर्मदा एक्सप्रेस उज्जैन जंक्शन पर पहुँच कर रुक गई। त्रिपाठी जी पहले ही सभी साथियों को उतरने की तैयारी करने के लिए कह चुके थे। सभी ने अपना-अपना सामान उठाया, प्रभा दीदी ने अपना बड़ा सा बैग अपने कंधे पर लाद लिया। मैने देवकी दीदी का हाथ पकड़ा और स्टेशन पर उतर गई । त्रिपाठी जी ने मेरा और अपना सामान उतारा। इधर-उधर बैठे हमारे साथी हमसे पहले ही उतर चुके थे। स्टेशन के बाहर ऑटो वालों की भीड़ ने हमें घेर लिया। चार ऑटो करके हम लोग ऑटो वालों के बताये अनुसार महाकाल मंदिर के पास आ गये, जहाँ ऑटो से हम उतरे वहीं से महाकाल मिंदर जाने के लिए चौड़ी सीढ़ियाँ बनी हुई हैं, पुरानी और देख-रेख के अभाव में मलीन तथा भग्न सीढ़ी पर दोनो ओर दो भिक्षु बैठे महाकाल के नाम की टेर लगा रहे थे। कुछ खुदरे दुकानदार बड़े वाले रंगीन छाते के नीचे बनियान-जांघिया रूमाल आदि बेच रहे थे । यह मंदिर तक जाने का छोटा रास्ता है। सामान उतार कर हम लोग वहीं बैठे, त्रिपाठी जी, पटेल जी आदि ठहरने के लिए स्थान पसंद करने निकल गये। हमारे सामने लाइन से गगनचुंबी यात्री गृह खड़े थे। थोड़ी दूर पर कृष्णा यात्री गृह में हमें कमरा मिल गया। सभी का सामान लिफ्ट के द्वारा ऊपर पहुँचाया गया। तिवारी एवं शर्मा जी ने अलग-अलग कमरे लिए (स्वास्थ्यगत कारणों से ऐसा आवश्यक रहता है उनके लिए।)बाकी सभी महिलाएं एक हॉल में ठहरीं और सारे पुरूष चौथी मंजिल पर ही एक अन्य हॉल में।
अब तक दिन के दस बज चुके थे, हम सात स्त्रियों को नित्य क्रिया से निवृत होकर स्नान आदि करना था। समय नष्ट न करते हुए प्रभा दीदी ने प्रसाधन प्रयोग का शुभारंभ किया। मैंने अपना केमरा मोबाइल चार्ज होने के लिए लगा दिया। हेमलता, बेदमती भाभी के नहाने की तैयारी करने लगी। सावित्री दीदी कपड़े जमाने लगीं। आधे घंटे में वह अनजाना कमरा जैसे हमारा सम्मिलित स्थायी बसेरा बन गया।
सबको तैयार होते-होते लगभग डेढ़ बज गये । साथ मेंं रखे नाश्ते से क्षुधा शांति का प्रयास किया गया। पता चला कि मंदिर के पास ही अच्छे-अच्छे होटल हैं, अतः हम सभी शार्टकट वाले रास्ते से सीढ़ियाँ चढ़ कर मंदिर की ओर आ गये । चूंकि सीढ़ियाँ काफी ऊँची- ऊँची थीं इसलिए देवकी दीदी को बहुत समस्या हो रही थी। मैंने उन्हें सहारा देने के लिए हाथ बढ़ाया तो उन्होने संकेत से बताया कि सीढ़ी की दीवार के सहारे वे ज्यादा अच्छी प्रकार चढेंगी तो फिर मैं उनके साथ-साथ चढ़ने लगी। लगभग पाँच सौ मीटर चढने के बाद हमें मंदिर का ध्वज दृष्टिगोचर हुआ। क्वार का महिना होने के कारण धूप बहुत तेज थी। फूल माला ,बेलपत्र, पूजन सामग्री, खिलौने, उज्जैन के स्मृति चिन्ह आदि की दुकाने लगीं थीं ! मंदिर का विशाल परिसर देखते दूर से ही महाकाल को प्रणाम करते हम लोग एक भोजनालय में पहुँचे , सबने