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यायावर मन अकुलाया-20 (यात्रा संस्‍मरण)-तुलसी देवी तिवारी

यायावर मन अकुलाया-20 (यात्रा संस्‍मरण)-तुलसी देवी तिवारी

यायावर मन अकुलाया (द्वारिकाधीश की यात्रा)

भाग-20 रूखमणी मंदिर एवं नागेश्‍वर ज्‍योर्तिलिंग दर्शन

-तुलसी देवी तिवारी

यायावर मन अकुलाया एक वृहद यात्रा संस्‍मरण है । यह यात्रा बिलासपुर छत्‍तीसगढ़ से प्रारंभ होकर । विभिन्‍न तीर्थ स्‍थलों से होते हुए द्वारिका पुरी में संपन्‍न होता है । आज के इस कड़ी में द्वारिका के रूखमणी मंदिर और नागेश्‍वर ज्‍योर्तिलिंग का चित्रण किया गया है ।

rukhamani mata mandir
रूखमणी मंदिर एवं नागेश्‍वर ज्‍योर्तिलिंग दर्शन

रूखमणी मंदिर का दर्शन

अगले दिन (23.10. 2016) को प्रातः क्रम से स्नान ध्यान करके सभी साथी सात बजे तक नीचे होटल में एकत्र हुए। कॉफी के साथ हल्का-फुल्का जलपान करके दो ऑटो में सवार हुए। शहर की चिकनी सड़के पार करते यामाहा वाले वाहनों को देखना, काम पर जाते तरोताजा लोंगों के तेजी से बढ़़ते कदमों को देख कर अच्छा लग रहा था। अभी धूप डरी हुई लड़की की तरह मंदिरों, घरों की दीवारों और पेड़ों के तनों से लिपटी लग रही थी। ऊँचे-ऊँचे भवनों के सामने चाय की छोटी-छोटी दुकाने, भाप उड़ाती चाय की केतलियाँ लिए गा्रहकों तक चाय पहुँचाते मैले-कुचैले लड़के तो कहीं मंदिर से निकलते शंख घड़ियाल के स्वर । शहर से लगभग दो किलो मीटर दूर है माता रुक्मणि जी का मंदिर। यह शहर से बाहर का स्थान है। एक तरफ एक तालाब है उस ओर बहुत सारे पुष्ट गाय बैल आदि जानवर चर रहे थे। ,दूसरी ओर एक विशाल चहार दीवारी से घिरा श्री कृष्णभगवान् की सबसे बड़ी पटरानी रुक्मणि जी का सुंदर सा प्राचीन मंदिर है , इसके बाजू में खाली स्थान में बहुत सारी बसें ऑटो कार मोटर साइकिल आदि वाहन खड़े थे। हमाराऑटो भी वहीं रुका और हम सब उतर पड़े।

जूते चप्पल मोबाइल केमरा नियत स्थान पर जमाकर दिया गया यहाँ लाइन में हमसे आगे बहुत लोग खड़े थे। हम लोग भी खड़े हो गये। यह मंदिर भी गोमती तट पर बसे द्वारिकाधीश मंदिर का समकालीन ही है, अर्थात 1200 वर्ष पुराना इसके विशाल दरवाजे से प्रविष्ट होते ही हम छाया में आ गयें यात्रियों की सुविधा के लिए प्रवेशद्वार से मंदिर के गर्भ गृह तक हरे रंग वाला शेड लगाया गया है। मंदिर सुंदर वास्तुकला कला उदाहरण है। इसके पीछे का भाग उल्टे कमल पुष्प जैसा हैं । सामने ही सर्व आभरण से सुसज्जित रुक्मिणी माता की मूर्ति के दर्शन हुए । मैंने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया उनकी पति भक्ति, ब्रह्मण भक्ति, की याद कर मन उनके चरित्र की ऊँचाई में खो गया।