महाकाल का प्रसाद समझ कर भोजन किया। फिर पैदल ही मंदिर आ गये मध्यान्ह काल की वजह से परिसर लगभग खाली था। रसीद काटने वाली खिड़कियाँ बंद थीं । त्रिपाठी जी ने सोचा था कि कल के भस्म आरती में शामिल होने के लिए रसीद कटा लेंगे किन्तु पता चला कि रसीद प्रातः सात बजे से लेकर बारह बजे तक ही कटती है। अभी भी 51रू की रसीद कट रही थी जिसे लेकर हम महाकाल के दर्शन कर सकते थे। परम पिता के दर्शन के लिए मन व्यग्र हो रहा था, अतः त्रिपाठी जी ने सबकी रसीद कटा ली। आगे लगभग सौ लोगों की लाइन थी। हमारे में से कुछ लोगों ने गार्ड से अपने सीनियर सीटिजन होने का वास्ता देकर लाइन में कुछ आगे खड़े करने की गुज़ारिश की जिसे उसने ठुकरा दिया। हम लोग धीरे-धीरे सरक रहे थे। सदा श्मशान मे वास करने वाले भोले नाथ का भव्य भवन देख कर मन कुछ सोचने लगा। क्या पिता भी कलयुग में सुविधाभोगी हो गये? ’’ नहीं पिता को कुछ नहीं चाहिए, बच्चों की सुविधा का मान रखा है पिता ने ,जब सभ्यता का ऊषःकाल था, संसार में संसाधनों का अभाव था तब पिता ने सारे सुख त्याग कर चिता की भस्म रमायी, आज जब संसार में सुविधाओं का बाहुल्य है संतान की प्रसन्नता के लिए कनक भवन भी सही।
हम लोग सीढ़ीदार रास्ते से ऊपर चढ़ने लगे। सभी लोग आगे पीछे चढ़ रहे थे। देवकी दीदी , त्रिपाठी जी और मेरे बीच कुछ लोग आ गये, मेरी नजर अपने साथियों पर ही थी बेदमती भाभी और पटेल जी सबसे ऊपर पहुँच गये थे, वहाँ जहाँ से नीचे उतरना था। बाकी साथी आगे बढ गये थे, मैं आश्वस्त थी कि देवकी दीदी अभी दिख रहीं थीं, मैं पूरी तरह सतर्क थी तब भी न जाने क्या हुआ कि वे मेरी आँखों से ओझल हो गये। एक बार तो मुझे ठंढा पसीना आ गया। गुम जाने के डर से पेट में दर्द होने लगा। पूर्व की यात्राओं , श्री शैलम और बाला जी में गुम होने का मेरा बड़ा बुरा इतिहास है। ’’अब क्या करुँ? सहयात्रियों की परेशानी का कारण बन गई न आखिर! मोबाइल आदि तो बाहर ही रखवा लिए गये थे। मैंने गुमे हुए बच्चे की तरह अगल-बगल ऊपर नीचे देखा किसी ने मेरी ओर ध्यान नहीं दिया। उतार वाली सीढ के पास से ही और ऊपर जाने के लिए सीढ़ियाँ नजर आईं, उस पर भीड़ के नाम पर तन्हा एक महिला पुलिस चढ़ी जा रही थी ’’ इस रास्ते से जाकर मैं अपने साथियों से आगे मंदिर तक पहुँच सकती हूँ’’ यह ख़्याल आते ही मैं कमर का दर्द भूल कर रेलिंग के सहारे तेजी से ऊपर चढ़ने लगी। उतार आने पर जहाँ उतरी वह मंदिर का प्रांगण था। विस्तृत और भव्य! एक बड़ा मंदिर मेरे समक्ष था,वह भी शंकर भगवान् का ही है। वहाँ ओंकारेश्वर महादेव हैं (बाद में पता चला। )भीड-भाड़ न देख कर मुझे लगा कि ये महाकालेश्वर महादेव नहीं हैं। उसकी बगल में ही एक छोटा सा कक्ष है जहाँ एक पुजारी जैसे दिखने वाले सज्जन हाथ में पीतल का लोटा लिए, धोती बनियान पहने, कंधे पर पीले रंग का गमछा रखे, अपने आप में व्यस्त नजर आये । मैंने उनसे पूछा ’’ मंदिर किधर से जाते हैं? ’’ बिना भूमिका के पूछे गये मेरे प्रश्न पर उन्होंने मेरी ओर देखे बिना अपने बाजू में संकेत कर दिया। मैंने देखा तो वहाँ नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ थीं। एक बार मैने सम्पूर्ण प्रांगण पर दृष्टि दौड़ाई साथियों में से कोई नजर नहीं आया। आगे भीड़ थी और पीछे होने के डर से मैं सीढ़ियाँ उतरने लगी। गर्भ गृह के प्रवेश द्वार पर बहुत भीड़ थी उस भीड़ से त्रिपाठी जी बड़ी मुश्किल से अपने को निकाल रहे थे ’’ भइया ! भइया!’’ मेरी आवाज सुन कर उन्होंने मुझे देखा, उनके चेहरे पर घबराहट फैली हुई थी । अपराध बोध से मेरी निगाहें झुक गईं। ’’ कहाँ रह जाती हैं भई ? उधर सब को छोड़ कर आपको ढ़ुढ़ने आ रहा हूँ ! चलिए आगे-आगे!’’ उनकी बनाई जगह में घुस कर पुरसुकून मैं आगे बढ़ी जैसे ही मुझे देखा प्रभा दीदी ने मेरा हाथ पकड़ लिया। ’’ तोर खातिर बड़का परेशान होवत हे, मोर हाथ ला छोड़े त बताहं!’’ देवकी दीदी आश्वस्ती की मुस्कान के साथ कुछ कहने वालीं थीं किन्तु चुप रह गईं।
आगे जैसे ही द्वार पर खड़े सुरक्षा कर्मी ने रोक हटाई लोगों का हुजूम एक रेले की शक्ल में गर्भ गृह के सभा मंडप में प्रविष्ठ हुआ। हम लोग भीड़ के धक्के से सीढ़ीदार बनी बैठक के अंत में जा पहुँचे। वहाँ उजाले का पूरा प्रबंध हैं छत खंभों के सहारे टीकी हुई है। दीवारों पर सुन्दर चित्रकारी घ्यान आकर्षित कर रही थी किन्तु भीड़ नजर ठहरने दे तब न !ऽ बस चलते जाना था निकास द्वार की तरफ । जैकारा लगाती भीड़ धीरे-धीर आगे बढ़ रही थी, चराचर के कृपालू पिता की आकृति स्पष्ट होती जा रही थी। उस समय उन्होंने रजत निर्मित दस फन वाले नाग का सुन्दर मुकुट धारण किया हुआ था। मुकुट की पट्टी में लाल माणिक जड़ा हुआ था। उसके ठीक नीचे चंदन की मोटी रेखाओ से अर्द्ध गोलाकर तीन पंक्तियाँ उकेरी गईं थीं, चंदन के मध्य में उनका ज्ञान रुपी तीसरा नेत्र शोभा पा रहा था। सुदीर्घ नेत्र, सुन्दर नासिका, गले में ताजे बेलपत्र की माला धारण किये, चाँदी की जलहरी में विभिन्न पत्र पुष्पों के मध्य विश्व पिता भक्तों के कल्याण हेतु दर्शन दे रहे थे। मैं जब उनके समीप से गुजरी और नजर भर कर उनके दर्श किये तब संसार के सारे संतापों से परे हो गई थी। मैंने अपने नेत्रों को बंद होने से बलात् रोका। धीरे-धीरे हम सभी सीढ़ियाँ चढ़ कर ऊपर पहुँच गये । हम लोग ओंकारेश्वर मंदिर के पास थे। मैंने प्रयास किया लेकिन ऊपर से मंदिर के दर्शन न कर सकी। मंदिर का क्षेत्रफल 10.7- गुणा 10.7 मीटर तथा ऊँचाई 28.71 मीटर है। बिड़ला उद्योग समूह द्वारा सन् उन्नीस सौ अस्सी में बनाये गये निकास द्वार से हम लोग बाहर निकले थें, कुछ पल पहले जीवन के सर्वोत्तम अनुभव से गुजर चुकने के बाद हम मंदिर परिसर की भव्यता निहार रहे थे। ओंकारेश्वर के साथ ही परिसर स्थित देवी माँ के भी दर्शन करते हम लोग पिछले द्वार से एक लंबी दूरी तय कर प्रमुख द्वार पर आये। वहाँ हमारे सभी साथी एकत्र हुए ।