पौराणिक कथा के अनुसार एक बार द्वारिकाधीश के मन में अपने कुलगुरू दुर्वासा के आतिथ्य का विचार आया। अपनी पटरानी रुक्मिणी जी के साथ रथ पर बैठ कर गुरूजी के आश्रम पिंडारी पहुँचे ओर अपनी इच्छा प्रगट की दुर्वासा ऋषि क्रोधी और चिड़चिड़े स्वभाव के ऋषि थे। उन्होंने एक शर्त रख दी कि यदि घोड़ों की जगह आप दोनों जुत कर मुझे ले जा सकें तो मैं चल सकता हूँ। भगवान तैयार हो गये। कुछ दूर चलने के बाद ही पटरानी थक गई प्यास से उनका गला सूखने लगा, उन्होंने स्वामी से पानी मांगा, श्री कृष्ण ने पैर के अंगूठे भूमि पर दबाव डाला वहाँ गंगा जल निकल आया प्यासी महारानी ने अपने परम आदरणीय अतिथि को दिये बिना ही जल पी लिया, इस पर दुर्वासा अत्यंत क्रुद्ध हुए और शाप दे दिया कि अब तुम यहीं रहोगी। उनके शाप को स्वीकार कर वे यहीं रहने लगीं। द्वारिकाधीश मंदिर में हम इसीलिए रुक्मिणी माता की मूर्ति नहीं देख पाये थे।

मंदिर बहुत ही सुंदर है इसकी दीवारों पर विभिन्न मुद्राओं में सुंंदर स्त्रियों की नृत्यरत मूतिर्याँ गढ़ी गई हैं बीच में द्वारिकाधीश की मूर्ति बनी हुई है। कहते हैं यहाँ रहते हुए महारानी ने अपने हाथों से अपने पति की मूर्ति बनाई थी जिसकी रोज पूजा करतीं थीं वही मूर्ति श्री वल्लभाचार्य जी ने खाली पड़े गोमती द्वारिका के मंदिर में स्थापित की थी। आज-कल वह मूर्ति बेट द्वारिका में विराज रही है। मंदिर की परिक्रमा करके बाहर निकले तो अपेक्षाकृत एक छोटे से मंदिर के सामने रुक गये जिसकी सजावट माता रुक्मिणी जी के मंदिर क ही समान , यह यदुवंशियों की कुलदेवी अंबा माता का मंदिर है। मैंने माँ को अपनी भावान्जलि अिर्र्पत की। मंदिर की साज – सज्जा रखरखाव देख कर बहुत ही अच्छा लगा। मंदिर में दर्शन करके हम लोग अपनी गाड़ियों में आ गये।एक नजर मंदिर पर डाली उसके ऊँचे शिखर पर केसरिया ध्वज फहरा रहा था जो भारतीय मूल्यों के संरक्षण केलिए अपना सब कुछ बलिदान कर देने वाली पटरानी वह भी स्वयं लक्ष्मी का अवतार विश्व के महान् शक्तिशाली पुरूष श्री कृष्ण की पटरानी और विदर्भ की राजकुमारी रुक्मिणी की यशोगाथा गा रहा है मुझे ऐसा लग रहा था।