लगभग पाँच बज रहे होंगे, धूप नरम होने लगी थी। साथियों में विचार विमर्श हुआ। हमने मंदिर के आस-पास के प्रमुख स्थानों को पैदल-पैदल घूम लेने का मन बनाया। जिस शार्टकट से हम लोग आये थे उसी से वापस लौटे।
सीढ़ियों से उतर कर बाईं ओर चल पड़े । जानकारी मिली कि यहाँ से कुछ ही दूरी पर परमपवित्र क्षिप्रा नदी का मनोरम घाट है। बस हम लोग उसी ओर चल पड़े। महानगर उज्जैन की चौड़ी सड़कें, भव्य भवन, विभिन्न जिन्सों की दुकाने, सुन्दर सरोवर देखते हमने सड़क पार किया, और रामघाट की चौड़ी पक्की साफ सुथरी सीढ़ियाँ उतरने लगे। सीढ़ियों के दोनो ओर बने प्रसाधन से बेतरह आती दुर्गंध को सहते हम लोग माँ क्षिप्रा के पावन तट पर पहुँचे जिसकी महिमा पुराणों में गाई गई है।( संभवतः मेला-ठेला न होने के कारण सफाई पर ध्यान नहीं दिया जा रहा हो।) कहते हैं कि एक समय शंकर भगवान् ब्रह्म कपाल लिए विष्णु लोक भिक्षाटन करते हुए पहुँच गये। उनके वेष को देख कर विष्णु भगवान् ने भिक्षा देते हुए उन्हें अंगुली दिखा दी इससे देवाधिदेव ने कुपित हो कर उनकी अंगुली पर प्रहार कर दिया जिससे बही रक्त धार स्वर्ग से पृथ्वी तक आकर जल में परिर्तित हो गई। (संसार के पालक का रक्त व्यर्थ कैसे जाता?) जिसके तट पर गुरू गोरखनाथ और भतृहरि ने तप किया, जिसने अपने निर्मल जल से अवन्ति को जीवन दिया। जो मध्यप्रदेश के महू छावनी से लगभग 17 किलो मी.दूर जाना पाव की पहाड़ियों से निकल कर अपने तट को अपने पावन नीर से सींचते हुए चम्बल नदी में मिल जाती है जिसके तट पर बसे जमदग्नि के आश्रम में भगवान् परशुराम ने जन्म लिया, हम उसी क्षिप्रा माता के तट पर खड़े हो कर वहाँ बने मंदिरों का अवलोकन कर रहे थे। नदी के किनारे बने चबुतरे पर बैठ कर मैंने नदी के पाट पर नजर डाली। हजारों पोलीथिन गुब्बारे जैसे नदी की सतह पर तैर रहे थे। और भी तरह-तरह का कूड़ा नदी को रुग्ण कर रहा था।
मन से आह निकली ’’ आह! हमने तुम्हें क्या से क्या कर डाला ! अपराध माफी योग्य कदापि नहीं है।’’ एक अपराधबोध ने मुझे अपनी गिरफ्त में ले लिया। जहाँ हम लोग बैठे थे उसके पास ही कई मंदिर हैं एक मंदिर यम देव का है कहते हैं इनकी पूजा से असमय यम का भय नहीं सताता। तट पर हमसे थोड़ा आगे एक पतली सी पक्की नाली दिखाई दे रही थी जहाँ से नाली बनी है वहाँ एक टंकी जैसा बना कर पत्थर से ढक दिया गया है। मैं सोच रही थी अवश्य यह प्रसाधन का गंदा पानी क्षिप्रा में मिलाने के लिए बनाई गई