नागेश्‍वर ज्‍योर्तिलिंग का दर्शन

अब हमारे ऑटो जिस रास्ते से गुजर रहे थे, उसके दोनो ओर बंजर भूमि थी जिसमें छोटे-छोटे पेड़ पौधे उगे हुए थे। कुछ मध्यम ऊँचाई के पेड़ भी नजर आ रहे थे कुछ शमी के वृक्ष भी दिखाई दे रहे थे,बबूल के पेड़ों पर लटके बया के घोसले हवा के साथ झूल रहे थे। सड़क के किनारे- किनारे सामानान्तर दूरी रखते हुए लोहे की मोटी वाली पाइप लाइन बिछी हुई दिखाई दी , मुझे समझते देर न लगी कि द्वारिका सरकार ने पेयजल की कमी वाले स्थानों पर पेय जल पहुँचाने का लाघव प्रयास किया है। जहाँ गाँव के चिन्ह दिखाई दे रहे थे वहाँ किसी खास सुविधा की जगह पर पाइप में वाल्ब लगा दिया गया था ताकि जरुरत मंद जल ले सकें। मैने अपने शहर में सुना था कि श्री नरेन्द्र मोदी की सरकार ने बहुत अच्छा काम किया है यहाँ आकर विश्वास भी हो गया। मैंने ऑटो वाले से कुछ बातें करने की नियत से उसका नाम पूछा उसने अपना नाम मुनिर खाँ बताया ।
’’ आप के यहाँ से कौन चुनाव जीता है बेटा?-’’मैने बात प्रारंभ की।
’’ मोदी जीता है अम्मा।’’
’’ ये आप लोगों केलिए कैसे हैं बेटा?’’
’’ अच्छा है मोदी को जीतना चाहिए , मादी आछा काम करता है।’’ उसने सूत्रवाक्य में मेरे प्रश्न का उत्तर दे दिया।
’’ आप लोगों केलिए क्या स्पेशलकिया मोदी ने?’’ मै उसके दिल की थाह लेना चाहती थी।
’’ स्पेशल कुछ नहीं करता किसी के लिए, जो करेगा सब के लिए करेगा।’’ उसने मौज में आकर उत्तर दिया।
’’गोधरा कांड से आप लोग बहुत गुस्से में था हमने सुना था!’’
’’ ओ सब हम कुछ नही जानता बस मोदी ठीक है बोलता हूँ।’’
’’आपके यहाँ आये तो होंगे चुनाव के टाइम?’’
’’ बिल्कुल आया था!’’
’’ कुछ फायदा हुआ क्या?’’
’’ हमारी बस्ती उजाड़कर हेलीकाप्टर उतारने के लिए मैदान बना लिया? हमारे मोहल्ले में आया था। वोट मांगने के लिए। ’’ उसका पूरा ध्यान अपने काम पर था।
’’ दूसरा घर बनाकर नहीं दिया क्या?’’
’’ कुछ नहीं – कुछ नहीं फिर भी दूसरा लोग से आछा है अभी। ’’
’’ आपके लोगों की हालत कैसी है? ’’
’’ मुसलमानों में गरीबी और शिक्षा की कमी है दो को जो ठीक कर दे वही सबसे आछा होगा ।’’

’’ हम लोग द्वारिका से 17 किलो मीटर दूर नागेश्वर जयोर्तिलिंग के दर्शन करने के लिये रुक गये। दूर से ही मंदिर के सामने स्थित शंकर भगवान् की मूर्ति जो 125 फुट ऊँची और 25 फुट चौड़ी है, दृष्टिगोचर होने लगी थी। सफेद संगमरमर की बनी मूर्ति अपने सम्पूर्ण वैभव के साथ विराज रही है। उनके सिर पर एक ओर चन्द्रमा और और एक ओर गंगा की धारा सुशोभित हो रही है। गर्दन में कालानाग लिपटा हुआ है, पीछे की दाहिनी भुजा में ि़त्रशुल थाम रखा है, जो भक्तों की रक्षा में सदा तत्पर रहता है, पीछे की बाईं भुजा में डमरू है जो संसार के सभी प्रकार के वाद्य नृत्य , संगीत का प्रतीक है , आगे की दहिनी भुजा वरद् मृद्रा में अपने भक्तों को अभय दान दे रही है और आगे की बाई भुजा में जप मालिका शोभा पा रही है जो आध्यात्मिकता की प्रतीक है । बाबा मृग छाला पर पालथी मारे विराज रहे हैं, उन तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। बाबा पशुपतिनाथ हैं, इसीलिए उनके सामने के विस्तृत मैदान में बहुत सारे गाय, बैल, इकट्ठे दिखाई दिये, बहुत सारे कबूतर जो शायद मंदिर के पालित हो बार-बार उड़ जाते और फिर आकर दाना चुग रहे थे, शिव भक्त उनके लिए दाना डाल कर उन्हे दाना चुगते देख प्रसन्न हो रहे थे ।पशु इस दाने को जल्दी से जल्दी खा लेने की स्पर्धा कर रहे थे। हम लोगों ने भी वहीं से खरीद कर दाना डाल दिया।