है परन्तु मेरी सोच एकदम गलत साबित हुइ,र् पंडा से पता चला कि यह एक गुप्त जल स्रोत है। एक पतली सी धारा निरंतर क्षिप्रा मइया में शुद्ध जल पहुँचाती रहती है। मैंने एक चुल्लू जल लेकर पान किया, एक दम मीठा और शीतल जल। देवकी दीदी के साथ मिल कर दल की सभी महिलाओं ने मंदिरों में पूजा अर्चना की। इसी बीच धोती कुर्ता पहने माथे पर पीले चंदन के बीच लाल चंदन का तिलक लगाये पंडा जी कहीं से हीरो होन्डा पर आये। वे मंदिर में बैठे लड़के से चढ़ावे के बारे में बातें करने लगे। इससे अंदाजा हुआ कि वे ही मंदिर में चढने वाले चढ़ावे के अधिकारी हैं। बातचीत के दौरान उनसे ज्ञात हुआ कि त्रेता युग में भगवान् श्री राम ने इसी घाट पर अपने पिता दशरथ जी का तर्पण किया था, तभी से इसका नाम रामघाट पड़ गया। घाट पर कुछ पेड़ भी लगे हैं किन्तु वे पर्याप्त नहीं हैं। हमने क्षिप्रा नदी का जल अपने ऊपर छिड़क कर सांकेतिक स्नान की प्रक्रिया पूर्ण की । मैं मन ही मन शासन की प्रशंसा किये बिना न रह सकी, जिसके भगीरथ प्रयास से मोटे- पाइपों के द्वारा नर्मदा का जल लाकर क्षिप्रा को जीवन दान मिला है। पिशाचेश्वर महादेव के दर्शन कर हम लोग पुजारी जी से कुछ जानकारियाँ प्राप्त करने लगे। इस समय तक भगवान् भुवन भास्कर अपनी किरणों का सोना नदी के वलयाकार जल पर छिड़कने लगे थे। हम लोग घीरे-धीरे सीढ़ियाँ चढ़ने लगे।
रामघाट से थोड़ी ही दूर पर रूद्रसागर के निकट हरसिद्धि देवी का मंदिर है। हम लोग पैदल-पैदल ही वहाँ पहुँच गये। इनके बारे में स्कंदपुराण में कथा मिलती है कि एक बार शिव जी के कहने पर माता पार्वती ने यहाँ दुष्ट दानवों का नाश किया था इसीलिए उनका नाम हरसिद्धि पड़ा। शिवानी सती के पिता प्रजापति दक्ष ने अपने यहाँ होने वाले यज्ञ में अपने जामाता शिव और पुत्री सती को अपमानित करने के उद्देश्य से आमंत्रित नहीं किया। पति के मना करने पर भी सती वहाँ गईं और वहाँ पति का अनादर देख कर अपने आप को योगाग्नि में भस्म कर लिया। सूचना पाकर शंकर भगवान् बड़े क्रोधित हुए, उनके गणों ने पुरा यज्ञ विध्वंस कर दिया। शिवजी पार्वती का मृत शरीर कंधे पर लेकर विक्षिप्त की भाँति सारे संसार में तूफान की तरह मंडराने लगे जिससे प्रकृति की सारी व्यवस्था के नष्ट होने का खतरा उत्पन्न हो गया। इस स्थिति से उबरने के लिए विष्णु भगवान् ने उनका मोह भंग करने के उद्ेश्य से अपने चक्र से सती के शरीर के बहुत सारे टुकड़े कर डाले। ये जहाँ जहाँ गिरे वे स्थान सिद्ध शक्ति पीठ के नाम से विख्यात हुए। देश में इनकी संख्या बावन है। हरसिद्धि शक्ति पीठ तेरहवें नंबर का है। यहाँ माता सती की कोहनी गिरी थी।
भारत के स्वनाम धन्य इतिहास प्रसिद्ध सम्राट विक्रमादित्य की ये परमाराध्या थीं, विक्रम ने ग्यारह बार अपना शीष काट कर माँ को अर्पित किया, हर बार माँ ने उन्हें न केवल जीवनदान दिया अपितु पहले से अधिक बलवान और पराक्रमी भी बनाया। अपनी न्यायप्रियता एवं बुद्धिमत्ता के लिए आज भी उनका उदाहरण दिया जाता है। विक्रमादित्य उज्जैन के सम्राट थे। यह मंदिर पूर्व में महाकाल और पश्चिम में रामघाट के बीच पड़ता है। इसी से यह तांत्रिक ऊर्जा का केन्द्र हैं । हम लोग जब मंदिर पहुँचे तब शाम का धुंधलका धरा पर स्याह आँचल डाल चुका था। आरती में सम्मिलित होने वाले भक्त जमा होते जा रहे थे। हमने अपने जूते चप्पल बाहर छोड़े और माँ के दर्शन की लालसा लिए मंदिर में प्रविष्ट हुए। मंदिर विद्युत प्रकाश से जगमगा रहा था। धंटा ध्वनि, अगरबत्ती की सुगंध, भक्तों का हुजूम, सब कुछ मिल कर वातावरण को पूजामय बना रहा था। माँ के गर्भगृह के सामने खड़े हम उनके तेज से स्वयं को तेजोमय अनुभव कर रहे थे। माँ की चुनरी की चकाचौंध, भाँति-भाँति के पुष्पों के हार, नाक में नथिया, कान में झुमका, माथे पर बिन्दी। तेज की वर्षा करता मुख मंडल अपने भक्तों को सुख देने वाला है। मैं हाथ जोड़े खड़ी थी और प्रभा दीदी मेरी ताक में। ’’ ये झकली कहूँ एति ओती झन हो जाय!’’ मेरे साथ देवकी दीदी और सावित्री दीदी थीं। बाकी साथी भी पास-पास ही थे, कोई लाइन में तो कोई किसी प्रतिमा के समक्ष हाथ जोड़े आँखे मूंदे कुछ प्रार्थना कर रहा था।
जब पीछे खड़े दशनार्थियों ने हमें आगे बढ़ाया तब हम गर्भ गृह के समक्ष स्थित सभा गृह में आकर एक किनारे खड़े हो कर मंदिर की शोभारुपी अमृत का पान अपनी आँखों से करने लगे। गर्भगृह में स्थित श्रीयंत्र को देख कर इसके तांत्रिक महत्त्व का अनुमान लगाना सहज था। गर्भ गृह के ऊपर श्री अन्नपूर्णा माता तथा आसन के नीचे कालिका,महालक्ष्मी तथा महासरस्वती आदि की प्रतिमायें हैं। हम दर्शन करते हुए आगे बढ़ रहे थे। प्रांगण में ही एक ओर कर्कोटेश्वर महादेव के दर्शन हुए, जिनकी गणना चौरासी महादेवों में होती हैं । यहाँकाल सर्प दोष वाले उसके निवारण हेतु पूजा अर्चना करते हैं।
यहाँ हल्दी सिंदूर पूता हुआ एक पत्थर दिखा, जिसे लोग हाथ जोड़कर प्रणाम कर रहे थे। हरसिद्धि माता का प्रचीन नाम मांगलचंडिका और भैरो का नाम कपिलाम्बर है। सभागृह के सामने ही मराठा कालीन दो दीप मालिकाएं ह,ैं मैं सोच रही थी कि न जाने इन्हें कैसे जलाते होंगे, कि इतने में ही एक व्यक्ति आया, उसने बंदर की सी त्वरा से एक खास स्थान से ऊपर चढ़ते हुए सभी दीपों में तेल बत्ती डाल दी, उसके पीछे-पीछे ही दूसरा व्यक्ति आया, उसके हाथ में जलती हुई मसाल थी, वह भी उसी प्रकार दीपों को बारता हुआ ऊपर से नीचे आ गया। इसी प्रकार दूसरी दीप मालिका भी प्रज्जलित हो गई । इस पूरे कार्य कलाप में दस मिनट से अधिक का समय नहीं लगा होगा । पूरा परिसर अद्भुत् प्रकाश से प्रकाशित हो उठा। आरती में शामिल होने का लोभ हमें त्यागना पड़ा क्योकि पास में ही स्थित पाटीदारों के श्री राममंदिर के दर्शन करना चाहते थे। अपने भग्य पर इतराते, माँ का दुलार प्राप्त करते हम सभी बाहर आ गये । मंदिर में तो चारो दिशाओं में दरवाजा है, सुविधा की दृष्टि से हम लोग पूर्व वाले दरवाजे से बाहर निकले।