देवाधिदेव को प्रणाम करके मंदिर के प्रवेश द्वार पर पहुँच,े भव्य द्वार के शीर्ष पर लिखा था ’ नागेशम् दारुका वने’, ये बारह जयोर्तिलिंगों में एक हैं ,इनका दर्शन ,पूजन करने से विष बाधा कट जाती है। सुना है कि पहले यह मंदिर बहुत छोटा सा था, अभी हाल ही में इसका पुर्ननिर्माण करके इसे विश्व स्तरीय पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया गया है। अंदर में बाई ओर एक बहुत बड़ा हॉल है जिसमें पूजन सामग्री, गंगा जल, धार्मिक पुस्तके आदि बिक रहीं थी,ं हमारे सामने जगमोहन था जिसके दाहिनी ओर गर्भ गृह में जगत् पिता, माता के साथ प्रतिकात्मक रूप में विराजमान हैं। समय देखकर लिंग योनी की पूजा की पौराणिक कथा स्मृति पटल पर उभर आई , रुद्र संहिता के अनुसार एक समय बहुत सारे ऋषि दारुक वन में तपस्या कर रहे थे( उस समय यहाँ दारुक नाम का राक्षस राज्य करता था इसलिए इसे दारुकावन कहा जाता था।)

बहुत समय बीत गया तप करते हुए, तब शिवजी ने सोचा- जाकर देख लें इनके मन से काम, क्रोध, लोभ , मोह दूर हुआ या नहीं। महादेव सर्पों की माला पहने दिगम्बर ही भिक्षाटन के बहाने ऋषियों के आश्रम में आ पहुँचे , उस समय आश्रम में केवल स्त्रियाँ थी, वे उनके बीच आकर कामुक व्यवहार करने लगे। जिसके प्रभाव से ऋषि पत्नियाँ काम वासना के वशीभूत हो उनसे समागम की याचना करने लगीं । इसी समय ऋषि लोग आ गये और महादेव को कटु वचन कहते हुए अपने क्रियाकलाप से बाज आने को कहा, जब वे मौन रह गये तब ऋषियों ने उन्हें शाप दे दिया ’’ वैदिक धर्म पर कुठाराधात करने वाले तुम्हारा लिंग तुम्हारे शरीर से अलग हो जाय!’’ उनके ऐसा कहते ही शिवलिंग उनके शरीर से अलग होकर एक विशाल तेज के रूप में उनके सामने आ गया। धीरे-धीरे तीनों लोकों में लिंग का तेज व्याप्त हो गया जिससे सब ओर हा-हाकार मच गया। संसार के सारे प्राणी लिंग की ज्वाला में झुलसने लगे। ऋषि बड़े दुःखी हुए । वे इस विपदा से मुक्ति के लिए ब्रह्मा जी के पास गये, उन्होंने कहा-
’’आप लोगों ने धैर्य खोकर अच्छा नहीं किया। शिवद्रोही को उनके सिवा कोई नहीं बचा सकता आप लोग तो उनके भक्त है उन्हीं की शरण में जाइये।’’
.ऋषियें ने देवाधिदेव से प्रार्थना की- हमारे अपराध क्षमा कर प्रभु संसार को विनाश से बचायें !’’ तब शंकर भगवान् ने कहा -’’मेरी शक्ति को धारण करने की क्षमता केवल पार्वती में ही है आप लोग उन्हीं की शरण में जाओ!’