थोड़ी ही दूरी पर सन्1702 में मराठों द्वारा निर्मित श्रीराम मंदिर है। मन को निर्वेद से परिपूरित करता श्रीराम लक्ष्मण और जानकी जी का श्री विग्रह जैसे हृदय में अनूठा भाव भरता गया। ’’ कौसल्या के प्यारे राम , दशरथ राज दुलारे राम , दीन दुःखी के सहारे राम ,दानवदल को मारे राम ,शंकरजी के स्वामी राम ! राम!राम! श्री राम लगता था आँखें श्री विग्रह से हटें ही नहीं । देवकी दीदी ने मेरी स्थिति देख कर जरा सा मेरा हाथ दबाया। मंदिर में विराजे अन्य देवी देवताओं के दर्शन करके हम लोग मंदिर से बाहर आ गये। हमने लंबी यात्रा के बाद जरा भी अराम नहीं किया था, अतः सभी थकावट का अनुभव कर रहे थे। हम लोग कृष्णा यात्री निवास लौट आये। रात्रि के आठ बज रहे थे। सब आराम करने लगे। मैं अपने कमरे से बाहर निकली तो देखा कि वैष्णव जी कहीं जाने की तैयारी में हैं, पूछने पर पता चला कि उनका उपवास है इसलिए दूध पीने जा रहे हैं । शहर देखने के लालच से मैं भी उनके साथ हो ली। सावित्री दीदी ने मुझे देखा तो वह भी चल पड़ीं। लिफ्ट से नीचे आये और पैदल ही बाईं ओर चल पड़े । दशहरे का दिन था लेकिन अपने यहाँ जैसी गहमागहमी कहीं दिखाई नहीं दी। दुर्गा विसर्जन के लिए जाती दो तीन सामान्य सी भीड़ अवश्य नजर आई। कृष्णा यात्री गृह के बाईं ओर बढ़ते हुए हम लोग बाजार में आ गये। पूरा बाजार बिजली की रोशनी से नहाया हुआ सा लग रहा था। सड़क के दोनो ओर बहुमंजिली दुकाने अपनी चमक-दमक से ग्राहकों को आकर्षित कर रही थीं। हम लोग एक चौराहा पार कर के दूध दही की दूकान पहुँचे । पाँच-छः सीढ़ियाँ चढ़ कर हम ऊपर आ गये। बरामदे में लगी बेंच पर बैठ गये। कुछ देर बाद मलाईदार दूध पीने को मिला। हम लोग वाहनों से बचते-बचाते अपने आवास पर आ गये। सब लोग अराम करने लगे थे। भोजन पर जाने का कोई कार्यक्रम नहीं था, अतः घर के नाश्ते का प्रयोग किया गया । भाई लोग भी आ गये । नाश्ते के साथ- साथ कल के कार्यक्रम की रूपरेखा भी बनती रही।
’’बिहनिया छः बजे इहाँ ले निकलना हे नहींं तो बहुत लंबा लाइन हो जाही।’’ त्रिपाठी जी ने हम सभी को सचेत किया। मैं माया की ओर देख कर अर्थपूर्ण ढंग से मुस्करा उठी । (दक्षिण भारत की यात्रा के दौरान प्रसाधन कक्ष में अधिक समय लगाने के कारण वह हमारी कोप भाजन बनती रही थी। )मुझे देख कर वह झेंप गई । हम सभी ने एक दूसरे से जरा सी दूरी रख कर शयन किया।
-तुलसी देवी तिवारी