जब माता ने सारी दुनिया को जलते देखा तो अपनी योनी में शिवलिंग को धारण कर लिया, आधार मिलते ही लिंग उसमे स्थापित हो गया और सारे उत्पात शांत हो गये । तब ऋषियों ने आशीर्वाद दिया कि- ’’अब से आप दोनों के लिंग और योनी की ही पूजा होगी।’’

सुनने में तो यह कथा थोड़ी अटपटी लगती है, देवाधिदेव का इस प्रकार का अशिष्ट व्यवहार जल्दी समझ में नहीं आता लेकिन विचार करने पर गृहस्थ धर्म का मर्म खुल कर सामने आ जाता है। कामुक हरकत करके स्त्रियों को छेड़ने वाला चाहे भगवान् ही क्यों न हो उसे वही सजा मिलनी चाहिए जो ऋषियों ने महादेव को दी । इतना भी क्रोध का त्याग नहीं करना चाहिए कि महिलाओं की आबरू से खेल होते देखकर भी क्रोध न आये । वितरागी ऋषियों ने महादेव के अनुचित व्यवहार पर क्रोध करके उन्हे सजा दी, इससे वे परीक्षा में पास हुए, भगवान् ने उन्हें शरण में आते ही क्षमा कर दिया और त्रास शमन का उपाय बता दिया ।

दूसरा तथ्य यह है कि गृहस्थ पुरूष को बड़े -बड़े संकट से पत्नी ही उबारती है अतः उसे चाहिए कि सदा अपनी पत्नी के प्रति इमानदार रहे। चारों ओर अनियंत्रित भटकता मन विवाह के बाद अपनी विवाहिता में ही लगा दे उसी के साथ रमण करे ।

एक दूसरी कथा भी आती है शिवपुराण में, दारुका वन में एक महान् शिव भक्त सुप्रिय रहते थे, वे हमेशा शिव जी के ध्यान में लीन रहते थे। उस समय दारुक वन का राजा दारुक नामक राक्षस था, वह शिवद्रोही था। एक समय सुप्रिय समुद्र में नौका पर सवार होकर व्यापार के लिए निकला, उसके साथ कई सेवक और साथी थे। सुप्रिय तो शिवाराधन में लीन था, उसी समय दारुक राक्षस अपने सैनिकों के साथ आया और सुप्रिय को ध्यान मग्न देख कर बहुत क्रोधित हुआ। सुप्रिय को मारा -पीटा लेकिन वह शांत भाव से शिवाराधन में मस्त रहा। इस पर दारुक ने उसकी सारी सम्पत्ति लूट ली और सुप्रिय को लाकर जेल में डाल दिया। जेल में अनेक यातनाएं सहते हुए भी उसकी साधना में कोई चूक न हुई।

एक दिन दारुक ने सुप्रिय को मारने के लिए अपने अनुचरों को आज्ञा दे दी क्योंकि जेल में और लोग भी सुप्रिय से प्रभावित होकर शिवभक्त होते जा रहे थे। अनुचरों ने तलवार उठाया उसी समय जेल में एक सिंहासन जैसे प्रकाशित स्थान पर शिव जी प्रकट हुए और सुप्रिय को अपना अस्त्र पाशुपतास्त्र दिया, जिससे सुप्रिय ने दारुक को उसके साथियों सहित मार डाला। इस प्रकार अपने भक्त की रक्षा की । सुप्रिय की प्रार्थना पर सदा के लिए दारुक वन में रह गये। भगवान् शिव की आज्ञा से ही यहाँ उनका नाम नागेश्वर विख्यात हुआ।

मंदिर में अधिक भीड़ नहीं थी। स्टील पाइप के चमचमाते बेरिगेट के अंदर धोती धारी पुजारी जी विराजमान् थे,उनके सामने बड़ी सी दानपेटी रखी है। गर्भ गृह मे श्री नागेश्वर ज्योर्तिलिंग विराजमान् हैं, चौड़े फन वाला चाँदी का नागछत्र लिंग के ऊपर शोभा पा रहा है। शिवलिंग जो भूमि से लगभग एक फुट तक ऊपर है उस पर तीन धारी वाला चंदन शोभा पा रहा है। सर्पछत्र से लगा हुआ गर्भ गृह की दीवार पर माता पार्वती का सर्वाभरण अलंकृत चित्र है । मैं मंत्रमुग्ध सी परम पिता के दर्शन करती रही । कुछ लोग गर्भ गृह के अंदर आराम से बैठ कर रुद्राभिषेकर रहे थे, परम पिता को स्पर्श करने की लालसा हृदय में जाग उठी , अभी कुछ पूछने के बारे में सोच ही रही थी कि पुजारी जी ने त्रिपाठी जी से कहा — ’’ यदि आप लोग चाहें तो अंदर बैठ कर अपने हाथ से रुद्राभिषेक कर सकते हैं , दक्षिणा 101 से प्रारंभ होती है और ग्यारह हजार तक जाती है। सामग्री सारी यहीं से मिलेगी, आप लोग चालीस रूपये वाला गंगा जल खरीद कर ले आइये!’’

सबका मत एक हुआ और हम लोग अपने-अपनें लिए गंगा जल खरीदने उस बड़े से हॉल की ओर गये जिधर मंदिर की दुकाने हैं। सबके साथ मैंने गंगोत्री का जल जो प्लास्टिक की बोतल में था खरीद लिया , त्रिपाठी जी ने अपने साथ मेरे चालीस रूपये भी दे दिये। सिमेंट के बने प्लेट फार्म पर सामान सजा कर रखा गया है , यहाँ वेद-पुराण, रामायण , महाभारत, गीता उपनिषद आदि विक्रय हेतु रखा गया है। मैंने नागेश्वर ज्योर्तिलिंग से सम्बंधित पुस्तक खोजा लेकिन वह हिन्दी में न होकर गुजराती में मिली चूंकि मुझे गुजराती नहीं आती इसलिए खरीदने का विचार त्याग दिया। गर्भगृह के सामने हमें अभिषेक में लगने वाली सामग्री से सजी हुई थाली मिल गई । हमने प्रत्येक के लिए 101 – 101 की रसीद कटवाया। सभी ने एक साथ अंदर बैठ कर परम पिता के स्पर्श कर-कर के उनका श्रद्धा पूर्वक अभिषेक किया। हमारे साथ एक पुजारी जी बैठे थे, हम उनके निर्देशन में भगवान् शिव का पहले दूध, दही घी, शक्का, गंगाजल आदि से अभिषेक करते रहे बाद में गंगाजल मिश्रित दूध की धार मंत्र के साथ शिव लिंग पर गिराते रहे ं अभिषेक पूर्ण कर हम लोग गर्भ गृह से बाहर आये। गर्भ गृह के सामने से लेकर एक चौड़ा सा गलियारा सामान की दुकानों के किनारे-किनारे गोल घूम कर प्रवेश द्वार, तक आया है । इसमे गर्भगृह के पास ही दीवार पर एक जगह शिव परिवार का चित्र लगा हुआ है, शिव पार्वती प्रसन्न बदन बैठे हैं, पार्वती जी की गोद में गणेश जी बैठे हैं। यहाँ भी दान पेटी रखी हुई है। और भी कई प्रकार से दीवारों पर धार्मिक चित्रकारी की गई है।

यह मंदिर अब तक विकसित हुए स्थापत्य की विशेषताओं को अपने आप में समेटे हुए है । यह आधुनिक काल की निर्मिती है । खुले हुए बरामदे गोल खंभों पर टिके हुए हैं । मंदिर के ऊपर केसरिया ध्वज फहरा रहा है। मुख्य मंदिर के पास ही एक पीपल का पुराना वृक्ष हैं, जिस पर हजारों पक्षी निवास करते हैं, मंदिर के पुजारियों सेवको, अभ्यागतों आदि के लिए अलग से भवन बने हुए है। सब कुछ देखते हुए हम लोग बाहर निकल आये ।

क्रमश:

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